कमसिन उम्र को समझने का प्रयास / जयप्रकाश चौकसे
कमसिन उम्र को समझने का प्रयास
प्रकाशन तिथि : 22 फरवरी 2011
ताइवान मूल के अमेरिकन फिल्मकार एंग ली ने टाइम्स के बॉस्को डोमनिक को दिए साक्षात्कार में कहा कि भारत में फिल्म की शूटिंग करना किसी भी फिल्मकार का सपना हो सकता है। उन्होंने पुडुचेरी में यन मार्टेल के उपन्यास 'लाइफ ऑफ पीआई' पर आधारित फिल्म 'पी.आई.' की शूटिंग की है। केंद्रीय पात्र पीआई पटेल चौदह वर्ष का भारतीय हिंदू है जिस पर क्रिश्चियन और इस्लाम धर्म का प्रभाव है। वह अध्यात्म और व्यावहारिकता के बीच संतुलन तलाश रहा है। यह समस्या अनेक लोगों की हो सकती है। फिल्मकार को 'ब्रोकबैक माउंटेन' के लिए ऑस्कर मिला था। उनकी 'सेंस एंड सेंसिबिलिटी' तथा 'क्राउचिंग टाइगर, हिडन ड्रैगन' बहुत सराही गई थी।
उनकी यह बात गौरतलब है कि फिल्म निर्माण में कला और आर्थिक समीकरण का ध्यान रखना जरूरी है। भारत के श्रेष्ठतम निर्देशक सत्यजीत रे की सभी फिल्मों ने कम से कम अपनी लागत और उस पर कुछ मुनाफा अवश्य कमाया है। यह बात संजय लीला भंसाली, विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप को समझना चाहिए। सुना है कि संजय लीला भंसाली और उनके नायक को बीस-बीस करोड़ का मेहनताना 'गुजारिश' के लिए मिला है और पूरी फिल्म सत्तर करोड़ की लागत की है। यदि यही फिल्म आधे से कम दाम में बनती तो मुनाफा कमाने वाली फिल्म सिद्ध होती। जब आप जीवन और प्रेम का गीत मृत्यु के रूपक के साथ बनाना चाहते हैं (गुजारिश) तब कला और फिल्म की लागत में संतुलन बनाना जरूरी होता है। क्योंकि फिल्म अभिव्यक्ति का सबसे महंगा माध्यम है। ज्ञातव्य है कि सत्यजीत रे पूरी उम्र अपने पुराने फ्लैट में रहे परंतु आज फिल्मकार की प्राथमिकता स्वयं की सुविधाएं और लक्जरी है। फिल्म उसके लिए जीवन-मरण का मामला नहीं वरन स्वयं की समृद्धि का जरिया मात्र है। इस मामले का एक और घातक पक्ष यह है कि यह विपुल धन उनकी आवश्यकता नहीं है, वरन व्यक्तिगत अहंकार का मामला है कि अमुक फिल्मकार इतना मांगता है तो मैं उससे ज्यादा लंूगा। क्या यह विचारशैली सृजनशील लोगों की है?
इस रचना (किताब और फिल्म) के लिए भारतीय बालक पीआई पटेल को नायक क्यों बनाया गया? प्राय: आध्यात्मिकता की बात आते ही रचनाकार भारत की ओर देखते हैं, क्योंकि भारत के अतीत की कुछ इस तरह की छवि पश्चिम में लोकप्रिय रही है। यूं भी लगभग सभी धर्मों का उद्भव और विकास एशिया में ही हुआ है। भारत में वर्तमान में जितने विरोधाभास और विसंगतियां हैं, उन पर रचनाधर्मियों का ध्यान नहीं जा रहा है। यह भी अनदेखा किया जा रहा है कि महान सांस्कृतिक धरोहर के वर्तमान वारिस कितने भ्रष्ट और संस्कारहीन हैं। साहित्य और सिनेमा में विरोध का स्वर हमेशा प्रखर होता है और आज इतने विषय उपलब्ध हैं कि असंख्य रचनाओं का निर्माण हो सकता है। आज के दौर में कबीर या गालिब का लौटना और वर्तमान पर लिखना एक महान विषय हो सकता है।
एंग ली ने अपने देश ताइवान की संस्कृति से प्रेरित फिल्मों से अंतरराष्ट्रीय सिनेमा पर दस्तक दी थी और बॉक्स ऑफिस पर सफलता ने उनके लिए अवसर और बजट जुटा दिया। हमारे अनेक चर्चित फिल्मकारों के मन में भी ऐसे ही सपने हैं, परंतु विदेशी फिल्मों से प्रभावित उनकी रचनाओं ने किसी का ध्यान आकर्षित नहीं किया। जब तक आप अपने देश की मिट्टी से कच्चा माल नहीं लेते, तब तक कोई विदेशी विशेषज्ञ आपकी रचना को देखने की जहमत भी नहीं उठाएगा। वर्तमान में चर्चित फिल्मकार तो मातृभाषा में सपने भी नहीं देखना चाहते। अत्यंत साधारण सामान्य बातों को इस तरह अनदेखा कैसे किया जा सकता है, यह समझना कठिन है। इस समय भारत एक विराट अपराध कथा की तरह रील-दर-रील उजागर हो रहा है।