कमज़ोर लोगों के कवि: चन्द्रकाँत देवताले / महेश चंद्र पुनेठा
वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले उन लोगों के कवि हैं, जो समाज में सबसे उपेक्षित-शोषित हैं, परंतु जिनके कठिन श्रम से ये दुनिया गुलजार है। कवि वंचित वर्ग के जीवन की त्रासदी को उसकी भयावहता के साथ उघाड़ता है। देवताले वर्ष 2012 का साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले अन्य भाषाओं के 24 साहित्यकारों में शामिल हैं। देवताले की एक चर्चित कविता थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे को एक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं, जिसमें गरीब बच्चों के जीवन संघर्ष के माध्यम से कवि पूंजीवादी व्यवस्था में अमीर और गरीब के बीच की खाई और संसाधनों के असमान वितरण को बड़े ही मार्मिक ढंग से रखता है। दिखावटी गुस्से और सहानुभूति से ऐसी कविता संभव नहीं है। कवि का दृढ़ विश्वास है कि यदि यह उपेक्षित वर्ग संगठित और चेतनाशील हो जाए तो अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को तोड़ने में भी सक्षम है। वे पृथ्वी के बाशिंदे हैं करोड़ों/और उनके पास आवाजों का महासागर है/जो गुब्बारे की तरह/ फोड़ सकता है किसी भी वक्त/अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को। पर वे शायद जानते नहीं कहकर कवि उनमें राजनीतिक चेतना के अभाव की ओर संकेत करता है। उनकी कविताओं में स्ति्रयों और दलितों का शताब्दियों का अतीत और उतनी ही स्मृतियां अथाह कुएं में गिरी पीतल की दमदार बाल्टी की तरह दबी हैं। कवि उन्हें ढूंढ़ता रहता है और हमेशा उनके पक्ष में खड़ा होता है।
उनकी कविताओं में श्रमसंलग्न लोगों के जीवन का कठोर यथार्थ जीवंत हुआ है। इस दृष्टि से बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियां, शाम को लगभग पांच बजे, वह आजाद थी सुबकने के लिए, नहाते हुए रोती औरत उस औरत का दु:ख, देवी-वध, औरत का हंसना आदि कविताएं उल्लेखनीय हैं। ये कविताएं अपने कथ्य से कविता में आए पात्रों से पाठक की तादात्म्यता स्थापित कर देती हैं। वे पात्र पाठक के सामने उपस्थित हो संवाद-सा करने लगते हैं। इनके बहाने कवि अमानवीय होते समय और समाज को रेखांकित करता है। ये कविताएं हमें अपने आसपास मौजूद उस तरह के पात्रों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। देवताले की कविताओं में हमें स्त्री की उपस्थिति सबसे अधिक मिलती है तो इसका कारण उनकी यही पक्षधरता है। कवि की नजर में, औरत जब अपनी चमकती आंखों के साथ होती है तब सारी बेजान चीजें मानुषी स्पर्श की आत्मीयता में थर्राने लगती हैं। वह एक पत्थर चेहरे को पारदर्शी और शिशुवत बना देती है। औरत जीवन-रस का स्रोत है। उसके भीतर निष्कपट पानी का संगीत है जिस पर किसी भी चाकू की कोई खरोंच नहीं है। उसके सापेक्ष पुरुष का चेहरा खुरदुरा और बेस्वाद है। स्त्री के सामने पुरुष जुगनू के समान है। औरत पुरुष की उदासी, निराशा, कुंठा, अवसाद, मायूसी को हर कर उसे मृत्यु से लड़ने का सामर्थ्य देती है। उसे कत्लेआम के दौर में भेडि़या फजीहत से बचा लेती है। उसमें औरतपन और बुद्धिमत्ता के साथ-साथ आदमीपन भी होता है। औरत धंसकती हुई रातों और तड़कते हुए दिनों में हमेशा पुरुष के साथ रहती है, उसका हौंसला बनकर और उसकी आजादी व मूर्खताओं को बर्दाश्त करती है। औरत के इस महारूप को समझने के लिए कवि यदि यह कहता है कि सिर्फ एक औरत को समझने के लिए/हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको तो यह अतिशयोक्ति नहीं है।
कवि का यह कहना बिल्कुल सही है कि सब कुछ संभव यदि हासिल कर लें हम महारत/देह से बाहर निकलने की। वास्तव में स्त्री को उसके संपूर्ण रूप में देखना है तो उसे केवल देह के रूप में देखने से बाहर निकलना होगा। देवताले की कविताएं सौंदर्यबोध की परंपरागत दृष्टि पर भी चोट करती हैं, इसीलिए तो वह काली लड़की को अपनी कविता का विषय बना पाते हैं। उसके सौंदर्य को देख इस तरह अभिभूत होते हैं, वह शीशम के सबसे सुंदर फूल की तरह/मेरी आंखों के भीतर खुप रही थी/अपने बालों में पीले फूलों को खोंसकर/वह शब्दों के लिए गैरहाजिर/पर आंखों के लिए मौजूद थी। वह छद्म प्रगतिशीलता नहीं ओढ़ते। दो लड़कियों का पिता होने से कविता में इसे साफ-साफ देखा जा सकता है, मुझे माफ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था/मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी/तुम्हारी/अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो/मैं खुश हूं सोचकर/कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई। यह वही पुरुष कह सकता है जिसने अपने पुरुष होने के अहंकार को तिरोहित कर दिया हो।
उनकी कविताओं में जहां प्रकृति के बिंब व रूपक आए हैं, वहां उनकी भाषा सरस, प्रभावी व संप्रेषणीय है, लेकिन कहीं-कहीं दुरुह भी हो जाती है। फिर भी उससे जूझने में आनंद आता है क्योंकि भाषा की गांठ खुलने के बाद भीतर ऐसा मिलता है जो झनझनाता भी है और गुदगुदाता भी। देवताले का भाषा को बरतने का तरीका ही अलग है। उनके यहां क्रिया बिंब में बदल जाती है। उनकी कविताओं का कोई एक शिल्प नहीं है। वह अपना शिल्प हर दूसरी कविता में तोड़ डालते हैं। कहीं दृश्य खड़ा करते हैं तो कहीं प्रतीकों में अपनी बात कह जाते हैं। एक समर्थ कवि ही ऐसा कर सकता है। भाव की जो गहराई कहने वाले के मन में है, वही सुनने या पढ़ने वाले के मन में पैदा हो जाती है।