कपोत और बहेलिये की कथा / रांगेय राघव
प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते थे। उसकी लाल-लाल आँखों को देखकर तो डर लगने लगता था। वह दुष्ट नित्य प्रातःकाल ही उठकर वन में जीव-हत्या के लिए निकल पड़ता और पेड़ की डाल पर बैठे हुए पक्षियों को तथा छोटे-मोटे पशुओं को अपने पैने बाणों से मारा करता। कभी भी यह क्रूर कर्म करते हुए वह धर्म-अधर्म की चिन्ता नहीं करता। चिड़ियों को मारकर बेचना और उससे जीविका अर्जित करना वह अपना परम धर्म समझता था।
एक दिन की बात है, वह पक्षियों की खोज में वन में फिर रहा था। फिरते-फिरते उसे शाम हो गयी थी, उसी समय जोर की आँधी उठी। आँधी के वेग से वृक्ष लड़खड़ाकर गिरने लगे और ऊपर बैठे पक्षी भी त्रस्त होकर नीचे गिरने लगे। आँधी के साथ ही आकाश में मेघों का भयानक गर्जन होने लगा और थोड़ी ही देर में चारों तरफ बिजली चमकने लगी और मूसलाधार वर्षा होने लगी। थोड़ी ही देर में चारों ओर पानी-ही पानी भर गया और तेज हवा के कारण कड़ाके की सर्दी पड़ने लगी। उससे बहेलिये का सारा शरीर काँपने लगा। वह घबराकर इधर-उधर कोई आश्रय ढूँढ़ने लगा लेकिन उसे कहीं भी कोई सहारा नहीं दिखाई दिया।
चारों ओर पानी ही पानी भरा हुआ था और उसके ऊपर तीव्र वायु सन्न-सन्न करके बह रही थी। उससे उस क्रूर बहेलिये को भी उस निर्जन वन में डर लगने लगा। वह कहीं छिपने का विचार करके आगे भागा। थोड़ी ही दूर जाने पर उसे एक कबूतरी पेड़ की जड़ पर बैठी दिखाई दी। वह शीत के कारण काँप रही थी। बहेलिये ने तुरन्त ही उस कबूतरी को पकड़ लिया और पिंजड़े में बन्द कर लिया। अपनी उस निस्सहाय अवस्था में भी उसे कबूतरी को कष्ट देने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ।
कबूतरी अपने पति और बच्चों को छोड़कर कहीं भोजन की तलाश में बाहर निकली थी लेकिन इस क्रूर व्याध के चंगुल में फँसने के कारण वह बहुत दुखी होने लगी। पति और बच्चों की याद करके वह विलाप करती हुई बोली, ‘‘हे क्रूर बहेलिये! मुझे छोड़ दे। देख मेरी याद में मेरे पति और बच्चे दुखी होकर रोएँगे। मुझ निस्सहाय पर दया कर।’’
बहेलिये ने कबूतरी की करुण पुकार पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और वह सीधा बढ़ता हुआ चला गया। कुछ दूर पर ही मेघ के समान नीला एक वृक्ष उसे दिखाई पड़ा। वह उस वृक्ष के नीचे रुक गया और वहीं पिजड़ा रखकर आराम करने के लिए बैठ गया। थोड़ी देर में ही आकाश से बादल हट गये और तारे दिखाई देने लगे। वायु का वेग भी कम हो गया था लेकिन सर्दी फिर भी काफी थी। बहेलिया उस डरावनी रात को अपने घर लौटने का साहस न करके वहीं वृक्ष के नीचे बैठ गया और सोते समय कहने लगा, ‘‘हे वृक्षराज! तुम पर जो देवता रहते हैं, मैं उन्हीं की शरण में हूँ। वे मेरी रक्षा करें।’’ यह कहकर बहेलिया कुछ पत्ते बिछाकर और एक पत्थर पर सिर रखकर लेट गया। उसी वृक्ष पर पिंजड़े में बन्द कबूतरी का पति कबूतर रहता था।
