कर्तव्याकर्तव्य के प्रश्न / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती
कर्तव्य-अकर्तव्य का झमेला, कर्म करें, न करें का सवाल, बुरे-भले की पहेली और इन दोनों का निर्णय कैसे हो यह जिज्ञासा - ये सभी - पुरानी बातें हैं, इतनी पुरानी जितनी पुरानी यह दुनिया है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, समाज नहीं है जहाँ एक न एक समय यह उधेड़-बुन और समस्या लोगों के सामने - कम-से-कम उनके सामने तो अवश्य ही जिन्हें समझ हो और जो तह के भीतर घुसने की योग्यता रखते हों - आ न खड़ी हुई हो। सभी देशकाल के विद्वानों के समक्ष ये और इसी तरह के बहुतेरे प्रश्न बराबर आते रहे हैं और उनने अपनी-अपनी समझ तथा पहुँच के मुताबिक इनका उत्तर भी दिया है, समाधान भी किया है। मानवसमाज के इतिहास में यह एक ही बात ऐसी है जो बिना धर्म और संप्रदाय के भेद के, समान रूप से सभी जगह पाई गई है और, हमें आशा है, आगे भी पाई जाएगी। अकेले इस संबंध के प्रश्नों ने लोगों को जितना परेशान किया है और उन्हें इनके बारे में जितनी माथापच्ची करनी पड़ी है, शायद ही किसी एक विषय को लेकर यह बात हुई हो। इसी से पता चलता है कि यह विषय कितना महत्त्वपूर्ण है।
इन सवालों, इन प्रश्नों और इन जिज्ञासाओं के जो उत्तर आज तक दिए गए हैं और जिन्हें लोगों ने किसी न किसी रूप में लिख डाला है, उन्हें अगर एक जगह जमा कर दिया जाए तो खासा पहाड़ खड़ा हो जाए। नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथों, वैदिक एवं दार्शनिक वचनों, कुरान एवं हदीस की किताबों, बाइबिल और जेन्दअवेस्ता की पोथियों, जैन तथा बौद्ध मतों की देशनाओं और चार्वाक आदि नास्तिकों के उपदेशों के अलावा गत कई हजार साल के भीतर विभिन्न देशों में जो आईन-कानून की किताबें तैयार की गई हैं वह सबकी-सब आखिर इन्हीं प्रश्नों का ही तो उत्तर देती हैं। खूबी तो यह कि इनमें बहुतेरे उत्तर और जवाब ऐसे हैं जो समय-समय पर बदलते रहे हैं। कम-से-कम आईन-कानून तो किसी देश या समाज के लिए हमेशा एक ही तरह के रहे नहीं। वे तो समाज के साथ ही बदलते रहे हैं। उनकी प्रगति और तरक्की समाज के साथ बँधी रही है। यदि इस नजर से देखते हैं तो यह समस्या, और भी पेचीदी हो जाती है, इसका महत्त्व और इसकी अहमियत हजार गुना बढ़ जाती है।