कबीर का सच / रामदेव शुक्ल

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आधुनिकता का एक शौक है, प्रत्येक सृजन की प्रासंगिकता की तलाश। मनोरंजक प्रश्न हो सकता है कि प्रासंगिकता की प्रासंगिकता क्या है? जो बात, विचार या वस्तु अभी हमारे लिए अतिउपयोगी अर्थात्‌ अतिप्रासंगिक दीख रही है, क्या पहले भी इसी रूप में स्वीकृत होने का उसका इतिहास है? जिसे हम क्लासिकल सृजन के रूप में शिरोधार्य करते हैं, उसका इतिहास तो प्रायः बताता है कि समकालीन विचारकों में उसे अप्रासंगिक सिद्ध करने की होड़ लगी हुई थी। इसका उल्टा भी होता आया है। जो एक समय प्रासंगिक माना गया, उसे आने वाले समय ने अप्रासंगिक करार देकर ठुकरा दिया। क्लासिक की प्रासंगिकता आने वाले प्रत्येक नये सन्दर्भ में, युग में, नये सिरे से रेखांकित की जाती रही है। कम होने के स्थान नर वह बढ़ती चली जाती है। वह क्या है जो हर पीढ़ी को अपना लगता है? कबीर कहते हैं--

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥

सच्चा होना, सच्चा बने रहना, इससे बढ़कर कोई तप नहीं है।

सच (सत्य) की दार्शनिक व्याख्या और परिभाषा और भी जटिल है। सत्य का मुख हिरण्यमय पात्र से आवृत रहता है। ईशावास्योपनिषद की इस घोषणा को लेकर कामायनी के इस कथन-सत्य ! आह ! यह एक शब्द ! तू कितना बड़ा हुआ है !/मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुवा है। तक को ध्यान में रखें तो इस पर सोचने की हिम्मत नहीं होगी। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में जब सत्य को मेधा के खेल का पिंजरबद्ध तोता कहा था, तब उनकी कल्पना में यह कहाँ था कि राष्ट्रीय सम्पत्ति हजम कर जाने वाले अक्षम्य अपराधी उनके हित में खड़े वकीलों की सत्यक्रीड़ा के बल पर पलभर में छूट जाते हैं।

अतः कबीर या किसी मध्यकालीन संत के सन्दर्भ में 'सच' या 'साँच' पर विचार करें तो मेधा के खेल से दूर रहकर ही करें। संतों का 'सच' खेल नहीं है, चाहे बुद्धि-वैभव का ही क्यों न हो। वह सच एक ओर शिशु का सच है जो सच के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं, तो दूसरी ओर उस साहसी शूर का सच है, जिस पर चलकर वह हँसते-हँसते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देता है। वह 'सच' इतना बड़ा है कि उसके बाहर कुछ है ही नहीं। जो 'सच' से इतर है, उसका अस्तित्व सम्भव नहीं। तब आज जो जगत्‌-व्यवहार झूठ पर ही चल रहा है, उसका क्या करें ? जरा सा सावधान होकर विचार करें, तो इसे 'मिथ्या-व्यवहार' का रहस्य खुल जायेगा। पहली बात तो यह कि 'सत्य और असत्य' ये दो स्थितियाँ नहीं होतीं। असत्य तो हो ही नहीं सकता, जो हो सकता है, वह केवल 'सच' ही होगा। इसी अर्थ में आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ को 'मिथ्या' कहा। ध्यातव्य है 'मिथ्या' कहा, 'असत्य' नहीं। 'मिथ्या' शब्द बड़े काम का है। 'मिथ्या' उस 'वस्तु या प्रतीति' को कहते हैं, जो जिस रूप में सच है, उससे भिन्न रूप में दिखाई दे रहा है। इसके परम्परागत उदाहरण रज्जु-सर्प, मृगवारि आदि हैं। आज की सुपरिचित उदाहरण सिनेमाटोग्राफी का है। पर्दे पर जो दिखाई पड़ रहा है, वह वही नहीं है, जिस रूप में वह हर समय हो रहा है। हमारी दृष्टिक्षमता की विशेषता यह है कि जो बिम्ब एक सेकेंड में बीस या उससे अधिक बार हमारी आँखों के सामने से गुजरेगा, उसे अनवरत रूप में ही हमारा मस्तिष्क ग्रहण करेगा। यह प्राकृतिक नियम जिसने समझ लिया, वह इस विज्ञान का आविष्कारक हो गया। सिनेमा निर्माता की कृति को देखकर दर्शक भावविभोर होकर रोता, हँसता है। जिस पात्र को ईश्वरावतार राम, कृष्ण के रूप में देखकर भोले दर्शक श्रद्धाभिभूत में रह जाते हैं, उसी समय वह अभिनेता कहीं बैठा शराब पी रहा होता है या किसी दूसरी फिल्म में किसी की हत्या कर रहा होता है।

यह सारा जगत्‌ प्रपंच इसी तरह चलता है। जो 'है' वह दिखता नहीं, जो दिखता है, वह 'हो' नहीं सकता। उसका होना सम्भव नहीं है। उसे सम्भव बनाती है टेक्नॉलाजी। मध्यकालीन शब्द 'माया'। कबीर का एक दोहा है--

माया ते मन ऊपजे, मन ते दस अवतार।
बरमा बिसनू के धोखे में, भरम परा संसार॥

संतो की दृष्टि में माया पर विचार करते हुए शोधकर्त्ताओं ने बहुत कुछ लिखा है। उस घटाटोप को छोड़ दें तो उपर्युक्त दोहे के आधार पर देखा जा सकता है कि कबीर माया को ही सब कुछ उत्पन्न करने वाली मानते हैं। सांख्य दर्शन माया को 'प्रसवधर्मिणी' मानकर कहता है कि सत्य, रजस्‌ तमस तीनो एकत्र होकर कार्यसम्पादन करते हैं।१ कबीर मानते हैं कि सारी सृष्टि माया से उत्पन्न हुई है। वे इसकी प्रक्रिया भी बताते हैं कि माया ने सबसे पहले 'मन' को उत्पन्न किया। इसी 'मन' से दस अवतार उत्पन्न हुए। संसार के सामान्य लोग इस धोखे में पड़े हुए हैं कि इस संसार को ब्रह्मा और विष्णु ने बनाया। अवतार की अवधारणा पर विचार करने वाले लोग भी यह मानते हैं कि मनुष्य अपने को ही सामने रखकर ईश्वर की कल्पना करता है। सौन्दर्य, शक्ति और शील के प्रति सभी आकृष्ट होते हैं। इन तीनों का परम उत्कर्ष जिस काल्पनिक 'व्यक्ति' में एकत्र दिखाई देता है, उसी को परमात्मा मान लिया जाता है। मनुष्य के 'मन' द्वारा सीमित अवतार मनुष्य रूप होते हैं, या भिन्न होकर भी कार्य मनुष्य के समान ही करते हैं। इसी सन्दर्भ में एक यूनानी दार्शनिक का कहना है कि यदि हम घोड़ों की भाषा और उनकी ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा को समझ पाते तो जानते कि उनका ईश्वर एक सुन्दर शक्तिशाली घोड़ा है।

मन द्वारा सृष्टि-रचना को प्रायः संत और अधिकांश भक्त कवियों ने अपनी अपनी शैली में वर्णित किया है। तुलसीदास 'विनय पत्रिका' में कहते हैं--

जौ निज मन परिहरे विकारा।
तौ कत द्वैतजनित संसृति दुख संशय शोक अपारा।
विटप मध्य पुतरिका, सूत मँह कंचुक बिनहिं बनाए।
मन मँह तथा लीन नाना तनु प्रकटत अवसर पाए॥

वृक्ष की लकड़ी में सभी आकार छिपे होते हैं, जब जैसा चाहता है, बढ़ई उसमें से निकाल लेता है। सूत में सभी प्रकार के वस्त्रा छिपे हैं, बुनकर और दर्जी उसे जब जो रूप चाहें, दे देते हैं। उसी प्रकार 'मन' में अगणित शरीर छिपे रहते हैं। अगाध अथाह मन जब जैसा शरीर चाहे प्रकट कर लेता है। मनुष्य मन की इच्छा से ही सक्रिय होता है। कबीर अन्यत्रा 'माया' और 'मन' को एक बताते हुए 'मन' की अनन्तता, अगधता की बात कहते हैं--

ई मन चंचल, ई मन चोर, ई मन सुद्ध ठगहार।
मन-मन करते सुर नर मुनि जँहड़े, मन के लच्छ दुवार॥

यह मन चंचल है, यह मन चोर है, यह मन शुद्ध ठगी करने वाला है। सुर, नर, मुनि मन-मन करते जकड़े हुए हैं, जबकि मन के लाखों द्वार हैं। यहाँ 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः' की व्याख्या देखी जा सकती है। सुर, नर, मुनि जिस मन के कारण जकड़े हुए हैं, उसी मन के लाखों द्वार भी हैं - मन माया तो एक है, माया मनहि समाय।/तीन लोक संसय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥

माया न सिर्फ मन की सृष्टि करती है, बल्कि वह मन से अभिन्न है। मन की रचना करके माया उसी में समा जाती है। इसी कारण तीनों लोकों के प्राणी संशय में पड़े रहते हैं। मैं किस-किस को इस संशय अर्थात्‌ माया-रचित सृष्टि का रहस्य समझाऊँ ?

