कबाड़िए / से.रा. यात्री
'तुम्हें मालूम है, हम लोग लड़ाई में भी साथ-साथ रहे थे।' मैं एक छोटे-से रूमाल से गर्दन और बाँहों पर बहते पसीने को पोंछ-पोंछ कर परेशान हो रहा था। यों मेरी अटैची में एक छोटा तौलिया रखा था, जो इस पसीना सुखाने वाली क्रिया के लिए ज्यादा उपयुक्त था पर अटैची खोल कर तौलिया निकालना मुझे एकदम अप्रासंगिक लगा। उनकी बात को बहुत ध्यान दे कर एकाग्रता से सुनने का भाव चेहरे पर ला कर मैंने कहा, 'अच्छा! लेकिन कब? 'सेकेंड वर्ल्ड वार' में?' वह 'सेकेंड वर्ल्ड वार' का नाम सुन कर बड़े जोर से हँस पड़ीं। कोई डेढ़-दो मिनट तक खुल कर हँसने के बाद बोलीं, 'बाबा रे बाबा! 'सेकेंड वर्ल्ड वार' का तो बस मुझे नाम भर मालूम है। तब तो मैं पैदा भी नहीं हुई थी!' और सहसा वह मुझसे पूछ बैंठी, 'तुम्हें मेरी उम्र कितनी मालूम पड़ती है?' मैं उनकी जिज्ञासा सुन कर उलझन में पड़ गया। इस घर में आए अभी पाँच-सात मिनट मुश्किल से हुए होंगे।
अपना परिचय देने के लिए मैंने बड़े भैया का पत्र उनके हवाले कर दिया था। यह पत्र इस घर के मालिक प्रकाश के लिए था जो अभी तक दफ्तर से नहीं लौटे थे। घर में बच्चे भी नहीं थे, शायद वे स्कूल में रहे हों या फिर हों ही नहीं और वह मुझसे अपनी उम्र के बारे में पूछ रही थीं उनकी उत्सुकता-भरी आँखों को मैं दरगुजर नहीं कर सका। लगभग सत्रह-अठारह वर्ष पहले मेरे भाई-भाभी और ये लोग साथ रहे थे। अलग हो जाने के बाद इन लोगों का एक-दूसरे से मिलना-जुलना भी नहीं हो पाया था। अब इतने वर्षों के अंतराल पर मैं इस शहर में एक इंटरव्यू देने आया था। और मुझे कम से कम दो रातें यहीं ठहरना था।
बड़े भैया का पत्र पढ़ कर घर की मालकिन ने मुझे बैठने के लिए कुर्सी और पीने को पानी का गिलास दे दिया था। छत का पंखा भी खोल दिया था और अब वह अपनी उम्र जानने की उत्कंठा चेहरे पर लिए मेरी तरफ ताके जा रही थीं। मेरी चेतना में उनके दो वाक्य बराबर चकरघिन्नी की तरह चक्कर काट रहे थे, 'हम लोग लड़ाई में भी साथ-साथ रहे थे।' 'तुम्हें मेरी उम्र कितनी मालूम पड़ती है?' मेरी इच्छा हुई कि मैं उनकी उम्र के बारे में कुछ अनुमान लगाने की कोशिश करूँ, शायद थोड़ी-बहुत सफलता हाथ लग जाए। लेकिन यह काम दुखदायी और जोखिम-भरा था। औरतें (और अब आदमी भी) अपनी उम्र के दस-बीस बरस एक ही बार में जिस तरह उड़ा देते हैं, उसका कोई जवाब नहीं। जिसे आप पच्चीस वर्ष का कहने की सोच रहें हैं, हो सकता है वह पैंतालीस को ठेंगा दिखा चुका हो। कहीं आपने भूल से उसे पच्चीस का कह दिया तो वह आपको सिरे से बुद्धू घोषित करके अपनी जन्मपत्री ला कर दिखा देगा, और बतला कर रहेगा कि वह बाईस बरस पहले पच्चीस साल की उम्र को पीछे छोड़ आया है।
