कर्मवीर महाराणा प्रताप / गणेशशंकर विद्यार्थी
'बलिदान केवल बलिदान' - चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी बलिदान चाहती है। बादल उमड़े थे, बिजलियाँ कड़की थीं और घोर अंधकार छा गया था। अपवित्रता पवित्रता पर कब्जा करना चाहती थी और अनाचार आचार और व्यवहार की ईंट से ईंट बजा देने वाला था। हृदय काँप उठे थे, अशांति की लहरें बड़े जोरों से शांति के किले के कँगूरों को एक-एक करके ढा रही थी। सूर्यदेव भी अपने वंशजों को सदा के लिए अंधकार में छोड़ देने के लिए तैयार थे और चित्तौड़ की दीवारें भी ऊँचा सिर रखते हुए नीची नजर कर चुकी थीं। बेढब बाजी लगी थी। पद्मिमनी का दाँव था। पाँसे उलटे पड़ रहे थे। लेकिन रुख बदला। किसी की दया या कृपा से नहीं और किसी की कमजोरी या नीचता से भी नहीं। रक्त की वर्षा हो गयी। रक्त की प्यासी भूमि की प्यास मिट गयी। चित्तौड़ की देवियों को राख का ढेर होते देख कर चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी के हृदय का ताप मिट गया।
फिर वही दृश्य और फिर वही कार्य। समय के पहिए घूमे और चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी ने, दया से या निर्दयता से, फिर अपना खप्पर हाथ में ले लिया। वीरों ने फिर उसे अपने अमूल्य खून से भर दिया। लेकिन जयमल और उसके वीर साथियों का रक्त उसकी प्यास को न बुझा सका। चित्तौड़ की देवियों ने अपने कोमल शरीरों को उसके लिए अग्नि के सुपुर्द किया। लेकिन उन्हें मुट्ठी-भर ही खाक में पलट जाते हुए देख कर उसके हृदय की जलन और बढ़ी, और इतनी बढ़ी कि वह स्वयं चित्तौड़ से आगे बढ़ गयी। चित्तौड़ खाली हुआ। अकबर का झंडा उस पर फहराने लगा। चित्तौड़ के दरोदीवार ने आँसू बहाए। हाथ उठा कर उन्होंने अपने कुल-संरक्षक सूर्य और गंभीर आकाश की दुहाइयाँ दीं, लेकिन सूर्य से न किसी अग्नि की चिनगारी ने गिर कर इस्लामी झंडे को जला दिया और न आकाश की गंभीरता ही ने उसकी दासता की मात्रा को कम किया। चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी चाहती है, 'बलिदान'!
"उदयसिंह! आगे बढ़ और अपने प्राण उसकी पवित्र वेदी पर कुर्बान कर। लेकिन अरे! यह क्या? देवी की प्रतिष्ठा करने के लिए उठ कर आगे बढ़ने के बजाय तू पीठ दे कर भागता है! याद रख, तेरी इस भीरुता का फल अच्छा न होगा और आने वाली संतानें बड़ी ही शर्म से तेरा नाम लेंगी। सचमुच वह दिन चित्तौड़ के लिए बड़ा ही आभागा था, जिस दिन पन्ना ने तेरे लिए अपने बच्चे के लिए हृदय में कटारी घुसने दी। हत्यारे का शिकार तो तुझी को होना था, जिससे फिर चित्तौड़ की लाज का शिकार तू इस निर्लज्जता के साथ न करने पाता। चित्तौड़ ने स्वतंत्रता के दिन भोगे थे और अब कालचक्र तेरी आड़ ले कर उसे परतंत्रता की सुनहली जंजीर से जकड़ने के लिए आगे बढ़ा है। हे भीरु और पतित आत्मा! चल, आगे बढ़ और दूसरे के