कन्हई लाल / दयानंद पाण्डेय
‘मैं हत्यारा हूं!’
‘क्या बक रहे हो कन्हई लाल!’
‘हां साहब, हमने अपनी मेहरिया को मार डाला।’
‘क्या कह रहे तुम!’
‘सही कह रहा हूं साहब।’
‘कैसे?’ कहते हुए मैं ने चश्मा उतारा और पूछा, ‘तुम सच कह रहे हो?’
‘हां साहब, बिलकुल सच कह रहा हूं।’
‘तो मेरे पास क्यों आए हो? पुलिस में जाओ और सरेंडर कर दो।’ मैं जरा रुका और चश्मा लगा कर उसे देखते हुए बोला, ‘इसमें मैं क्या तुम्हें कोई भी नहीं बचा पाएगा।’
‘मैं आप से बचाने के लिए नहीं कह रहा हूं साहब।’
‘तो फिर?’
‘कुछ नहीं बस वैसे ही।’ कह कर वह रोने लगा।
‘आखि़र बात क्या हुई थी?’
‘कुछ नहीं साहब, थोड़ी हुसियारी हो गई, थोड़ी ग़लती हो गई। बस सब कुछ लुट गया।’ कह कर वह तेज-तेज सुबकने लगा। सुबकते-सुबकते रोने लगा।
कन्हई लाल का इस तरह रोना और सुबकना देख कर मैं समझ गया कि कन्हई लाल ने फिर कुछ गड़बड़ कर दिया है। और कम से कम अपनी पत्नी की हत्या तो उस ने नहीं की है। दरअसल कन्हई लाल की सूरत और सीरत दोनों ही इस कदर कंफ़्यूजिंग थी कि उस की कही किसी भी बात पर जस का तस और तुरत-फुरत कोई, फैसला लेना किसी भूचाल से कम नहीं होता। दफ़्तर के गलियारों में कन्हई लाल से कोई काम लेना तो आसान होता पर कोई सूचना पाना ओखली में सिर डालना होता था।
आज भी यही हो रहा था।
सिर पर खिचड़ी बाल लिए, सिर एक तरफ झुकाए बेहिसाब बेफ्रिकी चाल, बिलकुल किसी मस्त हाथी की तरह झूमते हुए चलते कन्हई लाल की ढेर सारी दंत कथाएं बन चुकी थीं लेकिन कन्हई लाल इन सब से बेफिक्र अपनी धुन में मगन रहता।
लोग बताते हैं कि कन्हई लाल शुरू में ऐसा नहीं था। ‘हुसियार’ वह जरूर था पर इस कदर कंफ़्यूज नहीं और न ही कोई सूचना देने में भूचाल लाता। पर हुआ यह कि कुछ बरस पहले एक हत्या में वह चश्मदीद गवाह बन गया। पुलिस के रिकार्ड में। उस ने अपनी आंखों से हत्या होते देखा था और ‘हुसियारी’ में ही वह चश्मदीद गवाह बना। न सिर्फ़ चश्मदीद गवाह बना बल्कि अख़बारों की सुर्खियां भी। सिद्दीकी हत्याकांड चूंकि एक लड़की के चक्कर से बावस्ता था तो सुर्खियां बटोर रहा था सो कन्हई लाल भी एकमात्र चश्मदीद गवाह के रूप में ख़बरों की सुर्खियों पर चढ़ा रहता था। न सिर्फ़ अख़बारों में बल्कि ख़बरिया चैनलों पर भी जब तब उन दिनों चढ़ा रहता था। टीवी में अपना चेहरा देख कर उसे अच्छा भी लगता। लेकिन यह चार दिन की चांदनी थी। जल्दी ही उसे धमकियां मिलने लगीं। एक बार रास्ते में वह पिट भी गया। धीरे-धीरे उस का होश ठिकाने लगने लगा, और जोश किनारे होने लगा। नतीजा यह निकला कि सिद्दीकी हत्याकांड कोर्ट में आते-आते कन्हई लाल गवाही से पलटा खा गया। वकील ने उस को समझा दिया, समझा क्या रटा दिया कि जज के हर सवाल का जवाब वह ‘नहीं साहब हमने नहीं देखा’ और ‘नहीं साहब हमें कुछ नहीं मालूम।’ और कन्हई लाल ने भी इन दोनों संवादों को इस तरह कंठस्थ कर लिया कि आज भी अगर मिस्टर ए भले उस के ठीक सामने खड़े हों या बैठे हों और आप कन्हई लाल से पूछ लें कि, ‘मिस्टर ए कहां हैं?’ तो कन्हई लाल छूटते ही कहेगा कि, ‘नहीं साहब हमें कुछ नहीं मालूम।’ या फिर, ‘नहीं साहब हमने नहीं देखा।’ और जो आप टोकते हुए डपट दें कि, ‘मिस्टर ए तो सामने खड़े हैं और तुम कह रहे हो कि हमने नहीं देखा!’ तो भी वह फिस्स से हंसते हुए हाथ जोड़ते हुए मस्त हाथी की तरह आगे बढ़ जाएगा और आप अपने सवाल में ही उलझ कर रह जाएंगे।
ऐसी अनेक कथाएं कन्हई लाल की जिंदगी से जुड़ी दफ़्तर के गलियारों में तैरती मिल जाती हैं। कन्हई लाल अपने काम की वजह से कम अपनी ऐसी कथाओं की वजह से दफ़्तर के तमाम चपरासियों से ज्यादा मशहूर हैं।
अभी कुछ ही दिनों की बात है। एक दिन वह मेरे पास आया और हाथ जोड़ते हुए कहने लगा, ‘हुजूर हमार एक काम करवाय दीजिए!’
‘काम बताओ!’
‘हुजूर हमारे बच्चों को आरक्षणनहीं मिल रहा है नौकरी में, आरक्षणदिलवाई दीजिए।’
‘एस.सी. हो कि बैकवर्ड?’
‘बैकवर्ड हूं साहब।’
‘तो दिक्कत क्या है।’
‘ई तो साहब हम को मालूम नहीं पर लोग कहते हैं कि मुख्यमंत्री जी ही आरक्षण दे सकते हैं।’
‘मुख्यमंत्री जी क्यों? अगर तुम बैकवर्ड हो तो संवैधानिक अधिकार है तुम्हारा। कोई भीख थोड़े ही मांग रहे हो।’
‘तो साहब मुख्यमंत्री जी से आप ही कहला देते तो हमारे बच्चों को नौकरी में आरक्षण मिल जाता। और आरक्षण मिल जाएगा तो नौकरी भी मिल जाएगी।’
‘अच्छा चलो कल तुम अपने बच्चों की मार्कशीट वग़ैरह ले आना।’
‘जी साहब।’
दूसरे दिन कन्हई लाल अपने दोनों बच्चों की मार्कशीट वग़ैरह ले आया। देखते ही मैं बोला, ‘कन्हई लाल तुम हम से झूठ क्यों बोलते हो?’
‘नहीं साहब, झूठ नहीं बोल रहा हूं।’
‘तो ये श्रीवास्तव लोग कब से बैकवर्ड होने लगे?’ मैं ने कन्हई लाल के बच्चों की मार्कशीट उसे दिखाते हुए पूछा!
‘श्रीवास्तव तो साहब ग़लती से लिख गया।’
‘एक मार्कशीट में ग़लती से लिख गया, दूसरी मार्कशीट पर ग़लती से लिख गया, तीसरी पर ग़लती से लिख गया, और दोनों बच्चों की मार्कशीट पर ग़लती से लिख गया?’ मैं ने कन्हई लाल को तरेरते हुए कहा, ‘क्या बेवकूफी फैला रखी है?’
‘अब गलती तो हो गई साहब।’ वह हाथ जोड़ते हुए बोला।
‘तो तुम ने शुरू में ही इसे क्यों नहीं ठीक करवाया?’
‘अब क्या बताएं साहब।’
‘वैसे तुम्हारी जाति क्या है?’
‘नाऊ हैं साहब!’