बहुत सिर मारने के बाद मुझे एक सूत्र हाथ आया तो मैं गदगद हो उठा। मुझे अपनी भाभी की उम्र याद आ गई। बस, समस्या हल हो गई। अब मैं चाहूँ तो इन्हें भाभी की उम्र से दो-चार साल पीछे धकेल कर अनुमानत: सही उम्र बतला सकता हूँ। पर अगले ही पल मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया, क्योंकि भाभी की उम्र अड़तीस पार कर चुकी थी। भला किसी महिला की उम्र चौंतीस-पैंतीस बरस बतलाई जा सकती है? खैर, मैंने इस जानलेवा सिलसिले को एक तरफ ठेल कर दिमाग के बाहर कर दिया और 'लड़ाई' की दिशा में लौट आया, 'आप लड़ाई में साथ-साथ रहने के बारे में कुछ बतला रही थीं! 'इंडो-चाइना वार' में आप लोग साथ रहे होंगे।' अपनी तरफ से निष्कर्ष निकालने के पहले मैंने दिमागी तौर पर बहुत दूर तक सर्वे किया था, क्योंकि उस दौरान दादा के ये मित्र और दादा नवविवाहितों की गिनती में थे। हो सकता है, इन दोनों परिवारों ने युद्ध का आतंक साथ रह कर झेला हो।
लेकिन मेरे अनुमान पर इस दफा तो वह एकदम बेलाग हो कर हँसने लगीं। वायु से बेतरह फूली उनकी देह कुर्सी में फँसे-फँसे यों हिलने लगी, गोया मोटर के ट्यूब में हवा भरने का कार्यक्रम चल रहा हो। लाचारी में हँसते चले जाने पर जब उनकी साँस फूल गई तब उन्हें अपनी भद-भद हँसी पर काबू करना पड़ा और मुझे दिलचस्पी से देखते हुए बोलीं, 'सचमुच क्या आशा ने तुम्हें कभी कुछ नहीं बतलाया?' 'किस संबंध में?' मैंने बगैर सोचे-समझे अपना सवाल उछाल दिया। उनके चेहरे पर एक क्षण के लिए असमंजस उभरा, लेकिन फिर वह अपने अंतर्द्वंद्व पर काबू पा कर बोलीं, 'तुम्हें मालूम है मेरी और आशा की शादी एक ही महीने में हुई थी और हम लोग नैनीताल में 'हनीमून' मनाने गए थे?' 'हनीमून मनाने गए थे' उन्होंने जिस शेखी से कहा उसका उदाहरण मिलना कठिन हैं बाईस-तेईस बरस के लड़के को 'हनीमून' मनाने के चर्चे में शामिल कर लेने में शायद उन्हें कहीं कोई कठिनाई नजर नहीं आती थी। बस, गनीमत यही हुई कि वह इस 'हनीमून' मनाने से आगे भी बढ़ गईं। 'तो वहाँ नैनीताल में सारे बड़े होटल घिर गए थे। काफी दूर जा कर एक मकाननुमा होटल में चालीस रुपए रोज पर एक-दूसरे से जुड़ी हुई दो कोठरियाँ मिलीं, जिनका पाँच रोज का एडवांस पहले भरना पड़ा। मैंने और आशा ने तय किया कि जो भी खर्च करना हो, आधा-आधा साझे में करेंगे। सौ मैंने और सौ आशा ने दिए तो मकान का किराया जमा हो गया। अपनी बात बीच में ही रोक कर वह हँसने लगीं और आधे मिनट बाद हँसी को सहसा 'ब्रेक' दे कर बोलीं, 'एक बात मैं कहूँगी...।'
एक बार मेरी ओर सहायता के लिए देखा तो मैं तत्काल समझ गया कि वह मेरा नाम जानने को व्याकुल हैं। मैंने कहा, 'जी, मुझे उमेश कहते हैं।' 'अच्छा, तो हाँ भैया उमेश, एक बात मैं कहूँगी। आशा में चालाकी शुरू से ही है।' उन्होंने मेरी ओर ऐसी आँखों से देखा, जैसे मेरे मुँह से ही तसदीक कराना चाहती हों कि आशा भाभी वाकई चालाक हैं। 'तुम तो उसके सगे देवर हो, इतने दिनों से साथ रहते हो, उसकी यह बात तो जान ही गए होगे?' उनकी बातों से मुझे भीतर ही भीतर बेचैनी होने लगी। कैसी औरत के पास भेज दिया मुझे? अब मैं इससे इस बात पर बहस शुरू करूँ कि आशा भाभी चालाक हैं या नहीं! मुझे कुछ भी न कहते देख कर उन्होंने स्वयं ही निष्कर्ष निकाला, 'लड़के हो अभी, तुम्हें पता नहीं चलता होगा। फिर बुरे आदमी के साथ रहते-रहते उसकी बुराई पर नजर भी नहीं जाती। मैंने तो पहले दिन ही परख लिया था कि आशा बहुत तेज है।'
