कर्ज़ / सुधीर मौर्य 'सुधीर'
मैं सुबह-सुबह फ्रेश होकर मनोज के घर पहुंच गया था, मनोज जो मेरे बचपन का मित्र था, मुझे देखते ही खुश हो गया। मेरे गले लगकर वो न जाने कितने मुझे उलाहने देने लगा, फोन क्यों नहीं किया और न जाने क्या-क्या, वो तो शायद गिले-शिकवे करता ही रहता अगर बीच में उसकी मम्मी न आ जाती।
आंटी, यानी मनोज की मम्मी ने मुझे प्यार से बैठाया और मनोज से बोली-तू बोलता ही जा रहा है देखता नहीं इतनी ठण्ड में कैसे बेचारा सुबह-सुबह तुमसे मिलने आ गया है। आंटी मेरे सर पर प्यार से हाथ फिरा कर ये बोल कर चली गई-तुम दोनों दोस्त बैठकर बातों करो तब तक मैं तुम दोनों के लिए चाय और नाश्ता लेकर आती हूं। यद्यपि मैं घर से नाश्ता करके आया था फिर भी उन्हें मना न कर सका बचपन से ऐसा ही था न जाने क्यों मैं उन्हें किसी भी बात के लिए मना नहीं कर पाता था, इसका कारण शायद यह था कि बचपन से ही आंटी का मुझ पर पुत्रवत स्नेह था।
मनोज, अपनी मम्मी के जाते ही फिर मुझसे चिपट कर बैठ गया और बोला- बता रवि कैसा चल रहा है मुम्बई में, जॉब कैसा है, किसी लड़की से दोस्ती हुई या अभी तक ऐसा ही है, उसने फिर ढ़ेर सारे प्रश्न मेरे तरफ उछाल दिये थे। मैं बोला थोड़ा शांत हो जा तू मैं सब बताता हूं तुझको-एक तो मेरा जॉब बिल्कुल ठीक चल रहा है, दूसरी बात जो ज्यादा महत्व की है वो यह है कि एक बेहद खुबसूरत लड़की से मेरी दोस्ती भी हो गई है।
मेरी यह बात सुनकर मनोज को काफी खुशी हुई थी। वह बोला नाम तो बता भाभी का-
मैं बोला-संजोत
हाय कितना प्यारा नाम है वह चहकते हुए बोला कोई फोटो-वोटो लाया है उसका-
मैं मुस्कराते हुए, जेब से पर्स निकाल कर उसमें से संजोत का फोटो निकाल कर मनोज की तरफ बढ़ा दिया और उसने मेरे हाथ से फोटो छीन लिया-कुछ सेकेंड फोटो देखने के उपरांत वह बोला क्यों बे-इतनी सुंदर लड़की ने तेरे साथ दोस्ती कैसे कर ली।
मैंने कहा तू सच बोलता है मनोज वास्तव में संजोत बहुत ही सुंदर है। हम अभी हाथ में फोटो लेकर बात कर ही रहे थे इतने में हाथ में नाश्ते की ट्रे लेकर आंटी आ गई।
मनोज के हाथ में तस्वीर देख कर ट्रे को मेज पर रखते हुए बोली किसकी तस्वीर है, मैंने बहाना बनाने की कोशिश की और बोला कुछ नहीं आंटी बस ऐसे ही पर आंटी ने मनोज से वो तस्वीर ले ली-कुछ देर वो अपलक उसे निहारती रही फिर बहुत प्यार भरी नजरों से मुझे देखकर बोली-बहुत ही प्यारी बच्ची है-तूने घर पर बात की-
मैंने इन्कार में सर हिलाया-तो वो बोली-ठीक है वह खुद मेरे घर जाके मेरी मम्मी से बात करेंगी।
मैंने अबकी बार सहमति मंे सर हिलाया और बदले में वो मुस्कराकर वापस अंदर चली गई।
मैं मनोज की तरफ देखकर बोला फिर क्या प्रोग्राम है आज का-
प्रोग्राम क्या है घूमेंगे, सैर करेंगे, मूवी देखेंगे पर सबसे पहले नाश्ता करेंगे, मनोज की इस बात पर मैं हंसे बिना न रह सका-
खैर हमने नाश्ता किया, नाश्ते में आलू का परोठा था जो मेरे मनपसन्द व्यंजन में से एक है चाय पी और मनोज की मम्मी से आज्ञा लेकर हम बाहर घूमने के लिए निकले।
