कम्पोस्ट / शोभना 'श्याम'
'दो सौ पॉँच...दो सौ छह... और यह दो सौ सात...पता तो यही है। ...लेकिन यह मकान तो नहीं लग रहा ।' तभी नेमप्लेट पर नजर पड़ी-ब्रजेश आहूजा 'हम्म ...यही है।'
दरअसल आठ नौ वर्ष बाद आया था मैं। इस बीच ये साधारण-सा घर न केवल सिंड्रेला कि तरह कीमती लिबास पहन चुका था, बल्कि साथ वाले दो सौ आठ नंबर को डकार कर खासा मुटिया भी गया था।
चारदीवारी के अंदर से झाँकते अशोक के छोटे-छोटे पेड़ मानों मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे।
"जब मैं पिछली बार आया था तब तुम नहीं थे।" मैंने भी जतला दिया और घंटी बजा दी। ब्रजेश जी वर्षों से समाज-सेवा के लिए समर्पित हैं। गरीबों बेसहाराओं और वंचितों के लिए तीन तो एन.जी.ओ.चलाते हैं और इनके अतिरिक्त भी कई संस्थाओं के परामर्श-मंडल में शामिल हैं। आये दिन इस पुण्य कर्म हेतु पुरुस्कृत और सम्मानित भी होते रहते हैं। आज भी मैं अपनी संस्था द्वारा दिए जा रहे सम्मान का निमंत्रण लेकर ही आया था।
गेट खुलने में ज़्यादा देर नहीं लगी। खोलने वाला अशोक के पेड़ों से पुराना था, सो उसने आदर से अंदर आने के लिए कहा। अंदर घुसते ही मकान के वैभव से थोड़ी चमत्कृत-सी आँखें इधर उधर टोहने लगीं तो बृजेश जी अपनी बगीची के एक कोने में खड़े नज़र आये।
शाम के छह बजे थे। ए.सी. की ठंडी हवा खाने के अरमान को जब्त करते हुए मैंने अभिवादन किया और पसीना पोंछते हुए यह बोल ही दिया, "ब्रजेश जी! इतनी गर्मी में यहाँ बाहर?"
"अरे! आओ-आओ मित्र! हम तो सेवक ठहरे! हमारे लिए क्या गर्मी वर्मी, वैसे कम्पोस्ट बना रहे हैं। सरकार तो अब जागी है, हम तो कब से पर्यावरण के लिए प्रयासरत हैं।" उन्होंने सगर्व कहते हुए अपने सामने खोदे गए लगभग तीन फ़ीट गहरे और ढाई फ़ीट चौड़े एक गड्ढे की ओर संकेत किया। तभी घर के अंदर से उनका बावर्ची एक थाली में सब्जियों और फलों के ढेर सारे छिलके लाया और उस गड्ढे में डाल कर चला गया। तब तक माली बगीची से बटोरी सूखी पत्तियाँ ले आया था। उसने वह पत्तियाँ उस गड्ढे में डाली और फिर उनके इशारे पर उस पर मिट्टी की एक मोटी परत लगा दी।
"ये जैविक कचरा भी न, बड़े काम का होता हैं। ये जो लहलहाती बगिया देख रहे हो न, ये इसी से बनी कम्पोस्ट का कमाल हैं।"
तभी, उनके सेकेट्री ने एन.जी.ओ के किसी विदेशी दानकर्ता के फोन पर होने की सूचना दे फोन उनके हाथों में पकड़ा दिया। वह फोन पर हे, हे कर हँस रहे थे और मेरी नज़र बगिया से हटकर अब उनकी आलीशान कोठी पर टिक गयी थी।