एक अन्य रूपक में कबीर मन को अगाध सागर और मनसा अर्थात्‌ इच्छाओं को लहरें बताते हुए कहते हैं कि अधिकांश तो डूब ही जाते हैं, वही तैर पाता है, जिसके हृदय में विवेक जाग्रत रहता है--

मन सागर, मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत।
कहैं कबीर ते बाँचि है, जाके हृदय विवेक॥

जगत संशयग्रस्त होकर खण्डित हो जाता है। संशय का खंडन कोई नहीं कर सकता है, संशय का खण्डन वही कर सकता है, जो शब्दविवेकी हो--

संशय सब जग खण्डिया, संसय खण्डे कोय।
संशय खण्डे सो जना, जो सबद विवेकी होय॥

गुरुकृपा से संशय खण्डित करने वाला शब्दविवेक हो जाने पर जब सच का बोध हो जाता है, तब पता चलता है कि सारा जगत प्रपंच झूठा है। सभी लोग इसी झूठ के जाल में उलझे हुए हैं और मान रहे हैं कि वे ही ठीक हैं। कबीर बताते हैं कि--

झूठ बँधायो आना, झूठी बात साँच कै जाना।
धंधे बंध कीन्हें बहुतेरा करम बिवरजित रहै न नेरा॥
खट आस्रम खट दरसन कीन्हां।
खटरस बांटि करम संगि दीन्हां॥
चार वेद छ सास्त्रा बखानै।
विद्या अनंत कथे को जाने॥
तप तीरथ कीन्हें ब्रत पूजा।
धरम नेम दान पुनि दूजा॥
और अगम कीन्हें बेवहारा।
नहिं गमि सूझै वार न पारा॥
माया मोह धन जोबना, इनि बंधे सब लोई॥
झूठै झूठै बेयापिया, अलख न लखई कोइ॥

माया, मोह, धन, यौवन इन्हीं को सच मानकर लोग भ्रम में पड़े हुए हैं, झूठ ही झूठ सर्वत्रा व्याप्त हो गया है, जिस परम सत्य को, अलख को देखने से झूठ का यह फंदा कट जायेगा, उसे देखने का प्रयत्न कोई नहीं करता। ब्रह्म, जीव, माया, जगत्‌ इन सब पर संतसाहित्य में गंभीर विचार के लिए पूरी सामग्री भरी पड़ी है और शोधकर्त्ता बहुत कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं। संत साहित्य में, विशेषतः कबीर-बानी में अवगाहन करने पर एक बात का पक्का निश्चय हो जाता है कि वहाँ पुस्तकाधारित ज्ञान को महत्त्व नहीं दिया गया है, इसीलिए ब्रह्म, जीव, माया आदि का तात्विक विवेचन करने के लिए अलग से कुछ नहीं कहा गया है। कबीर की चिन्ता यह नहीं है कि लोग उन्हें ज्ञानी के रूप में जानें और मानें। कबीर की चिन्ता के केन्द्र में है, सामान्यजन, जो एक ओर अज्ञान के कारण झूठ की चक्की में पीसा जा रहा है और दूसरी ओर काजी, मुल्ला, पंडा, पुरोहित के जाल में उलझाया जाकर दम तोड़ रहा है। कबीर सबको ज्ञानी बनाने का संकल्प करके भी नहीं चल रहे थे। उनका उद्देश्य, मात्र इतना था कि इन दो पाटों के बीच पीसी जा रही साधारण जनता को काजी-मुल्ला, पंडा-पुरोहित द्वारा फैलाए गये अज्ञान से मुक्त कराकर सच्चाई से जोड़ दें। इसीलिए वे ब्रह्म जीव, माया आदि का रहस्य सामान्यजन को बताते चल रहे थे, उन्हीं की बोली बानी में। उन्हीं के घरेलू उपकरणों का प्रयोग करके उन्हें समझा रहे थे।

मूर्तिपूजा की व्यर्थता बताने के लिए वे दरिद्र से दरिद्र किसान मजूर के घर की चक्की का उपयोग करके अपनी बात कहते हैं--

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहार।
घर की चाकी काहे न पूजे, जासे पीस खाय संसार॥

औसत आदमी छल कपट करता हुआ जो चतुराई करता रहता है, उसे कबीर जला देना चाहते हैं--

जारौं मैं या जग की चतुराई।
माया जोरि कै करै इकट्ठी, हम खैहें लरिका व्यौसाई।
सो धन चोर मूसि लै जइहें, रहा सहा लै जाइ जंवाई॥

अभावग्रस्त परिवारों में जामाता (दामाद) द्वारा ससुराल का दोहन करना गृहस्थ का सामान्य अनुभव है। कबीर कहते हैं कि छल प्रपंच करके जो धन कमाते हो, यह मानकर कि तुम भोगोगे, तुम्हारे बच्चे भोगेंगे, व्यवसाय करेंगे पर होगा यह कि चोर चुरा ले जायेंगे और जो बचेगा, उसे दामाद झटक ले जायेगा। तो जान लो, जिस धन के लिए तुम मनुष्यता छोड़ रहे हो उससे तुम्हें क्या मिलेगा ?

जो मुक्ति भारतीय जीवन-पद्धति की सबसे बड़ी उपलब्धि बताई जाती है, उसी अलभ्य मुक्ति का कितना सस्ता सौदा प्रत्येक तीर्थ के पंडे करते है, उससे सबलोग परिचित हैं। किसी तीर्थ में स्नान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में दान करने से मुक्ति मिल जाती है, किसी में सिर मुड़ाने से मिल जाती - इन सर्वथा झूठ बातों का प्रचार करके तीर्थपुरोहित साधारणजन का धन लूटते हैं। कबीर पूछते हैं, उसी गँवई किसान की भाषा में, कि सिर मुड़ाने से भगवान की प्राप्ति होती है, तो बार-बार मूड़ी जा रही भेड़ क्यों नहीं हरि को प्राप्त कर लेती ? जैसे--

मूड़ मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोई लेइ मुड़ाय।
बार बार के मूड़ते, क्यों भेड़ न बैकुंठ जाय॥

कबीर के ऐसे कथन लोक में बहुत प्रचलित हैं। इनका उल्लेख मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि आप सबको इनसे परिचित कराना चाहता हूँ। परिचित तो आप हैं ही, इनका स्मरण करके मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि जो कबीर का सच है, जिसे वे सबसे बड़ा तप कहते हैं, वह दार्शनिक विवेचन से, शास्त्रार्थ से, तर्क से सिद्ध किया हुआ सत्य नहीं है। कबीर का सच शास्त्रज्ञान से अर्जित नहीं है। वह रोटी कपड़े के लिए संघर्ष कर रही जनता के दुख दर्द को हृदयंगम करने से उत्पन्न अनुभव के ताप से, आग में तपने से पाया हुआ सच है। इस सन्दर्भ में सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन की एक स्थापना स्मरणीय है। उनका मानना है कि शंकराचार्य तथा उनके परवर्ती आचार्यों के गंभीर दार्शनिक तत्त्वचिन्तन पांडित्य और तर्क की दृष्टि से अप्रतिम हैं किन्तु सामान्यजन द्वारा वे कभी गृहीत नहीं हो सके।२

इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि कबीर और परवर्ती संतों ने, दार्शनिकों, धर्माचार्यों और शास्त्रविचक्षण पण्डितों का हमेशा मखौल उड़ाया है, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में फर्क होता है।

