कर्ज़ / प्रतिभा सक्सेना

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'उस दिन मैं मर गया होता तो आज को तुम विधवा होतीं। ये बच्चे अनाथ...'

'बस, अब कुछ मत कहना', हाथ से बरजते हुये रमना बीच में बोल पड़ी, ’ ये तो अपनी-अपनी किस्मत है। ’

'किस्मत? अरे, मेरी मौत उसने अपने सिर ले ली। अस्पताल में कितनी पीड़ा झेल कर मरा है वह। ’

' खर्चा तो सारा तुम करते रहे!’

' क्या पैसा ही सब कुछ होता है? कितनी भाग-दौड़, दिनरात की सेवा उन लोगों ने की! मानसिक कष्ट उन लोगों ने झेला और ज़िन्दगी भर झेलेंगे। अरे, मैं तो आधा हिस्सा ही देता हूँ। अगर तुम पर यह मुसीबत पड़ी होती तो। । कैसे क्या होता सोच कर ही दहल जाता हूँ?’

' बस, चुप करो! अशुभ बातें मुँह से मत निकालो। ’

' तुम्हें सुनना भी सहन नहीं होता, और वह जो झेल रही है, मेरी वजह से!’

' किसी की वजह से कोई नहीं मरता। जिसकी लिखी होती है उसी की आती है। ’

' यह तुम्हें लगता है न! उसके साथ कैसे क्या हुआ मुझे मालूम है। मैंने जो देखा है, जो बीती है मुझ पर वह तुम नहीं जानतीं और जान सकती भी नहीं। तुम वहाँ होतीं तब जानतीं। मैं जो कर रहा हूँ वह कितने साल? उसके लड़के कमाने लगेगे तब क्या वह कुछ लेंगे हमसे १'

प्रकाश के मुँह से अनायास निकलता चला जा रहा था,

' वह तो अभी भी कहती है -भाई साहब दूकान डलवा दीजिये, लड़का बैठेगा पर मैं सम्हालूँगी। आपने बहुत किया पर आपकी अपनी गिरस्थी है। मैं बहिन के सामने सिर नहीं उठा पाती। ’

' तो दुकान डालने में क्या हर्ज?’

'उसके सपने थे एक बेटे को डाक्टर एक को वकील बनायेगा, मैं कम से कम उन्हें पढ़ने-लिखने में मदद कर सकता हूँ। आगे वो जो करें वह उनकी किस्मत! उस दुखी विधवा को देख मुझे तुम्हारा ध्यान आता है, वह दुख मुझसे सहन नहीं होता। ’

'मत कहो। आगे से कभी मेरे लिये ये शब्द मत बोलना। ’

'उन बच्चों के चेहरे देखे हैं तुमने? कितने खुश थे पहले। अब कैसे हो गये हैं -क्यों? कभी समझने की कोशिश की तुमने? नहीं न? अपने बच्चे होते इस हालत मैं तब। । ?’

कानों पर हाथ रख लिये रमना ने, चीख उठी, ’ बस करो! नहीं सुना जाता मुझसे। मेरे बच्चों के लिये मत कहो ऐसे!’

'ओह, सुन कर मन इतना इतना खराब हो जाता है। अगर। खैर जाने दो... और वह -जो दूसरे का दुर्भाग्य जिन्दगी भर झेलेगी? उसका कर्ज़दार तो मैं हूँ। ’

रमना सन्न बैठी है।

'तुमने वह नहीं देखा जो मैंने देखा है। अपनी मौत देखी मैंने, तुम्हें। बच्चों को कैसै-कैसे देखा- क्या-क्या सुना। कैसी गुज़री मेरे ऊपर, तुम कुछ नहीं जानतीं। ’

अवसन्न-सी रमना को देख प्रकाश चुप हो गया।

अब भी, चन्दू की मृत्यु की चर्चा सुनता है, तो सिर घूमने लगता है - कानों में आवाज़ें आने लगती हैं।

तमाम लोग इकट्ठा हैं। हाँ, पुलिसवाले, अखबारवाले और जाने कौन-कौन। खोज-बीन चल रही है।

लोग कह रहे हैं’प्रकाश वर्मा मर गया... चेहर पहचान में नहीं आ रहा... ’च्च्चच् चच्च' हो रही हं, उधर देखो पिछली सीटवाला आदमी हिल रहा है... लगता है होश आ गया... क्या नाम है? ये जाकेट में पर्स और कुछ कागज़-पत्तर निकले हैं... हाँ, चन्द्रभान है... चन्द्रभान होश में आ गया है... और प्रकाश? बुरी तरह घायल -शरीर की दशा देखो ज़रा, उफ़ देखा नहीं जात... पता नहीं बचेगा या नहीं, होश ही नहीं है... जाकेट में रखे पर्स से और कागजों से पहचान हो गई है।

' प्रकाश' नाम सुनकर कुछ-कुछ होने लगता है, अंदर कुछ हिल जाता है।

क्षत-विक्षत, बेहोश और मृत! कितने नाम लिये जा रहे हैं पर एक यही नाम जाकर बार-बार मन से टकराता है, कानों में बार-बार गूँजता है। ’ प्रकाश', ’ चन्द्रभान’ कितने जाने-पहचाने नाम। कौन हैं ये? मैं कौन हूँ?