लिए स्थान छोड़! ईश्वर के लिए नहीं, देश और जाति के लिए नहीं। जिन्होंने तेरे पूर्वजों की आन-बान कायम रखने के लिए रणकुंड में अपनी आहुति दे दी थी, बल्कि अपनी ही आत्मा की शांति के लिए। जा, इस संसार से उठ जा और उस महापुरुष के लिए स्थान खाली कर, जिसके और राणा संग्रामसिंह के बीच में, यदि तूने जन्म लेने का कष्ट न उठाया होता, तो चित्तौड़ को अपनी स्वाधीनता शत्रुओं के हाथ मिट्ठी के मोल न देनी पड़ती।"
"आओ प्रताप, आओ, लेकिन पहले परीक्षा दो। स्वतंत्रता देवी के पवित्र मंदिर में उनके लिए स्थान नहीं, जिनके हृदय का स्थान छोटा है। कैसे परीक्षा दोगे? अपने सिर को कटा कर नहीं, बल्कि अपने सिर को अपने धड़ पर कायम रख कर बराबर उसके काटे जाने का कष्ट सहते हुए, महलों ही को छोड़ कर नहीं, लेकिन इस भीष्म शपथ को ले कर कि जब तक चित्तौड़ स्वाधीन नहीं होता, जब तक उसकी दीवारें सिर उठा कर संसार के साथ नजर न मिला सकें, जब तक उन वीर पुरुषों और वीर स्त्रियों की आत्माएँ, जिनके खून से चित्तौड़ की भूमि सिंची हुई है, अपने मनोवांछित कामों को पूरा होते देख कर प्रसन्न न हो जायें, तब तक फूस पर सोएँगें, पत्तों पर खाएँगे और शारीरिक सुखों का स्वप्नों में भी खयाल न करेंगे।" तपस्या का यही अंत नहीं। जो सिर स्वतंत्रता देवी के सामने झुका, याद रखो, उसे अधिकार नहीं कि संसार की किसी शक्ति के सामने झुके। तलवार की धार पर चलना है, लेकिन याद रखो, तुम्हारे मुँह से उफ् भी निकली, और तुम गये। ऐसे जाओगे कि कहीं भी पता न लगेगा और अपने साथ ही कितनी ही आशाओं और देश के कितने ही शुभ गुणों को लेते जाओगे।"
अच्छा आदर-सत्कार पाने पर विभीषण मानसिंह चित्तौड़ के कुमार से बोला-"राणा जी के सिर में जो दर्द है, उसकी दवा ले कर शीघ्र ही लौटूँगा।" विभीषण-चिकित्सक मानसिंह शीघ्र ही लौटा। हल्दीघाटी के मैदान ने इस सुयोग्य चिकित्सक का आव्हान किया। प्रताप भी अपनी कठिनाइयों का पहला पाठ पढ़ने के लिए इस रणक्षेत्र की ओर आगे बढ़ा। 22,000 साथी, लेकिन अंत में 8,000 ही बचे, शेष सब प्रताप को गुरु-दक्षिणा में देने पड़े। घमासान युद्ध! प्राणों का बाजार पूरा गरम! भीषणता और उसका सच्चा महत्व उसी समय समझ सकते हो, जब एक किसान की कुटी की शांति और सौम्यता से इस दृश्य की तुलना करो। मनुष्य की पाशविक शक्ति का पूरा नमूना, लेकिन साथ ही संसार के उज्जवल गुणों का पूरा खजाना। सैनिक मरते हुए एक पर एक गिर रहे हैं। ढाल-लेकिन अंत में कोमल शरीर ही ढाल का काम देते हैं। तलवार-मनुष्य के रक्त की तरलता देख कर उसका पानी और भी तरल हो जाता है। बर्छियाँ-जरा-सा भी अन्याय नहीं करतीं। इस यज्ञ-कुंड में, प्रताप, तुम अपनी जान की बार-बार आहुति दे रहे हो। लेकिन तुम इस तरह से छुटकारा नहीं पा सकते, तुम्हें संसार में रह कर संसार से संग्राम करना है। मानसिंह, लेकिन वह विभीषण