कपटी / दीप्ति गुप्ता
घड़ी में टन से दो बजे और परीक्षा पुस्तिकाएँ जाँचती मृणाल ने झटपट कॉलबैल बजाकर लक्ष्मण से विभाग के साथियों के लिए आठ चाय कैन्टीन से ले आने के लिए कहा। थकी आँखों से चश्मा उतार कर, उसने आँखों को हौले से हथेलियों से ढक कर मानो उन्हें उर्जा देने की कोशिश की। तभी डा. शर्मा ने कमरे में प्रवेश करते हुए मृणाल को आँखें ढके हुए देखकर, चुटकी लेते हुए कहा - "क्यों मैडम, ध्यान लगाया जा रहा है?" मृणाल तुरन्त आँखें खोलती बोली -
"आइए, आइए, कॉपियाँ जाँचते-जाँचते थक गई थी - सो सोचा दो मि. आँखें बन्द करके इन्हें आराम दिया जाए।"
इतने में बेला उप्रेती, शान्ति जोशी, सुरेश पाटिल, अतनु चैटर्जी, प्रो. खासनवीस - सभी एक के बाद एक आते गए और कमरे के एक कोने में रखी बड़ी मेज के चारों ओर रखी कुर्सियों पर बैठते ही ताजा खबरों की चर्चाओं में मशगूल हो गए। तभी डा.पाटिल बोले - "आजकल छात्रों का मानसिक स्तर कितना गिर गया है ! "
मृणाल उनकी बात के समर्थन में बोली - "जब शैक्षिक स्तर ही नहीं रहा, तो मानसिक स्तर होगा ही कहाँ?"
मृणाल के कथन को अपने पर लेते हुए डा. पाटिल को लगा कि जैसे यह बात उनके अध्यापन पर कही गई है। वे बात काटते बोले - "भई, हम तो दिन-रात मेहनत करके, स्वयं को ‘अपडेट’ करके ही छात्रों को पढ़ाते है - तो शैक्षिक स्तर पर तो आप कोई आक्षेप नहीं कर सकतीं।"
विचक्षण मृणाल उन्हें शब्दजाल में उलझाती हुई बोली - "डा. पाटिल, मैंने ‘शिक्षण स्तर’ पर तो कोई टिप्पणी नहीं की। मैंने तो ‘शैक्षिक स्तर’ की बात कही है। आप गलत समझे। हम सब कितना भी अच्छा पढ़ाएँ, पर जब तक पाठ्यक्रम उपयुक्त नहीं होगा, छात्रों में स्वाध्याय की आदत नहीं होगी, स्वयं खोजबीन नहीं करेंगे, विषय की गहराई तक नहीं जायेंगे - तब तक उनकी शिक्षा अधूरी रहेगी और शिक्षा आधी-अधूरी होगी तो मानसिक स्तर कैसे विकसित होगा? जरा सोचिए, मैं क्या गलत कह रही हूँ? अधिकाधिक सन्दर्भ पुस्तकें पढ़ने, विषय की जड़ तक पहुँचने में रुचि होनी चाहिए न? "
डा. पाटिल थोड़े खिसिसाये से, अपने रजिस्टर के पन्ने उलटने-पलटने लगे।
तभी लक्ष्मण ट्रे में कप और गर्मागरम चाय की केतली लेकर आ गया। चाय तो आ गई थी - बिल्कुल ठीक निश्चित समय पर- किन्तु विभागाध्यक्ष ‘डा. आचार्य’ अपनी पुरानी आदत के अनुसार चाय की मंडली में अनुपस्थित थे। फिर भी सभ्यतावश औपचारिकता निबाहते हुए सबने उनकी प्रतीक्षा की। जब आधा घन्टा बीत गया और सभी का अपनी-अपनी कक्षाओं में जाने का समय भी होने लगा, तो सबने जल्दी-जल्दी चाय पीकर विदा ली। मृणाल भी दो घूँट चाय पीकर, हाजरी रजिस्टर और ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ उठाकर एम.ए. की क्लास लेने चली गई।
तीन बजे के लगभग विभागाध्यक्ष डा.आचार्य अपनी गीद्ध दृष्टि साथी प्रवक्ताओं के कमरों में ड़ालते, कॉरिडॉर से सीधे अपने कमरे में जा बैठे। पीछे-पीछे, लक्ष्मण भी उनके हिस्से की बची चाय केटली में लिए उनके कमरे में जा पहुँचा।
"सबने पाय पी ली"- आचार्य जी ने खोजी वाक्य मुँह से बाहर फेंका। "जी हाँ" - लक्ष्मण बोला । लक्ष्मण ने कप में चाय डाली और बड़े अदब से श्रीमान अध्यक्ष महोदय के सम्मुख रख दी। अपनी ही करतूत से ठन्डी, बदरंग हुई उस चाय को घूरते हुए आचार्य जी का मन हुआ कि उसे लक्ष्मण के मुँह पर दे मारें - पर ऐसा कर नहीं सकते थे। समय पर चाय की लघु अवधि बैठक में न आना, मातहत साथियों को प्रतीक्षा करवाना - इस सब में जो उन्हें आनन्द आता था, उसका बयान तो वे स्वयं भी नहीं कर सकते थे। तभी फोन की घन्टी मिमयायी। आचार्य जी ने लपक कर चोंगा उठाया तो उधर से ‘श्रीमती जी’ बोली - "आप चश्मा घर पर ही भूल गए है। चपरासी को भेज दीजिए - ले जाएगा।"
आचार्य जी बोले - "रहने दो, आज का काम मैं चला लूँगा" ।
अब अपने कमरे में बैठे-बैठे उन्होंने चश्मे के बिना अगले दो-तीन घन्टे कुछ काम न करने का ‘मास्टर प्लान’ बनाया। 3.20 पर क्लास भी लेनी थी। कुछ जरूरी कागजात पर हस्ताक्षर भी घसीटने थे। उनके खुराफाती दिमाग में लगी चालाकी की सूई रफ्तार से इधर-उघर घूम रही थी। तभी समय 3.20 से ऊपर हो जाने पर - ठीक 3.35 पर, कक्षा में प्रतीक्षारत छात्रों में से दो छात्र उनके कमरे में आ पहुँचे और साहस बटोर कर बोले - "सर, क्लास नहीं लेंगे क्या?" आचार्य जी ने नाटकीय ढंग से, मेज पर रखे फालतू पुराने कागजों से सिर उठाते हुए कहा -
"अरे 3.35 हो गया क्या? पता ही नहीं चला। क्या करूँ, एक जरूरी काम आ गया - कुलपति कार्यालय से। अभी पूरा करना आवश्यक है। क्या आप लोग कक्षा में खामोशी से बैठ कर स्वाध्याय करेंगे?"
