कबीर से कितने कदम आगे हम / महेश चंद्र पुनेठा

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छः सौ साल से अधिक व्यतीत हो चुके हैं पर आज भी कबीर जिंदा हैं. न केवल में किताबों में बल्कि लोकमन में भी. उनकी ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो पढ़े-लिखे लोगों के ही नहीं बल्कि निरक्षरों के मुँह से भी सुनी जा सकती हैं. इसका कारण कबीर का अनेकरूप होना मान जा सकता है. उनके यहाँ हर व्यक्ति को उसके पसंद की कोई न कोई बात मिल ही जाती है-लौकिक को लोक की बातें ,लोकोत्तर को परलोक की, पे्रमी को पे्रम की बातें ,ज्ञानी को ज्ञान की ,भक्त को भगवान की बातें और सामाजिक को समाज की. चर्चित पुस्तक ’अकथ कथा प्रेम की’ के लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में कहें,’’ कुछ लोग समाज की उपेक्षा कर प्रेम के एकांत में डूब जाते हैं,तो कुछ लोग प्रेम की उपेक्षा कर सामजिक क्रांति में लग जाते हैं.

ऐसी स्थिति में कहना ही पड़ जाता है - "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग’’, लेकिन कबीर कहीं नहीं कहते कि पहले धर्म सत्ता या जाति व्यवस्था को ध्वस्त कर लें, प्रेम बाद में देखा जाएगा. वे सामजिक सत्ता से जिरह को प्रेमानुभूति के निहितार्थ तक भी नहीं छोड़ देते . वे प्रेम को संज्ञात्मक कर्म बनाते हैं-इस संज्ञान में कामभावना,रामभावना और समाजभावना के बीच सतत निरंतरता का संबंध है. यह पहले व पीछे वाला प्राथमिकता क्रम नहीं ,अपने प्रिय राम से संवाद कबीर प्रेमानुभूति के पलों में भी करते हैं ,सामाजिक आलोचना के पलों में भी.’’

कबीर विचारक-साधक-आलोचक-सुधारक एक साथ हैं. उन्हें शास्त्र का भ्रम और लोक का भय दोनों ही नहीं है. वे जीवन सत्यों से स्वयं संवाद करते हैं और पाठको को संवाद के लिए आमंत्रित करते हैं. उनके यहाँ परम्परा भी है और आधुनिकता भी. कुछ संदर्भों में वे मध्यकालीन हैं तो कुछ में समकालीन. उनकी कविता तथा उनका दर्शन आज भी कमजोर ,उपेक्षित ,असहाय ,शोषित-उत्पीडि़त लोगों को लड़ने की ताकत देता है. उनमें अपने समय की भौतिक पीड़ा और त्रास का गहरा संचरण है. कबीर ने सामान्य जन को छली-कपटी-पाखंडी लोगों से सावधान किया. भेद-बुद्धि से अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों पर प्रहार किया है. उनके खिलाफ जागरण किया. अपने समय और समाज से उनकी नजर कभी ओझल नहीं हुई.

कबीर संसार को छोड़ने की नहीं बल्कि उससे भिड़ने की बात कहते हैं. उनकी स्पष्ट मान्यता है- ना हरि रीझैं जप-तप कीन्हे, ना काया के जारे. ना हरि रीझैं धोती छाँड़े,ना पाँचों के मारे.. उनके बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कहना बिल्कुल सही है,’’ कबीर ने मनु’यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया.’’अपने समय में सामाजिक वैमनस्यता से पैदा पीड़ा उनके दर्शन के मूल में हैं. जातिवाद और सांप्रदायिकता के विरोध में आज भी उनकी वाणी हमारा मार्गदर्शन करती है.'

धर्म-जाति के नाम पर होने वाले भेदभावों के संदर्भ में कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आज से छःसौ साल पहले. कबीर किसी धर्म विशेष के नहीं बल्कि संगठित धर्म की धारणा मात्र के आलोचक हैं. उन्होंने ’लोकधर्म’ की प्रतिष्ठा की जिसके बारे में वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह अपनी पुस्तक शब्द और संस्कृति’ में लिखते हैं,’’लोकधर्म’ का मलतब किसी बाहरी काल्पनिक,आदर्श और मिथकीय नायक द्वारा अत्याचारों और संकटों से ही लोक की रक्षा का उपाय करना नहीं है ,बल्कि मनुष्य के भीतर का ,जो अदृश्य किंतु कुटिल अनाचार है,उसकी खोज करके उस शत्रु से संघर्ष करना भी ’लोकधर्म’ है.