वह फिर से हँसने-मुस्कराने लगीं, जैसे बच्चा मुँह में मीठी गोली डाल कर मुदित भाव से चूस रहा हो। 'तुम्हारे भाई साहब नरेश बाबू भी उसके जादू में बँध गए थे। आशा जिधर चाहती, नकेल पकड़ कर सुरेश को उधर ही घुमा देती थी। थी भी तो बहुत सुंदर! आदमी बेचारा करे भी तो क्या करे! सुंदरता तो चीज ही ऐसी है। उसके आगे तो अच्छे-अच्छों को पानी भरना पड़ता है।' पता नहीं कौन-कौन से विचित्र रहस्य उनके मन में दफन थे। वह बोल रही थीं और मैं चुपचाप सुन रहा था, 'हम लोगों ने तय किया था कि खाना-पीना अपने हाथों तैयार करेंगें। एक दिन तो उसने मेरे साथ लग कर मन से खाना तैयार करवाया और अगले दिन वह अपना घुटना पकड़ कर पलँग पर लेट गई। नरेश बिचारा भी परेशान! आशा के आगे-पीछे चक्कर काटता फिरे। कभी मालिश की दवा की शीशी हाथ में तो कभी 'हाट-वाटर बॉटल'। आखिर हार-थक कर मैं और प्रकाश होटल से बाहर चले गए।'
हालाँकि वह अपनी दास्तान कहते-कहते हाँफने लगी थीं, लेकिन इस चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए उनमें अदम्य उत्साह नजर आता था। उन्होंने अपनी कहानी आगे बढ़ाई, 'तुमको यकीन नहीं आएगा उमेश, कि मैंने और प्रकाश ने उसी शाम आशा और नरेश को पहाड़ी रिक्शे पर बैठ कर एक दुकान के सामने 'कोल्ड ड्रिंक्स' पीते देखा। पर मैंने यह बात उन दोनों को कभी नहीं बतलाई। भई, फिजूल में लड़ाई-झगड़ा, कहा-सुनी मुझे पसंद नहीं है और फिर फायदा भी क्या है, जो आदमी जान-बूझ कर बीमार बन जाए, उसे कौन ठीक कर सकता है?' मुझे बहुत तेज प्यास महसूस हो रही थी, लेकिन मुझे अपने भाई और भाभी के बारे में अलिफ-लैला के किस्से सुनने पड़ रहे थे। यों हमारे अपने घर में एक या दो मेहमान हमेशा ही ठहरे रहते थे और आशा भाभी को ही घर का सारा काम सँभालना पड़ता था। लेकिन इस किस्म की बनावटी बीमारी का परिचय उन्होंने कभी नहीं दिया था। खैर, मुझे उनकी बतलाई हुई बातें सुननी ही पड़ती सो मैं सुन रहा था।
अपनी ही बातें बीच में रोक कर वह सहसा पूछ बैठीं, 'क्या आशा अभी वैसी ही इकहरी, छरहरी और सुंदर है?' मैंने अनजाने में ही झट से गर्दन हिला कर आशा भाभी की सुंदरता की ताईद कर दी। उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, 'कितने बच्चे हो गए आशा के?' इस बार उत्तर देने में मैंने और भी जल्दी दिखाई, 'चार बच्चे हैं। बड़ा लड़का पंद्रह का है; हाईस्कूल पास कर गया है, कॉलेज में पढ़ रहा है।' शायद उनकी बात से मैं भीतर ही भीतर चिढ़ गया था और उन्हें कष्ट देने की गरज से आशा भाभी को चार बच्चों की माँ हो जाने के बावजूद सुंदर सिद्ध करना चाहता था। 