कब कटेगा यह भ्रम-जाल? / गोपाल बाबू शर्मा

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'ओम जय जगदीश हरे' आरती अत्यधिक प्रचलित है। हिन्दू घरों में, मन्दिरों में तथा कथा-कीर्तन आदि विभिन्न धार्मिक अवसरों पर यह आरती बड़ी श्रद्धा के साथ गाई जाती है। इस आरती को किसने लिखा, इस सम्बन्ध में या तो लोग जानते नहीं, अथवा भ्रमवश इसे स्वामी शिवानन्द की मान लेते हैं, क्योंकि आरती के अन्त में यह नाम आता है-

श्री जगदीश जी की आरती जो कोई नर गावै।

कहत शिवानन्द स्वामी सुख-सम्पत्ति पावै॥

वास्तव में इस आरती के लेखक फुल्लौर (पंजाब) निवासी स्व। पण्डित श्रद्धाराम फुल्लौर हैं। इसे प्रार्थना के रूप में उन्होंने अपनी कृति 'सत्य धर्म मुक्तावली' में संकलित किया था। सन् 1870 में लिखी गई यह कविता आरती के रूप में इतनी लोकप्रिय हुई कि अन्य लेखक इसे अपनी रचना बताने लगे शिवानन्द स्वामी इसी तरह का चस्पा किया गया नाम है।

निम्नलिखित दो दोहे बहुत प्रचलित हैं–

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।

जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान॥

बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखें, नदी न संचै नीर।

परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर॥

कुछ विद्वान् इन्हें कबीर का बताते हैं। प्रो. रामदेव शुक्ल ने प्रथम दोहे को अपने लेख ' कबीर का सच में स्पष्टतः कबीर के दोहे के रूप में उद्धृत किया है।

कतिपय पब्लिक स्कूलों में निर्धारित पाठ्यपुस्तक 'पुष्पांजलि' भाग-3 में भी ये दोनों दोहे 'कबीर के दोहे पाठ के अन्तर्गत संकलित हैं।'

अगर ये दोहे वस्तुतः कबीर के हैं, तो डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र, बाबू श्याम सुन्दर दास, डॉ. माता प्रसाद गुप्त आदि के द्वारा सम्पादित कबीर-ग्रंथावलियों में क्यों नहीं हैं?

कुछ विद्वान् इन दोहों को रहीम का मानते हैं, किन्तु किस प्रामाणिक आधार पर, इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं। डॉ. विद्यानिवास मिश्र तथा गोविन्द रजनीश द्वारा सम्पादित 'रहीम-नामावली' में भी ये दोहे देखने को नहीं मिलते। दोहे किसी के भी हों। कबीर और रहीम दोनों ही सम्माननीय कवि हैं; लेकिन यह तय तो होना ही चाहिए कि आखिरकार ये दोहे किसके हैं? कबीर के या रहीम के? या किसी और के?

शृंगार रस से परिपूर्ण निम्नलिखित दोहा साहित्य-प्रेमियों में काफी प्रचलित है-

अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।

जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार॥

विषय और शैली की एकरूपता के कारण भ्रमवश लोग इसे महाकवि बिहारी द्वारा रचा हुआ मान लेते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज' तथा कविवर शैवाल सत्यार्थी ने भी इसकी चर्चा बिहारी-रचित दोहे के रूप में की है।

वस्तुतः यह दोहा बिहारी का नहीं, अपितु रसलीन'का है।' रसलीन का पूरा नाम था सैयद गुलाम नवी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में इनका उल्लेख किया है। ये बिलग्राम (जि। हरदोई) के रहने वाले थे। इनका एक काव्य-ग्रंथ 'अंग-दर्पण' (सम्वत् 1794) भी है। उपर्युक्त दोहा इसी अंग-दर्पण' का है। निम्नलिखित दोहा भी काफी प्रसिद्ध है और अक्सर इसे उत्कट प्रेम के प्रसंग में उद्धृत किया जाता है