हम लोग लान पार करके ज्योंहि मेनगेट पर पहुँचे, वैसे ही स्कूटी से पारूल आ गई। पारूल जो मनोज की बहन है, बचपन से वो मुझे भी हर रक्षाबंधन से पहले डाक या कुरियर द्वारा मिल ही जाती थी। मेरी कोई बहन नहीं थी पर पारूल ने कभी इसकी कमी मुझे महसूस नहीं होने दी।
मुझे देखकर वह स्कूटी खड़ी करके दौड़ कर सीधे मेरे पास आ गई कब आये भैय्या, और आते ही कहां जा रहे हो, मुझसे मिले भी नहीं मेरे बारे में पूछा भी नहीं होगा। वह मासूमियत से ढ़ेर सारे प्रश्न पूछे जा रही थी। मैंने प्यार से उसके गाल को थपथपाया और बोला ऐसा हो सकता है क्या, कि मैं तुझसे न मिलू तेरे बारे में न पूछू-मैं तो बस थोड़ा बाहर घूमकर वापस आ रहा था।
वह इठलाते हुए बोली मैं अच्छी तरह जानती हूं आप लोगों का थोड़ा घूमना-सुबह जो निकले तो शाम से पहले आने से रहे। फिर वह मेरा हाथ पकड़ कर बोली अच्छा यह बताओ मेरे लिए क्या लाये हो?
मैं उसके सर को सहलाते हुए प्यार से बोला बहुत कुछ लाया तेरे लिए, शाम को घर पे आके ले जा-फिर मैंने उससे पूछा पढ़ाई कर रही है या ऐसे ही दिन भर घूमती रहती है-
वह बोली आपको क्या लगता है?
मैंने कहा-मैं जानता हूं तेरा अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान होगा-मनोज जो अब तक मूक़ दर्शक बना खडा़ था-बीच में बोला पारूल तू शाम को रवि से जी भर के बातें कर पर अभी हम लोगों को जाने दे।
पारूल मेरी तरफ देखकर बोली ठीक है रवि भैय्या आज आपको छोड़ती हूं, पर कल का दिन मेरे नाम, मैं कल सवेरे सवेरे आपके घर पे आती हूं-मैंने कहा ठीक है जैसा तेरा हुक्म पर अभी क्या मैं जाऊं उसने हां में सर हिलाया और फिर अन्दर की तरफ कोई गीत गुनगुनाती हुई चली गई।
मनोज, गैरेज की तरफ बढ़ा तो मैं उसे रोक कर बोला-मैं गाड़ी लाया हूं बाहर खड़ी है उसी में चलते हैं।
खैर पूरे दिन मैं और मनोज घूमते रहे, पुराने दोस्तों से मिले, लंच किया मूवी देखी-
बातों ही बातों में मैंने अपने पुश्तेनी घर जाने की बात की मनोज भी तैयार हो गया-मेरा पुश्तेनी घर लखनऊ से कोई अस्सी किलोमीटर दूर हरदोई रोड़ पर था, मैं बचपन से ही मम्मी, पापा व भाई-बहन के साथ लखनऊ में ही रहा था, कभी-कबार ही मैं अपने दादा के पास गांव जाता था हमारी पुश्तेनी हवेली अभी भी मौजूद थी, हमारे सबसे छोटे चाचा अपने परिवार के साथ उसमें रहते थे।
अगले दिन मम्मी से इजाजत लेकर हम दोनों दोस्त अपने गांव के लिए निकले, मारूती जेन गाड़ी को उमपद ड्राइव कर रहा था और मनोज मेरे बगल वाली सीट पर बैठा हुआ था। मौसम खुशनुमा था, हल्का संगीत स्टीरियो पर चल रहा था मैं और मनोज गुजरे दिनों की बाते में मशगूल थे।
सफर कब कटा मालूम ही नहीं चला, हम अपने गांव के करीब पहुंच चुके थे, मैंने कार को मेन रोड से उतारकर गांव जाने वाली रोड पर डाल दिया था यह रोड, हाईवे जैसी अच्छी नहीं थी पर कोलतार की बनी हुई थी, पहले यहां पर खडन्जा लगा हुआ था, हाईवे से मेरे घर की दूरी करीब दस मील थी।
हाईवे से गांव को जोड़ने वाली सड़क बेहद खराब थी, कई जगह तो वो पूरी तरह गहरे में तब्दील हो चुकी थी, इसलिए मैंने जेन की रफ्तार काफी कम कर दी थी, मैं और मनोज विभिन्न मुद्दों पर बात करते रहे थे।