के हवाले कर प्रताप के सामने न आ सका। ओह! सलीम बच्चा है, छोड़ो प्रताप, उसे छोड़ो। आह, अब तुम बेतरह घिर गये। तुम अकेले और ये इस्लामी सिपाही सैकड़ों! तुम्हारा मुकुट इस समय तुम्हारा शत्रु हो गया है। फेंक दो उसे। लेकिन कितने मारोगे? एक, दो, तीन। अरे, वे आते ही जाते हैं, अब भी फेंक दो, फेंको भी देश और जाति को, नहीं संसार को तुम्हारी जान तुम्हारे सोने के तुच्छ मुकुट से ज्यादा प्यारी है। नहीं फेंकोगे? अच्छा राजपूत वीरो, आगे बढ़ो! देखो, तुम्हारा अधिपति मुफ्त ही में जा रहा है। बढ़ो आगे, बचाओ, बचाओ। हाँ, सदरी के झाला! तुम, हाँ बढ़ो, बढ़ो बसठी के झाला के सिर पर मुकुट है। मुगल तलवारें झाला पर पड़ने लगीं। प्रताप को उन्होंने छोड़ दिया। एक जान के बदले दूसरी जान। झाला ने अपनी जान दे कर अधिक कीमती जान बचा ली। रक्त-नदी बह उठी। लेकिन, चित्तौड़ की स्वतंत्रता देवी की प्यास न बुझी। अभी तो परीक्षा आरंभ ही हुई है। प्रताप, एक किले के बाद दूसरा किला दो। अब किले नहीं रहे तो जाओ, पहाड़ियों और जंगलों की खाक छानो। ऐं, रसद बंद हो गयी, तो क्या हर्ज? पत्ते कहीं नहीं गये, जंगल का साया और कोदों का कोई हाथ न पकड़ लेगा। आज यहाँ, तो कल वहाँ, घास की रोटियाँ खाते ही मुगल आ पहुँचे। लड़ते-भिड़ते निकल चलो। सोने का बिछौना नहीं, कोई हर्ज नहीं। बड़ों के लिए पत्थर की चट्टानों और बच्चों के लिए बाँस के पालने ही सही। अँधेरी रातें, धधकती दुपहरिया, कड़ाके का जाड़ा, वर्षा की रिमझिम, आत्मा की आग और परमात्मा की उदासीनता। साथियों का मरते जाना और सैनिकों का कम होते जाना, कठिन तपस्या और कठोर व्रत। आराधना और स्वतंत्रता देवी की पूरी पक्की आराधना। चंचलता फटकने न पावे और अकर्मण्यता पास न आने पावे। एक दिन नहीं और दो दिन भी नहीं, एक साथ पच्चीस वर्ष तक।
यह कैसी चीत्कार? चित्तौड़ की राजकुमारी के हाथ से एक वन-बिलाव घास-पात की रोटी छीन ले गया। राजकुमारी चीख उठी। बिलाव के डर से नहीं, भूख के डर से। राजकुमारी और रोटी के लिए तरसे, लेकिन प्रताप, यह क्या? तुम्हारी आत्मा काँप उठी? लड़की की वेदना देख कर और परिवार के कष्टों से क्या अब स्वतंत्रता देवी को अंतिम नमस्कार करना चाहते हो? शांत हो और जरा विचारो। देखो, वह तुम्हारे शत्रु, नहीं, स्वतंत्रता के शत्रु अपने खेमों में घी के दीप जला रहे हैं। क्यों? तुम्हारी हिम्मत टूटती हुई देख कर। इन दीपकों के घी और बत्ती के साथ, सच बताओ, तुम्हारा हृदय जला कि नहीं? हाँ, जला और अब उस जले पर नमक छिड़कने की जरूरत नहीं।
हो चुका। बस, चित्तौड़ की पवित्र भूमि, तुझे नमस्कार है। तुझे छोड़ता हूँ। लेकिन स्वतंत्रता की देवी का पल्ला नहीं छोड़ता। जो था, सो सब इस देवी को अर्पण हो चुका। शरीर में जो हड्डियाँ बाकी हैं, वे भी उसके अर्पण हो चुकी हैं। जननी जन्मभूमि! अंतिम दर्शन है। ले, आज्ञा दे!