'हरे राम!' उनके मुँह से यों निकला, जैसे उन पर अचानक वज्रपात हो गया हो। वह लंबी साँस खींच कर बोलीं, 'मुझे तो पहले बच्चे ने ही दमे की बीमारी दे दी। सारा बदन फूल गया है। चला-फिरा तक नहीं जाता।' और वह इस तरह काँखने लगीं, जैसे बस दमे का भीषण आक्रमण होने ही वाला हों।
अपनी अन्य जिज्ञासाओं की तरह उन्होंने आशा भाभी की सुंदरता को भी जहाँ का तहाँ छोड़ दिया और पूछने लगीं, 'नरेश की तनखा तो अब काफी हो गई होगी?' मैंने फौरन कहा, 'हाँ, हजारेक मिलते हैं।' 'बस्स?' उन्होंने मुँह बिचका कर कहा, 'हजार अब क्या होते हैं? इन दिनों तो पाँच हजार भी कुछ नहीं है। प्रकाश को तीन हजार मिलते हैं, तब भी किच-किच मची रहती है। आशा तो बिचारी इतने थोड़े रुपयों से बहुत दुखी रहती होगी। चच्च! कितनी गुड़िया-सी सुंदर थी जब ब्याह कर आई थी! नरेश ने कोई मोटर साइकिल वगैरा ली?' 'कहाँ? वह तो उसी सड़ियल-सी साइकिल पर दफ्तर जाते हैं।' मैंने उन्हें सूचित किया। उन्होंने मेरी बात पर टिप्पणी जड़ दी, 'नरेश ने भी तो हद्द ही कर डाली! इस जमाने में चार-चार बच्चे! आशा कितनी नाजुक थी! भला चार-चार जाए उसके बिरते में थे? नरेश में गँवारपन शुरू से ही है। आशा की शादी तो किसी अफसर से होनी चाहिए थी।' फिर उन्होंने कड़वा-सा मुँह बना कर पूछा, 'कै लड़कियाँ हैं?' मैंने इस बार ससंकोच कहा, 'तीन!' 'लो भई, हद्द ही कर दी उस भले मानस ने! जब पहलौठी में ही बेटा हो गया था तो लड़कियों की लंगर लगाने का क्या शौक पड़ गया था? यहाँ तो पहलौठी लड़का हो जाता है तो दुबारा...!'
उन्होंने अपनी बात बीच में ऐसी जगह तोड़ दी, जहाँ से उसके खाली स्थान को भरना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था। जिस ढंग पर वह हमारे सारे परिवार के परखचे उड़ाने पर अमादा थीं, वह मेरे लिए अकल्पनीय था। मैंने विषयांतर करने की चेष्टा की, 'आप कुछ लड़ाई की बाबत बतला रही थीं!' 'अरे वो! तुम भी बड़े भोले बच्चे लगते हो! कौन-सी क्लास का इम्तिहान दिया है? आशा अभी से तुम्हें नौकरी में क्यों धकेल रही है? उसके मालिक ने तो छब्बीस साल की उम्र में नौकरी शुरू की थी।' 'मैं भी तेईस का हो गया हूँ। एम.एस-सी. पास किए भी एक साल से ऊपर हो गया है।' मैंने उनका अज्ञान दूर करना चाहा। 'अच्छा? लगते तो तुम बचकू हो! नरेश तो एकदम ताड़-सा लंबा है, तुम छुटकू कैसे रह गए?' उन्होंने मेरी पूरी देह की देख-भाल की और निष्कर्ष निकालते हुए बोलीं, 'क्या शुरू से ही आशा के पास रह कर पढ़े हो? तब तो वह बड़ी डींग हाँका करती थी कि घर में 'वनस्पति' नाम को भी नहीं आता। देसी घी पर उसका बड़ा जोर था। अब पाँच बच्चों के लिए देसी घी कहाँ से आता होगा? मैंने उनकी भूल सुधारने की गरज से कहा, 'पाँच नहीं, चार ही बच्चे तो हैं!'