मैं अब गाड़ी ड्राइव करने के साथ-साथ खिड़की से बाहर दृश्यों का भी आनन्द लेने लगा था, हालांकि मैंने खिड़की पर शीशे चढ़ा रखे थे, ऐसा मैंने इसलिए किया था ताकि मैं बाहर की ठण्ड से बच सकूं। मनोज ने भी ऐसा ही किया था, वैसे भी दिसम्बर के अन्त में भारत के इस भाग में ठण्ड कुछ ज्यादा ही पड़ती है।
अभी गाड़ी इस खस्ताहाल सड़क पर कुछ देर ही चली थी कि थोड़ी दूर पर एक मैदान में कुछ लड़के क्रिकेट खेलते हुए दिखाई दिये।
ये खेल कितना लोकप्रिय हो गया है मैंने मनोज से बोला, मनोज बदले में सिर्फ मुस्करा दिया-
मैं फिर उससे बोला क्या बोलते हो-कुछ देर लुत्फ लेते हैं इसका
वो फिर मुस्कराकर बोेला-ऐसी छोटी-छोटी इच्छाओं का दमन तो कभी भी नहीं करना चाहिए-उसकी सहमति पाते ही मैंने मैदान के नजदीक गाड़ी के बोनेट के सहारे खड़े हो गये-मैंने अपना पसंदीदा ब्रांड गोल्ड फ्लक;सिंाद्ध की सिगरेट सुलगा कर होठों से लगा ली थी, हां मनोज को ऐसा कोई ऐब न था पर मैं सिगरेट के साथ-साथ कभी-कभी बियर भी पी लिया करता था।
हम दोनांे बच्चों को खेलते हुए देखने लगे अभी हमें दस-बारह मिनट ही हुए होंगे कि मैं एक तरफ चल दिया-पीछे से मनोज ने पुकारा कहां चले रवि-बदले में मैंने एक अंगुली उठा कर उसे संकेत से बताया कि मैं लघुशंका के लिए जा रहा हूं।
मैं अभी एक पेड़ के नीचे खड़े होकर पेंट का जिप खोल रहा था कि मेरी नजर जमीन पर रखे कुछ सिक्कों पर पड़ी-पांच-पांच के सिक्के एक के ऊपर एक रखे हुए मैंने बिना लघुशंका किये बैठ गया उन सिक्कों के करीब-उन सिक्कों के नीचे की मिट्टी काफी निकल गई थी ऐसा शायद बारिश की वजह से हुआ था। शायद तीन चार मौसम की बारिश, मैंने आहिस्ता से सिक्के उठाये पांच-पांच के छः सिक्के यानी तीस रूपये। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर सिक्के साफ करने चालू किए-और इसी के साथ मेरे दिमाग पर जमी हुई मिट्टी भी साफ होने लगी-मेरे दिमाग में अंघड़ चलने लगा, गुजरी तस्वीरे एक-एक करके आंखों से गुजरने लगी।
हां वो मई की तपती दोपहर थी, गर्म हवाऐं अपने पूरे शबाब पर थी, लूक के थेपेड़े चेहरे को झुलसा रहे थे, मैं चाचा के मना करने के बावजूद भी इस भरी दोपहर मैं जीप से लखनऊ के लिए चल पड़ा था घर से निकल कर मैंने पानी के लिए तड़प कर जीप एक पेड़ के नीचे रोक दी छाव में उसको खड़ा करके पेड़ की जड़ पर बैठ गया। पसीना, आंधी-तूफान शरीर से बाहर उछल रहा था। जेब से रूमाल निकाल कर मैं उसको पसीने से गीला करने लगा, प्यास की वजह से मुंह सूख रहा था मैं अपनी बेवकूफी पर पछता रहा था, कि इतनी धूप में क्यों बाहर निकला और अगर निकला भी तो एक पानी की बोतल भी साथ में नहीं ली। पानी की तलाश में मैंने इधर-उधर देखना चालू किया पर मुझे दूर-दूर तक इन्सान तो क्या कोई परिन्दा भी नजर नहीं आ रहा था।
मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी, तभी मुझे दूर से एक बैलगाड़ी आती हुई दिखाई पड़ी, मुझे कुछ उम्मीद हुई थी शायद मेरी प्यास बूझने का सबब उस बैल गाड़ी में मौजूद हो, मैंने ध्यान से देखा वो बैलगाड़ी मेरी तरफ ही आ रही थी, मैंने पेड़ के तने से पीठ लगाकर आंखे बन्द कर ली और बैल गाड़ी के आने का इन्तजार करने लगा।