जब काफी रात बीत जाने पर भी कबूतरी नहीं आयी और बच्चे भूख के कारण बिलबिलाने लगे तो कबूतर ने दुखी होकर कहा, ‘‘हाय! कैसी भयावनी रात है और अभी तक मेरी प्रिया घर नहीं आयी। न जाने वह इस समय कहाँ भटक रही होगी। ‘‘हाय विधाता! कहीं उसके ऊपर कोई विपत्ति तो नहीं आ गयी। प्रिया के बिना आज मेरा यह घर सूना दीख रहा है।
सच है, गृहस्थ का घर पुत्र, पौत्र और पुत्रवधू और सेवकों के होने पर भी अपनी भार्या से हीन होने पर खाली ही है। तभी तो श्रेष्ठ व्यक्ति भार्या से हीन घर को घर नहीं कहते। भार्या से हीन घर तो निर्जन वन की तरह लगता है और वह सदा चित्त को पीड़ा पहुँचाता रहता है।
‘‘हाय! यदि आज मेरी प्रिया लौटकर नहीं आएगी तो मैं भोर तक भी जीवित नहीं रह सकूँगा। ‘‘हाय! वह कैसी अच्छी थी। मेरी भक्तिभाव से सेवा करती थी। मेरे दुःख में दुखी होती थी और सुख में सुखी होती थी। वह व्यक्ति धन्य है जिसको ऐसी पतिव्रता भार्या प्राप्त हो। ‘‘हाय विधाता! अब क्या करूँ? अवश्य मेरी प्रिया पर किसी तरह की विपत्ति आ पड़ी है, नहीं तो वह कभी भी मुझे और इन बच्चों को भूखा समझकर इतनी देर तक वन में नहीं रुकती। ‘‘हाय! अब उसके बिना मैं कैसे जीवित रहूँगा। भार्या से ही पुरुष के जीवन का निर्वाह होता है। रोग से पीड़ित और दुःखी व्यक्ति की भार्या ही परम औषध है। भार्या के समान प्रिय दूसरा नहीं है। धार्मिक कृत्यों में भार्या ही पुरुषों की सहायता करती है। जिसके घर में पतिव्रता प्रियवादिनी भार्या नहीं है उसका तो घर छोड़कर कहीं चले जाना ही अच्छा है। ‘‘हाय! अभी तक मेरी प्रिया नहीं आयी। ‘‘हे विधाता! मैं क्या करूँ? मेरी प्रिया को मुझसे मिला दो विधना! नहीं तो मैं इसी क्षण प्राण त्याग दूँगा।’’ इस तरह कहते हुए वह कबूतर रोने लगा।
उसकी सभी बातों को कबूतरी पिंजड़े में बैठी हुई सुन रही थी। वह भी अपने पति को इस तरह अपने वियोग में दुखी देखकर रो पड़ी और कहने लगी - ‘‘हे नाथ, जिस प्रिया की याद करके आप विलाप कर रहे हैं वह मैं यहाँ इस बहेलिये के चंगुल में फँसी हुई हूँ। इसने मुझे अपने पिंजड़े में बन्द कर रखा है, इसी कारण मैं आपके पास नहीं आ सकती। ‘‘हे प्राणनाथ! आप मेरे गुणों की प्रशंसा कर रहे हैं, यह सुनकर मेरा हृदय गद्गद हो उठा है। अहा! इस संसार में स्त्री भी कितनी सौभाग्यवती है जिसके गुणों की प्रशंसा स्वयं उसका पति करता हो। ‘‘हे नाथ! आज मैंने अपनी सभी सेवा का फल पा लिया है, इसलिए अब मुझे मृत्यु का तनिक भी भय नहीं है लेकिन मैं आपके हित के लिए एक बात कहती हूँ, उसको ध्यानपूर्वक सुनिए।’’
अपनी प्रिया की मधुर वाणी सुनकर तो कबूतर के रोम-रोम में नवस्फूर्ति जाग उठी। उसने आतुर होकर कहा, ‘‘हाय प्रिया! क्रूर बहेलिये ने तुम्हें बन्दी बना लिया है लेकिन कहो मेरे हित की वह क्या बात है?’’