कबीर के सम्बन्ध में सदैव स्मरणीय तथ्य है कि वे सामान्यजन को मोहजाल से निकालने के लिए उन्हीं की बोली-बानी में, उन्हीं के मुहावरों-प्रतीकों में समझाते जरूर हैं, पर कभी न उन्हें फटकारते हैं, न उनका उपहास करते हैं, न उनको चुनौती देते हैं। कबीर सामान्यजन के बीच के हैं, उनके सुख-दुख परिचित हैं। उनको मोहजाल में फँसाए रखने वाले मुल्लामौलवी, पंडितपुरोहितों की असलियत अच्छी तरह जानते समझते हैं, इसलिए धर्म का धन्धा करने वाले आचरणभ्रष्ट मुल्लामौलवी और पंडेपुरोहितों को फटकारते भी हैं, उनका मखौल भी उड़ाते हैं और उनके ज्ञान को सदा चुनौती भी देते हैं--

संतो राह दुहू हम दीठा।
हिन्दु तुरक हटा नहिं मानें, स्वाद सबन को मीठा॥
हिन्दु बरत एकादसि साधे, दूध सिंघारा सेती।
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इनको विहिस्त कहाँ से होवे, जो साँझे मुरगी मारे॥
हिन्दु की दया, मेहर तुरूकन की, दोनों घट से त्यागी।
ई हलाल, वे झटका मारें, आग दुनों घर लागी॥
हिन्दू तुरूक की एक राह है, सतगुरु सोई लखाई।
कहहि कबीर सुना हो सन्तों, राम न कहूँ खुदाई॥

सुगौती भोजपुरी में बकरे के माँस को कहते हैं। एकादशी के व्रत में दूध सिघाड़े का फलाहार करने वाले व्रत का पारण माँसाहार से करते हैं। मुल्ला जी अगले दिन रोजा रखने के लिए शाम को ही मुरगी हलाल करते हैं। दोनों स्वाद के गुलाम हैं, इंद्रियों के दास हैं--

संतो पांड़े निपुन कसाई।
बकरा मारि भैंसा पै धावें, दिल में दर्द न आई।
करि असनान तिलक दै बैठें, विधि सों देव पुजाई।
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इन्हते दीक्षा सब कोई माँगे, हँसी आवै मोंहि भाई।
पाप कटन को कथा सुनावें, कर्म करावे नीचा।
हम तो दुवौ परस्पर देखा, जम लाए हैं धोखा।
गाय बधें से तुरूक कहिए, इनते वै क्या छोटे।
कहहिं कबीर सुनो हो संतो, कलि में बाभन खोटे॥

वेद पुराण और कुरान का चाहे जितना पाठ करें, यदि आचार शुद्ध नहीं, तो नरक में जाना निश्चित--

पंडित बेद पुराण पढ़ैं सब, मुसलमान कुराना।
कहें कबीर दोउ गए नरक में, जिन हरदम राम न जाना॥

कसाई का काम करने वाले पंडित से वे कहते हैं--

पंडित एक अचरज बड़ होई।
एक मरि मुए अन्न नहिं खाई, एक मरे सिझै रसोई।
करि असनान देवन की पूजा, नौ गुन कान्ह जनेऊ।
हंड़िया हाड़, हाड़ थरिया मुख, अब षटकरम बनेऊ।
धरम करे जहाँ जीउ बधतु है, अकरम करे मोर भाई।
जो तोहरा के बाभन कहिए, तो का को कहिए कसाई।

ऐसे क्रूरकर्मी ब्राह्मणों के प्रति जनसामान्य के मन में व्याप्त घृणा की यह अभिव्यक्ति है। ऐसा सोचा जाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आगे चलकर एक अति समर्थ कवि तुलसीदास को एक साथ कई मुद्दों पर लड़ना पड़ा। एक मुद्दा निर्गुण-सगुण का है। तुलसीदास घोषित करते हैं कि 'अगुनहि सगुनहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरहि भव संभव खेदा।' किन्तु रामचरित मानस के उत्तरकांड में गरुण के मोह प्रसंग में मोहग्रस्त ज्ञानियों की चर्चा करते हुए कहते हैं--

जे मतिमलिन विषयबस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥
नयनदोष जा कँह जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥
जब जेहि दिसि भ्रम होई खगेसा। सो कह पच्छिम उगेउ दिनेसा॥
नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोहबस आपुहि लेखा॥
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहि परसपर मिथ्यावादी॥
हरि विसइक अस मोह विहंगा। सपनेहुँ नहि अज्ञान प्रसंगा॥
मायाबस मतिमंद अभागी। हृदय जमनिका बहुविधि लागी॥
तो सठ हठबस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं॥

दूसरा दोहा देखिए--

काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।
ते किमि जानहि रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप॥
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन न जानहि कोइ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनिमन भ्रम होइ॥३

मतिमलिन, विषयवश, कामी, मायावश, मतिमंद, अभागी, मिथ्यावादी, काम, क्रोध, मद, लोभरत, गृहासक्त, दुखरूप, मूढ़, तमकूप में पड़े हुए-ये विशेषण उन लोगों के लिए हैं, जो दशरथसुत राम के प्रति किसी तरह का संशय करते हैं। यहाँ कबीर का कथन स्मरण कर लेना चाहिए, दसरथ सुत तिहुलोक बखाना, रामनाम का मरम है आना। मानस के बालकाण्ड में सती को इसी तरह का भ्रम हुआ था कि पत्नी-वियोग में रुदन करने वाले राम परात्पर ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? शिव ने उन्हें अज्ञानग्रस्त देखकर कह दिया कि जाकर परीक्षा ले लें। वे सीता का रूप धारण कर गयीं। राम ने उन्हें माता कहकर प्रणाम किया। शिव ने प्रतिज्ञा कर ली कि एहि तन सतिहि भेंट अब नाहीं। ठीक इसी तरह का भ्रम लंका के युद्धक्षेत्र में नागपाश काटने वाले गरुण को हो गया। भ्रम का निवारण काकभुशुंडि जी ने किया, यह बताकर कि उनसे भी इस तरह का प्रमाद हो गया था।

