कमरे का अभिशाप / राजा सिंह

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रात के आठ बज रहे हैं और गुंजन अभी तक नहीं लौटी है। उसका मन बेचैन हो रहा हैं रह-रह कर उसकी नजर घड़ी तक जाती और लौटकर फिर अकुलाहट भर जाती। आशंका उसमें घर कर गई थी। कुशंकायें तरह-तरह से विभिन्न रूपों में उसे छल रही थी। वह एक पल भी चैन से नहीं बैठ पा रही थी। ड्राइंग रूम, बेडरूम, लिविंग रूम छोटा-सा लान को नापते-परखते गेट तक कई चक्कर लगा चुकी थी। कभी-कभी गेट पर खड़े होकर उंॅचक-उॅंचक देखती की गुंजन आती दिखाई पड़ जाये और काफी देर तक एकटक देखते रहने पर भी उसे गंुजन दिखाई नहीं पड़ती थी। चक्कर पर चक्कर जैसे उसके चक्कर लगाने से वह जल्दी लौट आयेगी।

पप्पू अपने होमवर्कस में विजी है। एक दो बार उससे भी पूॅछ आयी है, या अपनी चिंता व्यक्त कर आई हैं।

'पप्पू, दीदी अभी तक नहीं आई है।' वह होमवर्कस से ध्यान हटाकर उसकी तरफ प्रश्न उछाल देता है।

'क्यों, फिर दीदी कहॉ गई है।' वह काफी छोटा है। वह क्या समझेगा माँ की चिंता। जिन्हें समझना चाहिए वही नहीं समझते। कैसे बाप हैं? '

शाम को जब श्रीमान प्रतीक चौधरी अपनी फैक्ट्ररी से आये, तो अपनी लाडली को न देखकर पूॅछ लिया था, 'गुंजन कहॉ है?' उसने बताया था कि 'आज कालेज से ही नहीं आयी है। साहबजादी का फोन आया था, आज फ्रैडस के साथ पिक्चर देखने का प्रोग्राम बन गया है। वहीं से सीधे चली जायेगीं।' चौधरी साहब ने भी वेफिक्री दिखाई, 'कोई बात नहीं।' और चाय नाश्ता करके निकल गये अपने यार दोस्तों के पास घूमने टहलने और गपियानें। जरा-सा भी बेटी पर कन्ट्रोल नहीं करते हैं। उॅंपर से बढ़ावा और देते रहते हैं। बाप, बेटी और पप्पू सभी मार्डन हैं, सिर्फ़ वही एक है पिछड़ी। बेटी तो अक्सर उसे लतिया देती है, जब वह रोक-टोक करती है। 'ये ठीक नहीं है। ऐसी मत करो। ऐसे नहीं बोलते। दोस्तों में लड़के क्यों हैं।'

'मम्मा, तो कुछ समझती ही नहीं है। एकदम ओल्ड फैशन्ड हैं। आप कुछ पढ़ी-लिखी भी हैं। कुछ जानती-तानती भी हैं? वह अक्सर फटाक से बोलती है, तेज-तर्रार, बाप से शिकायत करों तो चुप लगा जाते हैं। एक तरह से उसी का फेवर करते हैं। अब तो पप्पू भी बिगड़ने लगा है। वह भी गंुजन की तरह उसे जबाब देने लगा है। पति महोदय का कहना ही क्या, उन्हें वह कभी अपनी स्टैडर्ड की नहीं लगी। अक्सर कह देते हैं' गोरी सूरत के अलावा क्या है तुममें, मोटी कहीं की। '

परन्तु फिर भी वह अपने परिवार से सुखी और संतुष्ट हैं अपने समाज में उसकी इज्जत है। पति फैक्ट्ररी में सुपरवाइजर है। उसकी बेटी पढ़ाई में सदैव फर्स्ट आती है। इस समय एम0बी0ए0 कर रही है बेटा भी पढ़ने में काफी होशियार है, इस समय छटी क्लास में पढ़ रहा है। सिर्फ़ वही है अनपढ़, केवल हाईस्कूल पास बिना किसी डिवीजन के. चाहती तो वह भी आगे काफी पढ़ना परन्तु परिस्थितियाँ ही, कुछ ऐसी बन गई किं, हाई स्कूल पास करना भी दूभर हो गया था। आगे न पढ़ पाने का उसे अभी तक अफसोस रहता है।

