करण जौहर का अपना संसार / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
करण जौहर का अपना संसार
प्रकाशन तिथि :21 मार्च 2016


करण जौहर की 'कपूर एंड सन्स' उबाऊ फिल्म है, जिसमें एकमात्र खूबी ऋषि कपूर का 90 वर्षीय दादा की भूमिका में जीवंत अभिनय है। अभिनय संसार में ऋषि कपूर मिट्‌टी पकड़ पहलवान है और अखाड़े की शब्दावली से अपरिचित लोगों के लिए यह बताना आवश्यक है कि मिट्‌टी पकड़ पहलवान गिर सकता है परंतु उसे चित करके पराजित नहीं किया जा सकता। यही उसके दम-खम का इम्तहान है। अपने 45 वर्ष की अभिनय यात्रा में उसने अनेक अविस्मरणीय भूमिकाएं अभिनीत की हैं अौर सफल नायक से चरित्र अभिनेता के परिवर्तन को भी उसने बखूबी जिया है। अमिताभ बच्चन के अतिरिक्त कोई और उदाहरण इतनी लंबी और विविध पारी का नहीं है। 'लंबूजी' के जूते, ठिंग्गूजी के पैर में फिट बैठते हैं।

ज्ञातव्य है कि डेविड धवन की फिल्म में अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर को 'लंबूजी' और 'ठिंग्गूजी' कहकर संबोधित किया गया था। अपनी जवानी में कुशल अभिनेता रहे कलाकार ही बुढ़ापे में अपनी जमीन पकड़े रहते हैं। यह बात कलाकारों पर लागू होती है और सितारे इसमें शामिल नहीं किए जा सकते, क्योंकि हर सितारा अच्छा अभिनेता नहीं रहा है। किसी दौर में विश्वजीत, प्रदीप कुमार और भारत भूषण भी सितारे रहे हैं परंतु औसत कलाकार से ज्यादा उन्हें कुछ नहीं कहा जा सकता है। राजेंद्र कुमार ने एक दौर में इतनी सफल फिल्में अभिनीत की कि वे 'जुबली कुमार' कहे जाते थे परंतु उन्हें कभी कुशल अभिनेता नहीं माना गया। इस मामले में संजीव कुमार का कोई जवाब नहीं। उन्होंने भरी जवानी में भी वृद्ध की भूमिकाएं स्वीकार कीं और अपने कॅरिअर में कभी कमजोर नहीं पड़े। रमेश सिप्पी की 'शोले' गब्बर और ठाकुर की कथा है और अमिताभ बच्चन व धर्मेंद्र को उस फिल्म के चरित्र अभिनेता माना जाना चाहिए।

इस फिल्म में दुविधा यह है कि आलिया भट्ट के दृश्य कम हैं या उसने वस्त्र कम पहने हैं। करण जौहर ने अपने रुझान के विपरीत अपनी फिल्म के नायक का उघड़ा शरीर इस फिल्म में नहीं दिखाया। संभवत: वे अपनी खोज के प्रति काफी उदार हैं। वे अपने 'स्टुडेंट' को कभी पास होकर कॉलेज से बाहर नहीं भेजना चाहते। बेवजह ही एक गैर मौज़ू शेर याद आ रहा है, 'मकतबे इश्क का इक ढंग निराला देखा, सबक जिसको याद हुआ उसे छुट्‌टी न मिली।' करण जौहर की फिल्मों के पात्र और उनके परिवेश पाश्चात्य हैं और इसे भी आलोचना का विषय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि हर व्यक्ति को पूरी स्वतंत्रता है और सफल फिल्मकार होने के कारण उन्हें इसकी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है परंतु पात्र और परिवेश जीवंत हो, उसमें धड़कन हो तो पूर्व बनाम पश्चिम इस मामले में मुद्‌दा ही नहीं है। उनके पात्र कमोबेश कार्डबोर्ड की तरह सपाट होते हैं। वे हाड़मांस के मनुष्य लगते ही नहीं। फिल्म के एक दृश्य में मंदाकिनी का कार्ड-बोर्ड दिखाया गया है, क्योंकि परिवार के मुखिया की वह मनपसंद कलाकार है और उन्हें कला से अधिक रुचि मंदाकिनी के जिस्म में है। इस तरह के कुछ प्रसंग है, जिनमें सोते हुए दर्शक जाग जाते हैं और सिनेमा हाल की नीरवता से मुक्ति मिलती है।

यह भी सच है कि करण जौहर अपनी फिल्म लिखने के लिए विदेश जाते हैं। उनकी विदेश यात्राओं की संख्या एक आम आदमी के बाजार जाने से अधिक हैं और इस अर्थ में करण जौहर अनिवासी भारतीय हैं। हमारा संबंध सिर्फ इस बात से है कि इतने वर्षोें से सक्रिय होने के बावजूद वे स्वयं अभी तक फिल्म मदरसे की प्राथमिक कक्षा के एवरग्रीन छात्र ही बने हुए हैं। आश्चर्य यह है कि उनकी कंपनी को भारत की अग्रणी फिल्म कंपनी भी माना जाता है। दरअसल, वे इतने मिलनसार है कि पूरा फिल्म उद्योग ही उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानता है, चाहे वे खान हो, कपूर या कुमार हो। इस लचीलेपन की प्रशंसा करनी होगी परंतु वे कब तक फिल्म माध्यम के छात्र बने रहेंगे और उनकी फिल्में सतही ही रहेंगी।

उन्हें सितारे और साधन उपलब्ध हैं परंतु क्या उन्होंने इसका सार्थक उपयोग किया है? करण जौहर शाहरुख खान, सलमान खान से लेकर रणवीर कपूर और युवा करण मल्होत्रा के साथ तक फिल्में बना चुके हैं और बना भी रहे हैं परंतु जाने कब बतौर फिल्मकार वे वयस्क बनेंगे। यह भी करण जौहर का कमाल है कि वे अपनी फिल्मी किशोर अवस्था से मुक्त ही नहीं होा चाहते। वे सदाबहार किशोर ही रहना चाहते हैं। उनकी फिल्मों में प्रस्तुत पात्र व परिवेश उन्हें भारत का अपना अजनबी बनाता है और वे इस अजनबियत से प्रसन्न है। इससे किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता। जब भी भारत में समलैंगिकता को सामाजिक मान्यता प्राप्त होगी, तो करण जौहर इस विधा के पुरोधा माने जाएंगे।