अपने अनेक जन्मों की कथा कहते हुए भुशुंडि ने कलियुग का वर्णन भी किया और सतयुग का भी। कलयुग-सतयुग-वर्णन महाभारत और अनेक पुराणों में विस्तारपूर्व मिलते हैं। तुलसीदास वाले वर्णन भी उसी परम्परा में हैं। एक अन्तर है, जिसको ध्यान से देखने पर तुलसीदास की मौलिकता स्पष्ट हो जाती है। मानस के कलियुग वर्णन में काकभुशुंडि कहते हैं कि जो लोग सतमारग पर चलने वालों को सत्पथ से विरत करने के लिए तर्क कर करके वेदों को अस्वीकार करते हैं, वे एक-एक कल्प तक एक-एक नरक में रहेंगे। हैं कौन वे ? जे वरनाधम तेलि, कुम्हारा । स्वपच, किरात, कोल, कलवारा॥/नारि मुई गृहसंपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होंहि सन्यासी॥/निराचार सठ वृषली स्वामी॥/सूद्र करहिं जप तप व्रत नाना। बैठि वरासन कहहिं पुराना॥/सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥/भए वरन संकर कलि, भिन्न सेतु सब लोग।/करहिं पाप पावहिं दुख, भय रुज सोक वियोग॥/श्रुतिसम्मति हरिभक्तिपथ, संजुत विरति विवेक।/तेहिं न चलहिं नर मोहबस, कल्पहिं पंथ अनेक॥ रामचरित मानस की रचना कबीर की मृत्यु के सतहत्तर वर्ष बाद आरम्भ हुई। कबीर की मृत्यु सन्‌ १४९७ में मानी जाती हैं और रामचरित मानस का आरम्भ सन्‌ १५७४ ई० (संवत्‌ १६३१) में हुआ। कबीरदास अपने जीवनकाल में लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच चुके थे। वेद, पुराण, तीर्थ, कर्मकांड, बा्रह्मण की सर्वश्रेष्ठता आदि को अस्वीकार करने के कारण उनके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। जिसे हम संत काव्य के रूप में जानते हैं, उसके रचनाकारों में बाद के एक सुंदरदास को छोड़कर कोई सवर्ण नहीं था। सब के सब बरनाधम तेलि, कुम्हार, स्वपच, कलवार जुलाहा ही थे। वर्ण और आश्रम व्यवस्था के निष्प्राण हो जाने के बाद भी जिन्हें लगता था कि वहीं सदा-सदा के लिए श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था हो सकती हैं, उन सबको इन वर्णाधर्मों की मुखरता-वाचालता पीड़ा पहुँचाती है। उनको यह लगता था कि वेद और ब्राह्मण की श्रेष्ठता को चुनौती देना सबसे बड़ा अपराध है। वे संत जिस जीवन पद्धति का खुला प्रचार कर रहे थे, वह श्रुतिविरुद्ध कल्पित लगता था। काकभुशुंडि के उपर्युक्त कलयुग वर्णन में सबसे ज्यादा क्षोभ इसी व्यतिक्रम के प्रति प्रकट किया गया है कि अधर्मवर्ण वाले लोग धर्मचर्चा करने लगे हैं और श्रुतिसम्मत मार्ग छोड़ पंथ कल्पित करने लगे हैं। कबीरपंथ की बहुत चर्चा की जाती है। विचारणीय है कि क्या कबीर ने किसी पंथ की स्थापना की थी ? इसके कोई प्रमाण नहीं मिलते। यह अवश्य हुआ कि तुलसीदास के समय तक कबीर की लोकप्रियता से प्रभावित होकर असंख्य लोग वेद, ब्राह्मण, कर्मकाण्ड आदि का विरोध करने लगे थे। उनमें कबीर-रैदास की तरह सबके सब सच्चे साधु ही न रहे होंगे। उनके अराजक आचरण से वर्णाश्रम की क्षति को न सहन करने वाले तुलसीदास को कलियुग के कुप्रभाव का वर्णन करते समय वर्णाश्रम तेलि कुम्हारों की भूमिका को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता हुई। वर्णाधमों को दी जाने वाली गालियों में एक हैं - गृहासक्त। इस पर विचार करने की आवश्यकता है। सभी तरह के कर्त्तव्य कर्मों से पलायन करके पाखंड के बल पर भोली-भाली गृहस्थ जनता की अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को उकसाकर मालपुआ उड़ाने वालों की वास्तविकता को उजागर करने के साथ कबीर ने संत के लिए परजीवी बनने का स्पष्ट निषेध कर दिया। सभी संतकवि गृहस्थ थे। कपड़ा बुनकर, जूते बनाकर ये लोग अपनी गृहस्थी चलाते थे। कठिन श्रम से उपार्जित धन से अपने कुटंब और अतिथियों के पेट भरते थे। परमात्मा से यही माँगते थे कि - साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।/मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥ ध्यान देने की बात है कि वर्णाश्रम पोषकों द्वारा श्रम से उपार्जित जीविका के प्रति निष्ठा को गृहासक्ति कहा गया। काकभुशुंडि का दोष क्या था ? वे शूद्र थे, दरिद्र थे, अकाल पड़ने पर उज्जैन गये। कुछ सम्पति अर्जित की। एक ब्राह्मण ने कृपा करके उन्हें शिव का मंत्रा दिया। अपना दोष बताते हुए वे कहते हैं - जपौं मंत्र शिवमदिंर जाई। हृदयदंभ अहमिति अधिकाई॥/मैं खल मलसंकुल मति नीच जाति बस मोह।/हरिजन द्विज देखें जरौं, करौ विष्नु पर द्रोह॥ खल, मलसंकुल, नीच जाति में उत्पन्न, ब्राह्मणों को देखकर जलने वाले और विष्णु के प्रति द्रोहभाव रखनेवाले शिष्य को गुरु ने समझाया कि शिव की सेवा का फल है, राम के प्रति अविरल भक्ति। शिव स्वयं राम की उपासना करते हैं। शिव को राम का उपासक बताने वाले गुरु की अवज्ञा करने वाले नीच जाति के इस भक्त को स्वयं शिव ने अजगर होने का शाप दे दिया। उसी कृपालु की गुरु की प्रार्थना ने शिव से शाप की भयावहता कुछ कम करा दी। उसके बाद शिव ने चेतावनी देते हुए कहा - सुनु मम वचन सत्य अब भाई। हरि तोषन व्रत द्विज सेवकाई॥/अब जनि करहि विप्र अपमाना, जानेसु संत अनंत समाना॥/इन्द्र कुलिस मम सूल विसाला। कालदंड हरिचक्र कराला॥/जो इन्हकर मारा नहिं मरई। विप्रद्रोह पावक सो जरई॥ स्वयं शिव ने कहा कि भगवान को सन्तुष्ट करने वाला व्रत द्विजसेवा है। विप्र को अनंत संतों के समान जानो। इंद्र के वज्र, मेरे त्रिशूल कालदंड और विष्णु के चक्र से भी जो नहीं मरता, वह ब्राह्मण के क्रोध की आग में अवश्य जल मरता है। गोस्वामी जी ने अन्य अनेक स्थलों पर विप्रपूजा को सर्वोत्तम बताया है - पूजिय विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुनगन सकल प्रवीना॥ सौ सवा सौ वर्ष तक कबीर के प्रभाव में विप्र की श्रेष्ठता को जो गहरा धक्का लगा था, उसको कम करने के लिए तुलसीदास का यह प्रयास अपने दृष्टिकोण से अत्यंत आवश्यक और सामयिक कर्त्तव्य था। स्वाभाविक है कि विप्र प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए उन लोगों की बढ़ती हुई - लोकमान्यता को कम करना भी आवश्यक था, जिन्होंने विप्र प्रतिष्ठा को धक्का दिया था। इसीलिए गोस्वामी जी को कलयुग-वर्णन में वर्णाधर्म तेलिकुम्हार, स्वपचकलवार वाली बात जोड़नी पड़ी। विप्रद्रोह और सगुण द्रोह ऊपर से देखने पर अलग दिखाई पड़ते हैं, किन्तु दोनों गहरे स्तर पर एक ही हैं। सगुण की स्वीकृति के लिए वेद पुराण शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। मंदिर में प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमाओं की प्रातः जागरण आरती से लेकर कलेऊ, जलपान, भोजन, शयन आदि विधिविधान का ज्ञान अनिवार्य है, जो केवल विप्र वंशोदूभूतों के ही वश की बात है। अशिक्षित, गँवार, शूद्र आदि को पुजारी, पंडा, महंत बनने की अर्हता प्राप्त नहीं हो सकती। निर्गुण-निराकार परमात्मा को भेजने में किसी भी अर्हता, योग्यता, कुलगोत्रादि की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए दार्शनिक स्तर पर कुछ न समझने वाले वरनाधम तेलिकुम्हार स्वपच कलवारों को निर्गुणोपासना अपने सर्वथा अनुकूल लगी और इसीलिए निर्गुण भक्ति की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गयी। दार्शनिक स्तर पर सगुणोपासक भक्त कवियों ने निर्गुण ब्रह्म का निषेध नहीं किया। बार-बार दोनों को एक ही कहा - अगुनहि सगुनहि नहि कुछ भेदा' किन्तु मनुष्य निर्गुण को समझने में समर्थ नहीं हो पाता, इसलिए सगुण के प्रति सहज आकृष्ट हो जाना श्रेयस्कर है। सूरदास ने बहुत स्पष्ट कह दिया - अविगति गति कछु कहत न आवे।