छात्र क्या बोलते, उन्हें तो पढ़ने से, 45 मि. के लेक्चर से बिना माँगे छुट्टी मिले, इससे बड़ी मौजमस्ती की बात क्या हो सकती थी? गुरु सेर, तो चेले सवासेर ! खुशी को मुँह में भरे सकारात्मक सिर हिलाते वे सरपट कमरे से बाहर हो लिए।
आचार्य जी छात्रों को टालकर, मन ही मन अपनी कामचोरी पर खुश होते हुए, खिड़की से बाहर, बरामदे में आने जाने वालों को तिरछी नजर से देखने में लग गए। तभी उन्हें ध्यान आया कि पास वाले कमरे में, कुछ ही देर में प्रो. खासनवीस आता ही होगा; वह उन्हें इस तरह खाली बैठे देखेगा, तो डायरी में नोट कर लेगा कि ‘मैं क्लास छोड़कर यही कमरे में बैठा हूँ।’ सो अपने को झूठ-मूठ के काम में उलझाने के इरादे से उन्होंने लिपिक सक्सेना को इन्टरकॉम से अन्दर बुलाया। पहले तो दो मिनिट उसे खड़ा रखा, फिर छत की ओर ताकते हुए धीरे-धीरे बोलना शुरू किया -
"क्यों, आजकल अपनी सीट पर बहुत कम रहते हो और जितने समय बैठते हो उतने समय में कोई न कोई मिलने वाला आता ही रहता है, यदि ऐसे ही चलता रहा तो विभाग का काम क्या करोगे"
बेचारा सक्सेना इस झूठे आरोप को सुनकर तिलमिला गया। फिर भी सफाई देता बोला - "सर, मैं तो हमेशा सीट पर रहता हूँ। अभी आपने बुलाया तो सीट पर था कि नहीं ? और सर मिलने वाले कौन आते हैं मेरे पास ? कोई भी तो नहीं।"
"अच्छा, ऐसा क्या," - असल में बेला मैडम कह रही थी कि तुम काम कम और बातें ज्यादा करते हो।"
सक्सेना मन ही मन बेला मैडम को कोसता, गुस्से से भरा चला गया ।
श्रीमान आचार्य, अपनी इस ‘कूटनीति’ पर गर्व से भर गए । पुनः चश्मे के बिना आगे का समय काटने का चालू नुस्खा खोजने लगे। बराम्दे में आने जाने वालों पर तो उनकी नजर जमी ही थी - तभी उन्होंने देखा कि मृणाल उनके कमरे की ओर आ रही है । उन्होंने चटपट स्वयं को एक फाइल में ऐसा व्यस्त किया कि जैसे वे हर ओर से बेखबर है। मृणाल का स्वर उनके सतर्क कानों से टकराया - "क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ ?" सुनकर भी अनसुना कर श्रीमान आचार्य फाइल के कागज उलटने-पलटने में लगे रहे। मृणाल तो उनकी नस-नस से वाकिफ थी, दरवाजा धकेल कर मेज के पास आकर उनके सामने छात्रों की अंक तालिका रखती हुई बोली –
प्रथम प्रश्नपत्र और द्वितीय प्रश्नपत्र से संबंधित सभी प्रवक्ताओं ने अंक मुझे दे लिए है, बस डा. आचार्य आपने ही अभी तक तृतीय प्रश्नपत्र की कापियाँ जाँच कर, उनके अंक मुझे नहीं दिए हैं।" एअरगन के छर्रों की मानिन्द मृणाल के मुँह से निकलते वे तीखेपन से भरे नपे तुले शब्द अपराध बोध की भावना से भरे आचार्य जी के जहाँ तहाँ जाकर गड़ गए। उन्होंने हौले से थके-थके, फाइल से सिर उठाकर, चश्मा विहीन चुंधियाई आँखों को मिचमिचाते हुए कहा -
"क्या बताए, यह फाइलवर्क इतना थका देता है कि शाम को घर पहुँच कर करेक्शन करने की हिम्मत ही नहीं रहती। ठीक है, फिर भी, कल तक सारी कापियाँ जाँच कर देने का प्रयास करता हूँ।"
मृणाल बिना कुछ बोले सधे कदमों से वापिस चली गई। मृणाल की तो खामोशी भी चुनौती से भरी लगती थी आचार्य जी को -अपने दिल दिमाग की कलौंस के कारण। श्रीमान आचार्य मृणाल को देखकर उसके नियमित अनुशासित कार्य से पराजित से हुए, मन ही मन कुढ़ते, अक्सर उसे किसी अनियमितता के जाल में फँसाने की सोचते; पर कभी कोई मौका हाथ ही न लगता था।
किसी तरह शाम के 5 बज ही गए। विश्वविद्यालयी नियमानुसार यद्यपि 5 बजे विभाग बन्द होने का समय हो जाता है किन्तु कभी-कभी विभागीय बैठक यदि देर से यानी 4.00 बजे के आसपास शुरू हो तो, एजेन्डा के मुद्दों पर सोच विचार व चर्चा करते-करते 7 बज जाना आम बात होती है। इस तरह के आवश्यक कार्य हेतु, देर तक रुकने में किसी को भी आपत्ति नहीं होती, भले ही महिला प्रवक्ताओं को नौकरी के साथ-साथ घर की भी जिम्मेदारियाँ निष्ठा से निबाहने के कारण परेशानी ज़रूर महसूस होती है, किन्तु फिर भी दोनों सीमाओं पर खड़ी कर्मठता से कर्त्तव्य वहन करने से वे पीछे नहीं हटती। पर कभी-कभी जब आचार्य जी बिना बात, बिना आवश्यक कार्य के यूँ ही अपने कमरे में सबको बैठाकर 6-7 बजाया करते हैं - तो सभी इस हरकत से मन ही मन परेशान और नाराज हो जाते हैं। क्योंकि