सब कह रहे हैं मैं चन्द्रभान हूँ -हो सकता हैं। भारी चोट लगी है सिर पर अभी तक चक्कर खा रहा है। कैसा अजीब अजीब लग रहा है। दिमाग़ मे कुछ आता है, फिर एकदम गायब हो जाता है।

बोलने की कोशिश करता है गले में आवाज़ नहीं, जीभ हिलती नहीं।

आवाज़ें ही आवाज़ें। बस सुन रहा है।

'हाँ होश आ गया -चन्द्रभान को। । बस में उछल गया ऊपर सिर टकराया था, पाँव पर कुछ भारी चीज़ गिरी है। उँगली से खून बह रहा है बिल्कुल पिच गई। ’

वह अपना पाँव देखने की, हिलाने की कोशिश करता है। आँखें खुलती नहीं, शरीर पर वश नहीं।

सारे इन्द्रिय-बोध कुंठित हो गये हैं, शरीर विल्कुल सुन्न। कुछ जानने -समझने में सामर्थ्य चुक गई-सी!

आज भी प्रकाश की नज़र अपने पाँव पर जाती है। उसे भ्रम होने लगता है -यह उँगली किसकी है -पिची हुई उँगली चन्द्र भान की थी? और फिर मैं। ?

याद कर उसी मनस्थित में पहुँच जाता है। भ्रम होने लगता मैं कौन हूँ? प्रकाश? चन्द्रभान?

सिर घूमने लगता है सब कुछ भूल जाता है सोचने -समझने की क्षमता ग़ायब हो जाती है। मैं कौन हूँ? पहचानने की कोशिश करता है। चारों ओर देखता है। कुछ अपना नहीं लगता। घर, पत्नी? ! ध्यान से देखता है सबको। सब अपरिचित-से।

उस काल उसके भीतर का’ मैं’ कुछ नहीं रहता, कहीं नहीं रहता। जैसे विलीन हो गया हो - न वर्तमान, न अतीत -कहाँ होता है कुछ पता नहीं।

समय का कौन सा विभाग है जो सब निगल लेता है। जहाँ जाकर बार-बार फँस जाता है प्रकाश?

♦♦ • ♦♦

बड़ी आसानी से टिकट मिल गया था उस दिन।

बस भरने में भी अधिक समय नहीं लगा।

अभी तो घाटी में काफ़ी दूर चलेगी। पहाड़ों के पास आते ही ठंडक बढ़ने लगेगी।

थोड़ी चाय अभी थर्मस में है। पी ली जाय। प्रकाश उठा और टँगा हुआ थर्मस उतारने पीछे घूमा, बस के झटकों में बैलेन्स बना रहा था कि पीछे से आवाज़ आई -

'अरे, प्रकाश! तुम भी चल रहे हो?’

पीछे घूम कर देखा उसने -

'वाह चन्दू, तुम कहाँ से टपक पड़े?’

उसका बचपन का दोस्त चन्द्रभान। चलो, रास्ता अच्छा कटेगा।

चन्दू उठ कर चला आया।

'तुम कब आये? मैंने देखा नहीं। ’

' बस भरनेवाली थी, वो तो ये कहो सीट मिल गई। पीछे ही सही, बैठने को तो है। ’

प्रकाश की सीट पर दोनों आगे पीछे होकर बैठ गये।

' कितनी अच्छी जगह पाये हो। तीनों तरफ का व्यू बस तुम्हारा ही है।

प्रकाश को आगे ड्राइवर के साइड में सीट मिली थी। सामने का पूरा व्यू। साइड के शीशे भी अपने।

पहाड़ों पर पहली बार जा रहा था चन्दू। दृष्य देखने का लोभ प्रकाश की सीट पर खींच लाया था।

' इधऱ बैठना है?’

' नेकी और पूछपूछ। ’

मेरा तो महीने में एक चक्कर लग ही जाता है इसलिये कुछ नया नहीं लगता। कल रात जगना पड़ा, आँखें बंद हुई जा रही हैं।

' तो तू चला जा मेरी सीट पे। आराम से सोइयो। ’

' ठीक है। तू चाहे तो खुशी से बैठ यहाँ। मैं उधऱ सो लूँगा। पहली बार जा रहे हो ऊपर?’