/मन बानी को अगम अगोचर सो जाने सो पावै॥.../सबविधि आगम विचारहि ताते सूर सगुन लीला-पद गावैं॥ तुलसीदास ने अपने सभी ग्रंथों में अनेक युक्तियों और तर्कों से मनुष्य की सीमाओं की ओर संकेत किया और निष्कर्ष निकाला कि सगुण राम का भजन ही राजमार्ग पर चलने जैसा सुकर कार्य है - बहुमत सुनि बहुपंथ पुराननि, जहाँतहाँ झगरो सो,/गुरु कह्यो रामभजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो॥ किन्तु वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा के लिए विप्रश्रेष्ठता और सगुण श्रेष्ठता के चलते, जब जहाँ अवकाश मिला, तुलसीदास ने अपनी बात कह दी - अन्तर जामिहुँ ते बड़ बाहिरजामी हैं राम जे नाम लिए ते।/पैज परे प्रहलादहु के प्रगटे प्रभु पाहन ते, न हिए ते॥ अंतर्यामी (निर्गुण) राम की अपेक्षा बर्हियामी (सगुण) राम बड़े हैं। प्रहलाद की जरूरत पर वे (राम) पत्थर से (बाहर से) ही प्रकट हुए, हृदय (अंतर) से नहीं। इसलिए अलख (निर्गुण) को लखने की बात करने वालों को कड़ी फटकार लगाना जरूरी था - हम लखि, हमहि हमार लखि, हम हमार के बीच/तुलसी अलखहि का लखै, रामनाम जपु नीच॥ प्रकृति-वर्णन-प्रसंग में भी अप्रस्तुत रूप में दंभियों के पाखंड विवाद से हुए अनर्थ को रेखांकित करने से वे नहीं चूकते - हरित भमितृनसंकुल, समुझि परहि नहिं पंथ।/जिमि पाखंड-विवाद ते, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥ ये सदग्रंथ वेदपुराणादि हैं, जो दंभियों द्वारा कल्पित पंथों और पाखंड-विवाद के कारण लुप्त होते लग रहे थे। तुलसी किन लोगों को दंभी कह रहे हैं, पहचान लेना कठिन नहीं है। कबीर ने राम के महत्त्व और प्रभाव को स्वीकार किया, किन्तु उन्होंने मन्दिरों में प्रतिष्ठित मूर्ति को अस्वीकार करने के साथ साथ दशरथ के पुत्र राम के पौराणिक रूप को भी अस्वीकार किया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि - दशरथ सुततिहुँ लोक बरवाना। राम नाम का मरम है आना॥ तुलसीदास ने रामचरित मानस में अनेक स्थलों पर पूर्वपक्ष से दशरथ-सुत राम के प्रति शंका प्रकट कराई। उत्तरपक्ष में राम पर शंका करने वालों को धूल चटाई। पार्वती ने देखा कि शिव ने राम लक्ष्मण को आदरसहित प्रणाम किया। पार्वती के मन में संदेह हुआ कि जो ब्रह्म, अजन्मा, गुण, कला आदि से परे है, जिसे वेद भी नहीं जान पाते, वह नारी-विरह में इस तरह कातर होकर घूम रहा है। यह कैसे? शिव ने यह पहले ही कह दिया - अति विचित्रा रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।/जे मतिमंद विमोहबस हृदय धरहिं कछु आन॥ मतिमंद लोग विमोहवश ही दशरथ सुत से भिन्न (आन) राम को अपने हृदय में धारण करते हैं। सौ वर्ष पहले कबीर कह चुके थे, कि राम ही ध्यातव्य हैं, हृदय में धारण करने योग्य हैं, पर दशरथ सुत नहीं, अन्य (आन)। उपनिषदकाल से ही अयोग्य ब्राह्मणों (जो केवल जन्म के आधार पर पूज्य बने रहना चाहते थे) के प्रति उपहास का भाव मिलने लगता है। ब्रह्मबंधु शब्द उनके लिए प्रचलित हो गया, जिनके आचरण में कुछ भी ब्राह्मणोचित नहीं था, केवल ब्राह्मण-पुत्र होने के कारण वे ब्राह्मण बने रहना चाहते थे। गौतम बुद्ध ने अपने प्रवचनों में जन्म के आधार पर ब्राह्मणत्व को खुली चुनौती दी। उसके बाद बौद्धों के प्रति विप्र-प्रवचन कैसे-कैसे हुए उसका एक उदाहरण डॉ० पांडुरंग बामन काणे ने धर्मशास्त्र का इतिहास में दिया है। एक श्लोक है - शुक्लदन्ताः जिताक्षश्च मुंडाः काषायवाससः।/शुद्धाधर्म वदिष्यन्ति शाठ्यबुद्धयोपजीविनः॥ सफेद दाँत वाले' से लेकर शठबुद्धि से जीविका चलाने वाले निन्दा और गाली के पात्रा हैं, वे शुद्धअधर्म की बात करते हैं, इन विशेषणों के साथ तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त विशेषणों को रखकर देखें - शिव सती को समझाते हुए कहते हैं - एकबात नहिं मोहि सुहानी। जदपि मोहबस कहेउ भवानी॥/तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिमुनि ध्याना॥/.../अग्य अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुरमन लागी॥/लंपट कपटी कुटिल विसेषी। सपनेहु संतसभा नहिं देखी॥/कहत ते बेद असम्मत बानी। जिन्हके सूझ न लाभ न हानी॥/.../हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। जिन्हहिं कहत कछु अघटित नाहीं॥/बातुल भूत विबस मतवारे। ते नहिं बोलत बचन सम्हारे॥/जिन्ह कृत महा मोहमद पाना। तिन्हकर कहा करिय नहिं काना॥ राम को दशरथ-सुत से भिन्न कहने वाले अज्ञ, अकोविद्, अंध, अभागे, लंपट, कपटी, कुटिल, सपने में भी संतसभा न देखनेवाले, वेदविरूद्ध वचन बोलने वाले, लाभहानि विवेकरहित, अंधे, अगुनसगुन-विवेकरहित, कल्पित वचन बकने वाले, मायाग्रस्त होकर घूमनेवाले, बातूनी, भूतग्रस्त, बिनाविचारे बोलनेवाले, महामोहरूपी मदिरा पीकर प्रमत्त हैं। इनको बातों पर कान नहीं दिया जाना चाहिए। बौद्धों को अन्य गालियों के साथ सफेद दाँत वाले कहने के पीछे उनका संयमित जीवन ही है। बौद्ध भिक्षु पान सुपारी नहीं खाते थे, इसलिए उनके दाँत साफ रहते थे। विप्रों और राजसामंतों के दाँत ताम्बूलरंजित होते थे। बल्लालकृत भोजप्रबन्ध में एक प्रसंग है। कवियों को अकूतधन देने वाले राजा भोज के दरबार में कविकर्म से रहित वेदशास्त्रज्ञाता विद्वान पहुँचे। द्वारपाल ने इन लोगों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। दरबार में जाकर उसने उन वैदिक विद्वानों का परिचय इस प्रकार दिया - राजमाषनिभैर्दन्तैः कटिविन्यस्त पाणयः।/द्वरितिष्ठन्ति राजेन्द्र छादन्साः श्लोकशत्रावः॥ हे राजा ! द्वार पर राजमा के समान दाँतों वाले, श्लोकशत्रु, वेदज्ञ कमर पर हाथ रखे खड़े हैं। जिन लोगों के दाँतों का रंग राजमा की तरह कत्थई हो वे साफ दाँत वालों को गाली ही तो देंगे। संत साहित्य पर विचार करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्ट लिखा कि यह ऐतिहासिक सत्य है कि युक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के और मध्यप्रदेश के उन भागों में जहाँ की भाषा हिन्दी है, वैष्णव मतवाद के प्रचार के पूर्व सर्वाधिक प्रचलित मतवाद शैवधर्म था।४ डॉ० राजदेव सिंह ने अपनी पुस्तक संत साहित्य : पुनर्मूल्यांकन में इस बात को आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि हठयोगी नाथों, बज्रयानियों और सहजयानी बौद्धों, त्रिपुरा सम्प्रदायों के तांत्रिकों, वीराचार्यों, दत्तात्रोय के सम्प्रदाय वालों, शैवों और परवर्ती सहजियों की इस साधनाभूमि में अपनी जड़ें जमाने में वैष्णव आचार्यों को पर्याप्त संघर्ष करने पड़े थे। इन बहुविधि संघर्षों में सबसे बड़ा संघर्ष ब्रह्म के निर्गुण और सगुण रूपों को लेकर था। सूर हों या तुलसी या कोई भी सगुण भक्तकवि, उनके साहित्य में इस संघर्ष के दस्तावेज आसानी से मिल जाते हैं। सूर की गोपियों द्वारा उपहसित उद्धव तथा मानस के सती, पार्वती और सगुण राम की भगवत्ता के प्रति जो संदेह व्यक्त करते हैं, वे इन्हीं समाजों द्वारा मुखरित सन्देह हैं।