प्रताप, आगे मत बढ़ो। तुम्हारी सच्ची माता तुम्हें बुला रही है। हरिश्चंद्र अपनी दासता के कर्तव्य में, जब हद से ज़्यादा आगे बढ़ गये थे, तब कहते हैं कि निराकर प्रभु ने आ कर उनका हाथ पकड़ा था। मेवाड़ की भूमि भी तेरा पैर पकड़ रही है। देख, उसका एक सपूत आगे बढ़ता है। भमाशाह तेरे पैर थामता है। देश को मत छोड़, वह तुझे छोड़ने के लिए तैयार नहीं। भाग्य भी अभी तक तुझे छोड़े था, लेकिन अब वह प्रार्थना करता है, उसे मत छोड़। ले धन! पच्चीस हजार आदमी इस धन से बारह वर्ष तक खा सकेंगे। तेरी साहस और तेरी दृढ़ता और उदारता के सामने उसका आसन डोल उठा है। देख, इस समय उसके हाथ में खप्पर नहीं, उसके हृदय में जलन नहीं, शांति से वह मुस्करा रही है, उसके हाथों में माला है और देख, वह तेरे गले में गिरती है।
महान् पुरुष, निस्संदेह महान्, पुरुष। भारतीय इतिहास के किसी खून में इतनी चमक है? स्वतंत्रता के लिए किसी ने इतनी कठिन परीक्षा दी? जननी जन्मभूमि के लिए किसने इतनी तपस्या की? देशभक्त, लेकिन देश पर अहसान जताने वाला नहीं, पूरा राजा, लेकिन स्वेच्छाचारी नहीं। उसकी उदारता और दृढ़ता का सिक्का शत्रुओं तक ने माना। शत्रु से मिले भाई शक्तिसिंह पर उसकी दृढ़ता का जादू चल गया। अकबर का दरबारी पृथ्वीराज उसकी कीर्ति गाता था। भील उसके इशारे के बंदे थे। भामाशाह ने उसके पैरों पर सब कुछ रख दिया। विभीषण मानसिंह उससे नजर नहीं मिला सकता था। अकबर उसका लोहा मानता था। खानखाना उसकी तारीफ में पद्य रचना करना अपना पुण्य कार्य समझता था। जानवर भी उसे प्यार करते थे और घोड़े चेतक ने उसके ऊपर अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। स्वतंत्रता देवी का वह प्यारा था और वह उसे प्यारी थी। चित्तौड़ का वह दुलारा था और चित्तौड़ की भूमि उसे दुलारी थी। उदार इतना कि बेगमें पकड़ी गयीं और शान-सहित वापस भेज दी गयीं। सेनापति फरीद खाँ ने कसम खायी कि प्रताप के खून से मेरी तलवार नहायेगी। प्रताप ने सेनापति को पकड़ कर छोड़ दिया।
अंतिम काल। जान नहीं निकलती। लेकिन, राणाजी, क्यों? मुझे विश्वास नहीं कि मेरे बाद चित्तौड़ की स्वाधनीता कायम रह सके। क्यों? राजकुमार अमरसिंह इतना दृढ़ नहीं। राजकुमार दृढ़ न सही, मेवाड़ के वे सरदार राणाजी की कसम खाते हैं कि हम अपने खून से स्वतंत्रता के उस बीज को, जो तूने बोया, सींचेंगे। शांति और उसकी आत्मा शरीर से बाहर हो कर स्वतंत्रता देवी की पवित्र गोद में जा विराजी। प्रताप! हमारे देश का प्रताप! हमारी जाति का प्रताप! दृढ़ता और उदारता का प्रताप! तू नहीं है, केवल तेरा यश और कीर्ति है। जब तक यह देश है, और जब तक संसार में दृढ़ता, उदारता, स्वतंत्रता और तपस्या का आदर है, तब तक हम क्षुद्र प्राणी ही नहीं, सारा संसार तुझे आदर की दृष्टि से देखेगा। संसार के किसी भी देश में तू होता, तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते। अमरीका में होता तो वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन से तेरी किसी तरह कम पूजा न होती। इंग्लैंड में होता तो वेलिंगटन और नेल्सन को तेरे सामने सिर झुकाना पड़ता। स्कॉटलैंड में बलस और रॉबर्ट ब्रूस तेरे साथी होते। फ्रांस में जोन ऑफ आर्क तेरे टक्कर की गिनी जाती और इटली तुझे मैजिनी के मुकाबले में रखती। लेकिन हाँ! हम भारतीय निर्बल आत्माओं के पास है ही क्या, जिससे हम तेरी पूजा करें और तेरे नाम की पवित्रता का अनुभव करें! एक भारतीय युवक, आँखों में आँसू भरे हुए, अपने हृदय को दबाता हुआ लज्जा के साथ तेरी कीर्ति गा नहीं-रो नहीं, कह-भर लेने के सिवा और कर ही क्या सकता है?