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मांस।

दो नैना मत खाइयो, पिया-मिलन की आस।

इस दोहे को कोई-कोई विद्वान् जायसी का बता देते हैं। दि। 21.3.2009 को अलीगढ़ के एक शिक्षण-संस्थान में आयोजित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन के अवसर पर साहित्य की डॉक्टर एक कवयित्री महोदया ने कविता-पाठ से पहले भूमिका बाँधते हुए इस दोहे का उल्लेख किया और इसे अमीर खुसरो का यता दिया।

गाज़ियाबाद से प्रकाशित साहित्य-जनमंच'पत्रिका में श्री वृन्दावन त्रिपाठी' रत्नेश' जी का एक लेख छपा। इसमें उन्होंने प्रसंगवश इस दोहे की भी चर्चा की और इसकी रचना का श्रेय बाबा फरीदकोट को दिया इस सम्बन्ध में जब उन्हें पत्र लिखा गया, तो उनका उत्तर था-फरीदकोट में कोई सूफी सन्त थे। उन्होंने इस दोहे को लिखा है और उस सन्त का न कोई नाम मिलता है, न अन्य रचनाएँ।

इस सम्बन्ध में वरिष्ठ कवि श्री चन्द्रसेन विराट जी ने जबलपुर के श्री सुरेन्द्र सिंह पवाँर से बात करने के लिए कहा। श्री पवाँर से फोन बात हुई, तो उन्होंने बताया कि यह दोहा ' गुरु ग्रंथ साहिब में बाबा फरीद के दोहे के रूप में दिया गया है और यह प्रसिद्ध उक्ति-देख पराई लूपरी मत ललचावे जी, रूखा-सूखा खाइके ठंडा पानी पी। भी बाबा फरीद की है।

इस प्रकार की और भी प्रान्तों हिन्दी साहित्य-जगत् में व्याप्त हैं। स्वदेश-प्रेम के सन्दर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रायः उद्धृत की जाती हैं-

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रस-धार नहीं।

वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

ये पक्तियाँ श्री मैथिलीशरण गुप्त की समझ ली जाती हैं। वड़़े-बड़े विद्यान् और लेखक तक अपने वक्तव्यों और लेखों में इन्हें गुप्त जी की पक्तियों के रूप में सम्मिलित करते हैं।

आदरणीय डॉ. अम्बा प्रसाद 'सुमन बड़े ही अध्येता और साहित्य-साधक थे। पता नहीं कैसे उन्होंने अपनी पुस्तक' मेरे मानस श्रद्धेय चित्र' में इन काव्य-पंक्तियों को श्री मैथिलीशरण गुप्त का बता दिया पत्र लिखने पर उन्होंने अपने उत्तर में कहा-मुझे भी ऐसा ही ध्यान है कि ये पक्तियों जो भरा नहीं है भावों से...जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥ मैथिलीशरण गुप्त की हैं।गुप्त जी की किस पुस्तक की हैं-यह में इस समय नहीं बता सकता। टटोलूँगा

दैनिक जागरण में प्रकाशित एक खबर के अन्तर्गत चीन के एक कारीगर द्वारा कालीन में माओत्से तुंग की डिजाइन बनाने के सन्दर्भ में देश-भक्ति की चर्चा करते हुए उपर्युक्त पंक्तियों को उद्धृत द्वारा रचित माना गया। किया गया और इन्हें मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित माना गया।

वस्तुतः ये पक्तियाँ श्री गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी की हैं। सनेही जी 'त्रिशूल' उपनाम से भी कविता लिखते थे। श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी ने अपने लेख में इन पक्तियों को सनेही जी की ही माना है, जो 'मोटो' के रूप में 'स्वदेश' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपा करती थीं।

