कर्मयोगी कलाम: समाज हेतु समर्पित वैज्ञानिक जीवन / कविता भट्ट
ऐसे मनुष्य पृथ्वी पर कम ही जन्म लेते हैं, जिनको उनकी मेहनत, लगन, ईमानदारी, सादगी एवं कर्मठता आदि के लिए मात्र अपने देश में ही नहीं समस्त संसार में पूजा जाता है। ऐसे व्यक्ति जो निर्धन या साधारण परिवार में जन्म लेकर देश के राष्ट्रपति जैसे सर्वश्रेष्ठ पद पर सुशोभित होते हैं, किन्तु पद एवं प्रतिष्ठा के लालच से रहित उतनी ही सादगी के साथ जीवन व्यतीत करते हैं, वास्तव में ये सच्चे कर्मयोगी होते हैं। कलाम के रूप में एक वैज्ञानिक का वैयक्तिक हितों से दूर होकर सामाजिक समर्पण भाव सीख लेने लायक है। ऐसे ही महान कर्मयोगी मिसाइलमैन श्री ए पी जे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु राज्य के पवित्र तीर्थ रामेश्वरम स्थित धनुषकौड़ी नामक गाँव में एक निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। इनका पूरा नाम अबुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम था। इनके पिता जैनुलाब्दीन थे एवं माता का नाम आशियम्मा था। वे दोनों ही धर्मपरायण और दयालु थे। वे पढ़े लिखे तो नहीं थे किन्तु उनके दिए हुए संस्कारों ने कलाम को एक अनुशासित एवं नैतिक व्यक्ति बनाया; कलाम पर उनके पिता के संस्कारों का सबसे अधिक प्रभाव था। उनके पिता हिन्दू तीर्थ यात्रियों के-के लिए मल्लाहों को नाव किराये पर देते थे।
कलाम के परिवार में उनके दादा-दादी तथा माता-पिता आदि सभी उदार प्रवृत्ति के थे। वे हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों की परम्पराओं में भागीदारी करते थे। उनकी दादी प्रत्येक रात को सोने से पूर्व उन्हें भगवान राम एवं पैगम्बर मोहम्मद की कहानी सुनाया करती थी। रामेश्वरम तीर्थस्थल में तालाब के बीचों-बीच सीता-राम विवाह का आयोजन प्रत्येक वर्ष किया जाता था और उस समारोह के लिए उनके पिता विशेष प्रकार की नावों की व्यवस्था किया करते थे।
प्रारम्भ में परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ही थी; किन्तु बाढ़ में जमीन बह जाने के कारण परिवार पर आर्थिक संकट आ गया था। बहुत बड़े संयुक्त परिवार के एक सदस्य होने के नाते कलाम की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। ये परिवार में सबसे छोटे थे, जैसे-जैसे ये बड़े होते रहे इनकी पढाई के प्रति रुचि तथा जिज्ञासा बढ़ती चली गई। कलाम को पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम के पंचायती प्राथमिक विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा के लिए भर्ती करवा दिया गया। उनके एक शिक्षक इयादुराई सोलोमन ने उन्हें शिक्षा दी कि जीवन में सफलता तथा अनुकूल परिणाम के लिए तीव्र इच्छा, आस्था एवं अपेक्षा इन तीनों की आवश्यकता होती है तथा इन पर पूरा प्रभुत्व होना चाहिए. इसी शिक्षा को कलाम ने आजीवन अपने पल्ले बाँध लिया। रामेश्वरम मंदिर उनके घर से कुछ ही दूर था और मंदिर के पुजारी उनके पिता के अच्छे मित्र थे। कलाम प्राय: मंदिर में घंटो बैठे रहते थे और धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी चर्चाएँ सुना करते थे।
कलाम जब प्राथमिक विद्यालय में कक्षा पाँच के छात्र थे तो उनके एक सहपाठी रामानंद शास्त्री थे। कलाम मुसलमान होने के नाते टोपी पहना करते थे एवं रामानंद शास्त्री जनेऊ आदि पहनते थे। दोनों कक्षा में अगली पंक्ति में बैठते थे। विद्यालय के एक हिन्दू शिक्षक ने कलाम को मुसलमान होने के कारण पीछे बैठ जाने को कहा। कलाम को बहुत बुरा लगा; किन्तु शिक्षक का आदेश होने के कारण उन्होंने उनकी आज्ञा का पालन किया और वे पीछे जाकर बैठ गए। इस घटना से उनके सहपाठी रामानंद शास्त्री को बहुत ख़राब लगा और दोनों ने सारी घटना घर में आकर लक्ष्मण शास्त्री को सुनाई. लक्ष्मण शास्त्री ने अगले दिन शिक्षक को बुलाकर बहुत डाँटा कि वे हिन्दू-मुस्लिम विद्यार्थियों में इस प्रकार का वैमनस्य न फैलाएँ। लक्ष्मण शास्त्री ने शिक्षक को कहा कि या तो वे घटना के लिए क्षमा माँगे या फिर विद्यालय छोड़कर चले जाएँ। लक्ष्मण शास्त्री के इस रवैये के कारण शिक्षक में धीरे-धीरे बदलाव आ गया और उन्होंने सभी छात्रों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार कलाम के व्यक्तित्व में भी यही धर्मनिरपेक्षता एवं उदारता समाहित हो गई।