कबीर ने अपने समय में सत्य को उद्घाटित कर इसी, भीतर के लोकधर्म की प्रति’ठा की है.इस भीतर को जाने-समझे बिना बाहर का जानना एकांगी ,अधूरा एवं मात्र मन बहलाव का साधन बन सकता है.’’ उनके लोकधर्म में उस समय प्रचलित शास्त्रीय धर्म की आलोचना और उस युग के किसानों-दस्तकारों की पीड़ा की अभिव्यक्ति और दमनकारी समाजिक व्यवस्था-मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह है. प्रेम जैसे मानवीय भावों को लोकधर्म का आधार बनाकर समाज में मनु’यत्व की स्थापना करना चाहते हैं.वह प्रेम को कितना महत्व देते हैं इन पंक्तियों से समझा जा जा सकता है-

कबीर यहु घर प्रेम का खाला घर नाहिं

शीश उतारे भुंई धरे सो पैठे घर मांहि.

प्रेम न खेतौं निपजै, प्रेम न हाटि बिकाई

राजा प्रजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाई.

उनका समस्त मानवों की आत्मिक एकरूपता पर गहरा विश्वास है. वह व्यक्ति-व्यक्ति के बीच किसी तरह का भेद नहीं करते हैं-एक ज्योति थैं सब उत्पन्ना को बाभन को सूदा. उनकी मान्यता है-माटी एक एकल संसारा ,बहु विधि भाँडे ,गड़ै कुम्हारा. वह हमसे विचार करने को कहते हैं- साधो ,एक रूप सब माहीं अपने मनहिं विचारि के देखौ और दूसरे नाही एकै त्वचा रुधिर पुनि एकै विप्र सूद्र के माहीं.’ जो लोग जातिगत व्यवस्था को दैवीय और जायज ठहराते हैं ,उनसे कबीर का यह प्र”न बहुत तर्कसंगत है-जो तू बाभन जाया,आन बाट है क्यों न आया.......जो तू तुरुक तुरुकिनी जाया, पेटे सुन्नत क्यों न कराया.’

कबीर की दृष्टि में बाह्याडंबरों या कर्मकांडों से किसी का भला नहीं होने वाला असली बात तो मन के सुधार की है. वह हिंदू-मुस्लिमों के विभिन्न रीति-रिवाजों ,आचार-व्यवहारों और कर्मकांडों पर जो आज भी हमारे समाज में बनी हुई हैं ,तीखी चोट करते हैं.उनकी खिल्ली उड़ाते हैं.

उनका व्यंग्य तिलमिलाने को विविश कर देता है. उनके व्यंग्य की धार के कुछ उदाहरण देखिए-अरे इन दोहुन राह न पाई / हिंदू अपनी करे बढ़ाई ,गागर छूअन न देई/वैश्य के पाँव तले सोए/ये देखो हिंदुआई/मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई/खाला केरी बेटी ब्याहैं ,घरहि में करें सगाई. .........जारि बारि करि आवै देहा. मूवाँ पीछै गीति स्नेहा.. जीवत पित्र मारहि डंगा. मूँवा पित्र ले घालैं गंगा.. जीवत पित्र कूँ अन न ख्वावैं. मूँवा पाछै प्यंड भरावैं.. जीवत पित्रा कूँ बोलैं अपराध. मूवाँ पीछैं देहि सराध.. कहि कबीर मोहि अचिरत आवै. कऊवा खाई पित्र क्यूँ पावै.. .......यह सब झूठी वंदनी ,वरिया पंच निवाज/ दिन को रोजा रहत है ,रात हनत है गाय/ यह खून वह बंदगी,कहूँ क्यों ख़ुशी खुदाय.

कबीर की खासियत है कि वह शेखों-पंडितों के औजारों से ही उन पर हमला करते हैं. उनके ही तर्कों पर सवाल खड़े करते हैं. ’सब घटि देखै रामा’ कहने वाले वेद पाठी पंडितों से यह पूछने से नहीं हिचकते हैं कि यदि सभी घटों में तुम्हें राम दिखाई देते हैं तो फिर ऊँच-नीच कैसे मान पाते हो?