उन्होंने लापरवाही से हवा में हाथ घुमाया और लगभग झिड़की-सी देते हुए कहने लगीं, 'अरे, चार ही सही! चार में भी बाजा बज जाता है। फिर पाँचवाँ होते क्या देर लगती है? अभी क्या आशा की उमर बीत गई?' जैसे बिगड़ैल टट्टू रास्ता छोड़ कर बगटुट भाग निकलता है, उसी तरह वह बार-बार अपने असली मुद्दे से इधर-उधर भाग रही थीं। आशा भाभी को ले कर उनके आक्रोश की कोई सीमा नहीं थी और दिलचस्प बात यह थी कि पिछले पंद्रह-सोलह बरसों में उन्होंने न आशा भाभी को देखा था और न उनका कोई समाचार जानने की कोशिश की थी। यही नहीं, आशा भाभी ने भी कभी उनके संबंध में मुझे कुछ नहीं बतलाया था। इन पति-पत्नी की (शादी के समय की) एक फोटो उनके एलबम में जरूर थी, जिससे इतनी-सी सूचना मिलती थी कि दोनों परिवार कभी न कभी और कहीं न कहीं साथ रहे हैं। मुझे इंटरव्यू देने इस दूर-दराज महानगर में न आना होता तो शायद ही कभी मैं इस भली महिला के दर्शन कर पाता ओर यह तो कभी जान ही न पाता कि हमारे परिवार को ले कर वह अपने दिल में कितने गहरे जख्म सँजोए बैठी हैं। अब मुझे उनके हमलों में कुछ अजीब ढंग का रस आने लगा था। मैंने उन्हें फिर छेड़ा, 'वह लड़ाई वाली बात...!' 'अरे भई, ओफ्फोह! तुम भी कमाल के लड़के हो!'
उन्होंने प्रसंग बदल कर पूछा, 'फिर कभी नैनीताल गई आशा?' 'सात-आठ साल पहले गई थीं।' मैंने उन्हें सूचित किया। 'अकेली गई होगी!' 'नहीं, सभी लोग गए थे।' मैंने उनके अनुमान पर चोट की। 'घूमने-फिरने गई होगी - दो-चार दिन के वास्ते।' 'नहीं, हम लोग नैनीताल पूरे जून-भर रहे।' मैंने उनके मंतव्य की गहराई में घुसे बिना कहा। उनकी आँखें फटी रह गईं। उतावली-से उन्होंने सवाल किया, 'पूरे महीने होटल में रहे तुम लोग?' 'नहीं, दादा के एक दोस्त के मकान में ठहरे थे; उनका परिवार भी गया था।' 'वही तो मैं कहूँ।' उन्होंने संतोष की लंबी साँस ली और सहसा दुःख में डूब गईं, 'मैं तो अब पहाड़ पर जा ही नहीं पाती। दमे का जोर होने लगता है। एक बार 'आबू' गई थी। चार-छह दिन बाद ही तबियत बिगड़ गई। लाचार हो कर लौटना पड़ा।' मैंने प्यास की शिद्दत से होठों पर जीभ फेरी, पर मेरी इच्छा पानी का गिलास माँगने की नहीं हुई। वह भी मेरी प्यास के बारे में कुछ नहीं जान पाईं और परम आत्मीयता से पूछने लगीं, 'जब तीन-तीन लड़कियाँ हैं तो नरेश ने कुछ रुपया-पैसा तो जमा किया होगा?' मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, 'पता नहीं।' 'तुम्हें पता हो या न हो; क्या जमा करेगा वह? आशा लाख चालाक सही, रुपया जोड़ना उसके भी बस का नहीं है।