आचार्य महोदय तो एक बजे से 3 बजे तक कैम्पस में अपने घर जाकर भोजन भी करते है, उसके बाद आराम भी फरमाते हैं, तदनन्तर आराम से कार में बैठ कर विभाग में कुर्सी तोड़ने के लिए आ जाते हैं। एक बार जो वे अपने कमरे की कुर्सी पर जमे तो, अपनी कक्षाएँ भी पढ़ाने के लिए कम ही जाते हैं या जाते ही नहीं। कोई न कोई काम का बहाना कर अपने कमरे में बैठे जम्हाईयाँ लिया करते हैं। कभी-कभी तो जब छात्र-संख्या 8-10 होती है तो वे अपने ही कक्ष में क्लास लेकर छात्रों को कृतज्ञ कर देते हैं। इतना ही नहीं, अनेक बार तो श्रीमान जी 11 बजे विभाग में आते हैं और कुलपति कार्यालय के किसी काम के बहाने से 12 बजे ही घर भाग जाते हैं। अब स्टॉफ, इतनी तो खोज बीन करने उनके पीछे-पीछे जाता नहीं कि ऑफिस के कौन से अर्जेन्ट काम के लिए वे विभाग से 12 बजे से गायब है - किन्तु उनके झूठ अक्सर खुद-ब-खुद किसी न किसी मौके पर स्वयं उजागर हो जाते हैं, तब वे उन्हें छुपाने के लिए, दो-तीन झूठ उन पर लपेट कर, ढकने का असफल और हास्यास्पद प्रयास करते हैं। बातों को ताड़ने की पैनी दृष्टि उनके मातहत भी रखते हैं। यदि वे अक्ल से पैदल ही होते तो, विभाग में प्रोफैसर, रीडर और प्रवक्ता होने के बजाय कहीं चपरासगिरी कर रहे होते। सब श्रीमान अध्यक्ष महोदय की चालबाजयों पर इकठ्ठे बैठने पर खूब हँसते हैं और जमकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। यह तो सबकी शराफत है कि वे आचार्य जी को उनकी हरकतों के लिए जलील नहीं करते, वरना यदि विभाग में एक भी तेज तर्रार प्रवक्ता हो तो वह खड़े-खड़े नंगा कर दे ऐसे चालबाज को।
डा. शर्मा 12.30 की क्लास लेकर विभाग में आए तो क्या देखते हैं कि बराम्दे में अध्यक्ष के कमरे के सामने छात्र-छात्राओं की भीड़ लगी है। उनके पास पहुँचते ही डा. शर्मा ने पूछा- "आप लोग यहाँ कैसे खड़े हैं?"
सभी एक स्वर में खीझे से बोले - "सर. दो दिन से हम सुबह दो -तीन घन्टे, फिर दोपहर को भी दो-दो घन्टे अपने फार्म्स पर आचार्य सर के हस्ताक्षर लेने के लिए यहाँ आते हैं, पर ‘सर’ हमें अपने आने का, मिलने का निश्चित समय बता कर भी, कभी नहीं मिलते। हम अपनी कक्षाएँ छोड़ कर, यहाँ इन्तजार करते-करते थक जाते हैं। हमारा समय, शक्ति और पढ़ाई - सभी कुछ यूँ ही चला जाता है। आप बताइए, हम क्या करें ?"
छात्रों से शिकायत सुनकर, डा. शर्मा को आचार्य जी के प्रति मन में बड़ी वितृष्णा पैदा हुई। सोचने लगे कैसा व्यक्ति है - इंसानियत का नाम ही नहीं। स्वयं महाशय बच्चों को अनुशासन, समय की महत्ता, चरित्र निर्माण और वचनबद्धता का बड़ा बड़ा लेक्चर झाड़ते हैं - लेकिन स्वयं क्या करते हैं इन छात्रों के साथ? तीन दिन तक एक हस्ताक्षर देने के लिए, रोज छात्रों को 4-4 घन्टें इन्तजार करवाना, यानी प्रत्येक छात्र के तीन दिन में 12 घन्टें इस बराम्दें में सिर्फ यूँ ही बैठे-बैठे, और टहल करते बर्बाद हो जाते हैं !? वाह क्या आदर्श है, क्या कर्त्तव्य निष्ठता है आचार्य जी की ! वाह रे देश के भावी कर्णधारों के भाग्य निर्माता ! डा. शर्मा को छात्रों से बड़ी सहानुभूति हुई। उन्होंने कहा- "आप लोग चिन्ता न करें और अपनी कक्षाएँ बिल्कुल न छोड़ें। आज चाय के समय, मैं आचार्य जी से बात करके, आपके लिए उनसे कल का दिन निश्चित करता हूँ। फिलहाल आप सब जाएँ । कल आप ठीक 11.00 बजे यहाँ आ जाएँ । "
दो बजे सब चाय के लिए इकठ्ठे हुए तो डा. शर्मा ने छात्रों के व अपने कर्त्तव्य के प्रति आचार्य जी के गैर जिम्मेदाराना रवैये व विभाग में फालतू की भीड़ और शोरगुल का मुद्दा साथियों के सामने रखा। सभी ने एक स्वर से छात्रों को इस तरह तंग करने पर श्रीमान आचार्य की भर्त्सना की। प्रो. खासनवीस ने भी खाली पीरियड में डा. शर्मा के साथ आचार्य जी से इस मुद्दे पर बात करने का बीड़ा उठाया। बातें तो चाय पीते वक्त भी हो सकती थीं, पर आचार्य जी कभी भी चाय की बैठक में हाजर ही नहीं होते थे।
आज तो आचार्य जी 3.00 के बजाए 3.25 पर घर से विभाग में लौटे। प्रो. खासनवीस ने जैसे ही अपने कमरे की चिक से उन्हें आते देखा, वे तुरत-फुरत, शर्मा जी के साथ उनके कमरे में जा धमके। आचार्य जी का माथा ठनका किन्तु बड़ी विनम्रता से, मिश्री सी घोलते बोले - "आइए, आइए, बैठिए।"
