कमरा, साँप और आदमी / दीपक श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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बात एक कमरे की है। इससे भी अलग, उस कमरे में रहने वाले एक आदमी की है। उस आदमी की, जिसके कमरे में उस आदमी की जानकारी के बिना एक साँप रहता था।

उस आदमी का एक नाम था। वह पूरा आदमी था लेकिन, अकेला रहता था। उसकी पत्नी और बच्चे वहाँ से एक सौ पन्चानबे किमी दूर गाँव में रहते, जहाँ पहुँचने के लिए आदमी को पाँच तरह के वाहन बदलने पड़ते। यहाँ कमरे में आदमी शौकिया नहीं रहता। जहाँ कमरा है, वहाँ से पंद्रह किमी दूर एक मिल में वह गार्ड की नौकरी करता। विश्व के गाँव बनने से पहले की यह सरकारी मिल थी, जिसे सरकार ने बीमार मानकर बेच दिया। मिल को बीमार घोषित करने और उसकी बिकवाली मूल्य का आकलन करने वाली विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष बाद में दिल, मधुमेह व यकृत के मिले-जुले प्रभाव से मर गए। आदमी को यह बात पता नहीं थी। आदमी को नौकरी इस मिल के निजीकरण हो जाने के बाद मिली। सरकार और मिल मालिक में दोस्ती थी, इसलिए आदमी को असुरक्षित नौकरी और चौबीस सौ रुपए मिलते थे। दुनिया वाले गाँव में अभी तक किसी विशेषज्ञ समिति ने चौबीस सौ रुपए का आकलन नहीं किया।

आदमी पंद्रह किमी दूर इसलिए रहता कि कमरे का किराया दो सौ रुपए था। साइकिल से वह तीस किलोमीटर चलता और बारह से चौदह घंटे की नौकरी करता।

कमरा शहर के उस सीमांत पर था, जहाँ से गाँव शुरू हो चुके थे या शहर की सीमा समाप्त हो चुकी थी। समाप्त तो गाँव हो रहे हैं लेकिन वहाँ शहर समाप्त हो रहा था। कमरा मुख्य सड़क पर पंक्ति से बने पाँच कमरों में एक था। कमरे में चार दीवारें, एक छत, एक छोटी खिड़की और एक दरवाजा था। दरवाजे और खिड़की चीड़ के उन फट्टों से बना था, जो एक मशीन की पैकिंग में आए थे। मशीन उस कमरे को बनवाने वाले के बहनोई के सरकारी वर्कशॅाप में आई थी। वह लकड़ी की पैकिंग चुराकर लाया और अपने साले को बेच दिया, वैश्विक भाषा में कहें तो चेंप दिया। साले अर्थात मकान मालिक ने उसका उपयोग दरवाजों में किया।

कमरा तीन साल पहले बना था। आदमी चार महीने पहले उसमें आया था। मकान-मालिक कमरे के बनवाते समय झगड़ालू हो गया। बताते हैं कि पहले वह सीधा आदमी जैसा था। कमरे बनवाने में वह कर्ज में डूब गया। उसे देखने में मालिक जैसे शब्द का बोध नहीं होता था। अधिकतर समय वह बनियान और पटरे वाली जाँघिए में रहता। कमरे बनवाने के लिए जमीन को लेकर अपने भाई और माँ से उसका झगड़ा हुआ। कमरों की मिल्कियत वह अकेला चाहता था, इसलिए वह जमीन की अलगौझी पर अड़ गया। जमीन भी सड़क के किनारे वाली ही चाहता था। झगड़े में उसकी पत्नी ने सक्रिय सहयोग दिया। भाई की कमजोर स्थिति और कई कुटेव करने के बाद उसे सफलता मिली। दोनो भाइयों में बोलचाल बंद हो गई। माँ, भाई के साथ रहने लगी।

वैमनस्यता कमरे के जड़ में ही थी। मकान मालिक और मालकिन को लगता कि एक बार कमरे बन जाएँ, तब बढ़़ते हुए शहर से हवा चलेगी और उनके कमरों पर रुपयों की बारिश करेगी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तीन साल बीत जाने के बाद भी वो कर्जदार थे। इसके लिए वे खाली पड़े कमरों को कोसते, जिससे कमरा दुखी रहता था।