फिर हजार-बारह सौ में होता ही क्या है इस जमाने में?' रुपए की बाबत बोलते-बोलते सहसा उन्हें वह बात याद आ गई जो उन्होंने मेरे आते ही शुरू की थी, 'हम लोग नैनीताल में उस दफा सिर्फ पाँच ही दिन ठहरे। उतने ही दिनों में मैंने देख लिया कि हम दोनों में से कोई खुश नहीं रहा। चौके का पूरा सामान खरीद लिया गया था। मिट्टी का तेल, तवा, चिमटा ओर परात भी बाजार से ही ली गई थीं। पर जब आशा ने चौके का काम एक दिन भी कायदे से नहीं कराया तो हमने सोचा बेकार बदमजगी बढ़ाने से क्या फायदा! मैंने और प्रकाश ने कुछ दिन लखनऊ रहने की सोची।' 'लेकिन जून के महीने में तो लखनऊ भट्ठी हो जाता है! नैनीताल से लखनऊ जाने की सोची आपने?' मैंने अपनी शंका व्यक्त की। 'अब क्या किया जाए? हालाँकि मेरे 'हसबैंड' प्रकाश ने कहा भी कि आशा उम्र में छोटी है, उसमें बचपना है। उसकी बात पर मत जाओ। लेकिन मैंने कहा, यह भी कोई बात हुई। आशा अगर छोटी है तो क्या मैं बूढ़ी हो गई?' वह बूढ़ी थीं या नहीं मेरे लिए कुछ भी कहना मुश्किल था, क्योंकि बाल सफेद हो जाना और खाल पर सैकड़ों सिलवटें पड़ जाना ही अगर बुढ़ापे के लक्षण हैं तो वह कतई बूढ़ी नहीं थी। मगर उनके चेहरे की कुदरती रौनक उन्हें न जाने कब की धोखा दे गई थी। वह एक कीमती साड़ी पहने थीं, आभूषण भी धारण किए थीं, माँग में गहरी सिंदूरी रेखा भी चमक रही थी। पर चेहरे पर इस सबके बावजूद गहरा विकर्षण मौजूद था।
उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई, 'उस होटल से भी हम लोग अनोखे ढंग से निकले। दरवाजे पर लगे ताले की दो चाबियाँ तो थीं ही जब आशा ओर नरेश कहीं घूमने गए, तो मैंने और प्रकाश ने तय किया कि अब चल निकलें! लेकिन नहीं, मैंने फिर सोचा ऐसे जाना ठीक नहीं होगा। एक बोतल मिट्टी का तेल रखा था, उसे मैंने आशा के स्टोव में डाल दिया। झाड़ू अपने बिस्तर में बाँध ली, परात भी अपने ही बिस्तर में डाल ली और बाकी सारे बर्तन आशा के लिए वहीं छोड़ दिए। प्रकाश को मैंने बाजार भेज कर एक पीतल की थाली भी मँगवा ली, जिसे मैंने आशा के लिए छोड़ दिया, कहीं उसे यह न लगे कि मैंने ज्यादा सामान अपने लिए रख छोड़ा है।'
वह परम उत्साह में बर्तन-भांडों के बँटवारे की तफसील सुनाती रहीं और मैं आश्चर्यविमूढ़ हो कर सुनता रहा। 'और फिर मैं और प्रकाश घूमने निकल गए। हम लोगों ने उस दोपहर खाना भी बाहर होटल में खाया। अब दो-ढाई बजे मैं और प्रकाश लौट कर आए तो देखा कि आशा और नरेश भी अपना बिस्तर बाँधे बैठे थे। दो कुली बुलवाए गए और हम साथ-साथ बस-स्टैंड पहुँचे। नैनीताल से हम लोग एक ही बस में वापस लौटे।' वह लौटते समय कितनी सहज और तनाव-मुक्त थीं, इसका उदाहरण उन्होंने हँसते हुए पेश किया, 'मैं और आशा एक सीट पर बैठे और प्रकाश-नरेश एक साथ।' सोलह-सत्रह वर्ष पुरानी इस विचित्र पहाड़ की वापसी का मैं सिर-पैर कुछ नहीं समझ पाया। क्यों तो ये लोग पहाड़ गए थे और क्यों झख मार कर महज पाँच ही दिन में वापस लौट आए। जिस 'हनीमून' का शुरू में इस महिला ने बड़े जोश-खरोश से उल्लेख किया था, उसका क्या बना, यह भी मुझे अंत तक मालूम नहीं हो पाया। ठीक इसी समय 'डिंग-डांग' करती दरवाजे की घंटी बज उठी।
