कमफर्ट जोन / पूनम मनु

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आधी बीत चुकी साँझ की बेला में सूरज का तेज़ सलेटी बादलों की चपेट में आने पर भी इतना कम न था जितना कि होना चाहिए था। जितना कि वह सोच रही थी कि होना चाहिए. या उसके बिन सोचे भी हो सकता था। सूरज जिद्दी था स्यात। तभी तो इतने शत्रुओं की परवाह किए बिना भी दमक रहा था। कोई इच्छा भी हो सकती है उसकी। डूबने से पहले तैरने की या ठहरने की या जीने की ही। कुछ तो अवश्य था।

शाम के साढ़े सात हुए जाते थे। पर वह था कि अब भी ठहरा हुआ था। छठे माले के एक फ्लैट की बालकनी में बैठी वह आज डूबते सूरज को बड़ी तन्मयता से देखना चाहती थी। वह देखना चाहती थी कुछ भी अपनी पसंद का... भले आज उसका या किसी का भी डूबना ही क्यों ना हो। डूबेंगे तभी तो निकलेंगे भी और यदि आत्मनिष्ठा कम रही तो डूबना भी बेहतर। ... पता तो लगे उसे भी कि वह भी जीवित थी या है।

बेखयाली में उसने अपने माथे पर हाथ फिराया। आह! हर घड़ी बेकली, टेंशन और भीतर की घुटन से बाहर उभरे चित्र।

समय कितना बड़ा चित्रकार है। जीवित देह पर अपने मन की चित्रकारी कितने अनोखे ढंग से करता है। मनपसंद देह हो तो चित्र के रंग कितने खूबसूरत और यदि कोई बदनसीब देह उसके चिढ़ के दायरे में आ जाए तो, ओ हो हो... फिर तो देखो उसके स्वरूप बेरंग। उसके मुखमंडल तो क्या उसके पूरे जिस्म समेत उसकी आत्मा तक पर कितनी बेढंगी चित्रकारी करता। मानों अपनी सारी चिढ़ से रंग देना चाहता हो उसे। रंगविहीन कर भी। उससे उसका द्वेष साफ दिखलाई पड़ता। द्वेषी, बड़ा जलनखोर...

इसके बनाए चित्र पर कौन उंगली उठा सकता भला...

बेमकसद मुंह बिचकाया उसने। सामने स्टूल पर रखा चाय का खाली कप उठाया और रसोई में आ गई. 'चाय का स्वाद तो पता ही नहीं चला' उसने कप धोते सोचा।

कप को उसके 'प्रोपर प्लेस' पर रखकर मुड़ी तो सामने खाली पड़े पूरे फ्लैट को किसी निषिद्ध भाव से घूरती रही कई पल। बाद इसके रसोई के सामने पड़ी डायनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ गई.

-"सुधा, आज तुझे कोई फैसला करना ही होगा।" दिल ने फैसले के लिए उकसाया उसे। -"अभी नहीं।" दिल को डपटते हुए उसने अपना ध्यान कहीं दूसरी ओर लगाने का प्रयास किया।

'स्त्री को यदि उसी के घर में उसका अपना एक कोना भी ना मिले तो वह भाग जाएगी एक दिन तुम्हारी दुनिया से दूर। वहाँ... जहाँ भले, पहले ही से उस जैसी स्त्रियों की भीड़ है। आश्रमों में, धर्मशालाओं में, मंदिरों के पास ठहरे तालाबों में या किसी निर्जन वन के गहरे कुएँ में।'

'शादी के 25-30 बरस बाद गुरुओं की शरण में पहुँचने वाली स्त्रियों की भीड़ वह भीड़ है जो अपने खुद के घरों में खुलकर एक सांस लेने को भी तरसती रहती है रोज। मोक्ष की प्राप्ति की ओर बढ़ती ये स्त्रियाँ दरअसल वह स्त्रियाँ है जो मोक्ष के नाम पर देहरी को लांघते हुए केवल अपनी उस सांस को सोचती हैं जो उन्हें ये अनुभूत करा सके कि वे अभी तक जीवित थीं।' दोपहर को पढ़ी किताब का एक के बाद दूसरा पेरा याद आया उसे। क्या लिखा है लिखने वाले ने भी...