'हाँ, नीचे तो हमेशा घूमता रहा हूँ। ऊपर जाने का मौका नहीं लगा। एक बार हो आऊँ फिर बीवी-बच्चों को भी घुमा दूँगा। ’

' तो मैं जा रहा हूँ तुम्हारी जगह। पर इधर वो शीशे की सँध से बला की ठंडी हवा आयेगी फिर मत कहना कि। । । '

'नहीं कहूँगा, नहीं कहूँगा तेरी सीट की बला मेरे सिर! बस और कुछ?


पहाड़ों की परिक्रमा करती बस आगे बढने लगी थी। हरियाली से भरी घाटियाँ और ढलानो से ऊपर उठते पेड़, जिन पर लिपटी लतायें कहीं कहीं माला जैसी लटक रही थीं। कहीं ऊपर से गिरते झरने, कहीँ छोटे छोटे गाँव।

सामने की हवा खिड़की की सँधों से आ रही थी। प्रकाश को झुरझुरी हो आई।

' सामने बैठोगे तो रात पड़ते ही ठिठुर जाओगे। ’

'जाकेट पहन लूँगा। तुम फ़िकर मत करो। ’

पहाड़ों पर पहली बार जा रहा था वह। दृष्य देखने का लोभ था प्रकाश की सीट से सब कुछ दखाई देता है न।

प्रकाश उठ कर चल दिया। फिर घूम कर बोला

अरे, मेरी जाकेट सीट पर रह गई देखना, मोटी है पहन लेना नहीं तो कुल्फ़ी जम जायेगी। ’

'कोई बात नहीं मेरी भी उधर है, ऐसे ही उठ कर चला आया था। पहन लेना जरूरत हो तो। ’

'ठीक है, मुझे क्या? फिर जैसा हो तुम्हीं निपटना, मुझे दोष मत देना?

'कह दिया न तेरी बला मेरे सिर अब तू जा, निश्चिंत सो। !’

और मेरी बला उसने अपने सिर ले ली। उसे क्या पता मेरी सीट पर क्या बला टूटने वाली है। उसने तो भावी जीवन के कितने अरमान सँजोये थे। सब बताता था मुझे। वे सारी बातें मुझे याद हैं। पर अचानक सब बदल गया। मेरी जगह वह चला गया।

♦♦ • ♦♦

बड़ा मुश्किल लगता है, रमना को। कभी-कभी तो असहनीय हो उठता है। प्रकाश से नहीं कहे तो किससे कहे?

रहा नहीं गया तो बोली -

'जाने कैसी छाया-सी छाई गई है हमारे घर पर। ’

'छाया ही छाई है न? वज्रपात तो नहीं हुआ? किस पर गिरनी थी और किसने झेल ली। जिस पर गिरी उस की सोचो। ’

क्यों कहते हैं ऐसा?

क्यों कहता है प्रकाश?

वज्रपात हुआ था उस दिन। हुआ था उसी जगह... पर किस टूटना था किस पर टूट पड़ा...

चन्दू ने कहा था -

'तेरी बला मेरे सिर। जा, निश्चिंत सो जा। ’

और वह निश्चिन्त सो गया था।

चन्दू की सीट कोज़ी लगी थी, सामने वाली ठण्डी हवा की सिहरन यहाँ नहीं थी।

पहाड़ों पर बस चक्कर खाती घूम-घूम कर चल रही थी। कभी खाई इधऱ, पहाड़ उधऱ, कभी पहाड़ इधऱ खाई उधऱ।

नीचे घरघराती बहती नदियां काफ़ी दूर साथ चल कर ओझल हो जाती थीं। जलधार धूप में चमकती कभी पथरीली सतह पर फुहारे बिखेरती।

चन्दू कभी सामने शीशे से देखता फिर सिर घुमा कर साइड से दृष्य को पकड़ने की कोशिश करता।

कितने सुन्दर दृष्य हैं अबकी बार बसन्ती और बच्चों को पहाड़ की सैर करा दूँगा, ’ चन्दू बोला था।

जाने कब प्रकाश की आँख लग गई।

पता नहीं कितनी देर सोया। अचानक बड़े ज़ोर के झटके से उछल गया। प्रकाश का सिर छत से जा टकराया। लोग ऊपर-नीचे झोंके खाते चिल्ला रहे थे। ऊपर रखा सामान लोगों के ऊपर आ-आ कर गिर रहा था। चारों ओर -चीख पुकार। प्रकाश गिरा तो अपने को सम्हाल नहीं पाया, एकदम वहीं गिर पड़ा। एक हाथ इधर दूसरा नीचे दबा, पाँव बीच के रास्ते में फैले हुये। फिर क्या हुआ कुछ नहीं मालूम। चेत आया तो सीट पर टिका था। किसी ने साध कर सीट पर कर दिया था। ’ क्या हुआ' -प्रकाश के मुँह से निकला?

