कर्मवाद के बहाने / प्रताप सहगल

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मेरी लंबी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए मेरे एक मित्र ने एक जगह लिखा है कि प्रताप कर्म पर विश्वास नहीं करते। यह पढ़ते ही मैं चौंक गया था कि कोई मित्र दूसरे मित्र की राय को कितना ग़लत समझ सकता है। मैंने उनसे स्पष्टीकरण भी मांगा और अपनी बात को भी फिर स्पष्ट किया कि मेरा विश्वास कर्म में है और पूरी तरह से है, लेकिन गीता में जिस तरह से कर्म की व्याख्या करते हुए उसे अंततः मोक्ष से जोड़ दिया है, उस 'कर्मवाद' में मेरा विश्वास नहीं है।

मुझे अपने बचपन के दिन याद आते हैं। किशोरवय के दिन और कालिज के दिन भी। यह सच है कि उस उम्र में गीता का कर्मवाद बेहद आकर्षित करता है और 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' या 'दुखं सुखं समकृत्वा लाभालाभौ जया जयौ' जैसी पंक्तियाँ जीवन-मंत्र बन जाती हैं। यह भी सच है कि हिंदोस्तान और विशेष तौर पर हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग अपना सारा जीवन इसी दर्शन के सहारे गुज़ार देता है। लेकिन विकास की प्रक्रिया अगर कहीं होती है तो यह दर्शन बड़ा ही भ्रामक और यथास्थितिवाद को समर्थन देने वाला लगता है।

आत्मा एवं परमात्मा के सम्बंधों की चर्चा / व्याख्या वैदिक काल से ही होती रही है। उपनिषद् काल में इसे एक दार्शनिक आयाम प्रदान किया गया तो महाभारत काल में इस दर्शन को व्यावहारिक स्तरों तक पहुँचाया गया। इसका आकर्षण एवं तार्किक पक्ष इतना प्रबल दिखा कि ब्राह्मणवाद एवं वेदों के विरोध में खड़ा होने वाला बुद्ध भी कर्म एवं मोक्ष के दर्शन से बच नहीं सका। प्रश्न यह है कि आज के ज़माने में गीता के इस कर्मवाद की कितनी ज़रूरत है और यह कर्मवाद अंततः हमारे समाज को कहाँ ले आया है। इस दर्शन के अनुसार कर्म करो लेकिन फलाशा के बगै़र। इसी तरह की बात कांट की नैतिकता में भी व्याप्त है, जब वे कहते हैं कि 'कर्त्‍तव्‍य सिर्फ़ कर्त्‍तव्‍य के लिए' , लेकिन कोई भी मनोवैज्ञानिक इस बात को प्रमाणित कर देगा कि बिना फलाशा के मनुष्य कर्म में प्रवृत्त नहीं हो सकता। फलाशा के स्तर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन फलाशा न हो, यह संभव नहीं है। यह फलाशा ही एक तरह से मनुष्य की सरवाइवल इंस्टिंक्ट है।

अपने प्रवचन में कृष्ण बार-बार यह स्थापित करते हैं कि तू (अर्जुन) , अर्जुन यानी कोई भी मनुष्य, तो मात्र निमित्त है। शेष सब कृष्ण (यानी भगवान) ही है। वही कर्म करवाता है, वही फल देता है, वही पाप-पुण्य निर्धारित करता है, ज़ाहिर है कि यह कमाल एक लेखक के रूप में वेदव्यास का ही है और कृष्ण के रूप में भगवान की सत्ता स्थापित करके वेदव्यास ने उसे चुनौतियों से परे ले जाने की कोशिश की है, लेकिन इस 'कर्मवाद' को चुनौती देने की ज़रूरत है।

