कमजोर की मजबूती / राजकिशोर
मेरी समझ में नहीं आता कि कमजोर प्रधानमंत्री कहे जाने से डॉ. मनमोहन सिंह दुखी क्यों होते हैं। या, कांग्रेस यह साबित करने में क्यों तुली हुई है कि उनका प्रधानमंत्री कमजोर नहीं, मजबूत है। ऐसा लगता है कि ये लोग भारत में कमजोर की स्थिति को वाकई कमजोर समझते हैं। यह सच्चाई से कई किलोमीटर दूर है।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मनमोहन सिंह इसीलिए प्रधानमंत्री बने क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से वे एक कमजोर व्यक्ति थे। आज भी कांग्रेस उन्हें अपना अगला प्रधानमंत्री घोषित करके प्रसन्न है, तो इसीलिए कि वे राजनीतिक दृष्टि से कमजोर आदमी हैं। जब सोनिया गांधी ने तय कर लिया कि उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ नहीं लेनी है, तो उन्होंने कांग्रेस के ब्वायज में नजर दौड़ाई कि उनमें कौन ऐसा है, जिसे प्रधानमंत्री बनाने से बहुत ज्यादा बदनामी नहीं होगी और जो सचमुच प्रधानमंत्री बनने की कोशिश नहीं करेगा। इस नुस्खे के सबसे करीब मनमोहन सिंह दिखाई पड़े और उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठा दिया गया। जो बात पूरा देश जानता है, उसे स्वीकार लेने से मनमोहन सिंह का बड़प्पन ही सामने आता।
कहने की जरूरत नहीं कि मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री के रूप में, कांग्रेस की नजर में नहीं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नजर में पूरी तरह से खरे उतरे। उन्होंने अपना कोई राजनीतिक व्यक्तित्व बनाने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि उन्होंने लोक सभा का चुनाव भी नहीं लड़ा, जो किसी भी ऐसे प्रधानमंत्री की, जो लोक सभा का सदस्य नहीं है, पहला लोकतांत्रिक फर्ज है। जार्ज फर्नांडिस ने ठीक ही कहा कि मैं अभी ऐसा नाकारा नहीं हो गया हूँ कि राज्यसभा में जा कर बैठूँ। जैसे शेर जंगल में शोभा देता है, किसी अफसर के ड्राइंग रूम में नहीं, वैसे ही सच्चा राजनेता लोक सभा में शोभा देता है, राज्य सभा में नहीं। पर हमारे विद्वान प्रधानमंत्री ने, जो लोकतंत्र के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध हैं और दूसरों को भी इतना ही प्रतिबद्ध रहने की प्रेरणा देते हैं, अपने मामले में कभी भी लोक सभा और राज्य सभा में फर्क नहीं किया। आजकल उनके चुनावी भाषणों से पता चलता है कि वे समानता के कितने बड़े पैरोकार हैं। महापुरुष उपदेश देने से पहले उदाहरण पेश करते हैं।
मनमोहन सिंह ने सिर्फ एक बार अपनी मजबूती दिखाई। उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह तब तक रहस्य रहेगा, जब तक कोई खोजी पत्रकार इस रहस्य को भेदने के लिए कमर नहीं कस लेता। मामला अमेरिका से परमाणु करार का था। विपक्ष इसका समर्थन नहीं कर रहा था। जिन वामपंथियों के समर्थन के बल पर मनमोहन की सरकार टिकी हुई थी, वे उसका उग्र विरोध कर रहे थे। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी का बहुमत भी इस परमाणु करार को लेकर असमंजस में था। सोनिया गांधी भी कुछ दिनों तक चुप रहीं। अकेले मनमोहन अड़े हुए थे कि यह करार नहीं हुआ तो मैं प्रधानमंत्री पद छोड़ दूँगा। कमजोर प्रधानमंत्री की इस मजबूती से कांग्रेस दहल गई। वाम मोर्चा ने समर्थन वापस ले लिया, सांसदों को सार्वजनिक तौर पर खरीदा गया और लोक सभा में एक करोड़ रुपए के नोट उछाले गए। यह सब इसलिए सहन किया गया, क्योंकि सोनिया गांधी के पास प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरा कोई विश्वस्त आदमी नहीं था। कमजोर की मजबूती का यह अकेला उदाहरण नहीं है। हमारे पुरखे बहुत पहले बता गए हैं कि दुधारू गाय की लात भी सही जाती है।
दुनिया का तौर-तरीका यही है कि टिकता वही है जो कमजोर है। डार्विन का सिद्धान्त कि जो सबसे दुरुस्त होता है, इस मामले में फेल है। या, शायद कमजोर होना ही सामाजिक संरचना में दुरुस्त होने की निशानी है। कहते हैं कि जब तूफान आता है, तो बड़े-बड़े शक्तिशाली पेड़ जमीन पर आ गिरते हैं, पर विनम्र दूब का कुछ नहीं बिगड़ता। इसीलिए दुनियादार लोग यह सीख देते हैं कि जमे रहना है, तो दूब बन कर रहो। कारखाने में, दफ्तर में, दुकान में, संस्थान में - तुम जहाँ भी काम करते हो, दूब की-सी विनम्रता बनाए रखो। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। जो चीखते हैं, चिल्लाते हैं, अहंकार दिखाते हैं, वे बहुत जल्द खलास हो जाते हैं। गुलामी के सर्वव्यापक माहौल में उनके लिए कोई जगह नहीं है। भारत के सभी संस्थान इसी नियम पर चलते हैं। राजनीतिक दलों में यही संस्कृति पाई जाती है, तभी ये दल टिके हुए हैं। कांग्रेस और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों पर यह बात सबसे ज्यादा लागू होती है। संस्थाएँ भी वही टिकी हुई हैं जहाँ के अधिकांश लोग अधीनस्थता के इस सिद्धांत का पालन करते हैं। इसलिए मनमोहन सिंह को यह घोषित करने में देर नहीं करनी चाहिए कि हाँ, मैं कमजोर आदमी हूँ और भारत का सच्चा प्रतिनिधित्व करता हूँ, क्योंकि देश ऐसे ही कमजोर व्यक्तियों की मजबूती के बल पर चल रहा है।