कीर्ति को सब कुछ अच्छा लगता है, परन्तु उसे गंुजन के लड़के दोस्त होना अच्छा नहीं लगता। उसे हर समय उसके उॅंपर खतरा मंडराता नजर आता है। उसे लगता है कि वह सुरक्षित नहीं रह पायेगी, ये आंशका उसे हर समय सताती रहती है। गुंजन के दोस्तों में लड़कियाँ कम लड़के ज़्यादा थे जो उसं और भी चिंताग्रस्त बनाते थे। लड़के दोस्तों में एक लड़का तो उसे बेहद नापसंद था, सूरज प्रताप सिंह लम्बा तडं़गा, गोरा-चिट्टा, अपनी छै अंगुलियों में अंगूठी, गले में मोटी-सी जंजीर, दायें हाथ में पंजाबियों की तरह सोने का कड़ा और बाऐं कलाई पर रोल्स की महॅंगी घड़ी। एकदम रहीसता की नुमाइश। पुराने जमाने के जमीदारों की तरह या आधुनिक गुण्डों की झलक देता हुआ। वह कहीं से भी स्टूडेन्ट नहीं नजर आता था। परन्तु गुंजन के ग्रुप में वही सबसे लोकप्रिय था और शायद लीडर भी था। उसका पिता किसी ईलाके का विधायक था। ग्रुप का ज्यादातर खर्चा वही वहन करता था। उसे लगता है कि उसकी बेटी गुंजन उससे कुछ ज़्यादा ही प्रभावित है और वह उससे हद दर्जे नापसंद करती है। या यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि उससे एक तरह से घृणा ही करती है। क्योंकि वह लड़का उसे उसकी याद दिलाता था। ...एक क्रूर बाज ...ऐसा बाज जो भूख न होने पर भी, किसी पक्षी को साबूत न जाने दे। ...उसे अजगर भी कहा जा सकता था। अजगर की तरह धीमे-धीमे अपनी गंुजलक में लेता हुआ शिकार। शिकार कब उसकी गिरफ्त में आ गया, आभास होना मुश्किल था। सिर्फ़ निगलने पर ही पता चलता था कि वह शिकार हो चुका है। ऐसा ही था, उसके जमाने में महेश शर्मा ...बाज और अजगर दोनों तरह की खूबियों का मालिक।

वह रात में चबूतरे पर सोती थी गर्मियों में बाहर की हवा और थोड़ी बहुत ठंडक से नींद आ जाती थी। अन्दर के कमरे में मॉं अपने छोटे बच्चे के साथ सोती थी। बाकी सभी लोग, पिता जी एवं अन्य चार-पॉच भाई बहिन बाहर सोते थे। नीचे सड़क के किनारे खड़जें पर चबूतरे के नीचे। उन लोगों का घर दो कमरों का था, मकान के नीचे पोर्शन पर। आगे के कमरे पर पिता जी का चर्म कर्म का व्यावसाय था और भीतर के कमरे पर सारे गृहस्थी किचेन, बेडरूम, ड्राइगंरूम, जो कुछ सम्भव हो सकता था। मकान मालिक भी गरीब था इसलिए नीचे का सारा किराये पर दे रखा था। चबूतरे से ही उॅपर जाने का रास्ता था। उसने जबसे होश सम्भाला वहीं पर पाया था। मॉं बताती थी सभी का जन्म इन्हीं दो कोठरियों में ही हुआ है। उन लोगों के पास लेट्रीन-बाथरूम आदि की सुविधा नहीं थी। इसके लिये वे सब सुलभ शौचालय की सुविधा का उपयोग किया करते थे जो बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन के पास था। उसके घर से ये स्थान दूर नहीं थे। वाकिंग डिस्टेन्स पर थे। सार्वजनिक नल भी सड़क के पार ही लगा था। सुबह उठ कर पिता जी उस नल से घर का सारा पानी भर कर स्टाक कर लिया करते थे। मॉं और कीर्ति आगंेे का कमरा बन्द कर के दुकान में स्नान कर लिया करते थे जबकि अन्य लोग सार्वजनिक नल का उपयोग करते थे। उन सब की पढ़ाई चबूतरे पर या आगे का कमरा कम दुकान में हुआ करती थी। पीछे के कमरे में घना अन्धेरा का साम्राज्य कायम था। उन सभी की पूरी दुनिया उन्हीं दो कमरों में समाई थी। वहीं दुकान और वहीं मकान। पिता जी व्यापारियों से चमड़ा ले आते थे और उनसे जूते चप्पल बना कर वापस उन्हें दे आते थे। पिता जी को बनवाई मिल जाती थी या मजदूरी। पिता जी यानी के दद्दा बहुत मेहनती थें सुबह पॉंच बजे से उनकी दिनचर्या प्रारम्भ होती थी तो रात के दस बजे से पहले खतम नहीं हो पाती थी। इसमें घर के काम से लेकर दुकान के काम तक सभी कुछ शामिल था।

