करोड़ के मुक़दमे में एक पैसे का भुगतान / जयप्रकाश चौकसे

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करोड़ के मुक़दमे में एक पैसे का भुगतान
प्रकाशन तिथि : 15 अक्तूबर 2012

प्रकाश झा की आगामी फिल्म 'चक्रव्यूह' के गीत 'महंगाई मार गई' में तीन शिखर उद्योग घरानों के नाम लिए गए हैं कि लूट का सारा धन इनके उपक्रमों में गया है। दरअसल छोटे शहरों और कस्बों के लोगों की बोलचाल की भाषा में प्राय: इन घरानों का नाम लिया जाता है कि क्या तू अंबानी या बिड़ला हो गया है। कस्बाई मुहावरे अजीबोगरीब ढंग से बनते हैं, मसलन छठे दशक में कस्बों में कहा जाता था कि 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है', अर्थात साफ-सुथरे और ईमानदार वही हैं, जिन्हें अवसर नहीं मिला। उनका आचरण गांधी की तरह पवित्र इसलिए है कि उनमें भ्रष्ट होने का साहस नहीं है। सच तो यह है कि गांधीजी ने कभी कोई काम मजबूरी या दबाव में नहीं किया। पारदर्शिता उनका आवरण नहीं, उनका सत्य के प्रति आग्रह था। ज्ञातव्य है यह मुहावरा उस कालखंड में प्रचलित हुआ, जब देश ने गांधीजी का दिखाया हुआ मार्ग छोड़ दिया था और राष्ट्रीय संपत्ति की लूट स्थापित हो चुकी थी। आजादी की जंग में औद्योगिक घरानों ने चंदा दिया और साथ ही ब्रिटिश लोगों को भी धन देते रहे। आजादी के बाद दिए गए चंदे की वसूली निर्ममता से की गई। आज भी सारे औद्योगिक घराने सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को धन देते हैं और उनकी संसद में मौजूदा शक्ति तथा भविष्य में शक्ति प्राप्त करने का निजी आकलन करके धन की मात्रा तय करते हैं। कुछ दलों को विदेश से भी धन प्राप्त होता है। दरअसल असली विरोध इन घरानों और एकत्रित धन के ठियों का किया जाना चाहिए, परंतु इस देश की सारी संस्थाएं जिसमें विरोध भी शामिल है, उन्हीं ठियों और घरानों से शासित है।

'चक्रव्यूह' के गीत पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश असफल हो गई। सारे विश्व के शिखर लोकप्रिय घरानों की नींव में ही भ्रष्टाचार शामिल है। मारियो पुजो के उपन्यास 'गॉडफादर' के प्रारंभ में ही कहा गया है कि सारे आर्थिक साम्राज्य अपराध के दम पर खड़े किए जाते हैं। यह पूंजीवादी संरचना का अनिवार्य हिस्सा है। संगठित अपराध संस्थाओं की कार्यप्रणाली और औद्योगिक घरानों की कार्यप्रणाली में कुछ समानता है, परंतु वे कानून और न्याय-व्यवस्था के दो छोरों पर खड़े हैं। विशाल धार्मिक संगठन और मठों की कार्यप्रणाली भी इनके समान होती है। दरअसल जहां भी धन का अंबार है, वहां नियम का अनादर होता है। दरअसल सारे विरोध भी सत्ता का ठिये बनते ही उनकी तरह हो जाते हैं, जिनका विरोध कर रहे थे। अश्विनी यार्डी की फिल्म 'ओह माय गॉड' में श्रीकृष्ण परेश रावल से कहते हैं कि धर्म के नाम पर आडंबर और व्यापार का तुमने विरोध किया और अब तुमको ही आस्था की नई दुकान बना दिया जाएगा। तुम्हारे लिए तैयार होने वाले स्थानों पर लूट के माहिर पहुंच चुके हैं।

लिओन यूरिस की किताब 'क्यूबी सेवन' में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लंदन में एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के खिलाफ आरोप लगाया जाता है कि नाजी यातना शिविर में अमानवीय शल्य क्रिया इसी डॉक्टर ने की है। डॉक्टर करोड़ पौंड की मानहानि का मुकदमा आरोप ठोंकने वाले पर लगा देता है और मुकदमे में अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, परंतु घटना से जुड़े अधिकांश लोग मर चुके हैं और याददाश्त को कभी पूरा साक्ष्य नहीं मानते। जज जान जाता है कि इसी दुष्ट डॉक्टर ने अमानवीय कार्य किए हैं, परंतु न्याय के मानदंड पर साक्ष्य ठोस नहीं हैं, अत: विद्वान जज फैसला देता है कि आरोप लगाने वाला पत्रकार अपनी बात सिद्ध नहीं कर पाया और उसे एक पेनी का भुगतान डॉक्टर को करना होगा अर्थात एक करोड़ की मानहानि मुकदमे में एक पैसा देने का आदेश है। कोर्ट की निगाह में डॉक्टर की इज्जत एक पैसे की है।

भारत में दहेज की कुप्रथा के खिलाफ सख्त नियम की चक्की अत्यंत मोटा पीसती है और वर के निरपराध रिश्तेदारों को भी सजा दी जाती है। कोई भला आदमी अपने मामा के गरीब बेटे को नौकरी देता है और उसकी पत्नी आत्महत्या करती है तो नौकरी देने वाले व्यक्ति को कैसे दंडित किया जा सकता है। इसी तरह लोकपाल बिल े पास होने पर करोड़ों लोग दंडित होंगे तथा निरपराध भी फंसेंगे, जैसे फ्रांस की क्रांति के बाद लगभग 40 हजार लोगों की गर्दनें काट दी गईं और कुछ वर्ष बाद सत्य सामने आया कि उसमें ३८ हजार निर्दोष थे। संपूर्ण सत्य उजागर नहीं होता और अदालती अखाड़े में गलत फैसले भी गैरइरादतन आ जाते हैं। अत: भ्रष्टाचार से निपटने का एक ही तरीका है कि जीवन मूल्य स्थापित हों और सांस्कृतिक शून्य को भरा जाए।