कमरे की विरासत नहीं थी। कमरे के पास स्मृतियाँ भी नहीं थीं। उसके पास केवल वर्तमान था। उसके पिछले वर्तमान में दुख और नैराश्य था। आदमी के पहले उसमें एक हैंडपाइप मरम्मत करने वाला मिस्त्री रहता था। पत्नी और तीन बच्चे उसके साथ रहते थे। मिस्त्री हैंडपाइप बनाता था और ब्लाक से बोरिंग पर मिलने वाली सब्सिडी की दलाली करता। वह शराब का नियमित सेवन करता। रात में वह कामदेव के वीभत्स रूप में होता। उसकी पत्नी, जो कि बच्चों और अपने-आप से लड़ती रहती थी, लेकिन, इस काम में शांति से सहयोग करती। कुछ समय बाद हैंडपाइप का मिस्त्री परिवार सहित वहाँ से गायब हो गया। वह एक जगह एक साल के आसपास रहता। वहाँ बोरिंग के आकांक्षी आसामियों को खोजता-टटोलता, कुछ का काम करवाता, बाकियों से काम करवाने के लिए पैसे लेता, इधर-उधर कुछ उधार करता फिर गायब हो जाता। दूसरी जगह वही बात-व्यवहार-काम और रोजगार।

जब तक जिले में ब्लाक हैं, देश में लोकतंत्र है, विश्व में विश्व बैंक है, लोगों में लालच है, मिस्त्री को अपने व्यापार चलते रहने की संभावना है। कमरा यह सब नहीं जानता था।

कमरे के पास विचार कर सकने वाला मानस भी नहीं था।

कमरे के सामने सड़क के उस पार एक झोपड़ी थी, जिसमें एक बूढ़ा तड़के सुबह तीन बजे से चाय बेचता था। उसी के बगल में एक नाई का खोखा था। सुबह तीन बजे चाय की दुकान इसलिए खुल जाती थी कि आस-पास के सब्जी वाले बोरों और झौओं में मौसमी सब्जी भर कर साइकिल से गोल बनाकर शहर की ओर जाते।

सुबह होते-होते गाँव के दूधिए भी दूध दुहा कर जमा होते और शहर का रुख करते। वो सब बूढ़े की हाथ की स्पेशल चाय पीते, गाना गाते हुए अपनी जवानी को साइकिल चलाने की कला और रफ्तार में खपा डालते। इन सभी के घर अभी चाय बनने की परंपरा नहीं थी। ये सब लोग दोपहर बाद लौटते। उस समय भी उनका पड़ाव चाय की दुकान पर ही होता।

तब तक नाई की दुकान खुल जाती। उसके यहाँ अखबार आता था और आस पास के बुजुर्ग और ठलुए वहाँ जमा होने लगते। शहर से लौटे दूधियों और सब्जी वालों के पास बहुत सारी खबरें होती। दूधियों के पास खबरें ज्यादा होती थीं, उनमे अधिकतर घर-घर जाकर दूध देते थे। औरतों के बारे में बातें करते समय वो जोर-जोर से हँसते। वे अधिकांश झूठ बोल रहे होते। विचार के नाम पर उनके पास अखबार होता जिसकी चटखारी खबरों को वे अपनी सूचनाओं के साथ मिलाकर सुनते-सुनाते।

वहाँ बैठे बुजुर्ग और सभ्य किस्म के लोग हर मुद्दों पर राय देते तथा जमाने के पतनशील होने की घोषणाएँ करते। वो सभी लोग इक्कीसवीं सदी में रह रहे थे लेकिन उनकी सोच ईसा पूर्व सदी से होते हुए छठी और पंद्रहवीं सदी तक आकर रुक जाती थी।

दोपहर बाद बूढ़ा सो जाता था और उसका लँगड़ा पोता चाय बनाता था। वह युवा हो रहा था। उसके लँगड़ेपन की वजह से उसकी शादी नहीं हो रही थी। हैंडपाइप वाले मिस्त्री की पत्नी को दोपहर के एक समय में नल पर नहाते हुए देखता था। मिस्त्री के भाग जाने के बाद लड़का कमरे की तरफ कई कल्पित योजनाओं के साथ देखता था जिसमें स्त्रियाँ मुख्य पात्र होती।