दद्दा दिन भर मुर्दा चमड़े से जूझते थे और जुते चप्पलों का निर्माण आबाध गति से होता रहता था और रात में जिंदा चमड़े से लिपटते उलझते, पीसते, हम लोगों को जन्म देते थे। दिन का काम दिखाई पड़ता था और उससे हम सब की सारी ज़रूरतें यथा संम्भव पूरी होती थी परन्तु रात का काम हम सब में एक अजब-सी वितुष्णा को जन्म देता था जो असहनीय होता जा रहा था, उनके लिए जो कुछ समझदार हो चले थे। सर्दियों में रजाई के भीतर हम सब गड-गड होते सिकुड़ते-मुड़ते आखिर में सो जाते थे। परन्तु गर्मियों में दो छायाओं का बनना बिगड़ना, मिटना, उलझना और फिर एक सार हो जाना। कभी फुस-फुसाना, कभी गरियाना और सॉंसों का चढना-उतरना हॉंफना और फिर कभी बिसुरना, फिर मरघट की खामोशी का छा जाना। एक ऐसे माहौल को जन्म देता था कि पल-पल घुटन यंत्रणा और संत्राश में सिमटकर मुक्ति की ओर प्रस्थान करने को लालायित करता था। पहले बड़े भाई दीपक ने बाहर का रास्ता नापा और फिर उसने। वह दोनों जाड़े समाप्त होने से पहले से ही सड़क एवं चबूतरे की शरण में आ जाते थे।

भाई का मन पढाई से उचाट हो गया था। वह न पढता था न दद्दा के काम में हाथ बटाता था। हॉं मॉ के कहे काम को ज़रूर पूरा कर देता था। यदि दद्दा बिजी है और मॉ ने पानी भरने को कह दिया या बाज़ार से कोई सामान मंगवाना है तो ज़रूर ला देता था। अन्यथा हर समय बाहर भटकता रहता था अक्सर भूखा प्यासा भीं। लौटकर आने पर दद्दा के हाथों उसकी भरपूर खातिर होती थी, जो कभी-कभी उसके शरीर में मरहम पट्टी की आवश्यकता अनिवार्य बना देती थी। मॉं रोती झिकती, चीखती-चिल्लाती अपनी दिन चर्या में व्यस्त रहती थी। वह चाह कर भी भाई को बचा नहीं पाती थी क्योंकि दद्दा उनका भी स्वागत् उसे छुट़ाने के लिए कर देते थे। भाई इन परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं कर पा रहे थे और तीन-चार बार हाई स्कूल में फेल हो चुके और हर असफलता पर उन्हें भरपूर दण्ड का भागी होना पड़ा था जब कीर्ति भी हाई स्कूल उनके समकक्ष पहुॅंच गई तो भाई की पढ़ाई पूरी तरह छुटवा दी गई और दद्दा ने उसे अपने पुस्तैनी धन्घें में उतार दिया। परन्तु यहॉं भी उनका मन नहीं लगा और सामान बनने से ज़्यादा बिगडने लगा। पिता जी को लगा इससे ज़्यादा वह अकेले ही सक्षम है। पिता जी ने भाई को बाहर का रास्ता दिखा दिया। 'कैसे भी कमाओं और कुछ भी खाओ. यहॉं नकारा के लिए जगह नहीं है।' भाई फिर बाहर भटकने को विवश था और खाने की विवश्ता में उसने रिक्शा चलाकर अपनी आमदनी का जरिया ढूढा, घर बहुत कम आता था, जब दद्दा के मिलने की सम्भावनायें कम हो और अगर मिल भी गये तो आपस में वार्तालाप् तो होना नहीं है। भाई घर आता था तो मॉ से मिलने फिर अपनी कमाई का कुछ हिस्सा वे मॉं को ज़रूर दे जाता था परन्तु वह घर का खाता नहीं था मॉ चाहे जितना प्यार से अनुरोध करें। वह आधा-एक घन्टे से ज़्यादा रूकता भी नहीं था पर जब भी वह जाता था मॉं घायल हो जाती थी। ...

