कबीर की ‘कामिनी काली नागिनी’ / कुँवर दिनेश
भक्ति आंदोलन के कवियों में पन्द्रहवीं शताब्दी के सन्त-कवि कबीर दास ईश्वर के ‘निराकार एवं निर्गुण’ स्वरूप सम्बन्धी आख्यान के लिए, अपनी अनूठी काव्य-शैली ‘उलटबाँसी’ के लिए और सामाजिक मुद्दों पर बेबाकी से कटाक्ष करने के लिए जाने जाते हैं। तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक अन्धविश्वास, पाखण्ड, आडम्बर, जातिगत भेदभाव और कुरीतियों का विरोध करते हुए कबीर एक समाज-सुधारक की भूमिका में दिखाए देते हैं। लेकिन अपने युग के कई सामाजिक मुद्दों पर अपने प्रगतिशील एवं क्रान्तिकारी विचारों के बावजूद महिलाओं के विषय में कबीर के विचारों को रूढ़िवादी एवं पूर्वाग्रहों से प्रभावित माना जाता है। विशेषतया नारीवादी विमर्श में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के समर्थन के लिए कबीर आलोचना के केन्द्र में आ जाते हैं। नारीवादी विचारकों के अनुसार स्त्री के विषय में कबीर का दृष्टिकोण निष्पक्ष नहीं है। उनका मानना है कि अन्य मध्यकालीन कवियों की भान्ति कबीर ने भी नारी को दोयम दर्जे में रखा और उसका अस्तित्व स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में नहीं प्रत्युत् पुरुष पर अवलम्बित दिखाया है।
कई नारीवादी आलोचक यह भी इंगित करते हैं कि कबीर सती प्रथा को न्यायोचित ठहराते हैं, जिसमें विधवा महिला से उम्मीद की जाती थी कि वह अपने पति की चिता पर उसके साथ ही जलेगी। इस दोहे में कबीर एक ऐसी टिप्पणी करते हैं जो नारीवादियों को चुभती है: “जैसे सती चढ़े अगिन पर, प्रेम वचन न तारा हो / आप जारे और को जारे, राखे प्रेम-मरजादा हो” ―यानी यह प्रेम एक पतिपरायणा पत्नी की तरह है, जो प्यार की बोली पर आग में प्रवेश करती है। वह स्वयं जल जाती है और इस प्रकार दूसरों को दुःख पहुँचाती है, फिर भी कभी प्रेम का अपमान नहीं करती। आलोचकों का मानना है कि कबीर ने इस प्रतिगामी प्रथा को कई बार विशुद्ध प्रेम के उदाहरण के रूप में चित्रित किया है। कबीर ने सती प्रथा का अपने पति के लिए एक महिला के सच्चे प्यार के रूप में उल्लेख किया है। उनके लिए, अपने मृत पति की चिता पर खड़ी एक महिला शुद्ध प्रेम, लगाव और प्रतिबद्धता के साथ-साथ एक समर्पित पत्नी के कर्त्तव्य का प्रतीक है।
इसके अतिरिक्त, कबीर प्राय: इस बात का संकेत भी करते हैं कि महिलाएँ पुरुषों को सच्ची भक्ति से विचलित कर सकती हैं। निम्नलिखित दोहे में वे कहते हैं कि महिलाओं के प्रेम में बहुत-से लोग बर्बाद हो चुके हैं, और अभी और न जाने कितने ही हंसते-हंसते हुए नरक में जाएँगे: “कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत / केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।” एक अन्य दोहे में कबीर कहते हैं: “नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस / जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।” ― यानी साँप के पास तो केवल दो फन होते हैं, परंतु स्त्री के बीस फन होते हैं। स्त्री के डसने पर कोई जीवित नहीं बच सकता है; बीस लोगों को काटने पर बीसों मर जाते हैं। कबीर ने नारी को नागिनी या सर्पिणी स्वरूप माना है, जो पुरुष के मन को काम-वासना के विष से भर देती है। वे कहते हैं कि किसी भी महिला में पुरुष को वश में करने और नष्ट करने की आंतरिक शक्ति होती है: “नारी काली उजली, नेक बिमासी जोये / सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये।” ―यानी नारी कैसी भी हो काली या उजली/गोरी, वह पुरुष को वासना के पाश में आबद्ध कर लेती है। बुद्धिमान् व्यक्ति इस पाश से बचकर रहता है, किन्तु अधमप्रकृति पुरुष उसमें आसक्त रहता है। एक दोहे में कबीर कहते हैं, “नारी की झांई परत अन्धा होत भुजंग / कबिरा तिनकी कौन गति नित नारी को संग।” ―अर्थात् नारी की परछाईं पड़ने से सर्प भी अन्धा हो जाता है, तो उस पुरुष की गति क्या होगी जो नित नारी के संग रहता है।