बचपन में गरीबी के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई तथा परिवार के खर्च के लिए अखबार बेचने का कार्य भी करना पड़ा। प्राइमरी स्कूल के बाद कलाम ने श्वार्ट्ज हाईस्कूल, रामनाथपुरम में प्रवेश लिया। वहाँ की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1950 में सेंट जोसेफ कॉलेज, त्रिची में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने भौतिकी और गणित विषयों के साथ बी.एस-सी. की डिग्री प्राप्त की। अपने अध्यापकों की सलाह पर उन्होंने 1958 में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (एम.आई.टी.) , चेन्नई का रुख किया। वहाँ पर उन्होंने अपने सपनों को आकार देने के लिए एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का चयन किया।
इसी दौरान उनकी बहिन ने उनकी पढ़ाई को आगे जारी रखने के लिए अपने हाथ की सोने की चूड़ियाँ तक बेच डाली थी; जिससे फीस न होने के कारण कलाम को पढ़ाई न छोड़नी पड़े। जब इंजीनियरिंग के अंतिम दिनों में कलाम अपने किसी प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे थे तो उनके शिक्षक ने उन्हें उनका प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए मात्र तीन दिन का समय दिया । उनसे कहा गया यदि वे ऐसा न कर सके, तो उनकी छात्रवृत्ति रोक दी जाएगी। कलाम ने यह कार्य निर्धारित समय में पूरा कर दिखाया। उनके शिक्षक इस कार्य से बहुत खुश हुए और कहा कि तुम्हे जन बूझकर ऐसा लक्ष्य दिया गया, जिससे तुम अभियंता के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को समझ सको। कलाम ने 1958 में मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वे पायलट बनना चाहते थे किन्तु मात्र नौ ही पद थे और उनका स्थान दसवाँ था; अतः वे पायलट नहीं बन सके।
उन्होंने 1960 में भारतीय रक्षा एवं अनुसंधान संगठन को अपनी सेवा एक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थापक के रूप में देनी प्रारंभ की। वहाँ पर वे पूरी लगन से अपनी सेवाएँ दे रहे थे: किन्तु फिर भी उनका मन कुछ और करने की चाह में था। 1969 में उनका स्थानान्तरण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) में हो गया। कलाम साहब सबसे पहले ऑफिस आते थे तथा सबसे बाद में ऑफिस से घर जाते थे। उन्होंने अपने काम को इतना सम्मान दिया कि आजीवन अविवाहित रहकर देश की सेवा में सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसी समय उनके निर्देशन में स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान SLV3 को तैयार करके प्रक्षेपित किया गया; किन्तु यह असफल हो गया; किन्तु कलाम ने हार नहीं मानी। फिर से इस यान को तैयार किया जाने लगा। दूसरी बार इसका प्रक्षेपण सफल रहा तथा कलाम को इसके लिए भारत सरकार की और से पद्म भूषण सम्मान प्रदान किया गया। प्रोफेसर कलाम ऐसे पुरस्कार के बाद भी विनम्र बने रहे। उन में घमंड था ही नहीं और वे इसी यान की री एंट्री नाम से गोपनीय प्रयोग में लग गए; इसी का परिणाम था कि भारतवर्ष को अग्नि नामक मिसाइल मिल सकी। इस प्रक्षेपण ने भारतवर्ष की सुरक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रयासों हेतु पथ प्रशस्त किया। इसी समय कलाम को बंगलौर स्थानांतरित कर दिया गया। बहुत ही छोटी टीम के साथ कलाम ने कार्य करना प्रारंभ किया तथा PSLV के लिए दिन रात मेहनत की गई। 1981 यह डिज़ाइन बनकर सामने आई. आज जो PSLV सफलता के झंडे गाड़ रही है, वह मूल रूप से कलाम का ही डिज़ाइन था। भारतवर्ष को सुरक्षा के लिए बहुत-सी मिसाइलों की एक लम्बी सूची कलाम ने दी। इसीलिए उन्हें लोगों ने मिसाइल मैन की उपाधि दी।
