कबड्डी लीग बनाम क्रिकेट तमाशा / जयप्रकाश चौकसे

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कबड्डी लीग बनाम क्रिकेट तमाशा
प्रकाशन तिथि : 28 अगस्त 2014


कबड्डी लीग अपने अंतिम चरण में है आैर कुछ टीमों को सितारों ने खरीदा है तथा जोश-खरोश में मैच देखने आते हैं। शीघ्र ही फुटबॉल लीग भी प्रारंभ होने जा रही है। यह सब क्रिकेट आइपीएल तमाशे के बाद शुरू हुआ है परंतु मीडिया कबड्डी लीग को अधिक महत्व नहीं दे रहा है। कबड्डी लीग के मुंबई में खेले जा रहे मैच देखने का टिकिट तीन सौ रुपए में बिक रहा है परंतु क्रिकेट तमाशे के टिकिट की दर तीन हजार होती है। क्रिकेट लीग में सटोरिये घुसे हुए हैं आैर क्रिकेट के स्टील मैन श्रीनिवासन साहब के दामाद के सटोरियों से संबंध की खबरें भी सुर्खियों में रही हैं परंतु श्रीनिवासन साहब की पकड़ क्रिकेट बोर्ड पर आज भी मजबूती से कायम है आैर उनके प्रिय धोनी लगातार हार कर भी जमे हुए हैं। मुदगल जांच आयोग के सामने क्रिकेट का 'लौह पुरुष' अभी तक प्रस्तुत नहीं हुआ। क्रिकेट तमाशे ने करोड़ों रुपए के व्यापार का रूप धारण कर लिया है परंतु कबड्डी अभी तक भव्य व्यापार नहीं बना है, इसलिए उसे मीडिया भाव नहीं दे रहा है। दरअसल हर क्षेत्र में व्यापार सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो चुका है आैर जिस क्षेत्र में भी अधिक धन होता है, वहां संगठित अपराध अपने चरण पसार देता है।

दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म 'गंगा जमुना' में कबड्डी मैच का दृश्य उतने ही रोमांचक ढंग से शूट किया था जितना 'बेन हर' का चैरियर रेस दृश्य। 'गंगा जमुना' के पहले आैर बाद में फिल्मों में कबड्डी के दृश्य नहीं आए हैं क्योंकि फिल्में भी व्यवसाय हैं आैर बाजार को कभी कबड्डी में लाभ नहीं दिखाई दे रहा है। दरअसल अगर क्रिकेट के मुकाबले में कबड्डी के कम लोकप्रिय होने तक मामला सीमित होता है तो शायद उतनी चिंता की बात नहीं होती परंतु हर क्षेत्र में सारे आकलन ऐसे ही हो रहे हैं। हिंदी से अधिक अंग्रेजी को भाव दिया जाता है। पाकिस्तान के सीरियल 'जिंदगी' नामक चैनल पर दिखाए जा रहे हैं। उनसे भी यही बात उभर कर आती है कि पश्चिम जीवन शैली वहां भी हावी है। एक दृश्य में घर आकर पढ़ाने वाली शिक्षिका बच्चों को उर्दू पढ़ाती है तो उसे यह कहकर रोक दिया जाता है कि वह सिर्फ गणित सिखाए। शिक्षिका कहती है कि उसे एक घंटा गणित पढ़ाने के पैसे दिए जाते हैं आैर वह उसके बाद आधा घंटा मुफ्त में बच्चों को उनकी मातृभाषा पढ़ाती है। इसके बाद भी उसे रोक दिया जाता है। देशज परंपराओं की यह उपेक्षा हम सारे विकास करने वाले देशों में देखते हैं क्योंकि उन्हें विकास का जो विदेशी मॉडल बेचा गया है, यह उसी का अंग है। कोई जापानी तो अपने बच्चों को मातृभाषा सीखने से नहीं रोक रहा है। इस सोच की जड़ें बहुत गहरी हैं। सन् 89 में ही अमेरिका के अर्थशास्त्रियों ने अपनी सरकार को सलाह दी कि वह तमाम थर्ड वर्ल्ड में आर्थिक उदारवाद आैर भौगोलीकरण की प्रक्रिया को लागू करें। नियो क्लासिकल स्कूल के अर्थशास्त्री इसी तरह की सलाह देते हैं आैर कलकत्ता स्कूल के अर्थशास्त्री उस देशज विकास पर बल देते हैं जिसमें देश के ही साधनों द्वारा विकास ऐसा हो कि जलवायु पर असर नहीं पड़े आैर धरती की संपदा का अपव्यय नहीं हो।

आज सबसे बड़ा संकट धरती को बचाना है, उसकी हरियाली की रक्षा करना है आैर प्रदूषण मुक्त विकास करना है। असल मुद्दा अब धरती है क्योंकि विगत 150 वर्षों में हमने उसकी पचास प्रतिशत संपदा का उपयोग कर लिया है। भारत में इसकी भयावहता हम अपनी सूखती नदियों उनके प्रदूषित जल में देख सकते हैं। अपने कबीर प्रभाव में 'मधुमति' 1956 के लिए लिखा "मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जरा सी'। बहरहाल कबड्डी बनाम क्रिकेट मातृभाषा बनाम अंग्रेजी इत्यादि केवल लक्षण हैं, असली बीमारी तो कुछ आैर है। नियो क्लासिकल स्कूल के अर्थशास्त्री सभी सत्ता के ठियों पर महत्वपूर्ण बने हुए हैं। हिंदी के शब्द अर्थशास्त्री में से अंग्रेजी के अर्थ (धरती) को अलग करके कैसे सोचा जा सकता? दरअसल सारे सोच में समग्रता का अभाव होने के कारण इतनी संकीर्णता गई है कि नाक के परे कुछ दिखता ही नहीं है।