महेश शर्मा था एक लम्ब, तडंग, गबरू जवान, आवारा और बदचलन हर समय चाकू और पिस्टल की बेमतलब नुमाइश करता हुआ, अपने आपकी सानी न रखने वाला। पंडित रामवचन शर्मा स्थानीय सभासद का बेटा। बेखौफ बिचरता हुआ बिगडैल। पंडित जी किसी तरह उसकी नकल का जुगाड़ करा कर हाई स्कूल पास करा पाये थे परन्तु इण्टर में चार-पॉच बार में भी उसे पास नहीं करा पाये। मगर स्थानीय इण्टर कालेज में वह अब भी पढ़ता था। वह अक्सर मारपीट, सिर फुटव्वल, लड़ता झगडता रहता था। थाना, अदालत जेल में आना जाना लगा रहता था। पुलिस को पंडित जी ने अपने रसूख की वजह से साथ रखा था, इसलिए मोहल्ले के ज्यादातर लोग उससे नहीं उलझते थें वह पंडित जी का एकलौता बेटा था, उनकी इतनी बड़ी जायदाद का वारिश। कालेज और मोहल्ले में उसका चक्कर काटना एक आम दिनचर्या थी। मोहल्ले के कुछ लौंडे भी उसके दोस्त थे जिन्हें भी शायद पढाई-लिखाई से कोई लगाव नहीं था। कुछ गरीब घर के और कुछ जो आवारा हो गये थे उसके संगी साथी थे। परन्तु सभी उससे डरते थे, उनका एकछत्र नेता था वह। उसकी गिरफ्त से उसके दोस्त छुटकारा नहीं पा सकते थे, ऐसा उसका अधिकार था।

वह अक्सर शाम को जब कीर्ति चबूतरें पर अपनी पढ़ाई कर रही होती थी, तो आ धमकता था। उससे अपनी अतरंगता बढ़ाने की कोशिश किया करता था। कुछ पढ़ने-पढ़ाने की भी सलाह देता रहता था जैसे कि वह बड़ा पढ़ाकू विद्यार्थी हो। दद्दा, कीर्ति को इशारों-इशारों में मना किया करते थे कि उससे बात न करें। परन्तु खुद उनकी भी हिम्मत नहीं होती थी कि उसे मना कर सकें। हॉं दद्दा कभी-कभी उसे टालने में सफल हो जाते थे। कभी-कभी वह दद्दा का ईशारा भंांप कर ऐसे ही चला जाता था। कोशिश उसकी रहती थी कि उसे उनके प्रति सह्दय माना जाये। वह और के प्रति चाहे जैसा भी हो उनके प्रति उसका व्यवहार अच्छा है, वह यह धारणा स्थापित करनें की कोशिश में रहता था। कभी-कभी वह स्कूल जाने वाले रास्तें में भी मिल जाता था। परन्तु वह लड़कियों के झुण्ड में होती थी तो वह नहीं बोलता था सिर्फ़ पीछा करते हुये स्कूल तक पहूॅचा आता था। शायद वह अकेले मिलने की तांक में रहता था। कभी कभार एक आध मिनट का मौका मिल जाता था तो वह ज़रूर हाल-चाल पूछॅता था और अलग मिलने की चाहत करता था। कीर्ति को उसका निकटता बढ़ाना अच्छा नहीं लगता था। परन्तु डॉट कर मना नहीं कर सकती थी, उससे डरती थी। उससे सारा इलाका भय खाता था, वह अलग नहीं थी। सूरत-शक्ल से वह काफी सुन्दर था। वह सोचती रहती थी काश, वह गुण्डा न होता, तो कितना अच्छा होता।