उसके हृदय से कोई टीस-सी उठी और यादों के सूर्य के सातवें घोड़े की ओर दौड़ गई. वह अधिक तेजवान और उजला था। नहाया-धोया। नवल-सा।

'क्या कहेगा कोई...? बच्चों के रहते भी यहाँ... इस तरह...' दिमाग की दीवारों पर जाले उग आए.

-" माँ, क्या हुआ... कहाँ हो? प्रज्ञा ने जाने कब घर में प्रवेश किया और जाने कब उसने लाइट जलाई.

कमरे में उजाले के फैलते ही-

-"ओहो! क्या... साढ़े आठ हुए जाते हैं...!" घड़ी पर नज़र जाते ही वह ऐसे हैरान रह गई जैसे वह कई सदियों से सोती रही हो। जबकि उसकी आँखों से नींद कई दिनों से नदारद थी। जाने किस भ्रमण पर गई आजकल कि उसकी अँखियों के द्वार खटखटाए उसे हफ्तों बीत गए.

-"कहाँ खोई हुई हो माँ... हाँ, साढ़े आठ बज गए!" प्रज्ञा ने बैग कंधे से उतारा और डोसा-इडली के पेकेट लिए वह रसोई की ओर बढ़ गई.

-"बस... कहीं नहीं... ऐसे ही पुराने दिन याद आ गए...चल जा... तू फ्रेश होकर आ। मैं तब तक टेबल पर सब लगा देती हूँ..." बेटी को थके से स्वर में रोकते हुए बोली माँ।

-"नहीं माँ, आप बैठो! मैं लगा दूँगी। आप किसी भी बर्तन में खाना लगा देती हैं... मुझे पसंद नहीं। कई बार बताया आपको इडली के लिए इन बर्तनों का इस्तेमाल करो। डोसे के लिए इनका। पर ना जाने क्यों आप ध्यान ही नहीं देतीं। मुझे मेरे पसंद के बर्तनों में ही खाना अच्छा लगता है। आप जानती हो ना... आप बैठो! मैं लगाती हूँ।" बेटी ने बहुत प्यार से कहा पर न जाने क्यों सुधा को लगा कुछ छिल-सा गया है भीतर-'क्या वह बेशऊरी है... क्या उसे नहीं पता किस बरतन का उपयोग कब किया जाता... क्या वह कोई सलीका नहीं जानती...? क्या बेटी उसे जाहिल समझती है...?' -"ठीक है, तू ही लगा ले..." स्वर में कोई गर्मी नहीं थी। वह तटस्थ बैठी रही। -"माँ, मैंने बताया था न कल कि गली के नुक्कड़ पर ही बढ़िया रेस्टोरेन्ट खुला है... वहीं से लाई हूँ... मैंने सोचा चलो आज यहाँ का टेस्ट करके देखते हैं।"

जितनी लग्न से बेटी खाने के पैकेट खोल रही थी। उतने ही कातर भाव से माँ उसे निहार रही थी। कितना ख्याल रखती है प्रज्ञा उसका... कुछ काम नहीं करने देती। रसोई से लेकर अपने फ्लैट की हर चीज अपने हाथ से रखी है। सजाई है उसने।

जब भी वह उसकी मदद को आगे बढ़ती है। कितने लाड़ से रोक देती है उसे... "माँ आप रहने दो! अपने घर को मैं अपने ही हाथों से सजाना, संवारना चाहती हूँ... अपनी पूरी ज़िंदगी हमारी देखभाल में लगा दी आपने। अब हमें आपकी देखभाल करने दीजिये।"

उसका एक बेटा भी है। रोहन। रोहन विदेश गया तो बस वहीं का होकर रह गया। ले जाता है उसे भी कभी-कभी अपने घर। उसकी बहू भी बहुत अच्छी है। नौकरों की कोई समस्या नहीं। वह भी कहती है-"मम्मा, आप बस आराम करो!" यहाँ तक कि उसके कमरे की साज-सज्जा देखभाल भी वह बड़े जतन से करती है।

महेश को गए दो वर्ष हो गए तब से उसके सब काम समाप्त हो गए. जब तक महेश रहे उसे बहुत काम थे। उनकी मर्ज़ी के काम। -"आओ माँ!" प्रज्ञा ने खाने की मेज की ओर इशारा करते हुए उसे कंधे से हिलाया।

क्या हो जाता है उसे आजकल...? कहाँ खोई रहती है वह... कौन से ख्यालों के गुबार हैं जो उसे ऊपर तक घेरे रहते... कौन से घेरे हैं ये...? " उसकी तंद्रा टूटी.