५ एक ओर दक्षिण से आता हुआ वैष्णवभक्ति का तीव्र प्रवाह था, और दूसरी ओर उसकी सामन्ती, पुरोहिती और सगुणाधारित कर्मकांडी व्यवस्था को एक सिरे से नकार देने वाली उत्तरभारत की समूची सन्त-परम्परा थी। इस विरोध पक्ष का सबसे सबल व्यक्तित्व था कबीर, जिसने पहली बार दशरथ के पुत्रा राजा राम को ब्रह्म मनाने से साफ इनकार किया। ब्राह्मण श्रेष्ठता में अविश्वास करने वाले, वेद में निष्ठा न रखने वाले तथा वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्वीकार करने वाले लोगों की परम्परा इस देश में काफी पुरानी है। लेकिन उपलब्ध साहित्य एवं अन्य सम्बद्ध सूचनाओं के हिसाब से दाशरथि राम की भगवत्ता को अस्वीकार करने वाले प्रथम व्यक्ति कबीर थे।६ कबीर ने केवल दशरथसुत राम को अस्वीकार किया हो, ऐसी बात नहीं। उन्होंने सामन्ती व्यवस्था को पुष्ट करने और मानव-मानव को विभाजित करने वाली आधारशिला को ही अपने कठोर प्रहारों से ध्वस्त कर दिया। उन्होंने मन्दिरों में स्थापित विग्रहों को राजा के समकक्ष समस्त विलासोपकरणों से परिपूर्ण देखा था और यह भी देखा था कि मन्दिर में विराजे महाराज के लिए उपलब्ध समस्त ऐश्वर्य का भोग करने वाले पुजारी और महंत एक प्रकार के सामंत ही थे। वंशानुगत राजाओं और सामंतों के प्रति सामान्य प्रजा के मन में असन्तोष आक्रोश की सम्भावना भी थी, तो राजाओं के राजा भगवान के निकटस्थ इन नवसामंतों के प्रति प्रजा के असंतोष की कोई भी सम्भावना छोड़ी नहीं गयी थी। इसीलिए कबीर ने मानवमात्रा की एकता के विरुद्ध मन्दिर-मस्जिद में विराजे ईश्वर को नकार कर उनकी असलियत सामान्यजन के सामने उजागर कर दी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि राजाओं के राजा जिन सर्वशक्तिमानों से तुम आतंकित हो, उनकी औकात यह है - साधो ! यह मुरदों का गाँव।/पीर मरे पैगम्बर मर गये, मर गये जिंदा जोगी।/राजा मर गये, परजा मर गये, मर गये बैद औ रोगी।/चंदा मरिहैं, सूरज मरिहैं, मरिहैं धरति अकासा।/चौदह भुवन चौधुरी मरिहैं, इनहूँ की क्या आसा।/नौ भी मर गये, दस भी मर गये, मर गये सहस अठासी।/तैतीस कोटि देवता मरि गये, परी काल की फाँसी।/नाम अनाम रहत है जिनहीं, दूजा तत्व न कोई।/कहैं कबीर सुनो भई साधो, भटक मरो मत कोई॥ जिस मुक्ति का सस्ते से सस्ता व्यापार मन्दिरों, तीर्थों और धर्म के बाजारों में होता रहता है, वह कितनी दुर्लभ और अप्राप्य है, यह इससे जानिए कि ब्रह्मा-विष्णु भी उसे न पा सके - बरमा बिसुन महेसर कहिए, इन सिर लागी काई।/इनहिं भरोसे मति कोइ रहियो, इनहूँ मुकुति न पाई॥ संकेत किया जा चुका है कि ब्रह्मा-विष्णु के धोखे में पड़े संसार को कबीर के अनुसार माया बनाती है। वह सबसे पहले मन को उत्पन्न करती है। वही मन सम्पूर्ण प्रपंच की रचना करता है। वही मन बन्धन का कारण है और वही मन मुक्ति का कारण भी है। इसलिए मन को साधना ही मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है। मन को साधना कैसे सम्भव होगा? आचरण के जो श्रेष्ठतम प्रतिमान हैं, उनका पालन करके ही मन को साधा जा सकता है। इस सच में कोई मिलावट नहीं चलेगी। पहले उसी मन को जानने की कोशिश करो परन्तु उससे भी पहले यह निश्चयपूर्वक जान समझ लो कि ये जो व्रत, तीर्थ, देवदर्शन को पापों से मुक्ति दिलाने वाले बताकर धर्म का धंधा करते हैं, वे सबके सब लुटेरे हैं। इनकी बातों में आओगे तो मन की थाह नहीं पा सकोगे। सबसे पहले यह समझ लो कि जो परम सत्ता है, उसे चींटी के पावों की ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। उससे कुछ भी बचता नहीं है, जिसे वह न देखे, न जाने। तुम उसे धोखा नहीं दे सकते। धन्धा करने वालों के हथकंडों से सावधान रहो और जान लो कि सृष्टि के सभी जीव एक ही हैं, इनमें से किसी एक की हिंसा उसी परमसत्ता के प्रति हिंसा होती है - जीव मति मारो बापुरा, सबका एकै प्रान।/हत्या कबहूँ न छूटिहैं, जो कोटिन सुनो पुरान॥/जीव घात ना कीजिए, बहुरि लेत वै कान।/तीरथ गये न बाँचिहौ, जो कोटि हीरा देहु दान॥/तीरथ गये तीन जन, चित चंचल मन चोर।/एकौ पाप न काटिया, लादिनि मन दस और॥/तीरथ गये ते बहि मुए, जूड़े पानि नहाय।/कहै कबीर सुनो हे संतों, राक्षस होय पछिताय॥/तीरथ भई विष बेलरी, रही युगन युग छाय।/कबिरन भूल निकन्दिया, कौन हलाहल खाय॥ धर्म का धन्धा करने वाले पंडे पुजारी आश्वासन देते रहते हैं कि अमुक तीर्थ में अमुक देवता के दर्शन करने से बड़े से बड़ा पाप कट जाता है। कबीर इस झूठ के व्यापार के धोखे से सामान्यजन को बचाने के लिए कहते हैं कि जीवहत्या का पाप करोगे तो तुम्हें उसका फल भोगना पड़ेगा। कोई तीर्थ-व्रत, देवदर्शन बचा नहीं सकता। ये तीर्थ राक्षस बना देते हैं, ये विष की बेल हैं। उनसे बचकर, हिंसा से बचे रहकर ही सच्चे मार्ग पर चल सकते हो। मजहब के नाम पर हिंसा करने वाले मुसलमानों से भी कबीर यही कहते हैं - काजी काज करहुँ, तुम कैसा। घर घर जबह करावहु भैंसा॥/बकरी मुर्गी किन फरमाया। किसके कहे तुम छुरी चलाया॥/दर्द न जानहु पीर कहावहु। बैता पढ़ि पढ़ि जग भरमावहु॥/दिन को रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय।/यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥ जीव पर दया, यह पहला पाठ है, सत्य, प्रेम और ईश्वर की ओर अग्रसर होने का। महात्मा गाँधी का जीवन आधुनिक युग में इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि केवल सत्य को ठीक से पकड़ने पर ईश्वर, प्रेम, अहिंसा, अभय आदि सभी श्रेष्ठ मूल्यों की प्राप्ति हो जाती है। गाँधी ने बारबार कहा कि मैं सत्य की खोज में चला और उसी रूप में ईश्वर, प्रेम, अहिंसा सब मिल गये। सोचने की बात है कि जब हम समस्त प्राणियों में एक ही परमतत्त्व का प्रकाश अथवा परमात्मा का अंश जीवात्मा पायेंगे तो किसी के प्रति हिंसक कैसे हो सकते हैं। जब सब में उसी को पहचानेंगे और उससे प्रेम करने का दावा करेंगे तो घृणा किसी को भी कैसे कर सकेंगे? जब किसी को भिन्न नहीं मानेंगे तो भयभीत किससे होंगे? सत्य का निर्वाह तभी होगा, जब एषणाओं को बढ़ाने वाली वृत्तियों को रोक दिया जाय। गौतम बुद्ध ने तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना। कबीर संतोष को सबसे बड़ा धन बताते हैं - गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतनधन खान।/जो आवे संतोषधन, सबधन धूरि समान॥ ईसा मसीह ने जब कहा था कि सूई के छेद से ऊँट का निकल जाना सम्भव है किन्तु धनी व्यक्ति का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना असम्भव है तो वे संतोष और अपरिग्रह के इसी महत्त्व को रेखाँकित कर रहे थे। कबीर परमात्मा से इतना ही माँगते हैं - साईं उतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।/मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥ वे धन की बाढ़ से डरने का इशारा कर रहे थे। इसी बात को आधुनिक युग के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि निराला अपनी दरिद्रता के सन्दर्भ में कहते हैं - जाना तो अर्थागमोपाय,/पर रहा सदा संकुचित काय,/क्षीण का न छीना कभी अन्न,/मैं लख सका न वे दृग विपन्न।/लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ-समर॥७ बुद्ध, ईसा, कबीर, निराला और मुक्तिबोध धनोपार्जन के लिए अनर्थ की अनिवार्य शर्त के कारण ही धन के प्रति विरक्ति की बात करते हैं। इस तरह कबीर मनुष्य को नैतिक आचरण के आधार पर तैयार करने के लिए उसे भटकाने वाले धर्म के ठेकेदारों से बचाने का प्रयत्न करते हैं। हमारे तर्क प्रधान समय में स्वामी विवेकानन्द जैसे जनप्रतिबद्ध संन्यासी के प्रति न किसी के मन में अविश्वास है, न अस्वीकार। वेदान्त की बात भी विवेकानन्द आधुनिक विज्ञान के आलोक में ही समझाते हैं। आत्मा परमात्मा की एकता और आत्मा की अनश्वरता-अमरता के विषय में कबीर का यह दोहा अद्वितीय है - जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।/फूटा कुंभ, जल जलहिं समाना, यह तब कथ्यो गियानी॥ आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, मायारचित घट उसे अलग किए हुए है। बीच से ज्योहीं यह घड़ा फूटेगा, दोनों एक हो जायेंगे। एक हैं ही। स्वामी विवेकानन्द इस भेद और अभेद को भौतिक विज्ञान की शब्दावली में समझाते हैं - समुद्र के ऊपरी भाग का बारी-बारी से उत्थान और पतन होता है, परन्तु आत्मा को - जो ज्योति की सन्तान है - उसके पतन में गंभीरता और समुद्र की थाह में मोती और मूँगे की तरह ही प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। आना और जाना यह केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायेगी, जब सम्पूर्ण देश आत्मा में ही स्थित है। प्रवेश और प्रस्थान का कौन समय होगा, जब समस्त कोल आत्मा में ही है।८ देश और काल के विषय में यह अवधारणा आईन्स्टीन के कारण भौतिक विज्ञान में मान्य हो गयी है। वेदान्त और विज्ञान की गम्भीर समझ रखने वाले स्वामी विवेकानन्द तीर्थों और पुजारियों के विषय में कहते हैं - कलिकाल के तीर्थ स्थानों और संन्यासियों को तो आप जानते ही हैं, वे कैसे हैं ? रुपये खर्च कीजिए और मंदिर के पुजारी आपके लिए जगह करने के निमित्त देवमूर्ति को भी हटा देंगे।९ कबीर का सच को ही सब कुछ मानना और उसके पक्ष में कठोर वाणी का प्रयोग करना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को अच्छा नहीं लगा। जायसी ग्रंथावली में सूफियों की प्रेमपगी मसनवी शैली की कोमलता को उभारने के लिए शुक्ल जी ने लिखा कि कबीर आदि निर्गुण संतों ने जनता को जो कड़ी फटकार लगाई थी, उस पर सूफ़ियों की प्रेमपगी वाणी ने मरहम का काम किया। स्वामी विवेकानन्द ने एक दुराग्रही को डाँट दिया था। इस पर उनके हितैषियों ने असन्तोष प्रकट किया। स्वामी जी ने कुमारी हेल को लिखे पत्र में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा, सत्य की तुलना मैं एक अनन्त शक्ति वाले क्षयकर पदार्थ से करूँगा। वह जहाँ भी गिरता है, जलाकर अपना स्थान बना लेता है - यदि नरम वस्तु पर गिरे तो तुरन्त ही; यदि कठोर पाषाण पर, तो धीरे-धीरे, परन्तु जलाता अवश्य है। ... मैं विवश हूँ बहन, कि प्रत्येक कलुषित असत्य के प्रति मैं मधुर और अनुकूल नहीं हो सकता हूँ।..... मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है और मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है।१० कबीर अपने समाज के लोगों की दुर्दशा देख और भोग रहे थे। उसके कर्त्ता धर्म-व्यवसायी पाखंडियों से मधुर व्यवहार करने का समय उनके पास भी नहीं था और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका क्षयकर (कोरोसिव) सत्य सामान्यजन को नहीं छू रहा था। यह अधर्मियों और उनके अधर्म को ही जला रहा था। प्रश्न हो सकता है कि कबीर के सन्दर्भ में विवेकानन्द को स्मरण करने का क्या औचित्य है? औचित्य यह है कि दोनों अपने अपने समय में सत्यमार्ग पर चलकर असत्यवादी अधर्मियों को ललकार रहे थे। जो मानव मानव की एकता में बाधक है, वह कितना बड़ा क्यों न हो, उसे दोनों अस्वीकार कर रहे थे। विवेकानन्द ने स्पष्ट कहा-स्मृति और पुराण सीमित बुद्धिवाले व्यक्तियों की रचनाएँ हैं, और भ्रम, प्रमाद, भेद तथा द्वेषभाव से परिपूर्ण हैं। उनके कुछ अंश जिनमें मन की उदारता और प्रेम का अविर्भाव है, ग्रहण करने योग्य हैं और शेष सबका त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद् और गीता सच्चे शास्त्रा हैं, और राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं, क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे - और इन सब में श्रेष्ठ हैं रामकृष्ण। रामानुज, शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदय वाले केवल पंडित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है, वह हृदय जो दूसरों का दुख देखकर द्रवित हो? पंडितों का शुष्क विद्याभिमान - जैसे-तैसे केवल अपने आपको मुक्त करने की इच्छा। परन्तु महाशय! क्या यह संभव है? क्या इसकी कभी सम्भावना थी या हो सकती है? - मुझे एक और भाव दिखाई देता है - मेरे मन में दिनोंदिन यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि जाति का भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करने वाला और माया का मूल है - सब प्रकार का जातिभेद, चाहे वह जन्मगत्‌ हो या गुणगत्‌ - बन्धन ही है।११ कबीर इसी भूमि पर खड़े होकर बामन-सूद और हिन्दू-तुर्क का भेद करके मनुष्यता को बाँटने वाले धर्म-व्यवसायियों को ललकार रहे थे। विडम्बना देखिये आज विद्वत्ता बिदग्ध आचार्यगण कबीर को हिन्दू और मुसलमान साबित करने में लगे हैं। दलित लेखन की ओर से सवाल उठाये जा रहे हैं कि गैरदलित हमारी पीड़ा को नहीं समझ सकते। इसी क्रम में डॉ० धर्मवीर की पुस्तक कबीर के आलोचक आजकल चर्चा में है। लेखक की इस मान्यता के प्रति अधिकांश लोग असहमति व्यक्त करते हैं कि ब्राह्मणवादी समीक्षों ने कबीर के दर्शन और सामाजिक सन्देश के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं बरता। उन्होंने कबीर को नहीं, बल्कि कबीर के भीतर रामानन्द को बैठाकर उसकी प्रशंसा की है।१२ डॉ० धर्मवीर के दूसरे वाक्य के प्रति विश्वास करने के अनेक कारण हैं। कबीर के साधक और व्याख्याकार आलोचक अभिलाष दास अपनी पुस्तक 'कबीर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' में गुरु-विवाद शीर्षक के अन्तर्गत शेख तकी और रामानन्द दोनों के कबीर का गुरु होने, न होने पर विचार करते हैं। शेख तकी को फटकारने वाला दोहा - नाना नाच नचाय के, नाचे नट के भेख।/घट घट है अविनाशी, सुनहु तकी तुम शेख॥ उद्धत करने के बाद अभिलाष दास लिखते हैं - स्वामी रामानन्द आपके गुरु हो सकते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा-समझा होगा। परन्तु आपके स्वरूपबोध के गुरु वे भी नहीं थे। क्योंकि आपके और उनके सिद्धान्तों में काफी अन्तर है। आपका राम अन्तरात्मा और स्वामी रामानन्द का राम दशरथ पुत्र श्री राम हैं, अथवा परोक्ष ईश्वर। इसको लेकर आपने स्वामी रामानन्द को समझाया होगा। जब आपकी बात नहीं समझ सके होंगे तब आपने उलाहनापूर्वक उनके विषय में कह डाला - रामानन्द रामरस माते, कहहिं कबीर हम कहिं थाके। (बीजक) 'पूरे बीजक में केवल उपर्युक्त पंक्ति ही स्वामी रामानन्द के विषय में है।'