ऐसा नहीं कि यह कर्म का फंडा सिर्फ़ हिंदुओं में ही हो, विश्व के अन्य बड़े धर्म इस्लाम में भी कर्म के अनुसार सवाब और अज़ाब का फंडा है। वहाँ पुनर्जन्म नहीं है। पुनर्जन्म नहीं है, तो मोक्ष भी नहीं है। वहाँ बहिश्त है, दोज़ख है। स्वर्ग, नरक की कल्पना हिंदुओं में भी है, लेकिन वह एक पासिंग फेज़ है, वस्तुतः जो योनि-चक्र है और उसमें आत्मा को तब तक भटकना है जब तक वह मोक्ष प्राप्‍त नहीं कर लेती। इस मोक्ष-प्राप्ति के चक्कर में व्यक्ति को कर्म करने में स्वतंत्रता दी गई है तो दूसरी ओर उसे यह भी बता दिया गया है कि 'तू तो मात्र निमित्त है, वस्तुतः जो करता हूँ मैं ही करता हूँ, फल भी मैं ही भोगता हूँ, तब डर किस बात का है।'

कर्मवाद का विरोध इसलिए भी होना चाहिए कि यह जिनके पास है और जिनके पास नहीं है-उन दोनों की स्थितियों की व्याख्या कर्म-फल के आधार पर कर देता है, न इसका कोई डाटा है, न प्रमाण! बस कृष्ण ने कहा-सो भगवान ने कहा है, वही कर रहा है, उसे चुनौती कौन दे सकता है, तो यह कर्मवाद दोनों पक्षों के लिए अपने-अपने तर्क देता है। यही तर्क कुछ एक को आर्थिक एवं राजनीतिक वर्चस्व प्रदान करता है, लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से को मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रखता है। सिर्फ़ इतना ही तो कहना है 'ऐसे ही थे तेरे कर्म। इस जन्म में नहीं तो पिछले जन्म में किए होंगे।' इतना कहकर हम स्वयं को मुक्त कर लेते हैं उन उत्तरदायित्वों से, जिनका निर्वाह एक मनुष्य के नाते हमें करना चाहिए। कर्मवाद के नाम पर समाज के एक बड़े हिस्से को अपमानजनक एवं अमानवीय स्थितियों में बनाए रखने वाला 'कर्मवाद' एक मानवीय दर्शन कैसे हो सकता है?

मनुष्य किसी भी कर्म के पीछे राशनैल ढूँढ़ता है। ऐसा न हो तो मनुष्य का होना इररैशनल हो सकता है। ऐसे में ही अर्थहीनता का बोध होता है, जो अंततः व्यक्ति को आत्महत्या कि ओर भी ले जा सकता है। इसीलिए जीवन के अर्थहीन होने के बावजूद उसमें अर्थ भरने की, उसे अर्थ देने की कोशिश की जाती है। यह अर्थवत्ता जहाँ सामाजिक स्तर पर भरी जाती है, वहीं लोकोत्तर स्तर पर भी अर्थ दिया जाता है। इसी तर्क से ही सभी कलाएँ पैदा होती हैं, विकसित होती हैं, लेकिन 'कर्मवाद' का राशनैल क्या है? कुछ भी नहीं। बड़े मोटे तरीक़े से समझाने की कोशिश की जाती है कि 'बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाए।' 'जैसी करनी वैसी भरनी' जैसी लोकोक्तियाँ भी इसी ओर संकेत करती हैं, लेकिन यह हिसाब बड़ा सतही और मोटा लगता है। ऐसा कहकर हम मोटे तौर पर ही कर्मफल को समझा सकते हैं, लेकिन यह उक्तियाँ समाज एवं प्रकृति की उन शक्तियों को नज़रअंदाज़ कर देती हैं, जिनके चलते यह संभव है कि पेड़ चाहे किसी का भी बोया जाए, वह पैदा हो ही न। चोरी हो जाए, बदल दिया जाए और जैसी करनी वैसी भरनी की बात करेंगे तो ज़रा अपने इर्द-गिर्द ही देखिए कि आपके आसपास कौन कर क्या रहा है और भर क्या रहा है। नियम, कानून, कायदे को तोड़ने वाला समृद्ध है, खुश भी। उसे यह सब तोड़ते हुए कोई डर नहीं लगता, ग़रीब-गुर्बा, वंचित या अपने जैसों का ही हक़ छीनने में उसे कोई डर नहीं लगता। कर्मफल से भी वह परिचित है, फिर भी वह सब करता है, जो नैतिक एवं कानूनी दृष्टि से निषिद्ध है। एक नहीं कई-कई बबूल के पेड़ बोता है और बड़े आराम से आम की फ़सल काटता है। है कोई राशनैल! कहीं नहीं। उसके पास दूसरी तरह के तर्क होते हैं। वह गंगा नहाकर या ठाकुर जी को रोज़ भोग लाकर लेन-देन साफ़ कर लेता है और आम आदमी यह मानकर संतोष कर लेता है कि अमुक-अमुक को इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ज़रूर उन कुकर्मों का फल मिलेगा। वह एक भोली दुनिया में जीता है। कुछ समझ में नहीं आता तो 'धार्मिक उपदेशक' , प्रवचनकर्ता, भजनीक आदि उसे समझा देते हैं। उसके घावों पर कर्मवाद का मरहम लगा देते हैं। जाओ मस्ती मारो। तुम्हारा यह जन्म ठीक नहीं चल रहा तो कोई बात नहीं। पिछले जन्म के कर्मों का फल है। इस जन्म में अच्छे कर्म करो और अच्छी पूजा करवाओ, यज्ञ करवाओ, गंगा-स्नान करो, गोदान करो, ब्राह्मणों को खिलाओ, अगले जन्म में राजा बनोगे। ऐसा मोहक स्वप्न खड़ा किया जाता है कि अपढ़ तो क्या, ख़ुद को बहुत पढ़ा-लिखा और प्रगतिशील मानने वाला समाज भी इन्हीं चक्करों में फँसा गति ढूँढ़ रहा है।