जब कोई साथी प्रोफैसर छाती तानकर, तीखे तेवरों के साथ आचार्य जी के सामने जा खड़ा होता है, तो आचार्य जी अन्जाने भय से, घिघियाये स्वर में उसका स्वागत कर कुर्सी पर बैठने की मिन्नत सी करने लगते हैं। वे यूँ भी कभी किसी को जोर से आदेश नहीं देते। बस दूसरों पर मीठे-मीठे, दबे-दबे स्वर में घटिया बातों के झूठें आरोपों के वार परोक्ष रूप से किया करते हैं और फिर आरापों से आहत साथियों का तिलमिलाना देखकर मन में बड़े आनन्दित और सन्तुष्ट हुआ करते हैं। जब सामने बैठा व्यक्ति क्रोध में फुंकारता सा बोलता है तो माहौल गर्माते देख, वे स्वयं ही शान्ति दूत बनकर ठन्डी-ठन्डी बातों के छीटें मारने शुरू कर देते हैं। उनके शातिर शब्द कुछ इस तरह के होते हैं - "अच्छा, अच्छा, जो आप कह रहे हैं, मैं वहीं मानूँगा। मुझसे तो फलां व्यक्ति ने कहा तो, मैंने तथ्य को आपके सामने रख दिया।"
चालाकी से हर बार इस तरह की सफाई देने पर एक बार बेला उप्रेती ने ऐसा भिगोकर उन्हें जवाब दिया था कि उस दिन आचार्य महोदय खुद तिलमिलाकर रह गए थे । बेला तड़क कर बोली थी - "इसका मतलब तो यह हुआ कि आप अपने नहीं, दूसरों के कानों से सुनते हैं। जिसने जो कहा आपने अपने विभागीय साथियों के लिए रस ले-लेकर सुन लिया और फिर साथियों कों सुनाकर, उन्हें जूता सा मार दिया, और जब हम उस झूठे
आरोप की धज्जियाँ उड़ा देते हैं, तो आप हमारी बात स्वीकार करने का नाटक शुरू कर देते हैं।क्या आप देखते भी दूसरों की आँखों से हैं? आप में अपने विभागीय साथियों को स्वयं समझने की क्या लेशमात्र भी क्षमता नहीं है - या आप उन्हें समझकर, उन्हें जानकर भी, न जानने का नाटक करते हैं ? यदि दूसरे विभाग के लोगों को हमारे बारे में आपसे अधिक पता है तो यह वैसे भी आपके लिए शर्मनाक बात है। क्योंकि आपके अनुसार, इस विभाग रूपी परिवार के आप संरक्षक है और इस परिवार के बारे में, इसके सदस्यों के बारे में आपको तिनका भर नहीं पता। उनके बारे में जानकारियाँ आपको दूर बैठे लोगों से प्राप्त होती हैं। वाह, क्या कूटनीति है!"
उस दिन बेला के लम्बे समय से दबे गुबार का ऐसा विस्फोट हुआ कि आचार्य तो आचार्य, साथी प्रवक्ता भी उसे देखते रह गए। किन्तु सही और सटीक बातें कहने के लिए उन्हें अपनी साथी बेला पर बड़ा गर्व महसूस हुआ। आचार्य जी की स्थिति उस सर्प भाँति थी - जिस पर नेवला वार करता है तो फिर उसका अन्त करके ही छोड़ता है। वे अपनी इज्जत बचाने के इरादे से ऐसे निरीह, ऐसे मायूस से हो गए कि यदि कोई बाहर का अतिथि व्यक्ति एकाएक आ जाता और उस दृश्य को देखता तो - बेला को वह बदतमीज, बदजुबान समझता और आचार्य जी को महा सीधा सादा, सहनशील। जबकि वस्तुतः स्थिति एकदम विपरीत थी। निःसन्देह, आँखों देखी सदा सच नहीं होती।प्रोफैसर खासनवीस और डा. शर्मा ने हौले से कुर्सियाँ खींची और आचार्य जी से छात्रों के लिए बातचीत हेतु तैनात हो गए। आचार्य महाशय दोनों के तने चेहरे देखकर, मन ही मन सीधे हो चले थे। डा. शर्मा बोले - "आचार्य जी, आज 10.00 बजे से छात्र आपकी प्रतीक्षा में भीड़ लगाए, शोरगुल करते बराम्दे में जमा थे। उनसे मैंने बातचीत की तो पता चला पिछले तीन दिन से 4-4 घन्टे सुबह शाम आपके हस्ताक्षर हेतु, वे अपनी क्लासेज छोड़ कर, आपकी बाट जोहते रहते हैं। बड़े नारज और खीझे हुए थें।"
बोलने के लिए उतावले, खासनवीस बीच में दखल देते बोले - "देखिए, आचार्य जी, आपसे यह कहते हमें अच्छा नहीं लगता, लेकिन विवश होकर कहना पड़ रहा है कि युवा शक्ति को इस तरह खिझाना एक तो वैसे भी ठीक नहीं, दूसरे उनकी शक्ति और क्षमता को इतने छोटे-छोटे कार्यों के लिए इस बरबाद करना, नैतिक दृष्टि से देश की प्रगति में रोड़ा अटकाने जैसा ही है।विभाग का माहौल भीड़-भाड़ से बिगडता अलग है। सो, आप इस कार्य को कल निबटा दीजिए। यदि आप ठीक समझे तो हम आपको सहयोग दे सकते हैं। आचार्य जी सिर हिलाते, चश्में से गोल-गोले आँखें घुमाते बोले --"अरे, नहीं-नहीं मैं अकेला ही बहुत हूँ, इस काम के लिए। कल हो जायेगा यह कार्य। हाँ, बाहर भीड़ लगनी भी ठीक नहीं है रोज-रोज। कल छात्र कितने बजे आयेंगे?"