बैलगाड़ी बहुत धीमी रफ्तार से मेरे करीब आ रही थी पर मैं क्या करता तभी ख्याल आया कि जीप को स्टार्ट करके बैलगाड़ी तक पहुंच जाऊं पर मेरे से उठने को नहीं हुई दूसरे जीप के इंजन के गर्मी भी नाकाबिले बर्दाश्त थी। खैर मैं बैठकर बैलगाड़ी के आने का इन्तजार करने लगा।
पेड़ की छाँव ने मेरे शरीर को थोड़ी राहत बख्शी थी, मैंने अपनी आंखें वापस बन्द कर ली थी। थकान की वजह से थोड़ी सी सुस्ती भी सवार हो रही थी। जब कानों में बैलों के घुंघरू बजने की आवाज पड़ी तो मैंने आंखे खोेली पर तभी मुझे किसी के कराहने की आवाज सुनाई बैलगाड़ी से ही आ रही थी, कराहने की आवाज यकीनन जनाना थी।
मैं खड़ा हो गया, अब तक बैलगाड़ी काफी नजदीक आ चुकी थी, उसे कोई चौदह-पन्द्रह साल का लड़का हांक रहा था और बैलगाड़ी में एक लड़की लेटी हुई थी, कराहने की आवाज उसी लड़की की थी, बैलगाड़ी भी उसी पेड़ के नीचे आ खड़ी हो गई थी जिसकी छांव में मैंने पनाह ले रखी थी।
मैं उठकर बैलगाड़ी के पास जा पाता उससे पहले ही बैलगाड़ी हांकने वाला लड़का गाड़ी से उतरकर भाग कर मेरे पास आ गया-मैं उठकर खड़ा हो गया था-लड़का मेरे पैरों से लिपट गया था-वो लगभग चीखते हुए बोला-हमारी आपा को बचाया;इंबींलमद्ध ले।
मैं लड़के के अपने पांव पर गिरने से परेशान हो गया था। उसे उठाकर खड़ा किया और मैं बैलगाड़ी की तरफ लपका करीब पहुंचकर देखा तो बैलगाड़ी में एक जूट की बोरिया बिछी हुई थी और उस पर बेहद खुबसूरत सोलह-सतरह साल की लड़की लेटी हुई थी। लड़के के घबराने के अन्दाज से मुझे लगा था कि लड़की बहुत गम्भीर रोग से ग्रसित होगी पर अब मैं संयत हो गया था क्योंकि लड़की की कराहने की वजह और कुछ नहीं प्रेग्नेन्सी की पीड़ी;चमकंद्ध थी।
लड़की की नजर मुझ पर पड़ी तो उसके चेहरे पर थोड़ी सी हया आ गई, दर्द को जब्त करते हुए उसने अपने पेट पर टुप्पट्टे को सही किया था।
तपता सूरज सीधे उसके ऊपर था और बेदर्दी से उसके हसीन चेहरे;बीमीतंद्ध कुम्हला रहा था-उसके होंठ सूख रहे थे वो दर्द जब्त करने की कोशिश में अपने निचले होठांे को बार-बार दांतों के बीच दबा रही थी। मैंने लड़के की तरफ देखा उसे पास बुलाया और पूछा यह कौन है तुम्हारी दीदी?
वह बोला-हां-
कहां लेके जा रहे हो-
कासिम पुर अस्पताल-
वो तो अभी काफी दूर हैं-
बाबूजी आप अपनी जीप से पहुंचाये देव-उस लड़के ने फिर हाथ जोड़े-
मैं बोला-पहले अपनी दीदी को पानी पिलाओ-
वह भाग कर गया और बैलगाड़ी के पीछे, नीचे की तरफ बंधी हुई बाल्टी खोल लाया-मैंने बाल्टी को देखा तो लड़के के अहमक पानी पे गुस्सा आ गया-रास्ते के गढ्ढे और बैलगाड़ी की चाली मेहरबानी थी कि बाल्टी में मुश्किल से 200 ग्राम पानी बचा था-खैर मुझे लड़के पर भरोसा नहीं था इसलिए मैंने बाल्टी खुद ले ली और लड़के से बोला जरा अपनी दीदी को उठाओ और इस तरह मैंने उस लड़की को पानी पिलाया। मुझे अफसोस था कि बाल्टी में मेरी प्यास बुझाने को पानी नहीं बचा था-पर पता नहीं क्यों अब मुझे वैसी प्यास नहीं सता रही थी जैसी कुछ देर पहले सता रही थी-खैर मैंने लड़के की तरफ देखा-मैंने देखा कि उसकी आंखे याचना कर रही हैं-मैंने पूछा तुम्हारा नाम?