सभी कमरों की तरह यह कमरा भी देख-सुन-समझ नहीं सकता था। कमरे के पास वर्तमान था और वर्तमान में वहाँ आदमी रहता था।

आदमी, साँप से पहले कमरे में आया था।

कमरे का किराया आदमी देता था। उसमें आदमी के अलावा एक तख्त, कुछ छिपकलियाँ, तिलचट्टे, कीड़े मकोड़े और दो चूहे रहते थे। साँप उन्हीं चूहों के लिए कमरे में घुसा था। एक चूहा उसकी पकड़ में आ गया। उसे निगलने के बाद कुछ समय वह कमरे में रहा। साँप ने चूहों के बिल में आश्रय लिया। आदमी दिन भर कमरे में नहीं रहता था। रात में वह सोने आता था, फिर सुबह निकल जाता था। कभी कभार दिन में सोता और रात भर गायब रहता था।

साँप का जीवन अभी तक भागते हुए ही बीत रहा था। वह पहले बड़े साँपों से भागता रहा, फिर आदमियों से बचता फिर रहा था। अपना जीवन किसी तरह वह अभी तक बचा पाया था। साँप को अपने जहरीले होने या न होने के बारे में नहीं पता था। साँप के जहरीले होने के बारे में आदमियों को ही पता रहता है। साँप को यह भी नहीं पता था कि उसे खतरनाक माना जाता है। साँप को आदमियों के बारे में इतना पता था कि वो साँपों को मार देते हैं। मारे साँप जाते हैं और वही खतरनाक भी माने जाते हैं। साँप का जीवन आदमियों और दूसरे दुश्मनों से बच कर रहने में बीत रहा था।

साँप विचार करता था। उसके पास स्मृतियाँ थीं और मस्तिष्क भी। साँप के पास सभ्यता नहीं थी। उसकी स्मृतियों में साँप मारते आदमी थे। उसकी स्मृतियों में प्रेम, दुख, विषाद, घृणा, विस्मय, हर्ष, करुणा, क्रोध आदि सभी भाव थे लेकिन भय सबपर हावी था। भय उसके जीवन को चला रहा था। कमरे में साँप के लिए भय के तत्व कम थे। आदमी के अलावा साँप के अधिकार को चुनौती देने वाला कमरे में और कोई नहीं था।

आदमी को पता नहीं था कि कमरे में साँप है।

आदमी को पता चलता कि कमरे में साँप है तो वह भयभीत हो जाता। साँप को मारकर अपना भय दूर करता। आदमी के पास कई भय थे। सबसे बड़ा भय अपनी नौकरी का था। आदमी की स्मृतियाँ साँप और कमरे से अधिक थीं। आदमी का मस्तिष्क साँप से विकसित था। आदमी के पास सभ्यता थी। सभ्यता ने उसे परंपराबोध दिया था।

आदमी भय के साथ पैदा नहीं हुआ था। वह जब युवा था तब अमिताभ बच्चन की तरह शर्ट बाँध कर रखता। उसे नीतू सिंह और रीना राय पसंद थीं। वह कानपुर में रहता था। जहाँ उसके पिता एक कपड़ा मिल में मजदूरी करते थे। वह मजदूर बस्ती में रहता और लड़कों के साथ गिरोह बनाकर घूमता था। एक बार उसने एक कार वाले को मारा, जब उसकी कार से एक बच्चे को चोट लग गई थी। उसका बाप जब मुहल्ले के बनिए या अपने सुपरवाइजर से दीन-हीन व्यवहार व दयनीय भाषा का प्रयोग करता तब आदमी अपने को अपमानित महसूस करता था।

अब, अपमान की परंपरा के मायने उसके लिए बदल गए हैं। आज वह अपने आपको पिता की जगह खड़ा पाता है। पिता के दुख, गरीबी और अपमान की परंपरा उसे विरासत में मिली। जो भी सुखद था उसकी स्मृतियों में था।

उसकी स्मृतियों में प्रेम ने ही अधिक जगह घेरी हुई थी। वह जब युवा था और कानपुर में रहता था। उसका प्रेम जिस लड़की से हुआ, उसका नाम डिंपल था। लड़की के चेहरे पर हलके चेचक के दाग थे। उसका नाम रखने वाले ने ऐसा सोचा नहीं होगा। इसकी बाईं बाँह पर टीकों के गोल निशान थे। ऐसे ही भद्दे और गोल निशान आदमी की दाईं बाँह पर थे। डिंपल उसके दोस्त की बहन थी। उस दोस्त के साथ उसने दीवाली में पटाखों और होली में रंग गुलाल की दुकान लगाई थी।

सरस्वती बालिका इंटर कालेज के पीछे वाली सड़क पर वह दोपहर दो बजे से चक्कर लगाने लगता था। जब वह स्कूल से निकलती थी तब आदमी उसे प्रेम पत्र पकड़ाता था। कभी-कभी हड़बड़ी में पत्र गिर जाता। फिर से उसे उठाने और पकड़ने-पकड़ाने में दोनो ही काँपते रहते थे। पत्र हिंदी में होता था। आदमी को सौंदर्य शास्त्र संबंधी अंग्रेजी के जितने के शब्द आते थे, सभी का प्रयोग वह प्रेम पत्र में करता। उस समय उसे पता नहीं था कि उसके पत्र की भाषा भविष्य की भाषा होने वाली है।

कुछ समय बाद डिंपल की शादी हो गई। उसकी शादी में उसने खाने की पाँत में पत्तल बिछाए और उठाए। इस प्रेम की उपलब्धियों में उसको, गिनती के चुंबन, कुछ शारीरिक स्पर्श और चंद प्रेम पत्र मिले। प्रेम पत्रों को उसने डिंपल की शादी वाले दिन फाड़कर गंगा नदी में फेंक दिया।

दो साल पहले वह जब कानपुर गया था तब वह पुल पर वहीं खड़ा हुआ जहाँ से उसने पत्र फाड़कर गंगा नदी में फेंके थे। उसने नीचे गहरे में अपने प्रेम पत्र खोजने की कोशिश की, वहाँ केवल काला गंदा पानी था। अपनी प्रेमिका की शादी के बाद वह बहुत दिनों तक वाकई उदास रहा।

यह वही समय था, जब उसके पिता जिस मिल में काम करते थे, वह बंद हो गई थी। आदमी ने घर की जिम्मेदारी के लिए छिटपुट काम करना शुरू कर दिया। उसकी पढ़ाई छूट गई थी और उसे ढंग की नौकरी नहीं मिल पा रही थी। ऐसी ही डाँवाडोल स्थिति में पिता ने उसकी शादी कर दी। पिता काम काज न होने के बावजूद दिनभर गायब रहते थे। नई शादी की खुमारी में घूम फिर कर आदमी घर पर ही रहता था। उसे पत्नी से प्रेम हो गया।

ऐसे ही दौर में उसने अपनी पत्नी के साथ 'रफूचक्कर' फिल्म कमला टाकिज में देखी थी। उसकी स्मृतियों का वह सबसे अच्छा दिन था। उस दिन उन्होंने चिड़ियाघर घूमा, चाट खाई और मद्रास होटल में स्पेशल दोसा भी खाया था। एक मेले में वो बड़े झूले पर घूमे। झूला जब अपनी पूरी ऊँचाई पर था तब पत्नी की आँखे बंद हो गई और सिहर कर उसने आदमी को पकड़ लिया, आदमी अपनी पूरी ऊँचाई पर हो गया था। देर रात वे घर पहुँचे। वो इतने खुश थे कि माँ की कही जाने वाली कुबोलियों की चिंता भी उन्हें नहीं रही। 'रफूचक्कर' फिल्म से जुड़ी हर चीज आदमी को उस दिन की याद दिला देती है। ऋषि कपूर, नीतू सिंह यहाँ तक कि कोई भी कपूर उस दिन को उसकी स्मृतियों में खींच लाता है। करीना कपूर भी।

विवाह के चंद महीने बाद एक रात आदमी ने डिंपल के बारे में अपनी पत्नी को बताया। पत्नी धीरे से हँस दी, बिल्कुल डिंपल की तरह। आदमी को पत्नी का चेहरा डिंपल सा लगा। वह पत्नी से उसके पूर्व प्रेम के बारे में पूछना चाहता था। कुछ ऐसे सवाल उसने झिझकते हुए पूछे भी लेकिन पत्नी ने हँसकर टाल दिए, वह भी फिस्स से हँसकर चुप हो गया।