धीरे-धीरे समझ पाया। उनकी बस की टक्कर हो गई थी, दूसरी बस तो झटका खाकर नीचे खड्ड में जा गिरी।

ज़रा स्थिर हुआ तो देखा चारों ओर ख़ून ही ख़ून। साइड का शीशा टूट कर यात्रियों के खुले अंगों हाथों और चेहरों को घायल कर गया था। कुछ लोग बेहोश पड़े थे चीखें ओर कराहें चारों ओर गूँज रही थीं।

चन्दू कहाँ है?

कुछ पता नहीं। छत की टक्कर से सिर में घुमनी आ रही हैं। पाँवों पर कोई भारी चीज़ ऊपर से आ गिरी थी कितना दर्द। पाँव! हिलाते बन नहीं पाता कहीं हड्डी तो नहीं टूट गई?

पता नहीं चन्दू कैसा है

इतनी बुरी टक्कर थी! आगे की सीटों की हालत सबसे खराब है। पता नहीं कितने बचेंगे! इधर ये 6-7 बुरी तरह घायल हैं। कुछ थोड़ा होश में हैं। बाकी तो। । '

आगे के कुछ लोग बुरी तरह घायल, उनका बचना मुश्किल है। इस तरफ़ पाँच -छः तो गये!

और चन्दू आगे बैठा था।

चन्दू को पुकारना चाहता है। मुँह से आवाज़ नहीं निकलती। सिर घूम रहा है।

कैसा-कैसा लग रहा है। चन्दू का बार-बार ध्यान आ रहा है। कैसा है वह?

जो लोग सामने बैठे थे, उनके बारे में जानना चाहता है। पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही। बार बार सुन रहा है आगेवालों को। सबसे ज़्यादा चोट आई -बहुत बुरा हुआ उनके साथ।

अब भी इस कटी उँगली को देखते ही प्रकाश को याद आ जाता है। चंदू की उँगली है सब कह रहे थे, और जो शरीर खून से लथपथ निश्चेष्ट पड़ा था वह मेरा। कभी-कभी सचमुच लगने लगता है प्रकाश मर गया था उस दिन। यह जो ज़िन्दा है चन्द्रभान है, चन्दू!

उसे लगता है वह न इधर में है न उधर में।

♦♦ • ♦♦

विवाह के बाद चन्दू मिलता था तो भावी जीवन की योजनायें बताता था। उसकी शादी प्रकाश से दो साल पहले हुई थी। दो बच्चे हो गये थे -प्रकाश के बच्चों से बड़े।

साधारण क्लर्क की चाहना थी एक डाक्टर बने, और दूसरा बेटा इंजीनियर, सी। ए। या औऱ कुछ। कोई बढ़िया लाइन। सब को पढा-लिखा कर। । । औरे क्या क्या। कहता था? । । एकदम उतर गया उसके दिमाग से। क्या सोच रहा था याद नहीं आ रहा।

सिर मे ऐसी घुमनी आई, सब ओझल हो गया।

बार बार सुनाई देता है प्रकाश वर्मा की मृत्यु हो गई। जाकेट की जेब से पर्स निकला उसी से पहचान हो रही है। पत्नी और बच्चों की फ़ोटो देख कर लोग’चच्च्चच' कर रहे हैं। यह स्त्री विधवा होगई, बेचारी को पता भी नहीं। बच्चे अनाथ हो गये। अरे, कोई घर पर ख़बर भेजो। अब तो लाश ही पहुँचेगी। उसे अपनी विधवा पत्नी और अनाथ बच्चे दिखाई देने लगते हैं ये सब क्या कह रहे हैं। प्रकाश मर गया, ओफ़ सिर घूम रहा है। मैं मर गया हूँ। मरने के बाद ऐसा ही लगता है क्या? बहता खून शीशों से बिंधा घायल विरूपित चेहरा, यह मैं हूँ?

सब कह रहे हैं प्रकाश का शरीर है - कुछ बचा ही नहीं इसमें।

कितने लोग इकट्ठा हैं - सब कह रहे हैं प्रकाश मर गया। मैं कौन हूँ? सब धुँधला गया है, कुछ भी भान नहीं। ! प्रकाश? यह नाम बड़ा परिचित है। नाम तो कई लिये जा रहे हैं इस नाम से मैं क्यों चौंक रहा हूँ। बार- बार क्या हो रहा है मुझे? जैसे आँखों के सामने से सब कुछ ग़ायब, अजीब सी सनसनी। मरने पर ऐसा ही होता है?

कानों में आवाज आ रही है - चंद्रभान के सिर में चोट लगी है। हाँ होश में है -थोड़ा-थोड़ा।

’चंद्रभान? चन्दू! लोग उसके पास आ गये हैं। नाक के आगे हाथ लगा कर देख रहे है साँस चल रही है.. यह तो मैं हूँ.. मैं.. मेरा नाम?’, ये लोग चंद्रभान कह रहे हैं।

औह सिर घूम रहा है। कौन हूँ मैं, कहाँ हूँ?

