कर्मभूमि / अध्याय 1 / भाग 11 / प्रेमचंद
सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं-हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झंडियां भी बनीं और फलों की डालियां भी जमा की गईं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है। जज ऐसे मामले में भला क्या इंसाफ करेगा, क्या बचा हुआ है- शान्तिकुमार और सलीम तो खुल्लमखुल्ला कहते फिरते थे कि जज ने फांसी की सजा दे दी। कोई खबर लाता था-फौज की एक पूरी रेजीमेंट कल अदालत में तलब की गई है। कोई फौज तक न जाकर, सशस्त्र पुलिस तक ही रह जाता था। अमरकान्त को फौज के बुलाए जाने का विश्वास था।
दस बजे रात को अमरकान्त सलीम के घर पहुंचा। अभी यहां घंटे ही भर पहले आया था। सलीम ने चिंतित होकर पूछा-कैसे लौट पड़े भाई, क्या कोई नई बात हो गई-
अमर ने कहा-एक बात सूझ गई। मैंने कहा, तुम्हारी राय भी ले लूं। फांसी की सजा पर खामोश रह जाना, तो बुजदिली है। किचलू साहब (जज) को सबक देने की जरूरत होगी ताकि उन्हें भी मालूम हो जाए कि नौजवान भारत इंसाफ का खून देखकर खामोश नहीं रह सकता। सोशल बायकाट कर दिया जाए। उनके महाराज को मैं रख लूंगा, कोचमैन को तुम रख लेना। बच्चा को पानी भी न मिले। जिधार से निकलें, उधर तालियां बजें।
सलीम ने मुस्कराकर कहा-सोचते-सोचते सोची भी तो वही बनियों की बात।
'मगर और कर ही क्या सकते हो?'
'इस बायकाट से क्या होगा- कोतवाली को लिख देगा, बीस महाराज और कोचवान हाजिर कर दिए जाएंगे।'
'दो-चार दिन परेशान तो होंगे हजरत।'
'बिलकुल फजूल-सी बात है। अगर सबक ही देना है, तो ऐसा सबक दो, जो कुछ दिन हजरत को याद रहे। एक आदमी ठीक कर लिया जाए तो ऐन उस वक्त, जब हजरत फैसला सुनाकर बैठने लगें, एक जूता ऐसे निशाने से चलाए कि उनके मुंह पर लगे।'
अमरकान्त ने कहकहा मारकर कहा-बड़े मसखरे हो यार ।
'इसमें मसखरेपन की क्या बात है?'
'तो क्या सचमुच तुम जूते लगवाना चाहते हो?'
'जी हां, और क्या मजाक कर रहा हूं- ऐसा सबक देना चाहता हूं कि फिर हजरत यहां मुंह न दिखा सकें।'
अमरकान्त ने सोचा-कुछ भला काम तो है ही, पर बुराई क्या है- लातों के देवता कहीं बातों से मानते हैं- बोला-अच्छी बात है, देखी जाएेगी पर ऐसा आदमी कहां मिलेगा?