...वह घर के बाहर चबूतरे पर सोयी थी। एकदम गहरें नींद में थी। बाहर नींद बड़ी मुश्किल से आती है, जब तक सड़क तेज चलती है, नींद भी पीछे रहती हैं। सड़क के धीमें होने पर नींद जल्दी आती है। आज घनी अंधेरी रात थी और पास के लैम्प पोस्ट की टयूब लाइट भी नहीं जल रही थी। अँधेरा और गहराया था। नींद ने उसे कब अपने आगोश में ले लिया था, पता ही नहीं चला। वह थी एकदम बेसुध। ...उसे नींद में ही या नींद से बाहर ऐसा लगा कि कुछ रेंग रहा है। माथें से चलता हुआ, सरसराता हुआ ऑंखें नाक ओंठ पार करता हुआ गले पर आया...थोड़ी देर वहॉं रूका और फिर सफर चला दोनों पहाड़ियों पर मटरगस्ती करता हुआ, घाटियों में उतर गया। सिरहन, स्पर्श वहॉं से नॉभि को सहलाता हुआ नीचे फिसला और वहॉं गड्ड-मड्ड करता हुआ रूक गया। ...थोड़ी देर बाद स्पर्श यात्रा डाउन से अप को शुरू हुई. अब की बार यात्रा पैरों से प्रारम्भ हुयी और काफिला उत्तर की ओर आकर उत्पात् मचाने लगी थी। वह नींद तोड़कर बाहर आयी तो देखा, अंधेरे का भूत उस पर झुका हुआ था और दोनों पहाड़ियाँ उसके कब्जें में है और पंखुड़ियों का रसपान करने को सन्निकट उसका मुॅंह। वह डर कर चींख ही न पायी थी कि शेर का एक पंजा उसके मुॅंह पर फिक्स हो गया और दूसरा एक चमकदार सफेद लम्बा नाखून उसकी गरदन में चुभता हुआ। उसकी चीख और हवा नीचे से निकल गयी। बाज ने झपट्टा मारा और चिड़ियाँ को लेकर सामने की गली में गुम हो गया। बाज ने एक सुरक्षित कोने में ले जाकर चिड़ियाँ को खाया-पिया और चिड़ियाँ नुचें पंख लेकर वापस चबूतरें पर। चिड़ियाँ बाज या शेर को पहचान गई थी, वह था महेश शर्मा।