कबूतरी ने कहा, ‘‘हे नाथ! इस समय यह बहेलिया भूख से व्याकुल और जाड़े से दुखी होकर तुम्हारी शरण में आया है। इस शरणागत की रक्षा करना तुम्हारा परम धर्म है। ‘‘हे नाथ! मैं जानती हूँ कि इस क्रूर कर्म करने वाले दुराचारी बहेलिये के प्रति आपके हृदय में रोष उठ रहा होगा लेकिन शरणागत का अनिष्ट करना किसी प्रकार उचित नहीं है। जो व्यक्ति शरणागत का वध करता है उसे गोहत्या और ब्रह्महत्या का पाप लगता है। ‘‘हे नाथ! यद्यपि हम इतने साधन-सम्पन्न नहीं हैं जो इस बहेलिये की अधिक सहायता कर सकें लेकिन फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार हमें इसकी सहायता करनी चाहिए।
पण्डितों का कथन है कि जो गृहस्थ यथाशक्ति धर्म-कर्म नहीं करता, उसको घोर नरक की यातना सहनी पड़ती है और जो धर्म के पथ से अपने चित्त को स्वार्थवश होकर नहीं हटाता उसको अन्त में अक्षय लोक प्राप्त होता है। ‘‘हे प्राणनाथ! इसी कारण मैं कहती हूँ कि आप अपनी देह की चिन्ता छोड़कर आये हुए इस शरणागत का सत्कार करो। मेरी चिन्ता छोड़ दो और धर्म का पालन करो। उसके प्रभाव से मैं यदि इस लोक में आपसे नहीं मिल सकी तो परलोक में हम फिर भी दम्पती के रूप में साथ-साथ रहेंगे।’’
अपनी प्रिया की करुण वाणी सुनकर कबूतर गद्गद होकर कहने लगा, ‘‘हे देवी! तुम धन्य हो जो स्वयं बन्दी होकर भी इस क्रूर बहेलिये के हित की कामना करती हो। विधाता ने मुझे कैसा सौभाग्यशाली बनाया है जो तुम जैसी करुणहृदय भार्या मुझे मिली। अब मैं अपने जीवन की चिन्ता छोड़कर अवश्य इस शरणागत बहेलिये का सत्कार करूँगा।’’ यह कहकर कबूतर वृक्ष पर से नीचे उतर आया और बहेलिये के सामने खड़े होकर कहने लगा, ‘‘हे महानुभाव! आप किसी प्रकार दुखी न होइए। आप मेरे अतिथि हैं और अतिथि का सत्कार करना गृहस्थ का परम धर्म है, इसलिए कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आज मैं आपके लिए अपने जीवन को भी उत्सर्ग करके अपने धर्म का पालन करना चाहता हूँ। शास्त्र का कथन है कि यदि शत्रु भी अतिथि के रूप में घर आए तो उसका भी शुद्ध मन से स्वागत करना चाहिए। जो मनुष्य वृक्ष काटने के लिए जाता है उस पर से वृक्ष कभी भी अपनी छाया यह सोचकर नहीं हटाता कि यह मनुष्य मेरा अनिष्ट करने आया है। ‘‘हे महाशय! घर में आये अतिथि का सत्कार करना तो सभी का धर्म है लेकिन पंचयज्ञ करने वाले गृहस्थों का तो यह परम धर्म है। जो व्यक्ति गृहस्थाश्रम में रहकर पंचयज्ञ नहीं करता उसे न तो इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में सद्गति मिलती है। ‘‘हे महाशय! आप बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’’