सलीम ने उसकी सरलता पर मुस्कराकर कहा-आदमी तो ऐसे मिल सकते हैं जो राह चलते गरदन काट लें। यह कौन-सी बड़ी बात है- किसी बदमाश को दो सौ रुपये दे दो, बस। मैंने तो काले खां को सोचा है।
'अच्छा वह उसे तो मैं एक बार अपनी दूकान पर फटकार चुका हूं।'
'तुम्हारी हिमाकत थी। ऐसे दो-चार आदमियों को मिलाए रहना चाहिए। वक्त पर उनसे बड़ा काम निकलता है। मैं और सब बातें तय कर लूंगा पर रुपये की फिक्र तुम करना। मैं तो अपना बजट पूरा कर चुका।'
'अभी तो महीना शुरू हुआ है, भाई ।'
'जी हां, यहां शुरू ही में खत्म हो जाते हैं। फिर नोच-खसोट पर चलती है। कहीं अम्मां से दस रुपये उड़ा लाए, कहीं अब्बाजान से किताब के बहाने से दस-पांच ऐंठ लिए। पर दो सौ की थैली जरा मुश्किल से मिलेगी। हां, तुम इंकार कर दोगे, तो मजबूर होकर अम्मां का गला दबाऊंगा।'
अमर ने कहा-रुपये का गम नहीं। मैं जाकर लिए आता हूं।
सलीम ने इतनी रात गए रुपये लाना मुनासिब ना समझा। बात कल के लिए उठा रखी गई। प्रात:काल अमर रुपये लाएगा और कालेखां से बातचीत पक्की कर ली जाएगी।
अमर घर पहुंचा तो साढ़े दस बज रहे थे। द्वार पर बिजली जल रही थी। बैठक में लालाजी दो-तीन पंडितों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। अमरकान्त को शंका हुई, इतनी रात गए यह जग-जग किस बात के लिए है। कोई नया शिगूगा तो नहीं खिला ।
लालाजी ने उसे देखते ही डांटकर कहा-तुम कहां घूम रहे हो जी दस बजे के निकले-निकले आधी रात को लौटे हो। जरा जाकर लेडी डॉक्टर को बुला लो, वही जो बड़े अस्पताल में रहती है। अपने साथ लिए हुए आना।
अमरकान्त ने डरते-डरते पूछा-क्या किसी की तबीयत...
समरकान्त ने बात काटकर कड़े स्वर में कहा-क्या बक-बक करते हो, मैं जो कहता हूं, वह करो। तुम लोगों ने तो व्यर्थ ही संसार में जन्म लिया। यह मुकदमा क्या हो गया, सारे घर के सिर जैसे भूत सवार हो गया। चटपट जाओ।
अमर को फिर कुछ पूछने का साहस न हुआ। घर में भी न जा सका, धीरे से सड़क पर आया और बाइसिकल पर बैठ ही रहा था कि भीतर से सिल्लो निकल आई। अमर को देखते ही बोली-अरे भैया, सुनो, कहां जाते हो- बहूजी बहुत बेहाल हैं, कब से तुम्हें बुला रही हैं- सारी देह पसीने से तर हो रही है। देखो भैया, मैं सोने की कंठी लूंगी। पीछे से हीला-हवाला न करना।
अमरकान्त समझ गया। बाइसिकल से उतर पड़ा और हवा की भांति झपटता हुआ अंदर जा पहुंचा। वहां रेणुका, एक दाई, पड़ोस की एक ब्राह्यणी और नैना आंगन में बैठी हुई थीं। बीच में एक ढोलक रखी हुई थी। कमरे में सुखदा प्रसव-वेदना से हाय-हाय कर रही थी।
नैना ने दौड़कर अमर का हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली-तुम कहां थे भैया, भाभी बड़ी देर से बेचैन हैं।
अमर के हृदय में आंसुओं की ऐसी लहर उठी कि वह रो पड़ा। सुखदा के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया पर अंदर पांव न रख सका। उसका हृदय गटा जाता था।
सुखदा ने वेदना-भरी आंखों से उसकी ओर देखकर कहा-अब नहीं बचूंगी हाय पेट में जैसे कोई बर्छी चुभो रहा है। मेरा कहा-सुना माग करना।
रेणुका ने दौड़कर अमरकान्त से कहा-तुम यहां से जाओ, भैया तुम्हें देखकर वह और भी बेचैन होगी। किसी को भेज दो, लेडी डॉक्टर को बुला लाए। जी कड़ा करो, समझदार होकर रोते हो-
सुखदा बोली-नहीं अम्मां, उनसे कह दो जरा यहां बैठ जाएं। मैं अब न बचूंगीं। हाय भगवान् ।
रेणुका ने अमर को डांटकर कहा-मैं तुमसे कहती हूं, यहां से चले जाओ और तुम खड़े रो रहे हो। जाकर लेडी डॉक्टर को बुलवाओ।
अमरकान्त रोता हुआ बाहर निकला और जनाने अस्पताल की ओर चला पर रास्ते में भी रह-रहकर उसके कलेजे में हूक-सी उठती रही। सुखदा की वह वेदनामयी मूर्ति आंखों के सामने फिरती रही।
लेडी डॉक्टर मिस हूपर को अक्सर कुसमय बुलावे आते रहते थे। रात की उसकी फीस दुगुनी थी। अमरकान्त डर रहा था कि कहीं बिगड़े न कि इतनी रात गए क्यों आए लेकिन मिस हूपर ने सहर्ष उसका स्वागत किया और मोटर लाने की आज्ञा देकर उससे बातें करने लगी।
'यह पहला ही बच्चा है?'
