कर्तव्य परायणता / बालकृष्ण भट्ट
बड़े-बडे उत्कृष्ट गुण जिनसे मनुष्य समाज में माननीय होता है जिनके अभाव से सब ठौर निरादर पाता और हेठा समझा जाता है - उनमें कर्तव्य परायणता का होना गुण-सोपान की पहली सीढ़ी है। पहली सीढ़ी इसलिये इसे कहते हैं कि जब यही मालूम नहीं है कि हमें क्या करना उचित है और जिसके करने की जिम्मेदारी हम पर है त्रुटि या चूक होने से उसका हिसाब अंतरात्मा को हमें देना होगा तब हम विद्वान् बड़े धर्मनिष्ठ भी हुए तो क्या? कर्तव्य पराणयता के कई एक अवांतर भेद हम यहाँ नहीं लेते जिसमें जुदी-जुदी जाति के लोगों में अलग-अलग मतभेद हैं। कितनी बातें ऐसी है जिन्हें हम हिंदुस्तान के रहने वाले कर्तव्य मानते हैं पर इंगलैंड तथा यूरोप के और-और फ्रांस-जर्मनी इत्यादि के लोग उसे अवश्य कर्तव्य न समझेंगे। जैसे पुत्र के लिये माँ-बाप की सेवा और अपनी सब कमाई उनके अर्पण करना या अपने छोटे तथा असमर्थ भाइयों और कुटुंब को पालना पोसना यहाँ हिंदुस्तान में एक कर्तव्य कर्म है और न करने पर निंदा है वैसा यूरोप के इंग्लैंड, फ्रांस आदि देशों में नहीं। अँगरेजों में बाप-माँ की कुछ विशेष खबर न ले सर्वस्व अपनी मेम साहबा को सौंप देना महा कर्तव्य परायणता है। यहाँ ऐसा करने से समाज में निंदा है। यहाँ कुलवती स्त्रियों के लिये बात-चीत और संलाप एक ओर रहे, घूँघट के ओट से भी किसी परपुरुष को देखना निंदनीय है वरन् सूर्य चंद्रमा भी उन्हें न देख पायें यहाँ तक असूर्यपश्या होना कर्तव्य परायणता है जैसा किसी कवि ने कहा है-
"पदन्यासों गेहाद्वहिरहिफणारोपवणसमो।
निजावासादन्यद्भवमपरद्वीपगमनम्।।
बचो लोकाभ्यं कृपणधनंतुल्यं मृगदृश:।
पुमानन्य कांताद्विधुरिव चतुर्थी समुदित:।।"
कुलवती स्त्रियों का घर से बाहर पाँव काढ़ना वैसा ही है जैसा साँप के फन पर पाँव रखना अपने घर से किसी दूसरे के घर कभी जाना तो मानो द्वीपांतर में जाना है, उनके मुँह की बोल दूसरे के कान को सुनने के लिये वैसा ही अप्राप्य है जैसा सूम का धन दूसरे को नहीं मिल सकता। उनका किसी परपुरुष की ओर निहारना वैसा ही है जैसा भादों के चौथ के चाँद का देखना। और भी रस मंजरी में स्वकीया का उदाहरण इस भाँति कुलवती स्त्रियों के बर्ताव के संबंध में दिखाया है-
"गतागतकुतूहलं नयनयोरपांगावधि स्मितं
कुलनतभ्रुवमधर एव विश्राभ्यति।
वच: प्रियतमश्रुतेरतिथिरेवकोपक्रम:
क्वच चिदयिचेत्तदा मनसि केवलं मज्जति:।।"
नेत्र के कटाक्षों का इधर-उधर चलाना आँख के कोनों ही तक कुलवधू जनों का हँसना होंठों के फरकने ही तक उनके वचन केवल प्राणनाथ अपने पति के कानों ही तक, नये आये हुए पाहुने की भाँति क्रोध यदि कभी आया भी तो मन ही मन मसोस कर रह गई। व्यय में मुक्त हस्त न हो घर के काम-काज तथा शिशु-पालन में प्रवीणता आदि उत्तम गुणों की खान हिंदू ललनाओं का अखंड पुण्य और उनका पवित्र चरित्र ही भारत को इस गिरी दशा में भी करावलंब देते सर्वथा अध:पात से इसे बचा रहा है। जिनके चरित्र-पालन की प्रशंसा में किसी कवि ने ऐसा भी कहा है-
"अपि मां पावयेत्साध्वी स्नात्वेतीच्छति जान्हवी"
यह साधवी हमारे में आय स्नान कर हमें पवित्र करे ऐसा जगत् पावनी जान्हवी गंगा भी चाहा करती हैं।