१३ अभिलाष दास का निष्कर्ष है कि समसामयिक सत्संग तथा शास्त्रों से पर्याप्त लाभ उठाते हुए भी आपको (कबीर को) सैद्धान्तिक संतोष नहीं हुआ। वेद-कितेबादि समस्त ग्रंथों की परम्परा या मतों में आपको पर्याप्त भ्रम दिखाई दिया। हिन्दू-मुसलमान दोनों मत में जड़-चेतन का शुद्ध विचार छोड़कर चराचर, व्यापक आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर या खुदा माना गया है और अन्तिम उत्कर्ष में तो जड़ चेतन को एक मानकर अद्धैत निरूपण किया गया है, जो सर्वथा भ्रमपूर्ण है। आप (कबीर) नाना मत-मतान्तरों को देखकर सबसे उपराम हो गये, फिर स्वयं सत्य का शोधन किये।१४ हनुमान की आरती लिखने गाने वाले वैष्णवमताब्जभाष्कर और श्रीरामार्चन पद्धति के रचयिता रामानन्द को कबीर का गुरु पूरी तरह तो आचार्य शुक्ल भी नहीं कहते। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि, कबीर को 'राम' नाम रामानन्द जी से ही प्राप्त हुआ, पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानन्द के 'राम' से भिन्न हो गये।१५ डॉ० शैलेश जैदी ने अनेक प्रमाण जुटाए हैं जो रामानन्द को कबीर का गुरु मानने के विरुद्ध पड़ते हैं।१६ कबीर पर अनेक प्रकार के प्रभाव दिखाई पड़ते हैं, किन्तु यह उससे भी बड़ा सच है कि किसी को कबीर ने पूरा का पूरा स्वीकार नहीं किया है। नाथपंथी योगियों का कबीर पर प्रभाव स्पष्ट है किन्तु गोरखनाथ के लिए वे कहते हैं - झिलमिल झगरा झूलते, बाकी रही न काहु।/गोरख अटके कालपुर कौन कहावे साहु? गोरखनाथ जीवन का उद्देश्य वीर्यरक्षा मानते थे, इस हद तक कि स्त्रीयोनि का नाम लेकर कहते थे -भगुबाघिन रो, भगु बाघिन रो, बिनुदंता जग खाया। कबीर के प्रसिद्ध पद-मन न रँगाए, रँगाए जोगि कपड़ा में एक पंक्ति है - काम जराय जोगी, हो गइले हिजड़ा। कबीर न भोगवादी थे, न पलायनवादी। स्वस्थ, सरल और शुद्ध नैतिक जीवन गृहस्थ का ही हो सकता है, इस बात को कबीर ने अपनी रहनी से प्रमाणित कर दिया। साधु के वेश में संसार के गंभीर दायित्वों से पलायन करने वाले परजीवी वे नहीं थे। कठिन श्रम से जीविकोपार्जन करते हुए सबके हित की चिन्ता करना, सबके भ्रम जाल को काटने के लिये उनको समझाया और जो दलित सब ओर से वंचित शोषित हैं, उनके पक्ष में खड़े होकर बड़े से बड़े को चुनौती देना-यही कबीर का स्वभाव था। गृहस्थ का जीवन अपनाने के बावजूद गृहस्थी की माया को काटने का सतत्‌ प्रयास करने वाले कबीर ही कह सकते थे - मैं घर जारा आपना, लिये लुकाठा हाथ।/जो घर फूकै आपना, सो चले हमारे साथ॥ स्वयं सत्य का शोधन करने की - आत्मदीपो भव की परम्परा हमारे यहाँ अपरिचित नहीं है। जे० कृष्णामूर्ति जैसे गंभीर विचारक मानते हैं कि कोई किसी का गुरु नहीं हो सकता, व्यक्ति को स्वयं सत्य तक - मुक्ति तक पहुँचना होता है। कबीर गुरु-महिमा को लोक में सर्वाधिक प्रतिष्ठित करने वाले साधक हैं - गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।/कह कबीर गुरु अपने जिन गोविन्द दियो लखाय॥ ऊपर से देखने पर लग सकता है कि निम्न श्रेणी की जनता का आत्मदीप होना और गुरु को गोविन्द से भी अधिक मानना परस्पर विरोधी बातें हैं, परन्तु गम्भीर विचार करने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है। पहली बात तो यह कि गुरु होने का धन्धा करने वालों से कबीर बचने की बात करते हैं - अंधे अंधा ठेलिया, दोऊ कूप पड़ंत। वे सामान्य जन की तरह लोक और वेद के पीछे मुक्ति की तलाश करते घूम रहे थे कि सामने से आकर गुरु ने उनके हाथ में दीपक पकड़ा दिया - पाछे पाछे जाइया, लोक वेद के साथ।/आगे तें सदगुरु, दीपक दीया हाथ॥ इससे यह दो बातें साफ प्रमाणित होती हैं - पहली तो यह कि शिष्य की यह क्षमता नहीं कि वह योग्य गुरु को खोजकर पा ले। नैतिक आचरण के साथ परम तत्त्व की खोज में लगा रहे तो गुरु स्वयं आकर शिष्य को खोज लेते हैं। दूसरी बात यह कि गुरु का काम शिष्य के हाथ में दीपक पकड़ा देना है, उसके प्रकाश में अपना मार्ग देखकर आगे की यात्रा शिष्य स्वयं करेगा। गोविंद से बड़ा गुरु को बताने का रहस्य यह है कि परमसत्ता के पास मन नहीं होता। मन माया की सृष्टि है। मनुष्य मन से ही जगत्‌प्रपंच की रचना कर सकता है। यह तुलसी और कबीर के साक्ष्य पर देखा जा चुका है। संत की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि उसके मन में किसी के लिए अपने पराये का भेद नहीं होता, उसका मन प्रपंच से ऊपर उठा होता है, सबके कल्याण की कामना से भरा होता है, अपने लिए उसकी कोई इच्छा नहीं होती, इसलिए वह परमसत्ता के अर्थात्‌ मूलतत्त्व के निकटतम होता है। यदि ऐसा संत गुरु - किसी व्यक्ति के कल्याण की बात जरा सा भी सोच ले तो उसका परम कल्याण होना ही है। परमतत्त्व-परमात्मा तक पहुँचना सम्भव नहीं, इसलिए मनुष्य के पास गुरु परमात्मा से भी बड़ा है। डॉ० धर्मवीर की इस बात में सत्यांश है कि ब्राह्मणवादी समीक्षकों ने कबीर के दर्शन और सामाजिक संदेश के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं बरता। यह ठीक न होता तो आज भी कबीर की जाति को लेकर आचार्यों के बीच बहस नहीं हो रही होती। दलित का क्षोभ और आक्रोश स्वाभाविक है। आज भी कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हुआ है तो इसका कारण समीक्षकों और इतिहासकारों की सीमित समझ है। जिनके लिए कबीर ने पूरी व्यवस्था को ललकार दिया, उनको आज तक इस व्यवस्था में उनकी असली जगह नहीं मिली तो उनका आक्रोश स्वाभाविक है। आक्रोश में बुद्धिमान व्यक्ति भी अतिश्योक्ति का शिकार हो जाता है, अन्यथा डॉ० धर्मवीर को रामचन्द्र शुक्ल की यह बात याद रहती कि मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने (कबीर ने) आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।१७ अभिलाष दास ने लिखा है कि (कबीर की दृष्टि में) यह चेतन जीव ही परम तत्त्व है। सारी कला कल्पनाएँ, सारे ज्ञान-विज्ञान इसी के हैं। जीव ही ईश्वर ब्रह्म, देवी-देवता तथा भूत-प्रेत की कल्पना करने वाला तथा वेद, बाइबिल, कुरान अनेक शास्त्रों का रचने वाला है। अतः जीव ही सर्वोपरि है। सद्गुरु (कबीर) पहली रमैनी में कहते हैं - एक जीव कित कहहुँ अखानी अर्थात्‌ एक जीव ही सत्य है, मैं विशेष वर्णन करके क्या कहूँ?१८ जैसे-जैसे मानव की विकास-यात्रा पूर्ण मनुष्यत्व की ओर अग्रसर होती जायेगी, कबीर वाणी का महत्त्व बढ़ता जायेगा। संसार को बेहतर बनाने की चिन्ता करने वालों के लिए कबीर की प्रासंगिकता भी बढ़ती जायेगी। सन्दर्भ-ग्रन्थ १. सांख्य कारिका, १२, १३, २२ २. इण्डियन फिलॉस्फी, भाग-२, पृ० २२४-२५ ३. उत्तरकांड, दो०, ९३ ४. हिन्दी साहित्य की भूमिका, संस्करण १९५९, पृ० ६८ ५. वही, पृ० २५-२६ ६. वही, पृ० १५ ७. सरोजस्मृति ८. पत्रावली, प्रथम संस्करण, पृ० २८३ ९. वही, प्रमदा दास मित्र को लिखे पत्र में, पृ० ४२ १०. वही, पृ० २८७ और २७१ ११. वही, पृ० ७५ १२. वही, भूमिका १३. बीजक, पृ० ७६ १४. वही, पृ० ७६ १५. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ७८ १६. हिन्दी के मध्ययुगीन कवि नामक पुस्तक में कबीर और उनका काव्य नामक लेख १७. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ६७ १८. कबीरःव्यक्तित्त्व और कर्तृव्य, पृ० १०७