'जी हां।'
'आप रोएं नहीं। घबराने की कोई बात नहीं। पहली बार ज्यादा दर्द होता है। औरत बहुत दुर्बल तो नहीं है?'
'आजकल तो बहुत दुबली हो गई है।'
'आपको और पहले आना चाहिए था।'
अमर के प्राण सूख गए। वह क्या जानता था, आज ही यह आफत आने वाली है, नहीं तो कचहरी से सीधे घर आता।
मेम साहब ने फिर कहा-आप लोग अपनी लेडियों को कोई एक्सरसाइज नहीं करवाते। इसलिए दर्द ज्यादा होता है। अंदर के स्नायु बंधे रह जाते हैं न ।
अमरकान्त ने सिसककर कहा-मैडम, अब तो आप ही की दया का भरोसा है।
'मैं तो चलती हूं लेकिन शायद सिविल सर्जन को बुलाना पड़े।'
अमर ने भयातुर होकर कहा-कहिए तो उनको लेता चलूं।
मेम ने उसकी ओर दयाभाव से देखा-नहीं, अभी नहीं। पहले मुझे चलकर देख लेन दो।
अमरकान्त को आश्वासन न हुआ। उसने भय-कातर स्वर में कहा-मैडम, अगर सुखदा को कुछ हो गया, तो मैं भी मर जाऊंगा।
मेम ने चिंतित होकर पूछा-तो क्या हालत अच्छी नहीं है-
'दर्द बहुत हो रहा है।'
'हालत तो अच्छी है?'
'चेहरा पीला पड़ गया है, पसीनाझ।'
'हम पूछते हैं हालत कैसी है- उसका जी तो नहीं डूब रहा है- हाथ-पांव तो ठंडे नहीं हो गए हैं?'
मोटर तैयार हो गई। मेम साहब ने कहा-तुम भी आकर बैठ जाओ। साइकिल कल हमारा आदमी दे आएगा।
अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा-आप चलें, मैं जरा सिविल सर्जन के पास होता आऊं। बुलानाले पर लाला समरकान्त का मकान...
'हम जानते हैं।'
मेम साहब तो उधर चली, अमरकान्त सिविल सर्जन को बुलाने चला। ग्यारह बज गए थे। सड़कों पर भी सन्नाटा था। और पूरे तीन मील की मंजिल थी। सिविल सर्जन छावनी में रहता था। वहां पहुंचते-पहुंचते बारह का अमल हो आया। सदर फाटक खुलवाने, फिर साहब को इत्ताला कराने में एक घंटे से ज्यादा लग गया। साहब उठे तो, पर जामे से बाहर। गरजते हुए बोले-हम इस वक्त नहीं जा सकता।
अमर ने निशंक होकर कहा-आप अपनी फीस ही तो लेंगे-
'हमारा रात का फीस सौ रुपये है।'
'कोई हरज नहीं है।'
'तुम फीस लाया है?'
