कबीर एक्सप्रेस का पांचवां पड़ाव / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 सितम्बर 2015
कबीर खान की पहली फिल्म 'काबुल एक्सप्रेस' में तालिबान की गिरफ्त में कराहते अफगानिस्तान के अवाम और एक पिता के पुत्री से वर्षों बाद मिलने की कामना की कथा थी, जो कुछ हद तक रवींद्रनाथ टैगोर की 'काबुलीवाला' की याद दिलाती थी। कबीर की दूसरी फिल्म 'न्यूयॉर्क' थी, जिसका नायक सामान्य मुस्लिम अमेरिकी नागरिक है, जिसे दो इमारतों पर अातंकी हमले के बाद पुलिस निराधार संदेह में गिरफ्तार करके अमानवीय यंत्रणा शिविर में ले जाती है, जो हिटलर के यंत्रणा शिविर से भी अधिक निर्मम है। अजीब बात है कि अमेरिका ने यहूदियों के लिए बनाए हिटलर के यंत्रणा शिविरों के खिलाफ युद्ध लड़ा और अपने 'महान गणतंत्र' में गुप्त यंत्रणा शिविर बनाए। दरअसल, अमेरिका की अर्थव्यवस्था का आधार सदैव यहूदी रहे हैं, इसलिए उनके लिए हिटलर का विनाश आवश्यक था। युद्ध के बाद यहूदियों के लिए इजराइल की रचना भी अमेरिका ने की और उस समय नेहरू ने कहा था कि बाइबिल के आधार पर यह राजनीतिक फैसला गलत है। उस जमीन के विस्थापित फिलीस्तीनियोंं ने इजराइल के खिलाफ आतंकवादी काम किया। इस तरह इतिहास के इस दौर का आतंकवाद प्रारंभ हुआ।
बहरहाल, इस घोर यंत्रणा के बाद रिहा नागरिक आतंकवादी बनने का निर्णय लेता है। इस तरह अफगानिस्तान के बाद अमेरिका की गुप्त अमानवीय यंत्रणा पर कबीर खान ने अपनी दूसरी फिल्म बनाई। उनकी तीसरी फिल्म 'एक था टाइगर' में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के दो गुप्तचरों की प्रेमकथा थी। उनकी चौथी फिल्म 'फैंटम' थी परंतु उसे आधे में रोककर उन्होंने 'बजरंगी भाईजान' बनाई, जो नफरत की सरहदों के परे मानवीय प्रेम के इंद्रधनुष की तरह है। इस तरह चौथे क्रम पर प्रारंभ, लेकिन पांचवां प्रदर्शन 'फैंटम' है। इस फिल्म में एक प्रसंग पाकिस्तानी नर्स का है, जो उस डॉक्टर के लिए काम करती है, जो प्रतिदिन मुंबई बमकांड के बीमार दोषी का इलाज करने उसके लिए बनाए सुरक्षित स्थान पर जाता है। फिल्म की नायिका भारतीय पारसी युवती (कैटरीना कैफ) नर्स को समझाती है कि नर्स का अपना पंद्रह वर्षीय मासूम बेटा आतंकवादियों के बहकावे में आकर जान गंवाता है। वह नर्स से उसे मारने में मदद मांगती है। वह नर्स यह काम करती है और गिरफ्तार होने पर कहती है कि उसने दवा के बदले जहर का इंजेक्शन रखा, क्योंकि वह पाकिस्तान को आतंकवाद का गढ़ बनने से बचाना चाहती है। यह फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है, क्योंकि आज भारत में भी दूसरे प्रकार का भय बनाने वालों के कारण कुछ युवा हिंदुस्तानी मुस्लिम आतंकवादी बनना चाहते हैं और उनके माता-पिता की सबसे बड़ी समस्या यही है कि अपने मासूमों को कैसे और कब तक रोकें कि आतंकवाद किसी भी धर्म का काम नहीं है वरन् कुछ लोगों का व्यवसाय है नफरत फैलाना।
एक तरह से कबीर की अब तक प्रदर्शित पांचों फिल्मों में उनकी मानवीय चिंता और अंधे आतंकवाद की गहरी छानबीन समान रूप से प्रवाहित है। आज के असहिष्णु वातावरण में यह बड़े साहस का काम है। कहीं उनके माता-पिता द्वारा कबीर नाम रखना तो फलीभूत नहीं हो रहा है? कबीर की पंक्तियां है, 'माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर, कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।' उनकी सफलतम 'बजरंगी भाईजान' के भी सीमा पर रचे क्लाइमैक्स में सरहद के दोनों ओर आम जनता का एकत्रित होना और सहृदय साहसी की वापसी का आग्रह करना यह बताता है कि राजनीतिक स्वार्थ द्वारा रची सरहदों को दोनों देशों के आम आदमी अस्वीकार करते हैं। कमोबेश यही संदेश कबीर की फिल्मों का है। उनका राजनीतिक दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष है और मानवीय करुणा से भरपूर है। आज भय की चादर पूरे आसमान पर तनी हुई है, इसलिए हमें तारे भी झिलमिलाते से बमुश्किल नज़र आते हैं। पूनम की रात भी चांदनी सर्वत्र नहीं छाती। एक अनाम शायर का शेर है-
'एक रिदाए तीरगी है और ख्वाबे कायनात, डूबते जाते हैं तारे और भीगती जाती है रात।'
आज फूहड़ता के दौर में एक फिल्मकार हमें उस डर के खतरों से सचेत कर रहा, जिसे निदा फाज़ली यूं बयान करते हैं- 'तवाजुल खौफ की बुनियाद पर कायम है दुनिया का, खुली माचिस है पहरेदार सब बारूदखानों में।