वह बड़े आलस्य से उठते हुए बोलीं, 'लो, प्रकाश आ गए।' एक बहुत ही नाटे कद का गोल-मटोल व्यक्ति, गर्दन पर बहते पसीने को रूमाल से रगड़ते हुए अंदर आ गया। उसने मेरी तरफ सरसरी दृष्टि से देखा। शायद गहरी और दिलचस्पी की नजर से देखने की शक्ति उसमें इस क्षण बाकी रह भी नहीं गई थी। उन्होंने उसे बतलाया, 'नरेश का भाई है। बैंक में इंटरव्यू देने आया है। नरेश का खत भी लाया है।' कई क्षण तो वह लस्त-पस्त आदमी शायद यही समझने की कोशिश करता रहा कि यह 'नरेश' कौन है। फिर उसने पूछा, 'चिट्ठी कहाँ है?' 'चिट्ठी बाद में देखना,' उन्होंने बेसब्री से कहा, 'तुमने खिड़की के काँच के लिए बोला किसी को? अब बारिश शुरू हो गई है। बौछारें सीधी कमरे में आती हैं और टेलीविजन पर गिरती हैं।' उस भले आदमी ने चिचचिपे बदन से बुश्शर्ट खींच कर उतारी और डाइनिंग टेबिल के इर्द-गिर्द पड़ी कुर्सियों पर फेंकते हुए परम धैर्य से कहा, 'हाँ, मैंने शीशे के लिए बोल दिया है। वह नाप लेने आता ही होगा।' 'अच्छा! गाड़ी का क्या बना? अब कितने दिनों तक यों ही गाड़ी वर्कशाप में पड़ी रहेगी?' वह शख्स बहुत धीमे, मगर नपे-तुले शब्दों में बोला, 'कल सुबह फिरोज साहब इधर हो कर ही निकलेंगे। मैं उनकी गाड़ी में ही वर्कशाप चला जाऊँगा। मगर अभी एक हफ्ता तो लग ही जाएगा...' उन्होंने अपने पति महोदय को बात पूरी करने का अवसर नहीं दिया। बीच में ही कूद पड़ी, 'लिफ्ट आज फिर काम नहीं कर रही है! भला सात-सात मंजिल कौन सीढ़ियाँ चढ़ेगा!'
प्रकाश बाबू चेहरे पर पूर्ववत गंभीरता रख कर मिनमिनाए, 'हाँ, बड़ी मुश्किल है। सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते मेरा तो दम फूल गया। एकाध बार और चढ़ना पड़ गया तो 'एक्यूट टाइप' का ब्लड प्रेशर हो जाएगा।' प्रकाश साहब अपनी बात खत्म करके टेलीफोन की तिपाई के पास दीवाल पर जा कर बैठ गए और बोले, 'जरा एक गिलास पानी देना।' उनकी पत्नी अपनी कुर्सी से दम लगा कर उठीं और बोलीं, 'हाँ, आज फ्रिज भी बेकार हो गया, दोपहर से।' फिर मेरी ओर संकेत करके प्रकाश जी को बतलाने लगीं, 'इन्हें भी टेप का वाटर दिया हैं।' प्रकाश ने उनकी सूचना पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और वह टेलीफोन का डायल घुमाने लगे तो उन्हें सहसा कुछ याद आ गया और वह जल्दी-जल्दी बोलने लगीं, 'टी.वी. में पिक्चर ठीक से 'फोकस' नहीं हो पा रही है। जरा उधर भी फोन कर देना।' इसके बाद वह मेरी ओर मुखतिब हो कर बोलीं, 'फ्रिज की वजह से तुम्हें भी ठंडा पानी नहीं मिल पाया और 'लिफ्ट' खराब होने से पैदल ऊपर आना पड़ा।' उन्होंने प्रकाश जी को एक गिलास पानी ला कर दिया तो उन्होंने उसे एक तरफ रख दिया। शायद वह बेहद प्यासे भी थे, लेकिन सात मंजिल तक सीढ़ियाँ फलाँगने के बाद भी उन्हें घर की महत्वपूर्ण, मगर बिगड़ैल उपलब्धियों ने इतना चैन नहीं लेने दिया था कि वह शांति के साथ पानी पी सकें। शायद वह फोन में उलझ कर यह भूल गए कि उन्हें पानी का गिलास दिया जा चुका है। वह बोले, 'बीनू, जरा पानी तो देना।' वह मेरी तरफ देख कर मुस्कुराईं और बोलीं, 'देखा! प्रकाश एकदम फिलासफर हो गए हैं।