भारतीय संदर्भ में हिंदू कर्मवादी संसार के सामने जो प्रतिसंसार खड़ा नज़र आता है, उसकी बुनियाद इस्लाम है। वहाँ सवाब और अज़ाब के चक्कर में फँसा व्यक्ति क़यामत के दिन होने वाले फैसले के लिए न जाने कितने रोज़े रखता है, नमाज़ अदा करता है और उसी इस्लामी समाज का आदमी कभी क्रुफ़ और कभी जेहाद के नाम पर क्या-क्या करता नहीं दिखता। वहाँ भी बहिश्त का मोहक स्वप्न मौजूद है। वहाँ भी कोई राशनैल नहीं है। सिर्फ़ आस्था है। विश्वास है और इसी आस्था और विश्वास का भरपूर लाभ उठाते हैं वे लोग जो कहीं न कहीं इनकी अर्थहीनता समझते या फिर उन्होंने हर कहीं अपने बचाव के रास्ते खोजे हुए हैं। यानी विज्ञान की बात मत कीजिए, साइंटिफिक टैंपर की बात भी मत कीजिए, समाज में व्याप्त द्वंद्वात्मक शक्तियों की बात बेहूदा और निराधार है। वस्तुतः सब तो कर्म से ही तय होता है। यह है हमारी दुनिया, जिसमें हम रह रहे हैं। शायद बहुत अकेले। शायद कुछ समझते हुए, समझने की कोशिश करते हुए। नासमझों के पास जवाब बिल्कुल तैयार होते हैं। एक मिसाल पेश है-जब अंजार, भुज में भूचाल से भयंकर तबाही हुई तो बातचीत करते हुए मैंने एक मित्र, जिन्हें कर्मफल के सिद्धांत में अटूट विश्वास है, से पूछा कि क्या सभी पापी अंजार, भुज में जा कर बस गए थे कि इतनी तबाही हुई और हज़ारों लोग मारे गए, लाखों बेघर हुए। उन्होंने जवाब देने में एक पल भी नहीं लगाया और कहा-"बिल्कुल और देखिए पुण्य आत्माएँ इतनी भयंकर तबाही में से भी बच निकली हैं।" है कोई जवाब इस बात का। असम में बाढ़ से लोग मरें या उड़ीसा में भूख से, गुजरात में दंगों से मरें या बंगलादेश में युद्ध से। हज़ारों महिलाओं के साथ बलात्कार हो या बच्चों का शोषण, कहीं भी लोग बेघर हों या अपाहिज-कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं। सभी अपने-अपने कर्मों का फल ही तो भोग रहे हैं। कितना आसान तर्क (कुतर्क) है किसी भी अमानवीयता कि व्याख्या करने का। जो यह सब कर रहे हैं, उनका क्या! पता नहीं। ग़लत कर रहे हैं तो अपने किए का फल पाएँगे। सदियों इंतज़ार करो। कौन कर्ता है, कौन फल का भोक्ता है। कहाँ है यह सब डाटा। कौन-सा बैंक है वह जहाँ यह हिसाब-किताब रखा जाता है। इन बातों का कर्मवाद में कोई जवाब नहीं। जवाब तो क्या, इस तरह के प्रश्नों एवं संदेहों की जगह भी नहीं। एक बार संदेह किया था अर्जुन ने तो उसे अठारह अध्याय सुनने पड़े। जब तक कृष्ण के अध्याय पूरे नहीं हुए, उनका प्रवचन जब तक रुका नहीं, तब तक प्रतिपक्ष के लोग अपनी प्रत्यंचाएँ खींच कर खड़े रहे, खड्ग आसमान की ओर कर दिए या फिर म्यान से निकाले ही नहीं। इस सारी प्रक्रिया को हम रूपक मान लें तो बात दूसरी है, लेकिन विश्वास और आस्था कि बात है। संदेह करने वाला घोर पातकी है। पर यह पातकी संदेह करने से, प्रश्न करने से रुक नहीं सकता।