कबीर कहते हैं नारी में आसक्त पुरुष का आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और वह न तो इहलोक का रहता है और न परलोक का। वे कहते हैं नारी न केवल इस संसार में अपना प्रभाव रखती है, अपितु तीनों लोकों में उसकी व्याप्ति है: "कामिनी काली नागिनी, तीनों लोक मंझार / हरि सनेही उबरै, विषयी खाये झार।" ― अर्थात् स्त्री काली नागिन है, जो तीनों लोकों में व्याप्त है। परंतु हरि का प्रेमी व्यक्ति उसके काटने से बच जाता है। स्त्री विषय-लोलुप व्यक्तियों को खोज-खोज कर काटती है। एक अन्य दोहे में कबीर कहते हैं: "कामिनी सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये / जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।" ― अर्थात् नारी एक सुन्दर सर्पिणी की भांति है। उसे जो छेड़ता है उसे वह खा जाती है। लेकिन जो हरि के चरणों मे रमा है, वह उसके नज़दीक भी नहीं जा पाती है।
निम्न दोहे में कबीर "नारी" को "नाहरी" यानी शेरनी के रूप में पुरुष का भक्षण करने वाली कहते हैं: "नारी कहुँ की नाहरी, नख सिख से ये खाये / जाल बुरा तो उबरै, भाग बुरा बहि जाये।" ― अर्थात् नारी कहा जाय या नाहरी (शेरनी)। यह पुरुष को सिर से पाँव तक खा जाती है। पानी में डूबने वाला बच सकता है, लेकिन विषय-भोग में डूबने वाला व्यक्ति संसार सागर में बह ही जाता है। कबीर कहते हैं कि स्त्री, वह चाहे किसी भी रूप में हो, पुरुष के लिए वह विष की बेल जैसी है: "छोटी मोटी कामिनि, सब ही बिष की बेल / बैरी मारे दाव से, ये मारै हंसि खेल।" - अर्थात् स्त्री, साधारण अथवा अति-सुंदर, छोटी अथवा बड़ी, विष की लता समान है। शत्रु दाव चलकर मारता है, लेकिन स्त्री तो पुरुष को हंस-खेल कर ही मार डालती है।
विरोधाभासी कथनों के प्रयोग के कारण, कबीर को अक्सर महिलाओं पर उनके दृष्टिकोण के बारे में गलत समझा गया है। वास्तव में जिसे वह आसक्ति या अनुरक्ति कहते हैं, वह पराई स्त्री के पीछे लालायित होना है, जो नरक के मार्ग पर चलने के बराबर है। उदाहरण के लिए, इस दोहे में, वह दूसरे की पत्नी के लिए अपनी वासना के कारण रावण की तबाही का उल्लेख करते हैं: “पर नारी पैनी छुरी, मति कोई करो प्रसंग / रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग।” अर्थात् परनारी का संग नहीं करना चाहिए। परनारी पैनी छुरी की तरह होती है, परनारी के संग करने से रावण के दस शीश चले गए। एक अन्य दोहे में वे कहते हैं: “परनारी पैनी छुरी, बिरला बंचै कोये/ ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये।“ ―यानी परनारी पैनी छुरी के समान होती है, उसके वार से कोई बच नहीं पाता है। परनारी को हृदय में नहीं बसाना चाहिए क्योंकि वह कभी भी आहत कर सकती है। वह कितनी भी सुन्दर क्यों न हो, या स्वर्ण से बनी ही क्यों न हो, उससे दूर रहने में ही पुरुष की भलाई है।
दरअसल कबीर यहाँ साधारण पुरुष की नहीं अपितु आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर व्यक्ति की बात करते हैं, जिसे अपने मंतव्य में सफलता तभी मिल पाएगी जब वह कनक-कामिनी जैसे प्रलोभनों में आसक्त न होकर निरन्तर, अविचल रूप से अपने गंतव्य की ओर बढ़ता रहता है। इसीलिए कबीर कहते हैं: "नारी निरखि ना देखिये, निरखि ना कीजिये दौर / देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और।" ―अर्थात् नारी को कभी घूर कर मत देखो। देख कर उसके पीछे मत दौड़ो। उसे देखते ही विष चढ़ने लगता है और मन में अनेक प्रकार के विषय विकार व गंदे विचार मन में पनपने लगते हैं।