जो चंद्रभान है, ज़िन्दा है। प्रकाश मर गया

लेकिन मैं? मैं कौन - सोचते ही सब गड्मड्ड होने लगता है, सिर के अन्दर कैसे झटके से उठते हैं। चारों तरफ़ भनभन की आवाज़ सुनाई देने लगती है। मैं जिन्दा हूँ या मर गया? कुछ समझ में नहीं आता। रोशनी है, अँधेरा है क्या है। क्या हो रहा है सब घूम रहा है? अरे, मेरे साथ सब घूम रहा है। ये चक्कर छोटे, और छोटे, और छोटे होते जा रहे हैं, जैसे बहुत अंदर से कुछ खिंचा जा रहा है। झकझोरा देती चेतनायें क्षीण होती जा रही हैं, साथ छोड़ती जा रही हैं। पता नहीं क्या हो रहा है - बेबस, अकेला, निरुपाय!

♦♦ • ♦♦

वह उदास रहता है -हर समय कुछ सोचता-सा। -- मेरी बला उसने अपने सिर ले ली। उस बेचारे को भान भी न होगा कि इस सीट पर क्या बला टूटने वाली है। अन्दाज़ तो मुझे भी नहीं था पर जो हुआ वह मेरे लिये था। भावी जीवन के कितने अरमान सँजोये थे उसने। शादी के शुरू के कुछ साल तो पत्नी ससुराल में रही थी। दो बहनों की शादी होनी थी। चन्दू सबसे बड़ा बेटा था। सब बताता था मुझे। अब बसन्ती को साथ रखूँगा। पर अचानक सब बदल गया। मेरी जगह वह चला गया दिमाग़ में! और भी बहुत कुछ बराबर घूमता रहता है।

रमना पढ़ी-लिखी है समझदार। पर मन नहीं मानता। हज़ार तरह के तर्क सामने रखता है - बीतती उसी पर है जिस पर बीतनी होती है। और सब तो उपकरण बन जाते हैं, उस परिणति के लिये! मैं क्या कर सकती हूँ? किसी का कोई बस नहीं होता। होनी हो कर रहती है।

अपना आदमी सामने-सामने आधी कमाई उस परिवार पर खर्च कर देता है। कैसे समझाये उसे? और कोई मेरे लिये यह सब करता अगर मैं। । ? नहीं, नहीं हे भगवान।

आगे नहीं सोच पाती। उस रूप में अपनी कल्पना भी असह्य है।

मिन्टू और मीतू को देखती है। फिर उसके बच्चों का ध्यान आता है। जी भर आता है।

नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पति तो मेरा है।

तुम्हारे पति को हटा दिया था उसने वहाँ से जहाँ मौत टूटने वाली थी। और खुद उसकी चपेट में आ गया

तभी तुम विधवा नहीं हुई।

वह सिहर उठती है।

लोग कहते हैं -प्रकाश बाबू, तुम्हारे जैसा होना इस ज़माने में मुश्किल है। इतना कर पाना तो किसी के बस की बात नहीं, और वह भी सिर्फ मित्रता के नाम पर? असंभव।

पर असंभव क्या है। दूसरे की बला अपने सिर लेना संभव है? उससे कह देना कि तुम निश्चिंत रहो, मैं झेल लूँगा तुम्हारी जगह पर? कोई संभव मानेगा?

पर ऐसा हुआ है। असंभव कुछ नहीं होता।

प्रकाश सोचता है - उसने जो किया उसकी भर पाई क्या संभव है?

रमना से कहा था उसने -हम सब पर उसका कर्ज़ है, उतारने की कोशिश कर रहा हूँ।

कुछ कह नहीं पाती रमना। बस सोचती है - दुनिया में क्या कोई मरता नहीं? सब अपनी मौत मरते हैं।

♦♦ • ♦♦

'अब जाड़े आ गये हैं। स्वेटर बिनने को ऊन लाऊंगी और तुम्हारा कोट भी बड़ा पुराना-सा लगता है। एक महीने में कपड़ा लेकर दूसरे में सिलवा लेना। '

'मुझे अभी कोट की ज़रूरत ही नहीं। यह वाला तो अभी दो साल और चलेगा। ’

अरे, देखो कितना घुर्रैला लगने लगा है। तुम तो कपड़ों के मामले में बड़े चौकस थे? ।

'समय-समय की बात है। जाड़े से बचाव का इन्तज़ाम है वही काफ़ी है। और स्वेटर भी मुझे अभी चाहिये नहीं। पूरी बाहों का - और दूसरावाला दोनों ठीक हैं। तुम लोग अपने लिये बनवा लो। ’

'अपने बनवा लो?’ कैसे आराम से कह दिया!

क्या करे रमना? प्रकाश की कठिन मुद्रा के आगे बोलना मुश्किल हो जाता है। और खुद भी तो!