वसीम-छोटा सा जवाब।
मैंने अन्दर ही अन्दर फैसला किया और बैलगाड़ी से लड़की को अपनी बाजुओं में उठा लिया और अपनी कमांडर जीप के बीच वाली सीट पर लिटा दिया-लड़के से बोला-तुम्हारी आपा को मैं अस्पताल पहुंचाये देता हूं-तू क्या करेगा-
वह बोला-घर लौट जइये-
कहां है घर-
गुलहरिया गांव-
खैर मुझे लगा कि व्यर्थ की देर करना बेकार है
इसलिए मैंने एक नजर लड़की पर डाली और ड्राइविंग सीट पर बैठकर स्टार्ट कर दी और उसे रोड़ पर लाकर रफ्तार दे दी-लड़की अभी भी कराह रही थी-उसकी प्रेग्नैन्सी का ख्याल आते ही मैंने गाड़ी की रफ्तार थोड़ी कम कर दी क्योंकि हाईवे की तुलना में रोड़ ज्यादा अच्छा नहीं था। मैं बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता जाता था लड़की ने सीट में लगी हुई बेल्ट को पकड़ लिया था, मैं उसको सात्वना देने के उद्देश्य से बोला बस थोड़ी ही दूर है अस्पताल-मेरी बात पर वो इतनी पीड़ा के बावजूद मुस्करा दी-मैंने हल्की सी रफ्तार ओर बढ़ा दी थी।
कोई पन्द्रह मिनट पर मैं अस्पताल के सामने पहुँच गया था गाड़ी को अहाते में लगा कर मैं उतरा और लड़की से बिना कुछ बोले मैं भागते हुए अस्पताल के अंदर चला गया-अंदर जाकर मुझे बेहद अफसोस हुआ पूरे अस्पताल में एक वार्डब्वाय के अलावा और कोई न था-वह वार्डब्वाय मुझे डॉक्टर और नर्स के अबसेन्ट होने की तफसील समझाने लगा तो मैं उस पर भड़क कर अस्पताल से बाहर आ गया-
लड़की को देखकर बोला-नाम क्या है तुम्हारा-
वह बोली-परवीन-तुम्हें यह दर्द थोड़ा और जब्त करना होगा-क्योंकि यह अस्पताल, डॉक्टर और मरीज दोनों से खाली है।-
वो बोली-फिर
मैं बोला-फिर क्या-लखनऊ चलते है-
उसने सहमति में सर हिलाया था-और मैंने जीप को अस्पताल से निकाल कर लखनऊ जाने वाले हाईवे पर डाल दिया-मेरी जीप इस समय चिकने हाइवे पर हवा से बातें कर रही थी और मुझे परवीन न जाने क्यों अपने भाई की तुलना में बड़ी जहीन लग रही थी।
खैर अगले एक घंटे में ही मैं लखनऊ के चौक इलाके में पहुंच गया था जहां पर मेरे दोस्त आदित्य के बड़े भाई का नर्सिंग होम था जहां पर आदित्य के भाई व भाभी दोनों ही बैठते थे और भाभी तो जच्चा-बच्चा विशेषज्ञ थी, उनका मुझ पर भी काफी स्नेह था।
मैं परवीन को एक बार फिर अपनी बांहो में उठाकर नर्सिंग होम के अन्दर आ गया, मुझे सामने ही नम्रता भाभी दिखायी पड़ गयी, मैं परवीन को स्टेचर पर लिटा कर लपक कर उनके पास पहुँच गया-
वह हैरत से कभी मुझे और कभी परवीन को देख रही थी।
वह मेरी खिंचाई चालू करती-उससे पहले ही मैंने उन्हें पूरी तफसील समझा दी-
बदले में भाभी ने बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फिराया था-
मैंने परवीन को उनके हवाले कर दिया था-और कोई आंधे घंटे में उसने खूबसूरत और स्वस्थ लड़के को जन्म दिया था-
मैं उसे खिड़की से देखकर घर की तरफ जाने के लिए चल पड़ा-हां मैंने भाभी से यह जरूर बोला था कि उसके डिस्चार्ज के समय मुझे इन्फार्म कर दे साथ ही यह भी रिक्वेस्ट की वह उससे कोई पैसा न ले।