उसका दर्द, दुख सब रिस रहा था। वह अपनी विपदा किससे कहें? उसने अंधेरे में ही नजर घुमाई उसके छोटे भाई-बहन अपनी-अपनी खाट पर बेफिक्र सो रहे थे। हॉं दद्दा की खाट खाली थी। दद्दा भीतर थे। उस समय भी नहीं थे, जब वह दरिंदा उसे दबोच कर ले गया था। पिता से बताये ंतो वह लड़ने चल देगें और नतीजा वह पिता जी को मार डालेगा, फिर घर का क्या होगा? परिवार अनाथ हो जायेगा। या पिता जी ने उसे मार दिया तो पिता को फॉंसी हो जायेगी, तब भी परिवार अनाथ हो जायेगा। फिर उसकी और उसके परिवार की कितनी बदनामी होगी, क्या ये बदनामी वह और उसका परिवार झेल पायेगा? वह मर नहीं जायेगी? पुलिस से शिकायत करे तो बदनामी से तो वह बच पायेगी ही नहीं और अपने पैसे और सत्ता के बल पर पंडित जी उसे छुटा लेगें फिर वह और अधिक अत्याचार नहीं करने लगेगा? हर हाल में उसका और उसके परिवार का ही अहित है निश्चित है। ...तो क्या करें वह ...चुप लगा जाये...किसी को कुछ न बताया जाये। सब बात ढकी छुपी रह जायेगी और परिवेश में कुछ फर्क नहीं पडेगा। ...फिर चुप लगा जाने से उसके हौसले और नहीं बढ़ जायेगें? क्या पता वह रोज ही ऐसा करने लगे तो? तो वह मर नहीं जायेगी? तब तो सबको पता चल ही जायेगा और उसकी आशनाई नहीं मान ली जायेगी। ...वह सोेंचविचार के मकड़जाल में उलझती जा रही थी और कोई हल, इस गम्भीर दारूण समस्या का नहीं समझ में आ रहा था। ...हॉं! एक हल है...वह मॉं की तरह कमरे में सोने लगे, चाहे कितनी गर्मी और गिजालत का सामना क्यों न करना पड़े। कम से कम जालिम की हरकतों की शिकार होने से तो बच जायेंगी। हॉं, यहीं ठीक रहेगा। एक बार फिर दर्द और दुःख की लहर उठी थी और वह कराह उठी और ऑंसुओं की फौज ने उसे सराबोर कर दिया था।

पिता जी बाहर आ गये थे। उन्होने उसकी तरफ देखा तक नहीं कि वह है भी नहीं? या उन्हें आभाष हो गया था कि वह जग रही हैं, नजरें बचाकर सीधे अपनी खाट पर जाकर लम्बलेट हो गये थे। उसके साथ क्या हादसा हुआ था, सब के सब बेखबर थे। उसका पांेर-पोर दुख रहा था, दर्द सारे शरीर में फैल गया था। ऑंसू उॅपर और नीचे दोनों जगह से बह रहे थे। वह दर्द और दुख की दुनिया में विचर रही थी। मस्तिष्क जाम हो गया था। काली अंधेरी रात उसके लिए सफेद हो गयी थी तिनका-तिनका जलने को अभिशप्त। क्या यह दुख-दर्द स्थायी बन जायेगा? यही दारूण आशंका उसे मथे डाल रही थी।

उसने जैसा सोचा था, वैसा ही किया। रात कोठरी में और दिन आगे के कमरे में पिताजी की दुकान में। उसने चबूतरे को तिलान्जली दे दी थी। हांलाकि एक हफ्ते तक तो वह भी नहीं दिखा, किसी भी समय। परन्तु हफ्ता बीतते-बीतते वह फिर प्रगट हुआ। परन्तु अब की बार निराशा उसके हाथ लगी थी। वह मिलने की क्या, उसे देख भी नहीं पाया था। वह भनक लगते ही और पीछे की कोठरी में सरक जाती थी। दस बारह दिन बेचैनी के साथ शान्ति से बीत गये थे, उसे लगा उसकी तरकीब काम कर गई है। परन्तु ये छलावां शाबित हुआ, उसने स्कूल के रास्ते में उसे पकड़ा और स्कूल से लौटते वक्त उसे धर दबोंचा।

'कटी-कटी क्यों रहती हो? बचती क्यों फिर रहीं हो? ...कमरे से बाहर क्यों नहीं आती?'

'माता-पिता ने मना किया है।'

'क्या, घर में बता दिया?'

'बता दिया होता, तो पिता जी तुम्हें काट न डालते?'

'मोची की इतनी हिम्मत! ये देखा है?' उसने, अपना तंमचा लहराया। एक ठायं और सब कुछ समाप्त। ' वह मन ही मन सिहर उठी।

'अकेले, कब मिलोगी?'

'नहीं मिलना है। कभी नहीं मिलना है।'

'तो फिर ठीक है, शाम को घर घुस आऊॅंगा और घर में उस दिन की बात बताऊॅंगा कि कैसे मटक के अपनी इच्छा से सब काम करवा लिया। बहुत सीधी समझते है तुम्हें सब?'

