कबीर उत्सव की सार्थकता / जयप्रकाश चौकसे

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कबीर उत्सव की सार्थकता
प्रकाशन तिथि : 11 जनवरी 2013


मुंबई में कबीर उत्सव मनाया जा रहा है, जिसके तहत विविध कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। प्रीति तुरखिया उत्सव समिति की सचिव हैं और उनका कहना है कि आज 600 वर्ष बाद भी कबीर प्रासंगिक हैं। दरअसल आज धर्मांधता और हिंसा के दौर में कबीर वाणी ही हमें अपने बौनेपन से छुटकारा दिला सकती है। वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए कबीर दर्शन की परम आवश्यकता है। यह उत्सव 15 केंद्रों पर बीस कार्यक्रम प्रस्तुत करेगा, जिसमें भाग लेने देश के कोने-कोने से प्रतिभाशाली लोग आ रहे हैं। इसमें 'दास्तानगोई'- कथा कहने की पुरानी मनमोहक शैली भी प्रस्तुत होगी, बंगाल के बाउल गायक भी आमंत्रित हैं। मालवा से प्रहलाद टिपानिया और राहुल देशपांडे गेटवे ऑफ इंडिया पर प्रात: ६.३० से अपना कार्यक्रम 12 जनवरी को प्रस्तुत करेंगे। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा दिल्ली से भी कलाकार आ रहे हैं।

आयोजकों से निवेदन है कि अन्नू कपूर द्वारा अभिनीत सीरियल जो कबीर के जीवन को प्रस्तुत करता था, का भी पुनरुद्धार करें। उसे खोजकर उसके प्रिंट की मरम्मत की जाए। वह एक जबर्दस्त प्रयास था। दरअसल विगत एक हजार वर्षों में जो असाधारण विलक्षण प्रतिभा सामने आई हैं, उनमें अमीर खुसरो, कबीर, गालिब और रबींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव अभूतपूर्व रहा है और इसी सूची में मुंशी प्रेमचंद को शामिल किया जाना चाहिए। दरअसल इस तरह की सूची हमेशा विवाद में रहेगी, क्योंकि व्यक्तिगत पसंद बहुत अलग-अलग होती है। इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि कबीर का प्रभाव सभी सृजनशील व्यक्तियों पर पड़ा है और गुरुग्रंथ साहिब में भी उनकी अनेक रचनाओं को शामिल किया गया है। वर्तमान के निदा फाजली में कबीर ही ध्वनित होते हैं। फिल्मी गीतकारों में शैलेंद्र पर कबीर का सबसे अधिक प्रभाव है। आम व्यक्ति के जीवन में कबीर रसे घुले हैं और उन्हें उसके सोच से अलग नहीं किया जा सकता और इस विलय का सबसे आश्चर्यजनक पक्ष यह है कि आम आदमी को अहसास ही नहीं होता कि उसका अवचेतन कबीरमय है। जब मैं टैक्सी ड्राइवर से जल्दी चलने को कहता हूं तो वह अनपढ़ वृद्ध ड्राइवर बुदबुदाता है कि जल्दी करते सबको देखता हूं, परंतु कोई कहीं पहुंचता नहीं। उसका यह वाक्य किस तरह कबीरमय है और पूछे जाने पर उसने अपना अनपढ़ होना स्वीकार किया।

कबीर के जीवन और मृत्यु को लेकर अनेक किंवदंतियां हैं। सच तो केवल इतना है कि उन्होंने सत्य की तलाश में सारे प्रचलित तरीके अपनाए, यात्राएं कीं, श्मशान में अलख जगाई, जंगल-जंगल भटके, परंतु सभी को अर्थहीन कहकर अपने भीतर की यात्रा के महत्व को स्वीकार किया। उन्हें जीवन के दोहरे मानदंड और पाखंड नापसंद थे। वे निर्भय होकर दो-टूक बात आम आदमी की भाषा में उसी के लहजे में कहते हैं। बानगी प्रस्तुत है- 'अवल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे। एक ही नूर से सबजन उपजाये, कौन भले कौन मंदे।' वे कहते हैं - 'कहै हिंदु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना। आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।' कबीर कहते हैं- 'आत्मज्ञान बिन जग झूठा, क्या मथुरा क्या काशी। जल विच मीन पियासी, मुझे सुन सुन आए हांसी। घर में वस्तु नजर नहीं आवत, वन-वन फिरत उदासी।'

बंगाल के क्षति मोहनदास ने खोज करके कबीर के पद प्राप्त किए, जिनका अनुवाद रबींद्रनाथ टैगोर ने किया और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर पर शोध किया। आज कबीर के नाम से कई पद ऐसे सुनाए जाते हैं, जो शायद उन्होंने नहीं लिखे।

यह कल्पना करने का भी साहस नहीं होता कि आज के असहिष्णु समाज में कबीर या गालिब की वापसी हो तो उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? आज के दौर की असहिष्णुता और संवेदनहीनता में कबीर या गालिब का लिखना संभव ही नहीं होता।

आज कोई ऐसा फिल्मकार नहीं, जो कबीर के जीवन पर फिल्म बना सके और अगर यह दुस्साहस कर भी दिया जाए तो क्या सेंसर उसे पास करेगा या हुड़दंगी उसे दिखाने देंगे! आज संत-सूफियों के लिए वातावरण ही नहीं है। कबीर एक आधुनिक सोच का नाम है, जो सभी युगों में स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता के जीवन की प्रेरणा देता है। ज्ञातव्य है कि फ्रांस में हुई क्रांति जिसने स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता को राजनीतिक आदर्श बनाया, के कई सौ साल पहले कबीर हुए थे। दुनिया की सारी मानव हित में की गई और भविष्य में की जाने वाली क्रांतियों एवं विरोध का मैनीफेस्टो कबीर लिख गए हैं - मनुष्य करुणा के महानतम गायक से बेहतर कोई कुछ नहीं कर सकता।