कर्मवाद और अवतारवाद / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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गीता की अपनी निजी बातों पर ही अब तक प्रकाश डाला गया है। मगर गीता में कुछ ऐसी बातें भी पाई जाती हैं, जो उसकी खास अपनी न होने पर भी उनके वर्णन में विशेषता है, अपनापन है, गीता की छाप लगी है। वे बातें तो हैं दार्शनिक। उन पर दर्शनों ने खूब माथापच्ची की है, वाद-विवाद किया है। गीता ने उनका उल्लेख अपने मतलब से ही किया है। लेकिन खूबी उसमें यही है कि उन पर उसने अपना रंग चढ़ा दिया है, उन्हें अपना जामा पहना दिया है। गीता की निरूपणशैली पौराणिक है। इसके बारे में आगे विशेष लिखा जाएगा। फलत: इसमें पौराणिक बातों का आ जाना अनिवार्य था। हालाँकि ज्यादा बातें इस तरह की नहीं आई हैं। एक तो कुछ ऐसी हैं जिन्हें ज्यों की त्यों लिख दिया है। इसे दार्शनिक भाषा में अनुवाद कहते हैं। वैसा ही लिखने का प्रयोजन कुछ और ही होता है। जब तक वे बातें लिखी न जाएँ आगे का मतलब सिद्ध हो पाता नहीं। इसलिए गीता ने ऐसी बातों का उपयोग अपने लिए इस तरह कर लिया है कि उनके चलते उसके उपदेश का प्रसंग खड़ा हो गया है।

मगर ऐसी भी एकाध पौराणिक बातें आई हैं जिन्हें उसने सिद्धांत के तौर पर, या यों कहिए कि एक प्रकार से अनुमोदन के ढंग पर लिखा है। वे केवल अनुवाद नहीं हैं। उनमें कुछ विशेषता है, कुछ तथ्य है। ऐसी ही एक बात अवतारवाद की है। चौथे अध्या य के 5-10 श्लोकों में यह बात आई है और बहुत ही सुंदर ढंग से आई है। यह यों ही कह नहीं दी गई है। लेकिन गीता की खूबी यही है कि उस पर उसने दार्शनिक रंग चढ़ा दिया है। यदि हम उन कुल छह श्लोकों पर गौर करें तो साफ मालूम हो जाता है कि पुराणों का अवतार वाला सिद्धांत दार्शनिक साँचे में ढाल दिया गया है। फलत: वह हो जाता है बुद्धिग्राह्म। यदि ऐसा न होता, तो विद्वान और तर्क-वितर्क करने वाले पंडित लोग उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। मजा तो यह है कि दार्शनिक साँचे में ढालने पर भी वह रूखापन, वह वाद-विवाद की कटुता आने नहीं पाई है जो दार्शनिक रीतियों में पाई जाती है। सूखे तर्कों और नीरस दलीलों की ही तो भरमार वहाँ होती है। वहाँ सरसता का क्या काम? दार्शनिक तो केवल वस्तुतत्व के ही खोजने में परेशान रहते हैं। उन्हें फुरसत कहाँ कि नीरसता और सरसता देखें?