'नहीं ऐसा मत करना, खून खराबा हो जायेगा।' वह भीतर तक कॉंप गई थी। दद्दा न उसे छोडेंगे न महेश को। हत्याकांड हो जायेगा और बदनामी सर चढकर बोलेगी। वह क्या मुॅंह दिखायेगी। मरकर भी उसकी बदनामी नहीं जायेगी। वह हाथ छुड़़ाकर जल्दी-जल्दी घर को चल देती है। महेश भी अब कुछ नहीं टोकता है। उसने कीर्ति पर ठॅूस-ठूॅंस कर डर और आतंक भर दिया था।

चुहिया को पन्द्रह, बीस पच्चीस दिनों में अपने आप को अजगर को सौपना ही पड़ता था, सम्भावित हत्याकांड से बचने के लिए. इसके लिए उसे स्कूल बंक करना पड़ता था। कभी सिनेमा ले जाता था। कभी पार्क का कोना। या कभी सड़े से होटल में। जब जैसी उसकी इच्छा होती थी, नोचने घसोटने या निगलने के लिए.

स्कूल बंक करना छुपा न रह सका। उसकी सहेलियों ने ही चुगली कर दी और महेश के साथ सम्बन्धों का खुलासा मोहल्ले से गुजरता हुआ घर पहुॅंचने लगा था और रही-सही कसर उसके भाई दीपक ने आकर पक्की कर दी। उसने पता नहीं कहॉं, उन दोनों को देख लिया था। पहली बार पिता और भाई एकमत हुये थे और मॉं की औकात ही क्या थी विरोध की। मगर वह भी सहमत थी। उसका स्कूल बंद करवां दिया गया और वह दो कमरे के दड़बे में कैंद कर दी गई थी।

कीर्ति दड़बे में बंद तड़फ रही थी, घुट रही थी। उसे सिर्फ़ एक चिंता थी कि उसका हाईस्कूल का फाइनल इक्जाम किसी तरह से हो जायें। इक्जाम के लिए स्कूल जाना ही पड़ेगा। क्या तब तक ठीक हो पायेगा और वह निकल पायेगी। सब कुछ अनिश्चित था। उसे पढ़ाई का बहुत शौक था, परन्तु और पढ़ाई क्या हाईस्कूल होना मुश्किल लग रहा था। वह कई बार अम्मा और दद्दा से कह चुकी थी, परन्तु उसकी सुनी अनसुनी हो रही थी। इधर महेश की निगरानी ढीली पड़ चुकी थी। एक दिन में एक आध बार ही आता था और उसके दडबे के आस-पास मडराना भी कम हो गया था। उसे उम्मीद हो रही थी कि कम से कम उसके इक्जाम में शायद अवरोध न पड़े।

दोपहर के तीन बज रहे थे, वह दुकान में बैठी अपनी पढ़ाई कर रही थी। दद्दा अपने काम में व्यस्त थे। पढाई में ध्यान कम था वह सड़क की तरफ देख रही थी। सांेच रही थी क्या वह अब स्वछंद हो पायेगी? क्या वह फिर पढ़ सकेगी? परन्तु निराशा इस कदर चिपक गई थी कि स्कूल तो अब सपने में भी नहीं आता था। आती थी वह भयावह काली रात और तरह-तरह के भूत-परेत और राक्षस। या सर्प दंश से तड़पती उसकी लाश।

अचानक उसकी नजर सामने स्थिर हो गयी। राक्षस को पुलिस पकड़ के लिए जा रही थी। उसकी नजरें टकरायी और महेश ने नजरें झुका ली थी। वह पुलकित हो उठी थी। उसे लगा कि उसकी आजादी आ गयी है। उसी दिन दीपक भाई आया था। उसने बताया कि महेश शर्मा ने धनीराम का कत्ल कर दिया है और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर के जेल में डाल दिया है। धनीराम, महेश के घर के सामने ही रहता था। महेश धनीराम की पत्नी को अक्सर छेड़ता रहता था। उनकी शादी अभी छै माह पूर्व हुयी थी। महेश की उस पर बुरी नजर थी। धनीराम कई बार महेश को टोंक चुका था और पंडित जी से शिकायत भी कर चुका था। परन्तु महेश कहॉं मानने वाला था। उस दिन जब धनीराम की पत्नी मंदिर जा रही थी तो महेश ने उसे दबोच लिया और अश्लील हरकतें करने लगा, उसी बीच धनीराम पहुॅंच गया। दोनों में जमकर लड़ाई होनंे लगी। धनीराम तगड़ा पड। रहा था, उसने महेश को उठाकर पटक दिया उसकी जबरदस्त धुनाई कर दी।