"11.00 बजे" - डा. शर्मा बोले।
"ठीक है, कल मैं 10.30 पर आ जाऊँगा सुब्ह "- आचार्य जी कर्त्तव्यनिष्ठ बने से बोले।
अगले दिन आचार्य जी ठीक 10.30 पर विभाग में पहुँच गए,यह सोचकर कि कहीं बात तूल न पकड़ ले तथा प्रो. खासनवीस व शर्मा की जानकारी में आया यह मुद्दा उनकी छवि पर एक बदनुमा दाग न बन जाए । छात्र भी समय से आ गए और देखते ही देखते 11.30 तक काम निबट गया। छात्रएक-एक करके, आचार्य जी के कमरे से निकलते और पास ही कमरे में बैठे डा. शर्मा और प्रो.खासनवीस को धन्यवाद देकर चले जाते। आचार्य जी एक आँख से हस्ताक्षर करते तो, दूसरी आँख से टेढ़े-टेढ़े, जाने वाले छात्र को खासनवीस के कमरे की ओर मुड़ते देख कर मन ही मन कुढ़ कर रह जाते।
मकरन्द जोशी - शोध छात्र ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के उपलक्ष्य में, विभाग में मौखिक परीक्षा के उपरान्त दिए जाने वाले जलपान के दिन आचार्य जी सहित सभी व्याख्याताओं के हाथ में खूबसूरत सी निमन्त्रण पत्रिका थमा दी। दरअस्ल मकरन्द जोशी स्थानीय महाविद्यालय में एक वर्ष पूर्व ही प्रवक्ता पद पर नियुक्त हुआ था। अतएव वह एक वर्ष पूर्व की उस खुशी को पी.एच.डी. की उपाधि के साथ, रविवार के दिन अपने सभी गुरुजनों व साथियों को ‘होटल सागर’ में रात्रिभोज पर बुलाकर बाँटना चाहता था। निमंत्रण-पत्रिका देने के साथ-साथ, उसने सभी से ‘रात्रिभोज’ पर आने का विशेष आग्रह बार-बार किया तो सभी को उसका प्रेम निमन्त्रण स्वीकार करना पड़ा।
रविवार को सभी 8.00 बजे तक ‘होटल सागर’ में पहुँच गए। लेकिन उपस्थित नहीं थे तो सिर्फ आचार्य जी। सभी ने कहा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए - क्योंकि रात्रि की भीड़ में आने में देर सवेर हो ही जाती है। मि.चैटर्जी चिडचिड़ा सा मुँह बनाते बोले शहर की भीड़ उन्हीं के लिए है, हम सब कैसे समय पर आ गए ? उनके इस तर्क पर अन्य साथी मुस्करा पड़े। क्योंकि सब जानते थे कि आचार्य जी स्वयं पर वी.आई.पी. मुलम्मा चढ़ाने के लिए, जानबूझकर देर से पहुँचते है - ऐसे अवसरों पर। अन्यथा, किसी भी तरह के मानवीय गुण या अन्य किसी तरह की भी प्रतिभा से वे इतने खाली है कि अपने विभागाध्यक्ष के खोखले बोझ को वह विभाग के बाहर भी, सिर पर लेकर फिरते है और ऐसे मौंकों पर सबकों अनावश्यक रूप से प्रतीक्षारत रखकर, अपनी झूठी प्रतिष्ठा का एहसास कराने की ओछी कोशिश करते है । ठीक 8.30 पर आचार्य जी न सिर्फ अपनी पत्नी, बल्कि अपने बहू बेटे, छोटे बेटे व बेटी सहित ‘सपरिवार’ भोज की गरिमा बढ़ाने हेतु हाजर हो गए। मकरन्द एक बारगी तो भौंचक सा रह गया उस फौज को देखकर, लेकिन अगले ही पल, सहज होता उनकी आवभगत में लग गया। अन्य सभी लोग भोज पर अनिमन्त्रित - उस अतिथि सेना को देखकर, लज्जित से, मुँह और आँखें झुकाए बैठे रहे। किन्तु आचार्य जी को अपनी इस हरकत पर जरा सी भी लज्जा नहीं थी। वे पूरी तत्परता से अपने परिवार के साथ, एक सम्पूर्ण मेज घेर कर बैठ गए थे तथा ‘भोजन में देर कैसी’ यह भाव उनके चेहरे से टपक रहा था।
अगले दिन चाय की बैठक में सभी साथियों ने आचार्य महाशय की पिछली रात की गरिमाहीन हरकत पर शर्मिन्दगी जाहिर करते हुए - उनके बारे में मशहूर किस्से छेड़ दिए।‘शान्ति जोशी’ - जो उनके किस्सों से विभाग में, नई होने के कारण अनभिज्ञ थी, बोली -"जरा हमें भी तो पता चले उनका असली रूप ! क्या विस्तार से नहीं बताएंगे? अब मैं स्थायी हो गई हूँ, प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो गया है। मैं भी अपने विभागाध्यक्ष के महान करतब जानने का अधिकार रखती हूँ।"
उसके इस तरह बोलने के ढंग पर सब खिलखिला पड़े और जोश में भर कर प्रो. खासनवीस ने बताना शुरू किया कि किस प्रकार आचार्य जी अपने शोध छात्र से झोले भर-भर कर सब्जी मँगवाते थे, रेलवे रिजर्वेशन करवाते थे और रुपये भी बेचारे छात्र की जेब से ही खर्च करवाते थे, पूरे चार साल तक, वह छात्र इनके घरेलू काम रो-रोकर करता रहा। इस तरह जैसे-तैसे उसका शोध कार्य उसका पूरा हुआ। मृणाल ने याद दिलाते हुए कहा कि - "क्या आप लोग भूल गए, उस कमलिनी की क्या हालत की थी - आचार्य जी ने और उनसे अधिक, उनकी पत्नी ने? यह पता चल गया श्रीमती आचार्य को कि उसे कढ़ाई-सिलाई बहुत अच्छी आती है। बस फिर क्या था, बेचारी कमलिनी का शोध कार्य दूसरे अध्याय से तब तक आगे नहीं बढ़ा, जब तक उसने बेडकवर, मेजपोश काढ़-काढ़कर, मैडम के ब्लाउज, बेटी के सलवार सूट सिल-सिलकर उनका पेट नहीं भर दिया। कमलिनी के माँ-बाप तो मुँह भर-भर कर आचार्य जी और उनकी पत्नी को कोसते थे। उसका भाई तो एक दिन तैश में आकर आचार्य जी का दिमाग ठिकाने लगाने, उनके घर जाने वाला था कि कमलिनी ने ही उसका हाथ पकड़ लिया और विनती की, कि उसका शोध बीच में ही रह जायेगा - अब तक की सारी मेहनत पानी पर फिर जायेगा। इस बात को सुनकर वह रुक गया। नई प्रवक्ता शान्ति जोशी तो यह सब सुनकर सकते में आ गई।क्या उच्च शिक्षा प्राप्त, उच्च पद पर आसीन, वह भी आदर्श माने जाने वाले, शिक्षण व्यवसाय में रत होकर, कोई इंसान, इस तरह की हल्की और घटिया हरकतों से अपने व्यवसाय, पद और स्वयं को इतना गरिमाहीन बना सकता है? क्या उसे ये सब बातें अपने व्यवसाय और स्वयं के सम्मान से अधिक महत्वपूर्ण लगती है? शान्ति के अचरज का ठिकाना न था। शिक्षक का कार्य तो अपने छात्रों को उदात्त मूल्यों और संस्कारों की सीख देना, उनमें मूल्यों की नींव डलना होता है। तभी तो ‘कबीर’ ने गुरु को गोविन्द से बढ़कर माना है। पर यहाँ तो आचार्य जी गुरु की गरिमा को ठेस लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। शान्ति को सोच में डूबा देख मृणाल ने टोका -