कबीर बहुत साहसी कवि हैं. ऐसा साहस विरलों में ही दिखाई देता है. वह अपने समय में पंडितों और शेखों से एक साथ लड़े. एक दकियानूसी समाज में जो बहुत कठिन था. आज लोकतंत्र के दौर में भी ऐसा साहस बहुत कम रचनाकारों में देखने को मिलता है. इससे कबीर के अपूर्व आत्मविश्वास का पता चलता है. ईश्वरीय सत्ता के अलावा उन्होंने किसी सत्ता के सामने समर्पण नहीं किया. उनके बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कहना बिल्कुल सही प्रतीत होता है-वे मनुष्य बुद्धि को व्याहत करने वाली सभी वस्तुओं को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे.

कबीर धन के संग्रह के भी खिलाफ हैं. वे खुद के लिए भी केवल इतना चाहते थे जिससे खुद का और परिवार जनों को गुजारा हो जाय- साई इतना दीजिए जामै कुटुंब समाय/ मैं भी भूखा ना रहूँ साधू ना भूखा जाय. अधिक ऐशोआराम की जिंदगी को वह पाप का कारण मानते हैं-आधी अरु रूखी भली सारी सो संताप/जो चाहेगा चूपड़ी बहुत करेगा पाप.

कबीर की भूमिका अपने समाज में एक सांस्कृतिकर्मी की थी. उन्होंने लोगों को जगाने का काम किया. वह एक शिक्षक की भूमिका में रहे. ऐसे शिक्षक जो शास्त्रों की अपेक्षा अनुभव को अधिक महत्व देता है. वह वेद पुराणों को नहीं बल्कि लोकानुभव को प्रमाण मानते हैं. इसलिए उनके यहाँ ’सुनो’ शब्द अधिक आता है. वह ’पढ़ो’ नहीं’सुनो’ कहते हैं. सुनना पढ़ने से पहले की दक्षता है. समझने की प्रक्रिया में सुनना पहले आता है. इस सुनने में कहीं ना कहीं ’शास्त्र’ का प्रतिकार भी छुपा है. वे वेद नहीं लोक की बात करते हैं. वे व्यवहार से सिद्धांत की ओर जाते हैं. जो सीखने की एक सही पद्धति है. उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ज्ञान पोथियों में नहीं प्रत्यक्ष जीवन के अनुभव में है. ज्ञान को अनुभव से जोड़ने का प्रयास किया. उनका कहना है- आँख न मूँदूँ ,काम न रूँधूँ, काया करूँ न धारूँ. खुले नैन में हँस-हँस देखूँ, सुंदर रूप निहारूँ..प्रेम भी अनुभव की ही चीज है जिसे वह जीवन के लिए जरूरी मानते हैं. उनके लिए यही ज्ञान की असली कसौटी भी है. तभी तो वह कहते है- पोथी पढ़-पढ़कर जग मुया पंडित भया न कोय/ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय.

लेकिन यह सत्य है कि लोक ने जितना कबीर का भक्त रूप स्वीकार किया उतना उनका सुधारक या आलोचक रूप नहीं. इसी का परिणाम है कि जिस कबीर ने जीवनभर यथास्थिति के ध्वंस और परिवर्तन के लिए धक्का लगाया आज उसके भक्तों ने उसके चिंतन को भजनों तक सीमित कर लोगों को भक्ति और आस्था की चासनी में डूबो यथास्थितिवादी बना दिया है. कबीर पंथियों ने अपने आसपास की विसंगतियों,विडंबनाओं,पाखंडों,अंधविश्वाशों और सामंती जकड़नों की ओर से अपनी आँखें मूँदकर कबीर के भजनों में खुद को भुला दिया है. जिस कबीर ने जीवन भर ’आँखन देखी’ पर बल दिया उसे आज ’कागद की लेखी’ बना दिया गया है. उनका चिंतन पाठ्यपुस्तकों या ब्रहमानंद की भजनमाला में सीमित होकर रह गया है. उनके दोहों को सुरीले कंठ में संगीतबद्ध कर बाजार में बेचा जा रहा है. उनकी वाणी का प्रयोग कर आधुनिक ’सद्गुरू’ देश-विदेश में यश और धन कमा रहे हैं.