‘तो बच्चों के सर्टीफिकेट में श्रीवास्तव क्यों लिखवाया?’
‘क्या करें साहब, यही तो ग़लती हो गई।’
‘आख़िर क्या सोच कर श्रीवास्तव लिखवाया?’
‘असल में साहब क्या हुआ कि एक श्रीवास्तव साहब यहां हमारे साहब थे। हम को बहुत अच्छे लगते थे। बड़े ठाट-बाट से रहते थे। उन्हीं दिनों हमने अपने बच्चों का नाम स्कूल में लिखवाया। तो बच्चों के नाम के आगे यह सोच कर श्रीवास्तव लिखवा दिया कि हमारे बच्चे भी बड़े हो कर श्रीवास्तव जी जैसे बड़े अफसर बन जाएं और ठाट-बाट से रहें।’
‘तो कन्हई लाल अब मुख्यमंत्री जी क्या, मुख्यमंत्री जी के पिता जी भी तुम्हारे बच्चों को आरक्षण नहीं दिलवा पाएंगे। कम से कम तब तक तो नहीं ही, जब तक तुम्हारे बच्चों के नाम के आगे श्रीवास्तव लिखा हुआ है।’
‘कोई रास्ता नहीं है साहब?’
‘अब दो ही रास्ते हो सकते हैं।’ मैं बोला, ‘या तो संसद द्वारा श्रीवास्तव जाति को भी पिछड़ी जाति में शामिल कर दिया जाए या फिर तुम हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जा कर इसके लिए रिट फाइल करो कि साहब ग़लती से ऐसा हो गया है, इसे ठीक कर दिया जाए।’
‘हुजूर ई सब हम कहां कर पाएंगे।’
‘तो फिर कुछ नहीं हो सकता।’
कन्हई लाल अपने बेटों की मार्कशीट वग़ैरह संभालते हुए सिर झुकाए चला गया।
और अब बहुत दिनों बाद वह अपनी पत्नी का हत्यारा होने की सूचना दे रहा था। वह रोता जा रहा था और बार-बार दुहराए जा रहा था कि, ‘मैंने अपनी मेहरिया को मार डाला!’
‘आख़िर हुआ क्या कन्हई लाल?’
‘कुछ नहीं साहब डॉक्टर ने तो हमको पहले ही बता दिया था, पर हम ही हुसियारी में गड़बड़ कर दिए।’
‘डॉक्टर ने क्या बताया था?’
‘यही कि हमारी मेहरिया को कैंसर है।’
‘क्या?’
‘और कहा था कि घबराने की बात नहीं है, ठीक हो जाएगा।’
‘तो?’
‘साहब हम ही लापरवाही कर गए।’
‘क्यों?’
‘असल में डॉक्टर ने बताया था कि हमारी मेहरिया को बच्चेदानी में कैंसर है और कहा था कि बच्चेदानी निकलवा दो, सब ठीक हो जाएगा।’
‘फिर बच्चेदानी निकलवा दिया?’
‘नहीं साहब, यही तो ग़लती हो गई?’ वह बोला, ‘हमने सोचा साहब अब बच्चे पैदा करना ही नहीं है तो बच्चेदानी का काम ही क्या है? फिर काहे झंझट मोल लें। हम दुबारा डॉक्टर के पास गए ही नहीं।’
‘अपनी बीवी को भी यह बात बताई थी?’
‘नहीं साहब, हम सोचे झूठ ही परेशान होगी तो उस को भी नहीं बताया।’
‘फिर?’
‘फिर का साहब, कुछ दिन में कैंसर पूरी देह में फैल गया। बड़ी कोशिश किए। पर बची नहीं। मर गई हमारी मेहरिया। तो साहब हम हत्यारे हो गए कि नहीं अपनी मेहरिया के?’
‘हो तो गए।’ मैं ने पूछा, ‘पर तुम इतना रो क्यों रहे हो?’
‘साहब हम उस को बहुत पियार करते थे, और वह भी हमको बहुत परेम करती थी। तो अब रोएं भी न तो क्या करें?’ कह कर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा।