कमरा / हेमन्त शेष
इस कमरे में कोई सामान नहीं है- सामान के बिना भी यह कमरा कहलाता है, चाहें तो इसे खाली कमरा कह दें! यह कमरा मकान की पहली मंजिल पर है, इसलिए बिना सीढ़ियाँ चढ़े, सामान्यतः आप यहाँ तक नहीं आ सकते- हाँ, आप कमंद लगा कर खिड़की की तरफ से भी इस में आ सकते हैं. पर आजकल आने-जाने के लिए वह तरकीब अब देवकीनंदन खत्री जैसे सिर्फ पुराने जासूसी उपन्यासकारों की किताबों में ही बची रह गयी है. पर उन्हें भी इधर कौन पढ़ता है?
यह कमरा खाली क्यों है, और इस का सामान कहाँ गया, मुझे नहीं पता.
इस में पहले कौन रहता था, क्या करता था, उसने इसे खाली क्यों किया, क्यों अब तक किसी ने इसे किराए पर नहीं लिया, जो पहले था उसके ज़हन में कहीं वास्तुदोष का कोई चक्कर तो नहीं था, मकान मालिक ने उसे क्या उसकी ‘बुरी आदतों’ की वजह से निकाला, या रोज रात देर से आने पर, कहीं वह उसकी जवान दो लड़कियों पर खराब निगाह तो नहीं रखता था, क्या उसने मकान मालिक से दीवाली से पहले कमरा सफेदी करवाने को कहा था जो मकान मालिक ने कंजूसी की वजह से अब तक भी नहीं करवाई थी और वह खुद गुस्सा हो कर चला गया था, क्या वह किराया वक्त पर नहीं दिया करता था और रोज-रोज की किचकिच से आजिज़ आ कर मकान मालिक ने उसे ‘नमस्ते’ कह दिया, क्या इस कमरे का किराया एकाएक इतना बढ़ा दिया गया था जिसे अपनी छोटी सी आमदनी के कारण दे नहीं पा रहा था, क्या उसके मकान मालिक की बीवी से नाजायज ताल्लुक़ात थे- जिनकी जानकारी मोहल्ले भर को हो चुकी थी, क्या पडौस की दूकान से उसने इतना उधार ले लिया था कि चुकाना ही नामुमकिन था, क्या वह कोई पाकिस्तानी जासूस था, या पुलिस से छिपता फरार इश्तहारी मुजरिम, क्या उसे इसी किराए में कहीं और नया बड़ा कमरा मिल गया था, क्या वह खुद के बनाए मकान में चला गया था, क्या शहर छोड़ कर तबादले पर दूसरी जगह, क्या उसे ये कॉलोनी ही पसंद नहीं आई थी, क्या वह फाइनल-ईयर का कोई विद्यार्थी था - जो सालाना इम्तहान खत्म होने पर अपने गाँव लौट गया था, क्या किसी रिश्तेदार ने उसे अपने साथ रहने को बुला लिया, क्या इस कमरे में आते ही उसके साथ कुछ बुरा-बुरा घटित होने लगा था, या क्या यहाँ आते ही उसकी तरक्की हो गयी थी और वह कंपनी की तरफ से मिले फ्लैट में चला गया था, क्या उसका मन यहाँ बिलकुल नहीं लगा, क्या यह कमरा उसके दफ्तर से बहुत दूर था, क्या मकान मालिक से किसी बात पर उसका झगड़ा हुआ था, क्या वह दोस्तों को यहाँ ला कर रोज शराब पीता था, क्या रेडियो टीवी तेज आवाज़ में सुनता था, क्या उसने मकान मालिक के बच्चे को मुफ्त में पढ़ाने से इनकार कर दिया था, क्या वह मांसाहारी था- जो होना मकान मालिक को सख्त नापसंद था जिसके बारे में उसने कमरा लेते वक्त कभी नहीं बतलाया था, क्या वह शादीशुदा था और उसकी नई-नवेली बीवी को देख कर पडौस के आवारा किस्म के छोकरे अश्लील फब्तियां कसते थे, क्या इस कमरे में कोई प्रेत-बाधा है, क्या कमरा दो के लिए सचमुच छोटा था, क्या वह शादीशुदा नहीं- असल में कुंवारा था और शादीशुदा होने का झूठ उसने कमरा किराये पर लेने के लिए ही कहा था, या क्या वह बिजली-पानी के बिल भी इसी किराए में शामिल करवाना चाहता था, क्या उसने तस्वीरें और कलैंडर लगाने के लिए कमरे की दीवारों को कीलें ठोक-ठोक कर बर्बाद कर दिया था, जैसी असंख्य संभावनाएं हो सकती हैं- जिनकी वजह से ये कमरा खाली हो....पर कमरे के इतिहास में जाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं, अभी तो मैं अकेला, इस खाली कमरे में बस आया ही हूँ, और पता नहीं कहाँ-कहाँ की ऊटपटाँग बातें ले बैठा हूँ.
कहानी महज़ इत्ती सी है कि मकान की पहली मंजिल पर बना यह कमरा सिर्फ कमरा है- एक दरवाज़े, दो खिड़कियों, एक छत और चार दीवारों के कारण, और चूंकि इस में कोई सामान नहीं, इसलिए यह बस खाली कमरा है, जैसा कहानी की पहली ही पंक्ति में बताया जा चुका है!
हाँ, अगर आप किसी सरकारी महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हों तो इसे ‘रचना-प्रक्रिया की कथा’ कह दें, हमें तब भी कोई ऐतराज़ न होगा...