कपड़े / रश्मि
भोर होने में थोड़ा ही समय बाकी है। रात जन्माष्टमी थी और नौ बरस की मुनिया शाम से ही राधा बनकर मंदिर के सामने वाले चौक पर बैठा दी गयी थी। मुनिया की उम्र अमीरी-गरीबी का भेद तो समझने लगी थी पर दुनियादारी से अभी अनजान थी। जिसके घर पर उसकी माँ रोज़ बर्तन घिसती है, उसी हलवाई का बेटा रघु कृष्ण बनकर उसकी बगल में बैठा था।
“रात के तीन बज गए हैं, अब कहीं जाकर भक्तों का ताँता ख़त्म होने आया है।” पुजारी जी खुद से बुदबुदाए फिर दोनों बच्चों की तरफ़ देखकर तेज़ आवाज़ में बोले, “चलो जाओ, अपने-अपने कपड़े बदल लो और ठाकुर जी के वस्त्र पुजारिन को धोने के लिए दे दो।"
कपड़े बदल कर आई मुनिया ने पुजारी जी के आगे हाथ फैलाते हुए कहा, “पुजारी जी, थोड़ा-सा खाना दे दो न, बहुत भूख लगी है।”
“चल भाग यहाँ से, ऐसा क्या किया है तूने जो तुझे खाना दूँ। बैठी ही तो रही है, बड़ा कोई पहाड़ तोड़ा है।” पुजारी झिडकते हुए सारा चढ़ावे का प्रसाद मंदिर के भीतर ले गए।
मुनिया खड़ी-खड़ी अपने कपड़ों को देखती रही। कपड़े बदलते ही वह भी बदल दी गयी थी।