कर्मफल सिद्धांत को अगर हिंदुओं का दर्शन मान लें तो यह एक सैक्टेरियन दर्शन बनकर रह जाता है। कर्म करने, फल मिलने, फल भोगने, जैसे प्रश्नों पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो हम नैचुरलिस्टक डिटरमिनिज़्म के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं, वहाँ भी फ्री विल की बात है, लेकिन वह कई करोड़ों देखे एवं अदेखे, समझे-असमझे कारकों के साथ जुड़ी हुई है, जो अंततः व्यक्ति को फैटलिज़्म की ओर ही ले जा सकती है। ऐसे में व्यक्ति को-अपनी नैतिकता स्वयं तलाशनी होती है, गढ़नी होती है। बहुत सोच-समझ के मानवीयता एवं अमानवीयता के दायरे तय करने होते हैं। लेकिन ऐसी समझ विकसित करने की कोशिश नहीं होती। व्यक्ति को बचपन से ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और गिरजाघरों में कंडीशंड किया जाता है। उसे सोचने-समझने वाली सत्ता बनाने के बजाए रोबो बनाया जाता है, जहाँ वह किसी शंकराचार्य, मुल्ला, जत्थेदार या पादरी के आदेशों का इंतज़ार करता है। सभी के आदेश ऊपरी सतह पर मानवीय लगते हैं, लेकिन व्यवहार में आते ही वे दियासलाई की तीलियाँ और बंदूक की गोलियाँ बन जाते हैं। अजब क़िस्म का खेल है यह! कई बार यह कर्मवाद भाग्यवाद का अतिवादी चेहरा बन जाता है-'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम'-दाता है सब को देने वाला-अकर्मण्यता कि इस सीमा तक भी पहुँचा देता है यह कर्मवाद। कर्मवाद को भगवान की आत्यंतिक सत्ता के साथ बाँध कर इससे पूरे समाज को बाँधने की कोशिश की गई है। न तो भगवान आत्यंतिक सत्ता है और नाही कर्मवाद कोई आत्यंतिक सत्य। सत्य कभी आत्यंतिक होता ही नहीं, है तो दिखता नहीं। दिखता है आंशिक सत्य है-यह समझते हुए ही कोई अपने लिए नैतिकताएँ तैयार कर सकता है। यह एक मुश्किल प्रक्रिया है। लेकिन इसी प्रक्रिया से गुज़रकर ही मनुष्य अधिक मानवीय हो सकता है-एक बेहतर इंसान। इसलिए कर्मवाद में जो प्रदत्त है, सबसे पहले उसे चुनौती देना ज़रूरी है।