-"आं... हाँ..." मेज की ओर रुख करते उसके गले में घरघराए शब्द। -"माँ, कैसा है डोसा...?" उसे खाने से मुत्तलिक कोई भी प्रतिक्रिया न करते देख प्रज्ञा ने पूछा। -"हूँ... ठीक है! तू क्यों लाई बाज़ार से। मैं ही बना देती। तुझे तो बहुत पसंद है न मेरे हाथ का बना डोसा-सांभर..." सुधा की आँखों में कोई चमक-सी लहराई. कुछ अच्छा सुनने को तरसते कान लंबे-से हो गए.


-"ओ...हो! माँ, दो जन के लिए क्या झंझट करना। और... फिर सारी रसोई उलट-पुलट कर देतीं तुम! मेरे पास इतना वक़्त कहाँ जो मैं बार-बार इन चीजों में अपना समय बर्बाद करूँ..." ये वक्त की कमी का अफसोस था कि माँ द्वारा की गई उलट-पुलट से उपजी खीझ को सोचते ही प्रज्ञा का स्वर खुश्क हो गया था। पता नहीं।


-"अरे तो क्या...? मैं ही साफ़ और ठीक कर देती सब... तू क्यों परेशान होती है। मैं हूँ ना..."

-नहीं माँ प्लीज़... आप अजीब तरह से घर-रसोई की सैटिंग करती हैं... मुझे नहीं भाती। मुझे मेरे घर में मेरे नजरिये से रखी चीज़ें पसंद हैं। मेरा घर मेरा कम्फ़ेर्ट ज़ोन है। मुझे यहाँ किसी की भी दखलंदाज़ी पसंद नहीं..." प्रज्ञा ने लापरवाही से कहा सब... माँ है माँ को कुछ नहीं चुभता।

-"आपको याद है न माँ... अपने अच्छे बड़े घर में भी मैं अपनी पसंद के एक कोने तक के लिए तरसती रही।" यकायक स्वर तीखा हो गया प्रज्ञा का।

-"हम्म... कोई बात नहीं। जैसे भी तुम चाहो!" सुधा ने बात को वहीं रोका। बात पर रोक थी। सोच पर तो नहीं-उसकी सोच में वह दिन तैर गए जब वह मकान-मालकिन की हैसियत से महेश के घर में रहती थी।

'मकान-मालकिन... हुंह...' बुरा-सा मुंह बनाया उसने।

भर-पूरे ससुराल में ब्याह कर आई तो वहाँ के छोटे से घर में दो घड़ी खुलकर सांस लेने को भी तरसती रही। महेश के दूसरे शहर में तबादले पर उसकी जान में जान आई. किराए के मकान से बेहतर था अपने घर का विकल्प। अच्छी खासी बड़ी-सी जगह को घर का रूप देने में रात-दिन एक कर दिया उसने। दोनों बच्चों के बेडरूम्स, मास्टर बेडरूम, स्टडि रूम, पूजाघर, हॉल और एक गेस्टरूम बनवाया महेश ने। हालांकि नक्शा बनवाने से लेकर रंग-रोगन करवाने तक उससे सलाह लेना नहीं भूले थे महेश। भले उन्होंने उसमें हेर-फेर अपनी मर्ज़ी के मुताबिक करवाया कई बार। पर मकान तैयार होते ही हर वस्तु, हर चीज अपनी ही पसंद की खरीदकर लाए महेश। अपनी पसंद की कोई चीज न वह ला पाई. न रख पाई घर में। घनीभूत इच्छाओं के वशीभूत होते भी। कागजों पर मालकिन कागज़ी ही रही।