अमर ने डांट बताई-आप हरेक से पेशगी फीस नहीं लेते। लाला समरकान्त उन आदमियों में नहीं हैं जिन पर सौ रुपये का भी विश्वास न किया जा सके। वह इस शहर के सबसे बड़े साहूकार हैं। मैं उनका लड़का हूं।
साहब कुछ ठंडे पडे॥ अमर ने उनको सारी कैफियत सुनाई तो चलने पर तैयार हो गए, अमर ने साइकिल वहीं छोड़ी और साहब के साथ मोटर में जा बैठा। आधा घंटे में मोटर बुलानाले जा पहुंची। अमरकान्त को कुछ दूर से ही शहनाई की आवाज सुनाई दी। बंदूकें छूट रही थीं। उसका हृदय आनंद से फूल उठा।
द्वार पर मोटर रूकी, तो लाला समरकान्त ने आकर डॉक्टर को सलाम किया और बोले-हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है। पोते ने जन्म लिया है।
उनके जाने के बाद लालाजी ने अमरकान्त को आड़े हाथों लिया-मुर्ति में सौ रुपये की चपत पड़ी। अमरकान्त ने झल्लाकर कहा-मुझसे रुपये ले लीजिएगा। आदमी से भूल हो ही जाती है। ऐसे अवसर पर मैं रुपये का मुंह नहीं देखता।
किसी दूसरे अवसर पर अमरकान्त इस फटकार पर घंटों बिसूरा करता, पर इस वक्त उसका मन उत्साह और आनंद में भरा हुआ था। भरे हुए गेंद पर ठोकरों का क्या असर- उसके जी में तो आ रहा था, इस वक्त क्या लुटा दूं। वह अब एक पुत्र का पिता है। अब कौन उससे हेकड़ी जता सकता है वह नवजात शिशु जैसे स्वर्ग से उसके लिए आशा और अमरता का आशीर्वाद लेकर आया है। उसे देखकर अपनी आंखें शीतल करने के लिए वह विकल हो रहा था। ओहो इन्हीं आंखों से वह उस देवता के दर्शन करेगा
लेडी हूपर ने उसे प्रतीक्षा भरी आंखों से ताकते देखकर कहा-बाबूजी, आप यों बालक को नहीं देख सकेंगे। आपको बड़ा-सा इनाम देना पड़ेगा।
अमर ने संपन्न नम्रता के साथ कहा-बालक तो आपका है। मैं तो केवल आपका सेवक हूं। जच्चा की तबीयत कैसी है-
'बहुत अच्छी। अभी सो गई है।'
'बालक खूब स्वस्थ है?'
'हां, अच्छा है। बहुत सुंदर। गुलाब का पुतला-सा।'
यह कहकर सौरगृह में चली गई। महिलाएं तो गाने-बजाने में मग्न थीं। मुहल्ले की पचासों स्त्रियां जमा हो गई थीं और उनका संयुक्त स्वर, जैसे एक रस्सी की भांति स्थूल होकर अमर के गले को बांधो लेता था। उसी वक्त लेडी हूपर ने बालक को गोद में लेकर उसे सौरगृह की तरफ आने का इशारा किया। अमर उमंग से भरा हुआ चला, पर सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। वह आगे न बढ़ सका। वह पापी मन लिए हुए इस वरदान को कैसे ग्रहण कर सकेगा। वह इस वरदान के योग्य है ही कब- उसने इसके लिए कौन-सी तपस्या की है- यह ईश्वर की अपार दया है-जो उन्होंने यह विभूति उसे प्रदान की। तुम कैसे दयालु हो, भगवान् ।
श्यामल क्षितिज के गर्भ से निकलने वाली बाल-ज्योति की भांति अमरकान्त को अपने अंत:करण की सारी क्षुद्रता, सारी कलुषता के भीतर से एक प्रकाश-सा निकलता हुआ जान पड़ा, जिसने उसके जीवन की रजत-शोभा प्रदान कर दी। दीपकों के प्रकाश में, संगीत के स्वरों में, गगन की तारिकाओं में उसी शिशु की छवि थी। उसी का माधुर्य था, उसी का न!त्य था।