संस्कारों की विचारहीन गुलामी के खिलाफ कबीर जीवन भर लड़ते रहे-मूर्तिपूजा ,कर्मकांडों ,अंधविश्वाशों ,रूढि़यों का विरोध करते रहे, आज उनके भक्तों और अनुनायियों ने उन्हें उन्हीं बाह्याचारों और संस्कारों में कैद करके रख दिया है.’कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ,जो घर फूँके आपनो चले हमारे साथ’ कहने वाले संत को बाजार की वस्तु बना दिया है. सुन्दर और महंगी मूर्तियों के सामने बैठकर उनके भजन गाए जाते हैं.

कबीर की जयंती वर्ष में एक ब्लॉग पर उनके एक भक्त की यह अभिव्यक्ति हतप्रभ करती है-प्रातः वेला में मैंने परमवंदनीय कबीरदास का स्मरण किया ,कमरे में टंगे चित्र पर श्रद्धासुमन अर्पित किए और चल पड़ा गंगा नहाने. 'पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार’ और ’गंगा नाहिन जमुना नाहिन नौ मन मैल बिहिन चढ़ाय’ कहने वाले कबीर का इससे बढ़ा अपमान क्या हो सकता है.

उनकी इस बात को भुलाकर कि-मोको कहाँ तू ढूँढत रे बंदे, मैं तो तेरे पास में / ना तीरथ में ना मूरत में ,ना एकांत निवास में/ना मैं मंदिर ना मै मस्जिद ,ना काबे कैलास में / ना मैं जप में ना मैं तप में ,ना मैं बरत उपास में / ना मैं क्रिया कर्म में रहता ,नहीं योग संन्यास में / नहीं प्राण में नहीं पिंड में ,ना ब्रह्माण्ड आकाश में / ना मैं भृकटी भंवर गुफा में,सब श्वासन की श्वास में. उनके अनुयायी मंदिर-मस्जिद बनाने ,मूर्ति स्थापित करने,तीरथ जाने,जप-तप करने,’बरत-उपास’ रखने में लगे हुए हैं.

इन सब कारणों से अपने चिंतन के साथ कबीर आज और अधिक प्रासंगिक हो चुके हैं. कबीर को आत्मसात करने की जरूरत है. आज जातिवाद, साम्प्रदायिकता,उपभोक्तावाद और बाजारवाद के बढ़ते दौर में उनके दर्शन की अधिक जरूरत है.हमारे सीखने के लिए कबीर के पास बहुत कुछ है. पर इसके बावजूद कबीर में सब कुछ स्वीकार्य नहीं है बहुत कुछ ऐसा है जिसे हमें छोड़ना पड़ेगा. बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे काम का नहीं है. उनके आत्मा-परमात्मा ,ब्रह्म ,पूर्वजन्म-पुनर्जन्म ,हठयोग, भाग्य-नियति पर वि”वास संबंधी विचार हमें कहीं नहीं ले जाते हैं.

इसी तरह उनके स्त्री संबंधी विचार भी बहुत प्रतिगामी हैं,जिन पर उस युग का गहरा प्रभाव है. ऐसे विचारों का समर्थन नहीं किया जा सकता है-एक कनक अरू कामिनी ,वि’फल किए उपाई/देखैं ही थैं विष चढ़ै ,खाएं सूँ मरि जाए. मानवीय गरिमा का ध्यान रखने वाले एक चिंतक के स्त्री को लेकर इस तरह के विचार हतप्रभ करते हैं. वह नारी की घोर निंदा करते हैं. एक ओर वह नारी के नारीत्व को साधना में बाधक मानते थे और दूसरी ओर खुद को परमात्मा के सामने नारी के प्रस्तुत करते हैं.

अपने राम के साथ केवल मन से ही नहीं तन से भी एकमेक होने की बात करते हैं-एकमेक ह्वै सेज न सोवे तब लागि कैसा नेह रे. यह विरोधाभास कुछ कम समझ में आने वाला है. इसलिए कबीर को जैसे का तैसा नहीं स्वीकारा जा सकता है. उनके यहाँ ’सार’ भी है और ’थोथा’ भी. उन्हीं के शब्द उधार लेकर कहना चाहुँगा-सार सार को गहै रहे,थोथा देय उड़ाय’ की नीति अपनानी होगी. खुद कबीर ने अपने समय में ऐसा ही किया. कौनसी बात है जो उन्हें हमारे समय से जोड़ती है ,यह देखना पड़ेगा.