-"देखो सुधा, मेरे घर में मुझे मेरे तरीके से रहने दो!" हर पुरुष में एक स्त्री होती है। महेश में अधिक थी लगा उसे। किन्तु उस स्त्री का हृदय डाह से भरा था। स्नेह से नहीं।

माँ कहती थीं-स्त्रैण पुरुष हिंसात्मक प्रवृत्ति का नहीं होता। परंतु वह स्त्री हित सोचे इसमें संदेह है।

गृहप्रवेश के दौरान सासु माँ का सामान मेहमान के कमरे में रखा गया। पर बाद इसके वह कमरा ही नहीं अपितु सारा घर केवल सासु माँ के कब्जे में रहा। बाकी बेटों के यहाँ जाने या कुछ दिन उनके यहाँ रहने की बजाय उन्हें उसी घर में हर बात-बेबात में बुलवा लेना उन्हें अधिक बेहतर लगा।

झाड़ू कहाँ रखा जाएगा...? गमलों में कौन से पौधे लगेंगे...? रसोईघर के साथ-साथ पूजाघर के कपाट कब खुलेंगे कब बंद होंगे से लेकर घर के हर कमरे के पर्दे तक महेश और उनकी माताजी ने अपनी पसंद से टँगवाए. यूं तो रोहन, महेश और सासु माँ के अलावा दिखने को घर में वह और प्रज्ञा भी थे। पर उन दोनों के लिए घर का कोई कोना न था। प्रज्ञा के कमरे में आए दिन सासु माँ से मिलने आतीं उनकी बेटियों, बहनों, बहुओं का जमावड़ा था तो उसके हिस्से में कागज़ों पर उसका नाम आया।

ज़िंदगी भर यही सोचती रही कि एक कोना मेरा भी हो... जहाँ पर मैं अपनी मर्ज़ी का बिछाऊँ-ओढ़ूँ, सजाऊँ सँवारूँ याकि गंदा छोड़ दूँ। कितना... कितना तरसती रही है वह अपनी पसंद की बागवानी करने को। मायके में थी तो घर पर भाभियों का अधिकार था। ससुराल आई तो...

-"सही तो कह रही है प्रज्ञा...उसका घर, उसका कम्फ़र्ट ज़ोन होना ही चाहिए" मन से सोचा उसने। -"विशाल कब कह रहा शादी को..." सुधा ने बेमज़ा होते डोसे का एक टुकड़ा मुंह में डालते बात पलटी. -"वो तो राज़ी है माँ! चाहे आज कर लो शादी... परंतु मैं ही। पापा को देखा था न आपने...? कैसे बाथरूम से लेकर पूरे घर में अपनी मर्ज़ी चलाते थे। तकिये के कवर तक में अपनी मर्ज़ी रखते थे। न यहाँ सोफा नहीं। न यहाँ अलमीरा नहीं! न बेड ऐसे नहीं ... रसोई तक में उनकी हुकूमत... कभी नहीं सोचा आपकी भी कोई पसंद होगी। ना बाबा ना...मैं ऐसे नहीं काट सकती ज़िंदगी" प्रज्ञा को उसके भविष्य की चिंताओं ने घेरा।

-" ना प्रज्ञा... ऐसा नहीं कहते बेटा... सब ऐसे नहीं होते। मेरे भाइयों को देखो दोनों भाभियों की अपनी मर्ज़ी चलती है। दोनों भाभियाँ क्या लाती हैं। कैसे घर को सजाती हैं। उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं... उनके हुनर पर हर घड़ी रीझे रहते हैं। सुधा ने एक निःश्वास भरी और छोड़ी।

-"ठीक है माँ, देखते हैं। पर, जल्दी नहीं। पहले अपनी हर बात रखूंगी उसके सामने यदि उसे सब मंजूर होगा तभी शादी होगी... वरना नहीं।" प्रज्ञा ने अपनी बात पूरी तरह साफ की। स्वीकृति में गरदन हिलाते भी।