सिल्लो आकर रोने लगी। अमर ने पूछा-तुझे क्या हुआ है- क्यों रोती है-
सिल्लो बोली-मेम साहब ने मुझे भैया को नहीं देखने दिया, दुत्कार दिया। क्या मैं बच्चे को नजर लगा देती- मेरे बच्चे थे, मैंने भी बच्चे पाले हैं। मैं जरा देख लेती तो क्या होता-
अमर ने हंसकर कहा-तू कितनी पागल है, सिल्लो उसने इसलिए मना किया होगा कि कहीं बच्चे को हवा न लग जाए। इन अंग्रेज डॉक्टरनियों के नखरे भी तो निराले होते हैं। समझती-समझाती नहीं, तरह-तरह के नखरे बघारती हैं, लेकिन उनका राज तो आज ही के दिन है न। फिर तो अकेली दाई रह जाएगी। तू ही तो बच्चे को पालेगी, दूसरा कौन पालने वाला बैठा हुआ है-
सिल्लो की आंसू-भरी आंखें मुस्करा पड़ीं। बोली-मैंने दूर से देख लिया। बिलकुल तुमको पड़ा है। रंग बहूजी का है मैं कंठी ले लूंगी, कहे देती हूं ।
दो बज रहे थे। उसी वक्त लाला समरकान्त ने अमर को बुलाया और बोले-नींद तो अब क्या आएगी- बैठकर कल के उत्सव का एक तखमीना बना लो। तुम्हारे जन्म में तो कारबार फैला न था, नैना कन्या थी। पच्चीस वर्ष के बाद भगवान् ने यह दिन दिखाया है। कुछ लोग नाच-मुजरे का विरोध करते हैं। मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती। खुशी के यही अवसर हैं, चार भाई-बंद, यार-दोस्त आते हैं, गाना-बजाना सुनते हैं, प्रीति-भोज में शरीक होते हैं। यही जीवन के सुख हैं। और इस संसार में क्या रखा है।
अमर ने आपत्ति की-लेकिन रंडियों का नाच तो ऐसे शुभ अवसर पर कुछ शोभा नहीं देता।
लालाजी ने प्रतिवाद किया-तुम अपना विज्ञान यहां न घुसेड़ो। मैं तुमसे सलाह नहीं पूछ रहा हूं। कोई प्रथा चलती है, तो उसका आधार भी होता है। श्रीरामचन्द्र के जन्मोत्सव में अप्सराओं का नाच हुआ था। हमारे समाज में इसे शुभ माना गया है।
अमर ने कहा-अंग्रेजों के समाज में तो इस तरह के जलसे नहीं होते।
लालाजी ने बिल्ली की तरह चूहे पर झपटकर कहा-अंग्रेजों के यहां रंडियां नहीं, घर की बहू-बेटियां नाचती हैं, जैसे हमारे चमारों में होता है। बहू-बेटियों को नचाने से तो यह कहीं अच्छा है कि रंडियां नाचें। कम-से-कम मैं और मेरी तरह के और बुङ्ढे अपनी बहू-बेटियों को नचाना कभी पसंद न करेंगे।
अमरकान्त को कोई जवाब न सूझा। सलीम और दूसरे यार-दोस्त आएंगे। खासी चहल-पहल रहेगी। उसने जिद भी की तो क्या नतीजा। लालाजी मानने के नहीं। फिर एक उसके करने से तो नाच का बहिष्कार हो नहीं जाता ।
वह बैठकर तखमीना लिखने लगा।
सलीम ने मामूल से कुछ पहले उठकर काले खां को बुलाया और रात का प्रस्ताव उसके सामने रखा। दो सौ रुपये की रकम कुछ कम नहीं होती। काले खां ने छाती ठोंककरर कहा-भैया, एक-दो जूते की क्या बात है, कहो तो इजलास पर पचास गिनकर लगाऊं। छ: महीने से बेसी तो होती नहीं। दो सौ रुपये बाल-बच्चों के खाने-पीने के लिए बहुत हैं।