कन्या ही दहेज है / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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एक मामूली विभाग के मामूली क्लर्क की बेटी अंजलि। पिता ने उसके लिये सुयोग्य अधिकारी वर ढूंढा। उस पर सोने में सुहागा ये कि लड़की के रूप सौंदर्य‚ चंचलता और गृहकार्य में निपुणता देख वर और उसकी आदर्शवादी विधवा माँ ने दहेज के लिये यह कह कर मना कर दिया कि "आपकी सर्वगुण सम्पन्न कन्या ही हमारा दहेज है। आप चाहें तो‚ फेरों के बाद दो जोड़ी कपड़ों में विदा करदें।"

किन्तु पिता के अरमान थे‚ सामर्थ भर तैयारियां कीं‚ कुछ कर्ज भी लिया। पापा की सामथ्र्यहीनता के बावज़ूद नाज़ों में पली और कान्वेन्ट स्कूल में पढ़ी इकलौती बेटी अंजलि को यह सब नागवार था।

“पापा ये क्या‚ ड्रेसिंग टेबल कहाँ है? वहाँ क्या मैं‚ यहाँ की तरह हाथ के शीशे में मुंह देखूंगी?"

“पापा आई ए एस अधिकारी से शादी कर रहे हो‚ कम अज़ कम कार तो देनी थी। पता है मेरी सहेली मीना का पति बैंक क्लर्क है और उसके पापा ने उसे मारुति ज़ेन दी है।"

“ये क्या पापा‚ धर्मशाला में शादी? नहीं‚ मैं शादी ही नहीं करुंगी… मेरे एक दोस्त का थ्री स्टार होटल है‚ उसका बैंक्वेट हॉल मैं ने सगाई के बाद ही बुक कर लिया था‚ उसने मुझे बीस परसेन्ट डिसकाऊंट भी दिया है। बस पचास हज़ार की तो बात है।"

“मम्मी‚ आजकल लकदक गोल्ड कौन पहनता है? ये पुराने तुम्हारे इकट्ठे किये गोल्ड सेट बेच कर चाहे एक सेट दो पर डायमण्ड… दो।

“रिसेप्शन पर मैं यह बनारसी वनारसी नहीं पहनने वाली मम्मी … मुझे डिज़ायनर वेडिंग कलेक्शन लेना ही है। सारे हाईक्लास ऑफिसर्स आयेंगे मुझे नहीं लगना वही मिडल क्लास दुल्हन। पापा को कहकर ब्यूटीशियन बुक कराई कि नहीं?"

ज़िंदगी भर का जमा किया पैसा‚ ग्रेच्युटी फंड से एडवांस निकाला पैसा‚ कर्ज सब तो चुक गया अब भी बेटी का मन नहीं भर रहा था। माता पिता हतप्रभॐ क्या दहेज की समस्या केवल लड़के वाले खड़ी करते हैं?