महेश पिटकर भागा और लौटकर आया तो तमन्चे से धनीराम की हत्या कर दी। धनीराम के पिता की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और धनीराम की हत्या हांेने से सास और बहू चीत्कार कर उठी और हाहाकार मच गया। पुलिस आयी और महेश को पकड़ कर ले गयी। अब ज़िन्दगी भर जेल में सड़ेंगें।

इस खबर ने दद्दा मंे जवानी भर दी और कीर्ति ने राहत की सॉंस ली। दद्दा ने भाग दौड़ कर कीर्ति की शादी प्रतीक से तय कर दी। वह चाहते थे महेश जब तक छूट कर आये उससे पहले ही बेटी अपने घर चली जाये। किसी तरह उसकी हाईस्क्ूल की परीक्षा पूरी हुयी और उसके हाथ पीले कर दिये गयें। शादी के बाद जब वह अपने घर आयी तो एक सुखद समाचार यह मिला कि महेश को आजीवन कारावास की सजा हो गयी है, तो उसने पूरी तरह अपने को अजगर से आजाद पाया। अब वह आश्वस्त थी कि उसकी ज़िन्दगी में छायी काली परछाई छंट चुकी है और नयी ज़िन्दगी निर्बाध रूप से चलेगी।

कीर्ति चल-चल कर निढाल हो गयी थी और अपनी पुरानी गुजरी कहानी के चक्रव्यूह में इस कदर फंस गई थी कि उससे बाहर निकलना असम्भव लग रहा था। उसे लग रहा था कि क्या इतिहास फिर दोहराया जायेगा, शायद नये रूप में। उस पर गुजरां प्रकरण, क्या उसकी बेटी गुंजन अंगीकार करने जा रही है। नहीं, इसे रोकना ही होगा, चाहे उसे कितनी ही सख्ती क्यों न करनी पड़़े, वह पीछे नहीं हटेगी। इस मामले में वह चौधरी साहब की भी नहीं चलने देगी।

डोर बेल लगातार बज रही थी, परन्तु उसका ध्यान अपने में ही उलझा हुआ था। पप्पू कार्टून देखने में मस्त था। वैसे भी डोर बेल वही ही अटैंड करती थी चाहें वह कितनी ही व्यस्त क्यों न हो? अचानक उसकी तन्द्रा टूटी और उसे लगा कि कहीं दूर से घंटी की आवाज आ रही है, उसे समझने में देर लगी। अरे! हॉ, ये तो अपने ही घर की डोर बेल की आवाज है। उसने डोर खोला, तो देखा बाप-बेटी दोनों एक साथ थे और देर से दरवाजा खुलने की झुंझलाहट दोनों में साथ दिखार्द पड़ रही थीं। कीर्ति का दिमाग अनहोनी की आशंका से पहले ही पीड़ि़त था। उसने दोनो हाथों से गुंजन को खींचा और ताबड़तोड़ पीटना चालू कर दियाँ, पीटने के साथ-साथ उसका चीखना-चिल्लाना बदस्तूर जारी था। 'इतनी रात को आ रही हो...आवारागर्दी सवार है...किसके साथ घूम रही थीं? ... उसी विधायक के लौंडे के साथ। ...आज मैं तेरा क्रिया कर्म करके ही रहूॅगी। वह ऐसे व्यवहार कर रही थी कि जैसे हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया हो, गुंजन को पीटने का। सभी हतप्रभ रह गये थे। सबके लिये यह अप्रत्याशित, अविश्वनीय, अकल्पनीय थां। किसी तरह चौधरी साहब ने कीर्ति को गुंजन से अलग किया। परन्तु वह रो रही थी, जैसे कुछ मर गया हो।'