डॉ. लक्ष्मी शंकर मिश्र 'निशंक' तया डॉ. जगदीश गुप्त ने भी इन पंक्तियों को सनेही जी की रचना के रूप में स्वीकारा है। ये पक्तियाँ सम्मेलन-पत्रिका में दी गई 'सनेही-रचनावली' की 'स्वदेश' कविता के अन्तर्गत भी प्रकाशित हैं।

इसी प्रकार-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।

वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है॥

पंक्तियाँ भी श्री मैथिलीशरण गुप्त के खाते में डाल दी जाती हैं, जबकि इनके लेखक गुप्त जी नहीं। अमर उजाला में सम्पादक के नाम लिखे अपने पत्र में एक सज्जन ने भी इन पंक्तियों को मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित बताने की कृपा की।

दिल्ली सरकार के सूचना एवं प्रचार निदेशालय के भी क्या कहने। उसने अपने एक विज्ञापन के माध्यम से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का स्मरण किया। अच्छा किया। इसके लिए वह धन्यवाद का पात्र है; लेकिन यह पुण्य स्मरण ग़लतफ़हमी के साथ किया गया, जिसको न निज गौरव......मृतक समान है॥ को गुप्त जी का लिखा हुआ मान कर। क्या दिल्ली सरकार का सूचना और प्रचार निदेशालय सचमुच इतना अनभिज्ञ है? इस विज्ञापन के द्वारा अनेक पत्र-पत्रिकाओं को 'आब्लाइज़ किया गया होगा। यह विज्ञापन' वर्तमान साहित्य पत्रिका में भी कवर के ' चौथे पूरे पृष्ठ पर छपा। इसे सैकड़ों-हजारों लोगों ने देखा-पढ़ा होगा; लेकिन आश्चर्य की बात यह कि किसी कवि, लेखक, समीक्षक और प्रबुद्ध पाठक ने दिल्ली सरकार के सूचना एवं प्रचार निदेशालय के इस कृत्य पर तर्जनी तो क्या, अपनी कन्नी उँगली भी नहीं उठाई। अपने में मस्त और व्यस्त साहित्यकारों का इसे प्रमाद समझा जाए या उनका स्वयं का अज्ञान?

वर्तमान साहित्य'पत्रिका में गुप्त जी के चित्र के साथ कविता की ये पंक्तियाँ' हैंड राइटिंग' के रूप लिखी गई थीं ये हैंड राइटिंग गुप्त जी की थी या कम्प्यूटर की या किसी और की, यह कौन तय करता? इस ग़लतफ़हमी की ओर ध्यान दिलाते हुए सूचना एवं प्रचार निदेशालय को लिखा गया, पर कोई उत्तर नहीं मिला। मिलना भी नहीं था।

डॉ. गोकर्णनाथ शुक्ल ने अपने लेख 'सनेही जी का काव्य में साफ़तौर पर इन पंक्तियों को (' जिसको न निज...समान है। ') को सनेही जी की ही माना है।

स्व। श्री शिशुपाल सिंह 'शिशु' के अनुसार तो 'प्रताप' में छपने वाला निम्नलिखित मोटो भी श्री गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' का रचा हुआ है–

अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।

है वह मुर्दा देश, जहाँ साहित्य नहीं है।

किन्तु श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का मानना है कि यह प्रचलित पद शायद देवी प्रसाद जी 'पूर्ण' का रचा हुआ है।

इस भ्रम-जाल को फैलाने में पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों का योगदान कमाल का रहा है। 'धर्मयुग' जैसा प्रतिष्ठित और जागरूक पत्र भी अपने को इस कालिख से नहीं बचा पाया। निम्नलिखित पंक्तियों को ' धर्मयुग में प्रसाद (जयशंकर प्रसाद) का बताया गया है–

कामुक चाटुकारिता ही थी, क्या यह गिरा तुम्हारी?

एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी॥

ये पंक्तियाँ प्रसाद जी की नहीं, बल्कि उन्हें मैथिलीशरण गुप्त के खण्ड काव्य 'द्वापर' में 'विधृता' के कथन के रूप में स्थान मिला है।

लखनऊ के किन्हीं नदीम साहब ने दैनिक 'जागरण' में ' दोस्ती विकती है, बोलो खरीदोगे? शीर्षक से एक टिप्पणी दी और उसके प्रारम्भ में इन पंक्तियों का उल्लेख किया

दोस्ती न ऐसा बंधन है, जो जब चाहा, तब जोड़ लिया।

मिट्टी का नहीं खिलौना है, जब चाहा तब तोड़ दिया।

इन पंक्तियों के रचयिता के रूप में नदीम साहब ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम लिया है। वास्तविकता यह है कि ये पंक्तियाँ श्री राधेश्याम कथावाचक जी की हैं और उनकी लोकप्रिय काव्य-कृति 'राधेश्याम रामायण' में आई हैं। सही रूप में पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

मित्रता न ऐसा रिश्ता है, जब जी चाहा तब छोड़ दिया। मिट्टी का नहीं खिलौना है, जो खेल-खेल में तोड़ दिया।

आगरा के एक सान्ध्य दैनिक में 16 सितम्बर, 2008 को पृष्ठ 10 पर प्रकाशित एक लेख में निम्नलिखित पंक्तियों को भी मैथिलीशरण गुप्त का कहा गया, जबकि ये पंक्तियाँ श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' की काव्य-कृति कुरुक्षेत्र की हैं-

क्षमा शोभती उस मुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दन्तहीन, विष-रहित, विनीत, सरल हो।

एक बहुत ही प्रसिद्ध शे' र है-

ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे,

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

ये शेर जिगर मुरादाबादी का है; लेकिन आगरा के एक सान्ध्यकालीन पत्र ने (दि। 14.2.2008 पृ। 3 एवं दि। 3.2.2009, पृष्ठ 2 पर) तथा ' सच और जोश] के पक्षधर एक अन्य दैनिक अखबार ने (दि। 27.5.2009, पृ। 14 पर) प्रेम-सम्बन्धी टिप्पणियों में इसे मिर्ज़ा ग़ालिब का मानने की उदारता बरती।

शायर सुदर्शन फाक़िर की निम्नलिखित पंक्तियाँ बहुत ही जानी-मानी हैं

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी॥

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,

वो कागज़ की कश्ती, वह बारिश का पानी।

लेकिन उपर्यक्त सान्ध्य दैनिक में (दि। 16.9.2008, पृष्ठ 5 पर) एक लेखिका ने इनको गायक जगजीत सिंह की ग़ज़ल बता कर मूल लेखक का पत्ता ही साफ कर दिया। अखबार वाले भी क्यों ग़ौर फ़रमाते? बहुत कम लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने ये पंक्तियों न सुनी हों–

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।

इस शेर को लोगबाग क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ का लिखा हुआ बताते हैं। श्रीकृष्ण भावुक का भी यही मत है, किन्तु वरिष्ठ साहित्यकार श्री मधुर गंज मुरादाबादी ने अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि ये शेर स्वतंत्रता सेनानी और क्रांति दर्शी कवि पं। जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' द्वारा रचित ग़ज़ल का है।

श्री मधुर गंजमुरादाबादी हितैषी-स्मारक समिति के अध्यक्ष हैं और हितैषी जी के विषय में काफ़ी जानकारी रखते हैं। इसी प्रकार एक और प्रसिद्ध तथा प्रचलित शे' र है-

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाजुए क़ातिल में है।

इस शेर को आमतौर पर रामप्रसाद 'बिस्मिल' का माना जाता है, लेकिन श्रीकृष्ण 'भावुक ने अपने लेख में लिखा है कि श्री अर्श मल्सियानी, स्वामी वाहिद काजमी, जनाब शम्सुल रहमान फारुकी, चन्द्रमोहन प्रधान आदि विद्वानों के मुताबिक़ यह रचना राम प्रसाद बिस्मिल की नहीं, बल्कि बिहार के मुस्लिम शायर महम्मद हुसैन' बिस्मिल'की है। हालाँकि श्रीकृष्ण' भावुक'ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उपर्युक्त विद्वानों ने किस आधार पर इसे मुहम्मद हुसैन' बिस्मिल' की रचना माना है यदि पूरा विवरण सामने आता, तो बात को समझने और निर्णय पर पहुँचने में आसानी होती।