कबूतर की यह बात सुनकर बहेलिया पक्षी की शिष्टता के ऊपर आश्चर्य करने लगा। वह इस समय जाड़े के कारण काँप रहा था। उसने काँपती आवाज में कहा, ‘‘हे दयालु कबूतर! मैं इस समय जाड़े के मारे ठिठुर रहा हूँ। तुम कोई ऐसा उपाय करो जिससे मैं इस ठण्ड से बच सकूँ।’’ बहेलिये की बात सुनकर कबूतर तुरन्त ही इधर-उधर से सूखी पत्तियाँ बीन लाया और उन्हें एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया। उन्हें जलाने के लिए आग माँगने के लिए वह लुहार के पास गया और वहाँ से आग लाकर उसने उस पत्तों के ढेर को सुलगा दिया। इस आग से बहेलिये ने अपना जाड़ा मिटाया। उसका काँपना बन्द हो गया और वह स्थिर होकर बैठ गया। उसके बाद फिर कबूतर ने पूछा, ‘‘हे अतिथि! बोलिए, अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’’
बहेलिये ने स्वस्थ होकर कहा, ‘‘हे पक्षी! मैं इस समय बहुत भूखा हूँ। यदि कर सको तो मेरे लिए कुछ खाने का प्रबन्ध करो।’’ यह सुनकर कबूतर ने दुखी होकर कहा, ‘‘हे अतिथि देवता! मेरे पास इस समय ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे आपको देकर आपकी भूख मिटाऊँ। मैं वन में रहकर प्रतिदिन भोजन की सामग्री लाकर निर्वाह करता हूँ। मेरे पास संचित पदार्थ तो इस समय कोई नहीं है। क्या करूँ?’’ यह कहकर कबूतर चिन्ता में पड़ गया और अपने को असहाय समझकर अपने आपको धिक्कारने लगा। बार-बार उसके हृदय में यही स्वर गूँजता, ‘हाय! मैं अतिथि की इच्छा कैसे पूर्ण करूँ जिससे मैं पूरी तरह गृहस्थ धर्म का पालन कर सकूँ।’ वह कितना भी सोचता लेकिन उसे कोई भी वस्तु ऐसी नहीं दिखाई देती जिसे देकर वह बहेलिये की भूख मिटा सके। अन्त में उसने अपने ही मांस से अतिथि की भूख मिटाने का निश्चय कर लिया और नवीन स्फूर्ति के साथ वह बहेलिये से बोला, ‘‘हे अतिथि देवता! आप तनिक ठहरिए। मैं अभी आपके भोजन की व्यवस्था करता हूँ।’’
फिर कबूतर ने सूखे पत्ते इकट्ठे किये और बुझती हुई आग को और भी अधिक सुलगा दिया। अग्नि को पूरी तरह प्रज्वलित देखकर वह बहेलिये से कहने लगा, ‘‘हे अतिथि देवता! ऋषियों और पण्डितों ने अतिथि की सेवा को ही परम धर्म बताया है, इसलिए मैं अपने शरीर को बलिदान करके भी आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। आप मेरे मांस को खाकर अपनी भूख मिटाइए।’’ यह कहकर उसने तीन बार अग्नि की प्रदक्षिणा की और फिर वह अग्नि में कूद पड़ा। बहेलिये के देखते-देखते वह जल गया।
उस पक्षी को अपने धर्म के पीछे मरते देखकर तो बहेलिये का कठोर हृदय हिल उठा। वह अपने आपको धिक्कारने लगा। आज पहली बार उसको ज्ञात हुआ था कि वह पक्षियों को मार-मारकर महापाप करता है और अवश्य ही उसके फलस्वरूप परलोक में उसकी दुर्गति होगी। अपने पापों का प्रायश्चित्त करता हुआ वह कबूतर की मृत्यु पर रोने लगा और कहने लगा, ‘‘हाय! मैं मनुष्य होकर भी कैसा पापी और अधर्मी हूँ और यह कबूतर पक्षी होने पर भी कितना उदारहृदय और धार्मिक है। मुझे अवश्य ही कभी इस जीवन में सुख और शान्ति प्राप्त नहीं होंगे और मृत्यु के पश्चात् यम के दूत भयानक क्रूरता के साथ मेरे शरीर को जलती अग्नि में तपाएँगे। ‘‘हाय विधाता! अब क्या करूँ? जब कबूतर ने मेरे लिए अपने प्राण त्याग दिये हैं तो मैं भी अब अपने इस पापी जीवन को नहीं रखना चाहता। मैं भी इसी अग्नि में जलकर अपने प्राण त्याग दूँगा।’’ यह निश्चय करके बहेलिये ने कबूतरी को अपने पिंजड़े से निकाल दिया और उसी क्षण लग्गी, शलाका, पिंजड़ा आदि सभी सामानों को फेंक दिया।