एक शर्ट नहीं बनवाई, वही घिसी पहने चल देते हैं। अब तो खुद ही प्रेस करने बैठ जाते हैं। कहो तो करते हैं -अपना काम कर रहा हूँ, काहे की शरम? उसे प्रेस करने को दो तो दो दिन तो वहीं पड़ी रहेंगी और मेरे पास तीन शर्ट हैं। कहीं जला दीं या फाड़ दीं तो? वह तो कह कर छुट्टी पा लेगा -साब पुरानी थी प्रेस करने में फट गई, नुक्सान तो मेरा होगा। ’

'तभी तो कहती हू...'

'क्यों पुराने कपड़े क्या फेंक दिये जाते हैं? मैंने कह दिया मुझे अभी नहीं चाहिये। ’

हर महीने डेढ सौ रुपये अपनी जेब में रखते थे - बाहरी खर्च, चाय-पानी। अब नहीं लेते। कह देते है क्या करूगा? घर खर्च के काम आयेंगे।

रमना सब समझ रही है। खिसियाती है, कुढ़ती है। कमाते हैं इतना, अपने को ही कसते जा रहे हैं।

पहले वाले प्रकाश कहाँ खो गये -ठहाके लगाते, खाने में नुक्ता-चीनी करते, अच्छा पहनने-पहनाने के शौकीन प्रकाश?

अब तो सब छोड़ते जा रहे हैं।

कुछ कहने को नहीं, बेबस हो रह जाती है। रोना आता है - कैसे करे, क्या करे? ऑफिस में चाय-नाश्ता करते थे बंद कर दिया है

उसने कहा था, ’आफिस में इत्ती देर बैठते हो भूख तो लगती होगी?’

'भूख नहीं लगती’

अपना आदमी खुद को कस कर दूसरों पर खर्च दे हम देखते रह जायँ, मन तो दुखेगा ही। एक दो बार नहीं हर महीने! जैसे उधार चढ़ा हो उनका!

उसे याद है प्रकाश ने कहा था -

'हाँ, उसका कर्ज़ है मुझ पर। ’

कितनी योजनायें थीं। पहाड़ों पर तो ले जा चुके हैं अबकी बार साउथ जाने का सोच रहे थे। अब तो हो चुका। रमना बस जा रही है।

बड़ा मन था अब के देवर की शादी में भाभी जैसी मैसूर सिल्क की साड़ी पहने। और यह मंगल-सूत्र कितना पुराना लगता है, नये डिज़ाइन का तीन लड़ोंवाला बनवाने तमन्ना थी। कितना सुन्दर लगता है बीच में काले मोतियों की लड़ और दोनों ओर सुनहरी चेन! अपने गलें में उसकी कल्पना करते अचानक बसंती का सूना गला और उजड़ी माँग सामने आ गई।

नहीं मुझे कोई जल्दी नहीं है। सुविधा से सब हो जायेगा।

प्रकाश कहते हैं उस दिन वह नहीं होता तो मैं मर गया होता मेरी मौत की जगह उसने ले ली! क्या सचमुच?

रमना के मन में द्वंद्व मचा रहता है। अगर, चन्दू भाई साब इनकी जगह न आये होते? तो आज बसन्ती की जगह मैं नहीं, नहीं जो होना होता है वही होता है। उसके साधन अपने आप बन जाते हैं इसमें मेरा क्या दोष? मैं क्या करूँ?

अरे, मैं तो मैं, बच्चे भी छोटी-छोटी चीजों के लिये डाँट खा जाते है। मन मसोस कर रह जाते हैं, बेचारे! दीवाली पर आधे पटाखे और मिठाई उधर चली गई।

बच्चों से कहा था प्रकाश ने -बेटा, उनके पापा मर गये, कौन लायेगा? बेचारे दीवाली में भी ऐसे ही रहेंगे? ज़रा सोचो जिसके पापा नहीं होते उन्हें कैसा लगता होगा!’

और बच्चों ने कह दिया’ पापा, इसमें से आधा उन्हें दे दीजिये। ’

'तो बेटा तुम खुद पहुँचा आओ। ’

चलो, ठीक है उनकी भी दीवाली मने, पर हर बार बच्चों का हिस्सा बँटता रहे? जी दरकने लगता है उसका।

मन मानता नहीं और मना कर पाती नहीं।

कितनी अच्छी तरह सब चल रहा था।

कभी-कभी जी करता है जाये बसंती के पास। वह आराम से रह रही है, निश्चिन्त! किसके बल पर?