कानपुर की डॉ. प्रभा दीक्षित ने 'सौगात' पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा-कुछ इस शेर (सरफ़रोशी...) को शहीदे आजम भगत सिंह के साथी शहीद शायर बिस्मिल का समझते हैं, किन्तु सत्य यह है कि उक्त शेर कानपुर के हिन्दी छन्दकार हितैषी का है, जिसे क्रान्तिकारी गाया करते थे। इस सम्बन्ध में श्री मधुर गंज मुरादाबाद का साफ-साफ कहना है कि ये पंक्तियाँ हितैषी की नहीं है।

शादी-व्याह के निमंत्रण-पत्रों में प्रारम्भ में ये पंक्तियाँ ज़्यादातर लिखी जाती-जाती रही हैं-

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को।

हो मानस के राजहंस तुम, भूल न जाना आने को।

अधिकतर लोगों को पता ही नहीं होगा कि ये पंक्तियाँ किसकी हैं। जाने-माने कवि और गीतकार श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी जी से ज्ञात हुआ कि ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ उनके चाचा जी पं। शम्भूदयाल त्रिपाठी नेह'(छिबरामऊ जि। कन्नौज) द्वारा रचित हैं।' हो मानस के राजहंस'की जगह लोग अज्ञानवश हे मानस के राजहंस...' लिखने लगे।

यह व्यर्थ ही जन्मा जगाया, देश को जिसने नहीं,

जातीय जीवन की झलक आई कभी जिसमें नहीं।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि ये पंक्तियाँ अलीगढ़ के हिन्दी सेवी पं।गोकुल चंद्र शर्मा 'परन्तप' की हैं, जो उनके खण्ड काव्य रणवीर प्रताप में लिखी गईं।

चैतन्य महाप्रभु राम और कृष्ण दोनों के उपासक थे। उन्होंने गा-बजा कर संकीर्तन शुरू किया। ' हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे-हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे-हरे। का मंत्र उन्हीं की देन है।

अभी भी बहुत कुछ भ्रम और अनिश्चय की स्थिति ही चल रही है। किसी की लिखी पंक्तियाँ किसी के साथ जोड़ दी जाती हैं। इस मामले में सबसे ज्यादा मेहरवानी श्री मैथिलीशरण गुप्त पर हुई है। उनको उन पंक्तियों का लेखक वता दिया जाता है, जिनको उन्होंने लिखा ही नहीं।

महत्त्वपूर्ण और प्रेरणास्पद उक्तियों के साथ उनके वास्तविक रचनाकारों का नाम भी सामने आए, यह बहुत जरूरी है। रचना के साथ रचनाकार की सही पहचान न हो, तो अनजाने में ही सही, रचनाकार के साथ कितना बड़ा अन्याय है। सुधी समीक्षकों, साहित्यकारों, साहित्य-प्रेमियों तथा प्रबुद्ध पाठकों से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे विचार करें, पता लगाएँ, ताकि भ्रान्तियाँ दूर हों और सही निर्णय पर पहुँचा जा सके। भ्रान्तियाँ दूर न हों, तो वे नए अज्ञान को जन्म देती हैं और अज्ञान अमरबेल की भाँति फैलता ही चलता है। -0-

सन्दर्भ-संकेत

1-आरती संग्रह, 'अमर उजाला' , 18 अक्टूबर, 2006, पृष्ठ 3

2-श्री मदन गुप्ता सपाटू द्वारा लिखा गया लेख, 'दैनिक जागरण' , 25 नवम्बर, 1990

3- 'वाङ्मय' त्रैमासिक, अप्रैल-जून 2005, पृष्ठ 30

4'पुष्पांजलि' , भाग-3, विसटा पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, पृ। 58