कबूतरी निकलकर अपने पति के लिए शोक करने लगी। वह रोती हुई कहने लगी, ‘‘हा नाथ! आप चले गये और मुझे अनाथ विधवा बनाकर यहाँ छोड़ गये। अब इस संसार में मेरा कौन आधार है। विधवा स्त्री अनेक पुत्रों के होने पर भी दुखी ही रहती है। ‘‘हे प्राणनाथ! आपके बिना मैं एक पल भी जीवित रहने की कामना नहीं करती। पिता, पुत्र और बन्धु परिमित सुख देते हैं।
स्त्री को अपरिमित सुख देने वाला पति के सिवा और कोई नहीं है। पति ही स्त्री का एकमात्र आधार है।’’ इस तरह विलाप करती हुई वह कबूतरी भी बहेलिये के सामने ही जलती आग में कूद पड़ी और अपने पति के साथ जल गयी। दूसरे ही क्षण बहेलिये ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि कबूतर और कबूतरी दिव्य पुरुष और स्त्री के रूप में इन्द्र के विमान में बैठकर स्वर्गलोक को चले गये हैं।
अब तो अपने पापी जीवन को और भी अधिक धिक्कारते हुए वह बहेलिया वहाँ से चल दिया और उसने सद्गति प्राप्त करने के लिए तप करने का निश्चय किया। ईर्ष्या और मोह छोड़कर वह केवल वायुसेवन करते रहने का पूर्ण संकल्प करके आगे बढ़ा। कुछ ही दूरी पर उसको एक सरोवर दिखाई दिया। वह सरोवर कमलों और अनेक प्रकार के पक्षियों से शोभित था। उपवास करते हुए बहेलिये ने लालच के वश होकर उस सरोवर की ओर देखा तक नहीं और सीधा चलता ही चला गया। झाड़ियों से उसका शरीर पूरी तरह छिद गया था। लेकिन फिर भी उस बहेलिये ने उसकी तनिक भी परवाह नहीं की। रक्त उसके शरीर से बहने लगा लेकिन वह अपने घावों को सहलाने के लिए भी किसी स्थान पर नहीं रुका। अपने पापों का प्रायश्चित्त करता हुआ वह आत्मग्लानि से भरे हुए हृदय को लेकर आगे बढ़ता ही जाता था।
कुछ ही दूर पर उसे पशुओं की भयानक आवाज सुनाई देने लगी और ज्यों ही वह कुछ और आगे बढ़ा तो उसने देखा कि दावाग्नि से वन के वृक्ष जल रहे हैं। तीव्र वायु चलने लगी थी जिससे आग अपना प्रलयकाल का-सा रूप लेकर सारे वन को जलाकर क्षार कर देने के निश्चय से आगे बढ़ी चली आ रही थी। बहेलिये की आत्मग्लानि इतनी बढ़ चुकी थी कि उसने अग्नि में जलकर अपने पापों का प्रायश्चित्त करना ही ठीक समझा और यह सोचकर वह सीधा उस दावाग्नि के भीतर बढ़ा चला गया।
क्षण भर में ही अग्नि की लाल-लाल लपटें बहेलिये को निगल गयीं। उसका शरीर जलकर क्षार हो गया। उसी क्षण उसके जीवन के सारे पाप भी उस अग्नि में जल गये और वह पूरी तरह पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को चला गया। इस तरह कबूतर तो अतिथि-धर्म का पालन करते हुए स्वर्ग को गया, कबूतरी पतिव्रता धर्म का पालन करती हुई उसके साथ स्वर्ग को गयी और बहेलिया अपने पापों का प्रायश्चित्त करता हुआ अग्नि में जलकर स्वर्ग को गया।