अगले दिन शाम को भाभी का फोन आया कि कल सुबह परवीन घर जा सकती है और अगले दिन सुबह मैं नर्सिग होम पहुँच गया था-भाभी ने उससे कोई पैसा नहीं मांगा था बल्कि उसे इस बारे में यह बोल कर मुतमईन कर दिया था कि ऐसे काम के लिए उन्हें एक संस्था से बाकायदा हर महीना पैसा मिलता है। मैंने जब भाभी को पैसे देने चाहे तो उन्होंने मुझे बहुत प्यार से डांट दिया था और मैं चुप रह गया था।
परवीन इस समय जीप में मेरे बगल में बैठी थी और मैं उसे धीरे-धीरे ड्राइव कर रहा था-उसको मैंने ध्यान से देखा यकीनन वह बहुत खुबसूरत थी उतना ही खुबसूरत था उसके गोद में बच्चा।
रेस्टोरेन्ट में मैंने उसे नाश्ता कराया जिसके लिए वह बहुत मुश्किल से तैयार हुई थी। वहीं पर मुझको उसकी तफसील उसी की जबानी मालूम हुई।
वह बहुत गरीब परिवार से थी-उसका शौहर अहमद रोजगार के सिलसिले में दिल्ली में था-उसकी मां और सास दोनों ही बेहद बूढ़ी थी और चलने-फिरने से लाचार थी। ले-दे कर एक भाई घर पर था। वह जब भी मुझे देखती बहुत ही कृतज्ञ नजरों से देखती। वह दसवीं तक पढ़ी थी और उसमें हर चीज का काफी सलीका था।
मेरे बहुत इसरार पर भी उसने बहुत कम खाया था। हां उस दिन जल्दबाजी में उसके पैसे वसीम के पास ही रह गये थे। इसलिए उसने बहुत लज्जा के साथ केवल बीस रूपये मांगे थे, लखनऊ से उसके घर तक जाने का बस का किराया।
मैंने उसे कैंसरबाग बस अड्डे पर उसके गांव की तरफ जाने वाले बस में बैठा कर उसे टिकट ले कर दिया था जो बीस रूपये का था। मैंने उसे राह खर्च के कुछ रूपये देने चाहे तो उसने सख्ती से मना कर दिया था फिर न जाने क्यों शायद अपने बच्चे के बारे में सोचकर उसने केवल दस रूपये मुझसे लिए थे।
मैं उसके बच्चे का माथा सहला कर बस से उतरने लगा रवि एक मिनट रूको-
मैंने पलट कर उसको देखा तो वह बोली तुम्हारे इस एहसान को क्या नाम दूं-
मैं बोला-कुछ एहसान कुछ रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते परवीन-न जाने क्यों मेरे जवाब से उसकी आंखे मुतमुईन हो गई थी। वो फिर बोली पर मैं यह तुम्हारे तीस रूपये वापस कर दूंगी-यह रूपये कर्ज हैं मुझ पर।
मैं मजाक के अंदाज में बोला-लेकिन कहां?
वह बोली वहीं उस पेड़ के नीचे जहां आप फरिश्तों के तरह आप मेरे लिए आए थे-
मैं मुस्करा कर बस से उतर पड़ा और बस चल दी मैं धूल उड़ाती जा रही बस को देखता रहा हां वह भी खिड़की से सर बाहर निकाल कर मुझी को देख रही थी।
और फिर बस मेरी आंखों से ओझल हो गई।
किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखे तो मैं चौक कर पलटा वह मनोज था। उसने पूछा क्या हुआ? हां मैंने उसे उन सिक्कों के बात कुछ नहीं बताया था। वह सिक्के मेरे लिए अनमोल थे मैं उन सिक्कों के बारे में कोई भी मजाक बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मैंने उसे टाल दिया था।
मैं गांव जाकर अगले दिन ही वापस लखनऊ लौट आया और मां की गोद में सर रख कर उनको पूरी बात बताई उन्होंने उस दिन बहुत प्यार से मेरे सर को सहलाया था।
वह सिक्के अब तलक मेरे पास हैं, मैं जब उन्हें देखता हूं तो परवीन मुझे याद आती है। हां उसने अपना कर्ज उतार दिया था। मेरे दिल से दुआ निकली है वह जहां भी हो अपने बच्चे और शौहर के साथ खुश रहे।