"अरे मैडम जोशी, कहाँ है आप? किस दुनियाँ में खो गई? अभी नई है आप और आदर्शों से सम्पन्न भी है, तभी इतनी तनावग्रस्त सी दिख रही है - ये सब ‘महान किस्से’ सुन-सुन कर। हम भी जब नए-नए आए थे, तो विभागीय राजनीति के शिकार होकर, बड़े तमतमाए और छटपटाए थे। लेकिन धीरे-धीरे हमने, सही रास्ते पर चलते हुए, आचार्य जी की चालबाजयों और चंगुल से अपने को बचाने के गुर सीख लिए।"
शान्ति को मृणाल की सारी बातें सुनाई भी दे रही थी और समझ भी आ रही थीं, फिर भी वह अन्तरतम में कहीं खोई हुई थी। जैसे वह अपने मूल्यों और उन पर टिकी अपनी आस्था को अन्दर कहीं सहेज कर रख लेने को व्याकुल थी कि कहीं उस पर बाहरी धूल, कूड़ा कचरा न बैठ जाए शान्ति अपने कमरे में अलमारी खोलकर रजिस्टर व किताबें निकल रही थी, तभी लक्ष्मण ने आकर कहा - "मैडम, आचार्य जी ने आपको बुलाया है।"
शान्ति का दिल एक अंजानी आशंका से जोर-जोर से धडकने लगा। अगले ही क्षण स्वयं को व्यवस्थित करना चाहा भी तो उसे लगा कि दिल गले में आकर अटक गया है। ऐसी घबराहट क्यों ?
उसे हिम्मत जुटानी पड़ेगी। बुलाया ही तो है ! यह सब सोचती-सोचती वह अध्यक्ष के कक्ष में पहुँच तो गई - पर दिल की बढ़ती धडकनों ने उसे परेशान कर ड़ाला। अचकचाती सी वह बोली - "जी सर" , उसके मुँह से निकला ही था कि आचार्य जी बोले- "बैठिए"
फिर अपनी आँखें कुछ कागजों में गड़ाए हुए बोले -" कैसा लग रहा है यहाँ। विभाग के साथी, छात्रगण, प्रवक्तागण, पाठ्यक्रम, अब तो सभी से अच्छी तरह परच गई होंगी आप ?"
"जी हाँ" - शान्ति हौले से बोली। आचार्य जी ने उसकी घबराहट और उतरे-उतरे चेहरे को देखकर आगे कुछ कहना ठीक न समझा। कुछ देर बाद बोले - "कल छुट्टी है। हो सके तो किसी समय घर आइए। थोड़ा सा आपका मार्गदर्शन कर देंगे तो अच्छा रहेगा।"
"जी" - शान्ति के मुँह से सहसा ही ‘नहीं’ के बदले निकल गया। घर बुलाकर कैसा मार्गदर्शन करेंगे आचार्य जी - वह तो गहरे सोच में पड़ गई। जाए या न जाए? या मृणाल की तरह बचाव के उपाय खोजे? नहीं जायेगी वह । कह देगी - तबियत खराब हो गई अचानक ! किन्तु वह बिना बात झूठ क्यों बोले ? डरने की क्या बात है ! वह अनुभवहीन है और आचार्य जी अध्यक्ष ही नहीं अपितु बुजुर्ग भी हैं, अनुभवी हैं। उनके बारे में जितनी बाते सुनी है, वे सच ही हों - यह भी तो नहीं कहा जा सकता । इस तर्क-वितर्क में उलझी शान्ति ने, शाम तक क्लासेस वगैरा लेकर, खाली पीरियड में बैठै-बैठे शान्ति ने अगले दिन अध्यक्ष के घर जाने का मन बना ही लिया। वैसे भी छोटी होकर सम्माननीय अध्यक्ष का कहना न मानना उसकी सभ्यता के खिलाफ था। सो सभ्यता के विपरीत आचरण करके वह और भी मन ही मन परेशान व असहज रहेगी - इससे तो जाना ही ठीक रहेगा। यह सब सोचकर शान्ति रविवार को दोपहर में, खाने के बाद सब कामों से फारिग होकर 2.00 बजे के लगभग आचार्य जी के घर पहुँची। कॉल बैल का बटन दबाया तो अच्छा खासा समय लगाकर बड़े इत्मीनान से किसी ने दरवाजा खोला। शान्ति उसे जानती तो नहीं थी किन्तु पहनावे व हाव-भाव से वह महिला सुशिक्षित और काफी व्यवहार कुशल लग रही थी। उसने एक मुस्कान के साथ शान्ति का स्वागत किया। उसे ड्राइंगरूम में बैठाया, फिर रसोईघर से सक गिलास पानी ले आई और विनम्रता से शान्ति का नाम पूछकर - शायद अन्दर आचार्य जी को बताने चली गई। शान्ति इस बीच, कमरे की सजावट, कोने में सजे आर्टीफैक्ट्स, दीवार पर लगी पेन्टिग्स आदि देखती रही। प्यास न होने पर भी, वह पानी के एक दो घूँट बीच-बीच में पी लेती थी। एक मिनट, दो मिनट, तीन मिनट। अन्दर से कोई नहीं आया तो उसे बुरा सा महसूस होने लगा। चौथा मिनट भी बीत गया। थोड़ी देर में 5 मिनट पूरे हो गए। धीरे-धीरे उसके अन्दर खीझ उभरने लगी। उसे लगने लगा कि वह व्यर्थ ही आज्ञाकारी की तरह, आचार्य जी के कहने पर यहाँ चली आई। यहाँ किसी को उसके आने की परवाह ही नहीं है। या यह इस घर की रीति है कि कोई आए तो उसे उपेक्षित सा महसूस कराया जाए। खासतौर से जब वह विभागीय व्यक्ति हो तो - यह बात याद रहे कि वह ‘अतिथि देव’ नहीं बल्कि, अध्यक्ष आचार्य जी का मातहत है और उनकी बाट जोहना उसका फर्ज है। नियति है ! ईश्वर की कृपा से तभी छठा मिनट पूरा होने से पूर्व ही श्रीमती आचार्य अपनी साड़ी कंधो पर लपेटती आई। शन्ति ने खड़े होकर पूरे आदर के साथ उनका अभिवादन किया। दोनों बैठकर बाते करने लगीं। इतने में आचार्य जी भी बासी चेहरे के साथ आ खड़े हुए। शान्ति पुनः उनके अभिवादन में खड़ी हो गई। अपने बासी मुँह से उबासी लेते हुए आचार्य जी बोले - "बैठिए, बैठिए, घर खोजने में परेशानी तो नहीं हुई?"