5-'गोलकोण्डा-दर्पण' मासिक (हैदराबाद) , जून 2008, पृष्ठ 60 तथा 61

6-'हिन्दी साहित्य का इतिहास' , सम्वत् 2018 वि। नागरी प्रचारिणी सभा काशी, पृ। 273-74

7-'साहित्य-जनमंच' त्रैमासिक, मार्च 2007, पृ। 19

8-श्री वृन्दावन त्रिपाठी 'रत्नेश' द्वारा लेखक को लिखा गया पत्र, दि। 16.4.2009

9-डॉ. अम्बा प्रसाद सुमन द्वारा लेखक को लिखा गया पत्र, दि। 6.3.1991

10.दैनिक जागरण' (सप्तरंग परिशिष्ट) दि। 1.1.1999, पृ। 4

11.'सम्मेलन-पत्रिका' , हिन्दी साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग, भाग-69, संख्या 1-4, पृ। 3

12.वही, पृष्ठ 18

13.वही, प। 30

14-वही पृष्ठ 210

15, अमर उजाला दैनिक, 10 नवम्बर, 1992

16-'वर्तमान-साहित्य' मासिक, सितम्बर 2009, मुख पृष्ठ

17-'सम्मेलन-पत्रिका' , भाग 69, सं। 14, पृ.82

18-वही, पृष्ठ

19-वही, पृष्ठ 3

20- 'धर्मयुग' (नारी अंक) 5 फरवरी, 1989, पृष्ठ 10

21-द्वापर' , साहित्य-सदन, चिरगाँव, झाँसी, चतुरावृत्ति सम्बत् 2027, पृष्ठ 31

22-दैनिक जागरण' , दि.3.2.2008, पृष्ठ 1-2

23-राधेश्याम रामायण, किप्किन्या काण्ड (राम-सुग्रीव मित्रता) , श्री राम कथा संख्या 12, पृ। 7

24-कुरुक्षेत्र-रामधारी सिंह दिनकर, राजपाल एण्ड सन्ज दिल्ली सन् 1975, पृष्ठ 32

25- (I) शेर ओ-शायरी' सं। प्रकाश पंडित, हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, जी.टी. रोड, शाहदरा-दिल्ली-32, सन् 1973, पृ। 93

(II) 'शायर बेमिसाल, शायरी वा कमात' , भाग-2, पवन कुमार पावन, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण 2009, पृ। 12

26-सरस्वती-सुमन: अप्रेल-जून 2009, पृष्ठ 37

27- (I) सुविधा पत्रिका, वर्ष 3, अंक 4, पृष्ठ 6-7

(II) श्री मधुर गंज मुरादाबाद द्वारा लेखक को लिखा गया पत्र, दि। 14.8.2009

'सरस्वती-सम्मान' अप्रेल-जून 2009, पृष्ठ 39-40

28-'सौगात' , अप्रैल 2009, पृष्ठ 3

29-श्री मधुर गंज मुरादाबाद द्वारा लेखक को लिखा गया पत्र, दि। 8.6.2009

30-आकाशवाणी केन्द्र आगरा द्वारा आयोजित कवि-गोष्ठी के अवसर पर श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाटी से बातचीत, दि। 19.12.2008

31-'प्रणवीर प्रताप' , संस्करण 1951, पृष्ठ।

32-अमर उजाला' में प्रकाशित लेख-जिसने जगाई संकीर्तन की अलख लेखक गोपाल चतुर्वेदी, दि। 7.5.2009, पृष्ठ 10 -0-

डॉ गोपाल बाबू शर्मा, 46, गोपाल विहार, देवरी रोड, आगरा-282001 (उत्तर प्रदेश)