इन्होंने अपने हाथ से पानी का गिलास नीचे फर्श पर रखा है और अब फिर से पानी माँगे जा रहे हैं।' लेकिन उन्हें एक बार भी यह ख्याल नहीं आया कि उनके पति की शक्ति इस कदर क्षीण भी हो सकती है कि वह झुक कर फर्श से पानी का गिलास ही न उठा पाएँ। पत्नी की बात सुन कर प्रकाश जी के मस्तक पर हल्की-सी सिलवटें आईं, लेकिन तत्काल गायब भी हो गईं। उन्होंने पति के निकट जा कर पूछा, 'चाय अभी लोगे, या कुछ देर बाद?' प्रकाश बाबू अभी कोई उत्तर नहीं दे पाए थे कि दरवाजे की घंटी फिर से बज उठी। प्रकाश बाबू ने उठ कर द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के आदमी ने भीतर घुस कर सलाम किया और पूछने लगा, 'किस खिड़की का काँच टूटा है मेम साब?' वह शख्स मिस्त्री था। उसने अपनी जेब से इंच-टेप निकाली ओर आँखों पर ऐनक चढ़ा कर जेब से एक छोटी-सी मटमैली जिल्दवाली डायरी निकाल ली। वह व्यस्तता से डायरी में कुछ नोट करने लगा। उसने डायरी एक तरफ रख कर इंच-टेप से खिड़की का नाप वगैरह लिया और उसे डायरी में टीप लिया। अभी वह अपने नाप-जोख से फारिग भी नहीं हो पाया था कि उससे ताबड़तोड़ सवाल किए जाने लगे, 'कितना काँच लगेगा?' '......' 'आज कल शीशे का क्या भाव चल रहा है?' '......' 'पहले तो पूरी खिड़की का शीशा सोलह रुपए में आ जाता था?' '......' 'पता नहीं, आजकल कैसा काँच आने लगा है; हर छह महीने में 'क्रेक' हो जाता है।
पहले तो...!' मिस्त्री पति-पत्नी के हड़बोग-भरे संवादों से पूरी तरह बेखबर हो कर कुछ हिसाब जोड़ता रहा और मैं उस घर में एक फालतू जिंस बना कुर्सी से चिपका बैठा रहा। मेरे सौभाग्य से एकाएक एक अच्छा संयोग उपस्थित हुआ। वे दोनों मिस्त्री को घेर कर अंदर बेडरूम की तरफ ले गए, शायद उधर भी किसी खिड़की-जंगले का काँच टूटा था या टूटने ही वाला था। उन लोगों के जाते ही मैंने अपनी अटैची बहुत सफाई से उठाई और लंबे-लंबे डगों से फर्श नापता दरवाजा लाँघ गया। उस समय मुझे यह भी नहीं सूझा कि मैं कहाँ जा रहा हूँ! इतने बड़े महासागर जैसे फैले महानगर में एक भी व्यक्ति और एक भी स्थान से परिचय न होने की दशा में सात मंजिलों की सीढ़ियाँ उतर कर मैं बाहर सड़क पर आ गया। मेरा धुँधला-सा परिचय केवल उस स्टेशन से था, जहाँ मैं दोपहर को गाड़ी से उतरा था। अब मेरे लिए मात्र ठिकाना उसी स्टेशन का मुसाफिर-खाना रह गया था। लेकिन मेरी नजर में उस सतमंजिला स्टोर से जहाँ सिर्फ कंडम सामान और द्वेषी स्मृतियों के अलावा कुछ बाकी नहीं बचा था, वह वेटिंग रूम ज्यादा राहत देने वाला था।