"जी नहीं" - शान्ति संक्षिप्त सा उत्तर देकर 5 मि. पूर्व की प्रतीक्षा के कारण मन में भरी खीज से जूझती बैठी रही। कुछ सैकेन्ड इधर-उधर की फालतू बातों के उपरान्त आचार्य जी पुनः बोले -
"एक-एक कप मसाले वाली चाय पिलायेंगी क्या श्रीमती जी! "
यह सुनकर ‘मैडम’ मुस्कुराती ऐसे उठीं जैसे आचार्य जी और उनके साथ-साथ शान्ति पर एहसान कर रही हो। आचार्य जी धीरे -धीरे शन्ति को विभाग की बातों पर ले आए। पैनेपन से घुमा फिरा कर, अन्य प्रवक्ताओं के बारे में, शान्ति की राय, उसके विचार मापने की नाकामयाब कोशिश में लग गए। श्रीमती आचार्य छोटी से ‘ट्रे’ में चार अंगुल के तीन मगों में बेरौनक सी चाय लेकर हाजर हो गई। साथ में एक छोटी प्लेट में चार-पाँच मोनाको बिस्किट भी थे। शान्ति ने जैसे ही चाय का पहला घूँट भरा, उसके मुँह से चाय बाहर निकलते-निकलते रह गई। क्योंकि चाय का स्वाद उसकी शक्ल से भी अधिक गया गुजरा था। चीनी या तो वे डालना भूल गई थीं या उन्होंने चाय में चीनी की चुटकी ही डाली थी। शान्ति ने किसी तरह उस बेस्वाद चाय को अन्दर धकेलने की इच्छा से, आचार्य जी के आग्रह करने पर, जब एक बिस्किट लिया तो, उसे मुँह में डालने पर पता चला कि सीलन उसके कुरकुरेपन को सोख चुकी थी, इसलिए वह मुँह में रखते ही लुग्दी सा हो गया। उसे किसी तरह उस विशिष्ट चाय से गले के नीचे उतार कर - शान्ति ने उस छॅटाक भर चाय को किस तरह झेला - बस वहीं जानती थी। श्रीमती आचार्य तभी नाक भौं सिकोडती बोली -
"शान्ति जी, अभी आपको कुछ नहीं पता। विभाग में एक से एक छँटे हुए लोग भरे पड़े हैं।"
और उन्होंने जो सबका गुणगान करना शुरू किया तो मि. चैटर्जी पर ही आकर साँस ली। तदनन्तर खुसपुसाती सी बोली -
"पता है शान्ति जी, चैटर्जी अपनी शोध छात्रा का कैसा दीवाना हो गया था ! बड़े-बड़े बच्चों का बाप, इस अधेड उम्र में इश्क के फेर में पड़ गया।"
चैटर्जी पर यह आरोप, शान्ति को बहुत बुरा लगा। क्योंकि एक वर्ष से वह भी उन्हें देख रही है।उस शोध छात्रा को भी एक दो बार लाइब्रेरी में कभी-कभी देखा है - जो अब किसी स्थानीय कॉलिज मे कार्यरत भी है। उसे दोनों ही बड़े सीधे व सरल लगे । उसने तो दोनों का कभी भी एक दूसरे के प्रति कोई गलत लगाव या आपत्तिजनक व्यवहार नहीं देखा। तभी श्रीमती आचार्य की आवाज फिर उभरी - "देखिए शान्ति जी आप अभी भोली है, विभागीय राजनीति क्या होती है - ये आपको नहीं पता। मृणाल और बेला से भी जरा दूर ही रहना। वरना ये दोनों तो आपको कच्चा निगल जायेंगी " शान्ति को लगा कि वह "कालापानी" की सजा पर इस शहर में आई है। किसी से बातें मत करना, निकट मत होना, यहाँ आना, वहाँ मत जाना - ये कैसे अध्यक्ष है और कितनी कपटता से भरा इनका मार्गदर्शन है ? वह सोच मे पड़ गई। शान्ति तमाम उलझनों से भरे दिमाग और दिल में एक कसमसाहट के साथ आचार्य जी व उनकी पत्नी से विदा लेकर घर पहुँची। रात तक उसकी बेचैनी, सोच-सोच कर इतनी बढ़ गई कि उसने मन ही मन निर्णय लिया कि अगर आचार्य जी ने अपनी पत्नी सहित उस पर परोक्ष रूप से इतनी तानाशाही चलाई तो, या तो वह नौकरी छोड़ देगी या फिर मामला ‘ड़ीन’ और ‘कुलपति’ तक ले जायेगी। ऐसे घुट-घुट कर नौकरी नहीं होगी उससे। विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद पर नियुक्त व्यक्ति को यदि उसका अध्यक्ष इस तरह की चेतावनियाँ दे - मार्गदर्शन के नाम पर, तो इसका मतलब यह हुआ कि उसकी तो अपनी कोई बुद्धि नहीं है; उसे किसी तरह की समझ ही नहीं है। बचपन से लेकर इस स्तर तक पहुँचने वाले इंसान के कुछ अपने भी अनुभव, घरवालों द्वारा दी गई शिक्षा, मूल्य एवं संस्कार, मित्रों व अन्य मिलने वालों के सम्फ से अर्जित व्यावहारिक ज्ञान, कुछ दूसरों के अनुभवों से सीखा-गुना पाठ; कुछ तो आखिर उसे भी अक्ल और समझ होगी ! अगर वह एक-एक कदम, एक-एक साँस, आचार्य जी और उनकी पत्नी के संकेतानुसार लेगी, तो वह प्रवक्ता थोड़े ही रहेगी - एक बन्धक, एक कठपुतली बन कर रह जायेगी। रात भर सोच-सोच कर उसका दिमाग भन्ना गया। स्थायी होने की उसकी सारी खुशी, उसे कडवी लगने लगी। आचार्य जी और उनसे अधिक उनकी पत्नी के प्रति वह वितृष्णा से भर उठी।