बाद में उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा क्योंकि आदमी के पिता जिस मिल में काम करते थे वह चल नहीं पाई और आदमी को कानपुर में काम नहीं मिल पाया। सभी लोग कानपुर छोड़कर गाँव आ गए। आदमी को रोजगार के लिए, शहर-दर-शहर भटकना पड़ा, एक अकेले खानाबदोश की तरह।

उसकी स्मृतियों में 'रफूचक्कर' फिल्म अभी भी उतनी ही जीवंत थी। उसने जब अपनी बेटी से करीना कपूर का नाम सुना, तब उसे अपने प्रेम समय का वही शीर्ष दिन याद आया। आदमी की बेटी करीना कपूर की प्रशंसक है, यह बात उसे तब पता चली जब वह अपनी बेटी के लिए जूता खरीदने गाँव की बाजार की दूकान पर गया। बेटी ने करीना कपूर वाला जूता दुकानदार से देने के लिए कहा। यह कहते समय वह छिपी नजरों से पिता को देख रही थी। पिता, जूते और पहनने वाली को करीना कपूर होते देख रहा था।

आदमी का बेटा सलमान खान हो रहा था। उसके लहराते बाल और कपड़े सब सलमान खान की तरह थे। गाँव में सलमान खान के लहराते बाल और कपड़े कहाँ से आते हैं, आदमी इसको समझना चाहता था। शादी के बाद से वह रोजगार की वजह से परिवार व गाँव से बेदखल था। आदमी की पत्नी बेटे के सलमान खान बनने की शिकायत करती लेकिन आदमी जानता था कि बेटे के सलमान बनने से माँ को खुशी ही होती है। पत्नी, आदमी को खुश करने के लिए शिकायतें करती है। पत्नी के पास ऐसी छोटी खुशियाँ ही बची थी और चिंताएँ बहुत सी।

आदमी तख्त पर लेटा अपनी चिंताओं की विवेचना करता। कभी-कभी बेचैनी से वह तख्त से उतरकर टहलने लगता। ऐसे समय उसकी मुट्ठियाँ भिंची रहतीं। साँप तब दुबक जाता था और कमरा चुपचाप आदमी को टहलते हुए देखता। उसके साथ काम करने वाले साथियों को नहीं पता था कि आदमी चिंतित रहता है और कमरे में परेशान टहलता है। आदमी के साथी उसके साथ हँसी ठठ करते, आदमी उनके साथ।

साँप और कमरे को आदमी की अवस्था पता थी। वह परेशान किसलिए है, इसके बारे में उन्हें नहीं पता था। परंपरा और सभ्यता उनके यहाँ अनुपस्थित थी।

आदमी और आदमी के साथी कभी कभार जश्न मनाते थे। जब उनके पास कुछ पैसे बचे रहते। वो लोग जश्न में चंदा जमा कर गोश्त और विशेष अवसरों पर शराब लाते। जश्न आदमी के घर ही मनाते थे क्योंकि आदमी गोश्त अच्छा बनाता था और कमरा मिल से दूर था। उनकी खुशी, दूरी के कारण मिल तक प्रसारित न हो पाती।

आदमी पूरे मन से भोजन बनाता। खाने के बाद सब चले जाते थे। आदमी जूठे बर्तनों के बीच देर तक बैठा रहता। फिर अँधेरे जैसी स्थिति में हँसी के टुकड़े, मिल मालिक को दी गई गालियाँ, साथियों के चुस्त फिकरे और खुशी के बीते पलों को जमा करता था। बीड़ी भरी महक और खुश्क नशे के बीच वह कमरे को बेवजह टटोलता था। टटोलते हुए उसे अपनी पत्नी, करीना कपूर होती बेटी और सलमान खान होते बेटे की याद आती थी। जिस दिन नशा तेज होता था, आदमी भोंकार मार कर रोने लगता था। ऐसे समय, साँप का भय समाप्त हो जाता था और कमरा और साँप दोनों उदास हो जाते।

कमरे के पास विचार नहीं था। वह उदास था। साँप के पास सभ्यता नहीं थी, वह भी उदास था। आदमी के पास विचार, सभ्यता, परंपरा सभी कुछ थे और वह उदास रहता था।