-"हाँ बेटा, देख लो! जैसे भी करो। वैसे वह बहुत समझदार है। दो साल हो गए तुम दोनों के साथ को... जब भी आता है तुम्हारे हर हुनर की तारीफ ही करता है... मुझे नहीं लगता उसे तुम्हारी किसी बात से ऐतराज होगा।" माँ ने उसकी चिंता दूर करने की एक छोटी-सी कोशिश की।

-"हम्म... देखते हैं..." प्रज्ञा ने बिना किसी जोश के बात को वहीं समेटा और जूठे बर्तन उठाकर सिंक की ओर चल दी। -"हाँ, माँ वो... रोहन भईया का फोन आया था। पूछ रहे थे-मकान बिका कि नहीं... कल बुला लूँ उस प्रोपर्टी डीलर को...? अब तो बहुत अच्छे रेट लग रहे हैं उसके..." प्रज्ञा ने अपने पिता के बनवाए मकान को बेचने के लिए माँ से पूछा।

-"देखो माँ, अकेले तो हम तुम्हें रहने देंगे नहीं। कभी मेरे पास तो कभी भईया के पास रहना आराम से। बाक़ी रही घर बेचने से आई रकम की बात तो वह हमने सोचा है कि उसकी आपके नाम की एफडी बनवा देंगे।" एमबीए टॉपर रही प्रज्ञा को मैनेजिंग, मार्केटिंग और सेविंग्स की हर जानकारी थी। पिता के गुजरते ही अपनी माँ को अपने पास ले आई थी वह।

दो साल से कभी इधर तो कभी उधर थी सुधा।

प्रज्ञा की बात पर-कई पल काठ बनी रही वह... मन-मस्तिष्क में साँय साँय... -"माँ...!" प्रज्ञा अब ज़ोर से चिल्लाई. -"आं... हाँ...सुन रही हूँ"

-"सुन, किसी भी डीलर को बुलाने की आवश्यकता नहीं। मैंने फैसला कर लिया है... मैं मकान नहीं बेचूँगी अभी और हाँ... मेरा टिकट तो बुक करवा दे जरा। मैं भी अपने घर जाना चाहती हूँ अब।" सुधा ने कई माह की अपनी कशमकश से बाहर आकर अपना निर्णय सुनाया।

प्रज्ञा हैरत से भरी अपनी आशा के विपरीत माँ का निर्णय सुनते ही अकबकाई-"माँ, अकेले कैसे...?" -"अकेली कहाँ हूँ... तुम सब हो ना मेरे साथ... जब दिल करे चले आया करना। मेरी ज़रूरत पड़ने पर जब चाहे जब बुला लेना मुझे। मैं आ जाऊँगी तुम दोनों के पास। पर आज से रहूँगी अपने ही घर में। अपने साथ... अपने कम्फ़र्ट ज़ोन में।" गौरवर्ण मुख पर सुकून का उजास लिए वह अपने उस कक्ष की ओर मुड़ गई. जिसकी चादर तकिये तक प्रज्ञा की पसंद के थे।

तकिये के नीचे से पति की तस्वीर को निकालकर निहारती रही कई घड़ी-' मेरा कमफर्ट ज़ोन तुम्हारे रहने से बाधित नहीं होता महेश... तुम आज भी मेरे साथ हो। मैंने अपनी ज़िंदगी में कोई ऐसा कोना नहीं सोचा जहाँ तुम न हों... पर जानें क्यों मैं तुम्हारे हर कोने से बाहर थी। स्त्री का कमफर्ट ज़ोन उसके साथी का हृदय होता है... यदि वहाँ जगह है तो घर में तो जगह मिल ही जाती है। खैर...

आते परसों में सूरज से आँख-मिचौली खेलने का मन ही मन वादा किया उसने। अपनों के प्रति उसके सभी दायित्व वह बड़ी ज़िम्मेदारी से निभा चुकी है... कुछ फर्ज़ अपने लिए भी हैं जो उसे अब निभा लेने ही चाहिएँ। उम्र के पचपन बसंत इतने भी अधिक नहीं होते कि दूसरों के मोहताज हो जाएँ हम... पति की तस्वीर को हृदय से लगाए आज बहुत दिनों बाद वह सुकून से सो रही थी।