सवेरा होने पर, उत्साहविहीन सी वह उठी और 11.00 बजते-बजते विभाग में पहुँच गई। उसके उखड़े-उखड़े और तनावग्रस्त चेहरे ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। सबके द्वारा उसकी खैरियत पूछे जाने पर - वह सिर भारी होने का मामूली सा कारण बता कर सबको टालती रही। दो दिन बाद आचार्य जी के कक्ष में पाठ्यक्रम से संबंधित बैठक होनी थी। बैठक शुरू होने से पहले उन्होंने सबसे पूछा कि पाठ्यक्रम कितना हो गया है और कितना शेष है। सभी का कार्य ठीक था, यदि पाठ्यक्रम पिछड़ा हुआ था, तो सिर्फ स्वयं अध्यक्ष महोदय का। फिर न जाने एकाएक आचार्य जी को क्या सूझा, बोले -
"शान्ति जी, कुछ छात्र हमसे कह रहे थे कि आप ठीक से नहीं पढ़ाती, उन्हें आपका पढ़ाया समझ नहीं आता।"
यह सुनते ही शान्ति बौखला सी गई। उसका चेहरा तमतमा गया। तुनक कर वह बोली - "सर, जिसने यह आक्षेप लगाया है, आप उन छात्रों को हम सबके सामने बुलाइए और मैं उनसे पूछूँगी कि कब,क्या उन्हें समझ में नहीं आया? एक वर्ष से आज तक तो किसी ने शिकायत नहीं की - आज यह शिकायत किन छात्रों ने मेरे खिलाफ की है ? ठीक है मेरे पढ़ाने के ढंग में कहीं कोई कमी हो सकती है - पर उन्हीं से जानना चाहूँगी। मुझसे अपनी समस्या न कह कर, आपसे कहने क्यों आए? पहले तो यही पूछूँगी। मैं उनके कहने पर मना कर देती यदि, उन्हें न समझाती, उनकी समस्याओं का समाधान न करती - तब आपसे शिकायत करते, तो बात कुछ समझ में आती है। पर सीधे आपके पास चले आए - ऐसे कौन से विद्यार्थी हैं?"
शान्ति की ऐसी हिम्मत भरी, खरी प्रतिक्रिया और चेहरे पर झलकते सच्चाई के तेज को देखकर आचार्य जी ऐसे निष्प्रभ हो गए कि उनसे कुछ प्रत्युत्तर देते न बन पड़ा। हकलाते हुए बले -
"अरे छोड़िए, मैंने उनकी शिकायत थोड़े ही स्वीकार की। वो तो उन लोगों ने कहा तो - मैंने सोचा आप तक यह बात पहुँचा दूँ।"
शान्ति फिर भी अपनी बात पर अड़ी हुई बोली - "नहीं आप अभी बुलवा लीजिए उन छात्रों को -दूध का दूध और पानी का पानी हो जाना चाहिए।"
साथ बैठे सभी प्रवक्ता साथी समझ रहे थे कि यह कुछ और नहीं, शान्ति को रौब में लेने की, आचार्य जी की एक घटिया नाकामयाब कोशिश है। बहरहाल सभी को शान्ति का बिना घबराए हुए, सटीक व सधा हुआ जवाब देना बेहद अच्छा लगा, जिसने आचार्य जी की सिट्टी पिट्टी गुम कर दी थी। बैठक के उपरान्त, उस हरकत से आचार्य जी ने अपने खिलाफ खेमे में ‘शान्ति’ के रूप में एक और सदस्य भर्ती कर लिया। उस दिन शान्ति को अच्छी तरह समझ आ गया था कि विभागीय साथियों ने जो आचार्य जी के किस्से उसे सुनाए थे - वे सच थे। ऐसा कपटी घाघ उसने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था । आज उसमें जीवन की आपदाओं से संघर्ष करने की एक नई शक्ति क्रान्तिकारी रूप से जाग उठी थी। विभाग के अपने कक्ष में, कुर्सी पर बैठे-बैठे, बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उसने जंग से भागने का नहीं, पलायन करने का नहीं, वरन् डट कर उसका सामना करने का सकारात्मक निर्णय ले लिया था। वह आचार्य जी जैसे नकारात्मक व्यक्ति के कारण अपनी इतनी अच्छी नौकरी क्यों छोड़े ! बल्कि अपने मूल्यों, संस्कारों व आत्मसम्मान की रक्षा, हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े संकट का सामना, वह डट कर करेगी ! अपने कार्य को परिश्रम, लगन व निष्ठा से करती रहेगी।
प्रवक्ता जीवन के इस छोटे से प्रसंग से शान्ति में जो आत्मबल जागा था तथा उससे उसके अन्तर्मन में जिस तेजस्विता और जीवट ने करवट ली थी, उससे वह एक नवस्फूर्ति से भर उठी।