कभी अलविदा न कहना...! / जयराम शुक्ल

Gadya Kosh से
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यह मेरे जैसे न जाने कितने प्यासे पाठकों के लिए भावुक क्षण है। जयप्रकाश चौकसे जी का कालम 'परदे के पीछे' कल से पढ़ने को नहीं मिलेगा।

दैनिक भास्कर में आज उनका कालम पहले पृष्ठ पर सुधीर अग्रवाल जी की भावुक टिप्पणी के साथ छपा। सुधीर जी के नाम से संभवतः पहली बार कुछ छपा है। चौकसे जी विगत सात वर्षों से कैंसर से जंग लड़ रहे हैं। बिस्तर पर अर्धचेतन होते हुए भी वे अब तक बिना नागा लिखते रहे।

पिछले हफ्ते ही उनको याद करते हुए मैंने कुछ लिखा था और उनके व्यक्तित्व को रेखांकित करने वाले एक लेख की लिंक भी नत्थी की थी।

चौकसे जी से मेरा रिश्ता 2008 में तब बना जब मैं दैनिक भास्कर भोपाल के नेशनल न्यूज रूम से जुड़ा। मेरे हिस्से संपादकीय पृष्ठ और फीचर था। चौकसे जी का हाथ से लिखा कालम फैक्स पर आता था। कोई गफलत न हो इसलिए किसी भी शब्द या वाक्य को लेकर जरा भी संदेह हुआ तो उनसे फोन पर बात कर लेता।

नियमित बातचीत से आभासी रिश्ता जुड़ा। एक बार वे भास्कर के दफ्तर आए तो मेरे केबिन में आधे घंटे बैठे गपियाते रहे। बालीवुड के कुछ अंदरूनी किस्से भी बताए।

बहरहाल जब मैं माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता व जनसंचार विवि. का परिसर प्रारंभ करने रीवा आया तो उन्हीं दिनों राजकपूर की स्मृतियों को सहेजने का काम चल रहा था। चौकसे जी से परामर्श करने की जरूरत महसूस हुई। इसी बीच अप्रसिं विवि में कर्नल वलवंत सिंह व्याख्यानमाला प्रस्तावित हुई। विवि.के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष मित्र आचार्य दिनेश कुशवाहा जी ने इच्छा व्यक्त की कि काश चौकसेजी का व्याखान हो जाए। चौकसे जी से संपर्क हुआ वे अस्वस्थता के बावजूद भी आ गए। 'सिनेमा और समाज' पर मंत्रमुग्ध करने वाला व्याख्यान दिया।

हमारे साथ वे व्हाइट टाइगर सफारी घूमे। उन्हीं ने तत्कालीन मंत्री राजेन्द्र शुक्ल( जो राकपूर की स्मृतियों को सहेजने में लगे थे) को निर्माणाधीन आडिटोरियम का नाम कृष्णा राजकपूर सुझाया जो अब यथार्थ है। रीवा से जुड़ी कृष्णा जी व राजकपूर की स्मृतियों को वे अपने कालम में घुमाफिराकर वर्ष में एक बार अवश्य उल्लेखित करते रहे।

कलम का ऐसा योद्धा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा जो फिल्मों के भीतर विचारों के दर्शन कराता रहा हो। उनकी लिखी एक-एक पंक्ति सुनहरे वर्कों में मढ़ाने लायक है..।

यह उनका विश्रांति काल है..जैसा कि वे लिखते रहे- फीनिक्स पक्षी अपनी ही राख से पुनः उर्जवान्वित होकर खड़ा हो जाता है। भगवान उनके लिखे को उनपर ही सही उतार दे। उन्होंने लेखन से विदा चाही है.. अलविदा नहीं।