यूरोप देश निवासियों को इसमें कुछ भी कर्तव्य परायणता नहीं समझी गई। लौं सभ्यता जोर किये हुए हैं कि किसी की मेम साहबा हो कोई बग्घी पर चढ़ाये दिन भर घूमते और सैर-सपाटा करते रहें कोई क्षति नहीं। अस्तु, इस तरह की एक-एक जाति की अलग-अलग कर्तव्य परायणता को जुदे-जुदे देशों की जुदी-जुदी रिवाज और अपने-अपने समाज के भिन्न-भिन्न क्रम या दस्तूर मान हम उसे कर्तव्य परायणता न कहेंगे बल्कि कर्तव्य परायणता उसे कहेंगे कि जिसके न करने में प्रत्यवाय अथवा प्रायश्चित है जैसा ब्राह्मण के लिए सूर्योदय के समय संधंयोपासना कर्तव्य कर्म है और उसके न करने में प्रत्यवाय है।
कर्तव्य पर ध्यान और समय का उचित अनुवर्तन (पंक्चुअलटी) दोनों का साथ है। सच पूछो तो हम इन दोनों से च्युत हो गये हैं, जो अपने समय को ठीक रचना या पालन करना जानता है अपने वख्त को बेजा न खोता वही कर्तव्य परायण भी भरपूर रह सकता है और ये दोनों इस समय हमारे शासनकर्ता में अच्छी तरह पाये जाते हैं। जब हम उन्हें अपना शिक्षा गुरु अनेक सामयिक सभ्यता की बातों में मान रहे हैं और उन्हें अपना गुरुर्गरु समझ कर उनका अनुकरण कर रहे हैं तो इन दोनों में भी उनके अनुयायी क्यों नहीं? किंतु यह भी कुछ देश के भाग्य ही कहेंगे कि यहाँ के लोग बुराई का अनुकरण पहले और बहुत जल्द करने लगते हैं भलाई को भुलाय उस ओर कभी झुकते ही नहीं। जित जेता का अनुकरण करते हैं। यह प्राकृतिक नियम की भाँति हो रहा है और यह कुछ यही नहीं वरन् सब देश और सब जाति के लोगों में देखा गया है।
जब से मुसलमान यहाँ के जेता हुए उस समय से हम उनकी चाल ढाल, नशिस्त बरखास्त के कायदे न केवल उनकी अरबी फारसी तथा उर्दू भाषा वरन् दीन इसलाम को अब तक अपनियाते आये आर्य से अर्द्ध-यवन हो गये, यहाँ लौ कि मुसलमानों को अपना एक अंग बना लिया अब पचास साठ वर्ष से हिंदू मुसलमान दोनों अपने नये जेता का अनुकरण कर रहे हैं, किंतु उनमें जो कुछ त्रुटि है केवल उसी का उनमें भलाई क्या है उसका नहीं। उनका-सा अध्यवसाय धनु बाँध के किसी काम को करना विघ्न होता रहे पर जिसे आरंभ किया उसे करी के तब छोड़ना, स्वजाति पक्षपात, विद्याभ्यास, ऐक्स, साहस, धैर्य, वीरता, विचार की दृढ़ता आदि उनके गुणों की ओर कभी ध्यान नहीं देते उनकी-सी भोग-लिप्सा-पान दोष इत्यादि को अलबत्ता अपना करते जाते हैं।
यावत् कर्त्तव्यों में वर्तमान गिरी दशा से अपना उद्धार महा कर्तव्य परायणता है किंतु इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता प्रत्युत उसी को कर्तव्य मान रहे हैं जिसमें हमारा अधिक बिगाड़ है और गतानुगतिक न्याय के अनुसार भेड़िया धसान के समान आँख मूँद उधर ही को बराबर चले जाते हैं। सिंधिया और होल्कर के पूर्व पुरुष इसी कर्त्तव्य परायणता के बदौलत इस उत्तम पद पर कर दिये गये, ये दोनों पेशवा के घर के सेवक थे। इतिहासों में कितने इसके उत्तम उदाहरण पाये जा सकते हैं इस समय भी यद्यपि देश बड़ी गिरी दशा में आ गया है पर ढूँढने से बहुत-से अच्छे उदाहरण मिल जायेंगे। जिनमें कर्त्तव्य परायणता होगी उनमें समय का सदनुष्ठान (पंक्चुअलिटी) भी अवश्य होगी। दोनों उत्तम गुणों का बड़ा घनिष्ठ संबंध है, बिना एक के दूसरा कभी रही नहीं सकता। देश के कल्याण के लिए इन दोनों का उस देश के निवासियों में आना स्वाभाविक गुण होना चाहिये। ईश्वर प्रसन्न हो कर हम लोगों में कर्तव्य परायणता स्वाभाविक गुण पैदा कर दे तो देश का उत्थान सहज में हो जाय। सर्वसाधारण की दशा के परिवर्तन की यह पहली सीढ़ी अवश्य कही जायगी और सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते जायें तो कदाचित् एक दिन शिखर पर भी चढ़ बैठें तो अचरज क्या।
जून,1903 ई.