पूछना चाहती है बसन्ती से कि हमारे हिस्से का लेते तुम्हें कुछ झिझक-शरम है या नहीं? दूसरे के सिर पर कब तक डाले रहोगी अपना बोझ। तुम्हें कुछ करना चाहिये।

ताव में एक दिन पहुँच गई उनके घर।

देखा, उजड़ी सी बसन्ती, सफ़ेद धोती में हाथ गला सब सूना। आँखें रोई-रोई। उसे देख दौड़ कर आई कंधे से लग गई, ’ बहन, तुम लोग नहीं होते तो क्या होता हमारा? हमारे लिये तो भगवान हो तुम दोनों। ये बच्चे न पेट भऱ खा पाते न स्कूल जाते! सब तुम्हारी दया है, तुम नहीं चाहतीं तो भाई साहब कहाँ कुछ कर पाते! बहुत वड़ा दिल है तुम्हारा!’

'सबर करो बहिन, दुख तो किसी पर भी पड़ सकता है। एक दूसरे के काम न आये तो इन्सान कैसा!’

'अपने रिश्तेदार, हमारे सगे भाई -बहन बातें बड़ी-बड़ी करते थे। करने की नौबत आई तो सब किनारा कर गये! आप तो इन्सान नहीं देवता हो। भगवान ने तो नइया बीच धार में डूबने को छोड़ दी थी हमारी। असली खेवनहार तो आप बने हो। हमारी आत्मा से हमेशा दुआयें निकलती हैं। हमेशा आपके एहसान तले दबे रहेंगे। । आपका ऋण'

'बस, बस। बसंती बहन, इतना मत कहो। यह तो फ़र्ज़ है हमारा। आज को तुम मुसीबत में हो, अगर हम होते। ' कहते-कहते वह काँप गई।

अंतर में कोई बोल उठा -किसका किस पर ऋण है कौन जाने!

'हमने तो भाई साहब से पहले ही कहा था, जो हमारे पास है सब लगा कर लड़के को दूकान डलवा दें। वो तो बस बैठेगा, सम्हालेंगे हम। पर भाई साब को ठीक नहीं लगा। कहने लगे -चंदू ने क्या-क्या अरमान सँजोये थे। बहिन, उनके अरमान उनके साथ गये। पर हम भाई साहब की बात कैसे टालें? हमारे लिये तो देवता हैं वो और आप। जो शिकन नहीं लाईँ माथे पर! कहने लगे लड़के को पढ़ने दो। जितना हो सके उसके सपने पूरे करो। हम सहारा लगाये हैं।

'उन्हीं ने तो हमारी ट्रेनिंग के लिये भाग-दौड़ की, हमारे बस में तो कुछ नहीं था। कभी घर से निकले नहीं, बाहर क्या होता है कुछ पता नहीं।

'टीचरी की ट्रेनिग के लिये फ़ार्म भरा है हमने। बस, एक बार नौकरी लग जाये। फिर तो खींच ले जायेंगे। एक बार पाँव पर खड़े हो जायें। थोड़े दिन और..'

बसन्ती कहे जा रही थी, ”बहुत दिन आपका हिस्सा नहीं बटायेंगे’

मेरा हिस्सा? रमना काँप गई। मेरा कौन सा हिस्सा महादुख का या। ?

कुछ रुक कर बोली, ’हाँ बताया था इन्होंने, बल्कि हमीं ने सुझाव दिया था कि आप अपने पाँव पर खड़ी हो सकें तो अच्छा। । किसी की दया पर कहाँ तक पड़ी रहेंगी!’

'हाँ बहिन, हम तो ज्यादा पढे-लिखे हैं नहीं, इन्टर पास हैं। एक बार लग जायें फिर तो मेहनत कर आगे भी इम्तहान दे लेंगे। ’

'बस ऐसी ही हिम्मत रखना'

'सहारा आप लोगों का है, हिम्मत भी आप ही दे रही हैं। आप जो कर रहे है, उसे कैसे चुका पायेंगे हम?’

'चुकाना तो हमें है, तुम्हारे पति जो चढ़ा गये हैं, तुम नहीं जानती, बसन्ती, ’ रमना के भीतर कोई बोल उठा।

उसे धीर बँधा कर चली आई वह। उसकी जगह अपनी कल्पना नहीं कर सकती।

नहीं, बिल्कुल नहीं!

♦♦ • ♦♦

'सिर्फ़ इन्टर। पास से क्या होता है आज कल? बसंती एक साल की ट्रेनिंग करने जा रही है। फिर कहीं टीचर लग जायेगी। और कौन सा काम करेगी बिचारी? कभी अकेली बाहरी दुनिया में निकली नहीं। ’

प्रकाश ने कहा था, ' पर आज वह जैसी है कल वैसी नहीं रहेगी। ’

रमना सोच रही है - भारी दुख पड़ा है उस पर। जीने के लिये उसे बदलना होगा।

अच्छा है, बाहर निकल कर काम करेगी। दुनिया का ऊँच-नीच समझेगी। बिचारी इन्टर पास है। कर ले जायगी धीरे-धीरे। परीक्षा हो रही है उसकी।

कितने उदाहरण सामने हैं। पति की मृत्यु के बाद औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच गईं -सिर्फ़ अपनी मेहनत और के बल पर। यह भी कर लेगी। जब दुख पड़ा है तो उबरने का उपाय भी सुझा देगा।

