कब वफादार होंगी लकीरें? / ममता व्यास
आज मन की नहीं हाथों की बात करते हैं हाथों की और हाथों पर खिचीं आड़ी तिरछी लकीरों की। हम सभी के मन में अक्सर ये बात उठती है कि आखिर इन हथेलियों पर ये रेखाएं क्यों होती हैं और क्या इनके बिना जीवन नहीं चला करते? या ये लकीरें हमारा भाग्य बनाती हैं? लेकिन भाग्य तो उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।
तो फि र इन खामोश लकीरों का क्या रहस्य है हम भी अक्सर इनके रहस्यों में उलझते रहते हैं लेकिन नहीं जान पाते इनकी भाषा, दोस्तों भाग्य के खेल तो ऊपर बहुत ऊपर आसमानों में रचे जाते हैं। फि र धरती पर हमारे छोटे हाथों में ये छोटी-छोटी रेखाएं उन खेलों को कैसे खेलती है? ये होती कौन हैं हमारे सुख-दुख तय करने वाली, ये चाहें तो किसी के हाथों में यश लिख दे, ये चाहे तो किसी को धन दे दे किसी को राजा किसी को रंक बना दे, किसी के हिस्सें में बसंत लिख दे तो, किसी के भाग्य में पतझड़, ये छोटी लकीरें बड़े-बड़े रिश्तों को तोड़ दे, ये मामूली-सी रेखाएं कैदियों को रिहाई लिख दे, ये आकाश में उड़ते परिंदों को पिंजरे में कैद कर दे। ये चमकते सूरज पर ग्रहण लगा दे, ये सावन में आपको प्यासा रखे, ये सागर को खारा कर दे, ये मीरा को जोगन कर दे, ये सीता से राम को अलग कर दे, ये किसी को संजोग दे, किसी के माथे पर वियोग लिख दे, ये किसी को प्रेम से सराबोर कर दे तो किसी को इंतजार की आग में जला दे, मुझे लगता है कि ये लकीरें, खामोश नहीं होती इनकी भी अपनी भाषा है।
ये कहती हैं देखो हम औरों की हथेलियों पर सब कुछ लुटा कर भी कितनी खामोश हैं ये कहती हैं कि जब आप किसी से जुड़ते हैं तो हम रेखाएं भी आपस में जुड़ जाती हैं और दूसरे के सुख-दुख की भागीदार हो जाती हैं। आप जब किसी से मन से जुड़ते हैं तो यकीनन हाथों की रेखाओं में बहुत पहले ही जुड़ गए होते हैं। ये रेखाएं खामोशी से आपको वो सब देती जाती हैं जो हम अपने भाग्य से माँगते हैं। हमें मन चाहा मिल जाये तो हम गर्व करते हैं और ना मिले तो सारा दोष इन रेखाओं को देते हैं कि “रेखाओं का खेल है मुकद्दर रेखाओं से मात खा रहे हो, लेकिन मुझे ना जाने क्यों लगता है कि ये रेखाओं के अर्थ गहरे हैं ये हमारी पिछले जनम की दुआएं हैं।
हमारे वो खूबसूरत पल हैं ये वो सच्चे रिश्ते है जो आज भी हमारा साथ छोडऩा नहीं चाहते तो इस जनम में हाथों में लकीरें बन गए और अब इस जनम में हमारी हथेलियों पर अपना सब-कुछ न्योछावर कर देना चाहते हैं बदले में कुछ नहीं मांगती और किसको फु र्सत है कि इन खामोश लकीरों से पूछे कि तुम खुद के लिए, खुद के प्रति वफादार क्यों नहीं? क्यों सारा जीवन सिर्फ दूसरों के लिए, क्यों सब खुशियाँ दूसरों के लिए जिसको जो चाहिए वो सब देने को हाजिर किसी को धन किसी को यश, किसी को प्रेम और भी न जाने क्या-क्या? क्या कभी खुद के बारे में सोचती हो अपनी खामोशी को तोड़ क्या तुम कभी कुछ कहोगी औरों की हथेली पर लुटा देती हैं सब-कुछ कब अपने लिए होंगी वफादार लकीरें?