कबाड़ी की दुकान और ठेले पर सामान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 जनवरी 2015
हर वर्ष अनेक व्यक्ति एक जनवरी को अपने आप से कुछ वादे करते हैं। कोई वादा तोड़ने की बात नहीं करता आैर लतियड़ शराबी शाम तक वादे को भूल जाता है। सिगरेट के आदी बाथरूम से निराश होकर लौटते हैं कि बिना एक सिगरेट पिए दैनिक काम नहीं होता। जिसे वे पेट का असहयोग समझ रहे हैं, दरअसल वह अनेक दिमाग की बुनावट में भरा धुंआ है। सारी लतें दिमागी कैमिकल लोचा है। कुछ लोग अपने से किया वादा निभाते भी हैं आैर प्रतिदिन के बदले साल दर साल बेहतर इंसान होने का काम करते हैं जबकि सूर्य आराधना के पहले श्लोक में प्रतिदिन बेहतर इंसान होने की बात है। फिल्म वालों के वार्षिक वादे खूब प्रचार पाते हैं। इस वर्ष राजकुमार हीरानी ने अपने आप से दो नववर्ष संकल्प किए हैं। पहला यह कि उन्होंने 'पीके' लिखने आैर बनाने में पांच वर्ष लिए इसलिए नई फिल्म का लेखन छह माह में कर लेंगे आैर दूसरा वादा यह कि वर्षों से उनका यह संकल्प पूरा नहीं हो रहा है कि वे भारत के गांवों, कस्बों आैर छोटे शहरों की यात्रा करेंगे तथा अनेक लोगों से बातचीत करके उनके मन को समझने का प्रयास करेंगे गोयाकि भारत का अध्ययन करने का प्रयास करेंगे। सन् 1915 में महात्मा गांधी ने भारत वापसी पर सबसे पहले अपने राजनैतिक गुरू गोखले जी से मिलने पूना गए जिन्होंने उन्हें परामर्श दिया कि वे भारत भ्रमण करें।
यहां के हालात दक्षिण अफ्रीका से अलग हैं। गांधीजी ने एक वर्ष तक यही कार्य किया आैर अपना पहला भाषण काशी विश्वविद्यालय के उद्घाटन के समय दिया। नेहरू ने भी गहन यात्राएं कीं आैर उस जमाने के सभी नेता अवाम से हमेशा जुड़े रहे। नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' इन सघन दौरों का परिणाम है। नेहरू ने भारतीय इतिहास को कंठस्थ किया था, इसीलिए उनकी उस दौर की यात्राआें में इतिहास उनका हमसफर था जिसकी परछाई में वे भविष्य का आकलन करते थे। आज कोई भी नेता पूरे भारत के भ्रमण का दावा नहीं कर सकता। सच तो यह है कि किसी भी जिलाधीश ने अपने क्षेत्र का दौरा नहीं किया है। वे तो अपनी पत्नी द्वारा बंगले के बगीचे के गमले में गेहूं उगाकर पूरे जिले की पैदावर का आकलन राजधानी भेज देते हैं। अंग्रेज आैर मुगल हुक्मरानों से भी कम परिचित है हमारे नेता आैर अफसर। अकबर के राजा टोडरमल ने सघन दौरों के बाद अपनी कृषि कर नीति बनाई थी।
भारत के फिल्म विद्या प्रशिक्षण संस्थाआें में विदेशी महान फिल्मकारों की सृजन शैली आैर फिल्मों के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। आप भारत के फिल्मकार भारत भ्रमण कराएं आैर भारतीय फिल्मों के माध्यम से पढ़ाएं क्योंकि वे यूरोप के लिए नहीं भारतीय दर्शक के लिए फिल्म बनाएंगे। पूर्व आैर पश्चिम के सिनेमा का सौंदर्य बोध आैर कला मानदंड अलग-अलग हैं आैर कौन बेहतर है- यह तो मुद्दा ही नहीं है। हर देश की संस्कृति अपने देश की मिट्टी से जुड़ी होती है। इसी तरह हिंदी साहित्य में भी एक दौर 'भोगे हुए यथार्थ' का चित्रण का था आैर इस विद्या के पुरोधा यूरोप के लेखकों 'भोगे हुए यथार्थ' को हिंदी में लिखते थे।
जापान, चीन आैर हांगकांग के वही फिल्मकार हॉलीवुड द्वारा निमंत्रित हुए हैं जिन्होंने अपने देश की संस्कृति से प्रेरित फिल्में बनाई हैं। अकिरा कुरोसोवा की फिल्मों में जापान का दिल अपने इतिहास सहित धड़कता है। इसीलिए स्टीवन स्पिलबर्ग ने उनकी 'कागाभोसा' में धन लगाया। आज के फिल्मकार पहले तेजी से बदलते हुए कहीं-कहीं स्थिर भारत का अध्ययन करें तो उन्हें रास्ता दिखाई देगा। पूरा मनोरंजन उद्योग आैर राजनीति का क्षेत्र मूलतः मानवीय भावना आैर करुणा का क्षेत्र है, अत: फिल्मकारों आैर नेताआें दोनों के लिए अपने देश को समझना आवश्यक है। यही बात संपादकों आैर मीडिया पुरोधाआें के लिए भी आवश्यक है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देश की झलक देखकर अपने आप को भारत का जानकर समझना भ्रम है। इससे बेहतर है कि आप अपने शहर के कबाड़ी की दुकान पर जमा चीजों को देखे, ये चीजें बदलते हुए समय की सच्ची परिचायक है। ऐसी ही एक दुकान पर टूटा हुआ पियानो या धूल खाती मृदंग देश के संगीत दृश्य का पूरा परिचय देती है।
सत्यजीत रॉय के सहयोगी ने कबाड़ी की दुकान से ही चेतन आनंद की 'नीचा नगर' का प्रिंट खरीदा था। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने कबाड़ियों की दुकान से हिन्दुस्तानी सिनेमा की कई यादगार चीजें खरीदी हैं। मैंने स्वयं फुटपाथ पर पुरानी किताबें बेचे वालों के यहां से कई क्लासिक्स खरीदे हैं। हर शहर कस्बे की गली-कूचियों में सड़क पर सामान बेचने वालों की दुकानें अनेक शिक्षा केंद्रों से बेहतर ज्ञान देती है। कोई आश्चर्य नहीं कि हीरानी ने चारों फिल्में महान बनाई हैं।