आज जैसी है कल वह वैसी नहीं रहेगी। अपने पाँव पर खड़ी हो जायेगी। फिर उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं रहेगी।

समय के साथ धीरे-धीरे दुख की तीव्रता कम हो जायेगी। निराशा के बादल छँट जायेंगे। नई दिशायें खुल जायेंगी और बसती भोगे हुये दुख का गहन गांभीर्य समेटे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करेगी। अपनी रुचि के अनुसार जीवन जीने को स्वाधीन होगी। किसी की दया की पात्र नहीं अपने श्रम की उपलब्धि से गौरवान्वित! शिकायतों की जगह गहरे आत्मतोष की आभा से दीप्त!

व्यक्तित्व संपन्ना हो जायेगी बसंती!

आज कल उसके दिमाग में बसंती छाई रहती है। उसे याद आ जाती हैं अपने कॉलेज की लेक्चरर्स। कुछ के बारे में सुना था, छोटे-छोटे बच्चे छोड़ कर पति चल बसे। मायके में नौकरानी की तरह रखी गई, ससुराल में और भी दुर्दशा! बड़ी मुश्किल से नौकरी करने दी। और आज देखो, अपनी मेहनत से कहाँ पहुँच गईं। हमीं लोग कॉलेज में हसरत भरी निगाहों से देखा करते थे। समय के साथ-साथ आगे बढ़ रही हैं। कैसा पहनना-ओढ़ना, कितने ढंग से रहना। अब कितनी पूछ हैं कितनी इज़्ज़त है। माँ का परिश्रम देख बच्चे भी एक -से एक बढ़ कर निकले हैं। । ।


बहुत चुप रहती है रमना -बिल्कुल शान्त! पर भीतर ही भीतर निरंतर एक युद्ध चलता है।

आज बसन्ती जो है, कल वैसी नहीं रहेगी!

उसके बदले हुये जीवन की कल्पना करती है। दुख जो पड़ा है उस पर, बहुत भारी है। पर, समय के साथ सब सहनीय हो जायेगा। ये दिन बीत जायेंगे -एक नई बसंती को जन्म देते हुये।

बदलती हुई वसंती! बाहर के संसार में अपनी जगह बनाती, आगे बढ़ते समय के साथ कदम मिलाती।

चार लोगों के बीच दुनिया के रंग देखती अपने को ढालती-सँवारती हुई वह धीरे-धीरे परिपक्व हो जायेगी, कर्मठ, कुशल।

आज मैं उसे दूसरों की दया पर निर्भर समझ रही हूँ। पर कितने दिन? फिर यही बसंती समर्थ हो जायेगी। अपने लिये स्वयं करने में सक्षम। आत्म गौरव से पूर्ण!

और मैं?

इनका मुँह देखनेवाली, बस। अपनी छोटी-सी दुनिया में, सीमित सोच लिये, छोटी-छोटी बातों में उलझती, आगे बढ़ते समय और दुनिया से तटस्थ, बँधे हुये घेरे मे निरंतर चक्कर खाती - धीरे-धीरे आउट आफ डेट होती हुई।

बच्चे भी कौन हमेशा साथ रहेंगे?

तब कैसा होगा जीवन? एक जगह रुक गया सा! दिन पर दिन निष्क्रिय!

मैं तो बी.ए. पास हूँ। मैं कुछ नहीं कर सकती?

उलझन में पड़ी है रमना, पर इससे बाहर निकलना होगा - अपने लिये रास्ता ख़ुद तलाशना होगा!

फिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा -

'सुनो, बसन्ती टीचर्स ट्रेनिंग कर रही है मैं भी तो कर सकती हूँ?’

'हाँ, क्यों नहीं कर सकतीं! तुम बी। ए। हो उससे बढ़कर, बी। एड। कर सकती हो।

उसके आगे भी कुछ कर सकती हूँ, सोचा रमना ने बोली, ’ हाँ, बच्चों के, घर के साथ थोड़ा मुश्किल तो पड़ेगा, तुम्हें भी परेशानी उठानी पड़ेगी। पर मुझे लगता है मैं कर लूँगी। ’

'बिल्कुल कर सकती हो। मेहनत करनी पड़ेगी। पर मैं भी तो हूँ न। ’

'हाँ, करूँगी। मेहनत कर लूँगी मैं। ’

उसका प्रस्ताव सुनकर प्रकाश के चेहरे पर एकदम जो चमक आ गई थी वह क्या था - उत्साह, प्रसन्नता या संतोष?

यह भी संभव है कि झलक उठी हो मन की गहरी आश्वस्ति!

रमना समझने की कोशिश कर रही है।

सूरज की तिरछी होती किरणें इधर की खिड़की से अंदर आने लगी हैं। कमरा उजास से भर गया है।