इसके उपरांत उनको 2002 में भारत का राष्ट्रपति निर्वाचित किया गया। पाँच वर्ष के अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने सबसे लोकप्रिय, ईमानदार एवं कर्मनिष्ठ राष्ट्रपति की भूमिका निभाई. यह बात इससे ही सिद्ध होती है कि जब कलाम के शपथग्रहण के समय उनका परिवार दिल्ली आया था तो कुछ दिन वहाँ पर रुका; अपने परिवार के सभी खर्चे उन्होंने अपने आप ही किए; जबकि ये खर्चे सरकारी खर्च में जुड़ सकते थे। कलाम अविवाहित तो रहे ही; साथ ही उन्हे जमीन, मकान, कपड़े, गहने तथा रुपये आदि किसी भी भौतिक संपत्ति का लालच नहीं था। अपनी पेंशन भी वे परोपकार में ही खर्च कर देते थे। उनका कोई बैंक बैलेंस और चल-अचल संपत्ति उन्होंने नहीं जोड़ी। कपड़े आदि भी काम चलने लायक ही रखते थे। उनका सिद्धांत था -सादा जीवन उच्च विचार।
कलाम ने साहित्यिक रूप से भी अपने विचारों को अनेक पुस्तकों में लिखा जिनका कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साइंटिस्ट तो प्रेसिडेंट और विंग्स ऑफ़ फायर उनकी आत्मकथ्यात्मक पुस्तकें हैं, जिनमे उन्होंने अपने जीवन की कठिनाइयों तथा अपनी सफलता-असफलता आदि सभी बातों को लिखा है। इस प्रकार यह भारत के एक विशिष्ट वैज्ञानिक थे, जिन्हें 40 से अधिक विश्वविद्यालयों और संस्थानों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्राप्त हुई. राष्ट्रपति पद के कार्यकाल के बाद कलाम अनेक प्रबंधन संस्थानों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे तथा भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी संस्थान तिरुवनंतपुरम के कुलाधिपति भी रहे। इस दौरान उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में सूचना एवं प्रोद्यौगिकी को प्रतिस्थापित किया। विभिन्न उल्लेखों से पता चलता है कि कलाम आजीवन मुस्लिम धर्मग्रन्थ कुरान एवं हिन्दू धर्मग्रन्थ भगवद्गीता दोनों का ही अध्ययन करते रहे और इनमें जो भी बातें उन्हें अच्छी लगी वे उसी के अनुसार चलते रहे। सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न सहित अनेक देशी-विदेशी संस्थानों से अनेक पुरस्कार एवं सम्मान इन्हें प्राप्त हुए. वास्तव वे ऐसे व्यक्ति थे जिनको सम्मानित करने से संस्था या सरकार स्वयं में गर्व का अनुभव करती थी। कलाम युवाओं एवं बच्चों के बीच जाते ही रहते थे; उन्होंने कहा था कि मैं बहुत गर्व से यह तो नहीं कह सकता मेरा जीवन किसी के लिए आदर्श बन सकता है; लेकिन जिस तरह मेरी नियति ने आकर ग्रहण किया उससे किसी ऐसे गरीब बच्चे को सांत्वना अवश्य मिलेगी; जो किसी सुविधा विहीन छोटे गाँव में रह रहा हो; शायद मेरा जीवन उन्हें पिछड़ेपन और निराशा की भावना से उबरने में मदद कर सके.
स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कलाम ने भगवद्गीता में निर्देशित मानव जीवन के सार को चरितार्थ किया। गीता में लिखा गया है - "योग: कर्मषु कौशलम्" अर्थात् इच्छा रहित होकर कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को करना ही योग है और ऐसे योग से ही मानव का जीवन दुःख से मुक्त हो सकता है। कलाम के रूप में एक वैज्ञानिक का सामाजिक समर्पण सीखने लायक है।
27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंग में व्याख्यान देने गये थे उसी समय व्याख्यान देते हुए ही उनको दिल का दौरा पड़ गया। उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया; लेकिन बाद में उसी शाम इनकी मृत्यु हो गई. अपने निधन से लगभग 9 घण्टे पहले ही उन्होंने ट्वीट करके बताया था कि वह शिलोंग आईआईएम में लेक्चर के लिए जा रहे हैं। कलाम अक्टूबर 2015 में 84 साल के होने वाले थे। सोचने वाली बात यह है कि इतनी ज़्यादा उम्र में भी वे कितने सक्रिय थे। उनके जीवन का आदर्श था-कर्म ही पूजा है।
-0-