निम्न दोहे में कबीर ने संत पुरुषों की जन्मदात्री के रूप में स्त्री की महत्ता बताई है: "नारी नरक न जाने, सब संतान की खान / जामे हरिजन उपजय, सोया रतन की खान।" ―अर्थात् स्त्री को नरक मत समझो, वह सभी प्रकार की संतानों को जन्म देने वाली है। जो स्त्रियाँ ईश्वर के भक्तों को जन्म देती हैं, वे रत्नों की खान हैं। एक अन्य दोहे में वे कहते हैं: "नारी निंदा न करो, नारी रतन की खान / नारी से नर गर्म है, ध्रुव प्रह्लाद समान।" यानी नारी की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिए, नारी तो रत्नों की खान है। स्त्री से ही सभी पुरुष बने हैं, जिनमें ध्रुव व प्रह्लाद जैसे भी हैं।
कबीर व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में पंडितों द्वारा किए जाने वाले लिंग विभाजन पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं। उनके मतानुसार एक ही ईश्वर स्त्री और पुरुष दोनों की आत्मा में निवास करता है। वास्तव में, वे पुरुषों और महिलाओं में आध्यात्मिक प्रगति की समान संभावना देखते हैं। कबीर के कथन में जिसे नारीवादी आलोचक लिंगभेद मानते हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से वह वासनात्मक प्रवृत्तियों से दूरी बनाए रखने की सीख है। निम्नलिखित दोहे को देखते हुए, उसे स्त्री द्वेषी या किसी भी प्रकार के लिंग पूर्वाग्रह के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता है: "नर नारी में एक विराजे / दो दुनिया में ऐसे क्यों" ― यानी जब परमात्मा स्त्री और पुरुष दोनों में समान रूप से विराज रहे हैं / तो दो तरह की दुनिया किसलिए? आशय यह है कि आध्यात्मिक जागृति के लिए पुरुष और स्त्री के बीच लैंगिक विभाजन की सार्थकता क्या है, जबकि दोनों की आत्मा में दिव्य प्रकाश एक ही है।
इस तथ्य में कोई संदेह या द्वंद्व नहीं है कि कबीर मूल रूप से एक आध्यात्मिक साधक थे और उन्होंने लोगों को आध्यात्मिक जागृति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। इस कारण उन्होंने अपने शिष्यों को अनेक प्रकार की सलाहें दीं। इस आध्यात्मिक अभियान में उन्होंने महसूस किया कि दूसरे की पत्नी के प्रति लालसा एक बहुत बड़ा दोष है, इसलिए इससे बचना चाहिए। वह कभी भी पति-पत्नी के बीच संबंध के बारे में बुरा नहीं कहते हैं, लेकिन वह एक ऐसी कामिनी महिला के साथ संबंध रखने की निंदा करते हैं जो परस्त्री हो, या पुरुष के लिए सम्मोहिनी अथवा ठगिनी हो, यानी अध्यात्म के मार्ग पर पुरुष का ध्यान भंग करने वाली हो। कबीर के अनुसार स्त्रियाँ दो प्रकार की होती हैं: एक, जो अपने पति के प्रति समर्पित होती है और उसकी साधना में कोई बाधा नहीं डालती; और दूसरी, कामिनी―साधना में विघ्न डालने वाली। कबीर मानते हैं कि ध्यान और साधना में अवांछित या अगम्य महिलाओं से दूरी बनाए रखना आवश्यक है। कबीर के इस दृष्टिकोण के पीछे एकमात्र तर्क मनुष्य को उसके आध्यात्मिक गंतव्य से भटकने से बचाना है।
प्राय: नारीवादी विमर्श में इस बात पर चिन्ता जताई जाती है कि कबीर जैसे पाखंड-विरोधी एवं प्रगतिशील चेतना वाले संत-कवि ने भी नारी का चित्रण पुंसवादी एकांगी दृष्टिकोण से किया है। किन्तु इस विषय में यह तथ्य भी विचारणीय है कि कबीर के वचन मौखिक रूप में प्राप्त हुए थे, तो जो कुछ भी लिखित रूप में परोसा गया है वह कितना प्रामाणिक है। बहरहाल यह शोध का विषय हो सकता है। कबीर का प्रमुख लक्ष्य आध्यात्मिक उत्थान की प्राप्ति था, यह बात संशयातीत है।
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