कर्म से तपोवन तक / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव
वनस्थली में निर्मित स्वयंवर के लिए तैयार किया मंडप ऐसा लग रहा था मानो स्वयं विश्वकर्मा ने अपने हाथों से निर्मित किया हो ।मंडप में सभी निमंत्रित महानुभावों के लिए अनुकूल आसन थे ।किंतु वानप्रस्थ ग्रहण किये राजा ययाति और शर्मिष्ठा कुशासन पर विराजमान थे ।धूप दीप से मंडप सुगंधित हो जगमगा रहा था।
माधवी को सखियों ने सोलह श्रंगार से सजाया था ।गौर वर्ण पर चंपई सुनहरी रंग का रेशमी परिधान मानो सूर्य रश्मियों को बिखरते सरोवर पर उगता हुआ श्वेत कमल पुष्प। उसके कक्ष में माता शर्मिष्ठा ने आभूषणों से भरा थाल भिजवाया था। यह सोचकर कि वह राजपुत्री है अतः उसे जो भी आभूषण पसंद आयें पहनेगी।
हालांकि यह आश्रम में तैयार किया स्वयंवर मंडप है और वह वानप्रस्थ ग्रहण किये पिताश्री की पुत्री ।किंतु है तो वह राज महलों की निवासिनी। वासवदत्ता ने रत्न जड़ित हार थाल में से उठाकर उसे पहनाना चाहा किंतु माधवी ने उसे रोक दिया ।
"वासवदत्ता ,अब मैं राज महल की रही कहाँ। अब मैं भी तो वनवासी हूँ ।और वनवासी का कैसा श्रंगार ?"
अन्य सखियों के उसे आभूषण पहनाने को आतुर हाथ जहाँ के तहाँ रुक गये। माधवी सभी वस्तुओं से विरक्त लग रही थी ।बहुत आग्रह करने पर उसने पुष्पों से बने आभूषण धारण किए। वन सौंदर्य मानो उसके अंग अंग में समा गया था ।रेशमी बालों की चोटी मोगरे की कलियों से गुंथी हुई, कुछ इसी तरह का श्रंगार तो उशीनर ने उसका किया था। जब वे हिमालय की वादियों में भ्रमण कर रहे थे।
मन ने कहा 'भूल जाओ माधवी, उन दिनों को अपनी स्मृति से निकाल दो।'
'कैसे-कैसे भूलूँ? जिन वर्षों ने उसके जीवन का हर पल छीन लिया। जिन वर्षों ने उसे भाग्य चक्र में तेज घुमाकर तपती भूमि पर ला पटका। कैसे भूल सकती है वह उन वर्षों को जब गालव काशी, अयोध्या और भोजनगर के राजाओं से अश्वों की याचना कर रहा था। किसी ने भी तो नहीं कहा कि वे बिना शुल्क वसूले उसे अश्व दे देंगे। किसी ने भी इसे पुण्य का कार्य नहीं माना जबकि तीनों राज्य के राजा प्रजा हित के लिए ही तो सिंहासन पर विराजमान थे। इतने कटु अनुभवों को कैसे भूल जाए माधवी? हाँ भूल सकती थी अगर गालव का साथ होता, किंतु गालव ने तो बीच मझधार में उसे त्याग दिया ।
उसके हृदय की पीड़ा उसके कोमल चेहरे पर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी।
तभी परिचारिका दौड़ती हुई आई- "राजकुमारी चलिए। स्वयंवर का मुहूर्त हो चुका है ।"
माधवी ने वासवदत्ता का हाथ पकड़ा और दृढ़ निश्चय से स्वयंवर मंडप की ओर मंथर गति से चलने लगी। मंडप में प्रवेश करते ही उसके रूप की चकाचौंध से वहाँ बैठे राजकुमार ,राजा ,महाराजा तपस्वी पलकें झपकाने लगे। वहाँ अयोध्या नरेश हर्यश्व भी थे,काशी नरेश दिवोदास भी ।भोजपुर नरेश उशीनर उसे कहीं दिखाई नहीं दिये और वह चौथा पुरुष ? उसकी बर्बादी का सबसे अधिक ज़िम्मेदार , वह तपस्वी ,वह ब्रम्हर्षि ,अपने शिष्यों को उच्च कोटि के ज्ञान से शिक्षित करने वाला ,लेकिन माधवी को देखते ही जो सारा ज्ञान भूल बस एक देह बन गया था। वह देह जो कामातुर हो माधवी को अपने आलिंगन में भरने को आतुर हो उठी थी। उसे तो उसके पिताश्री गाधि द्वारा अपनी पुत्री को दहेज में दिये विलक्षण अश्वमेधी अश्व भी वापस मिल गए, पुत्र भी मिला और माधवी जैसी स्त्री की देह का सुख भी। वाह,भाग्य हो तो ऐसा। ऐसों को ही तो भाग्यवान बनाता है ईश्वर।
किंतु माधवी इन सभी पुरुषों पर भारी है क्योंकि उसके बिना गुरु दक्षिणा पूरी करना असंभव था। क्योंकि इन पुरूषों को पुत्र नहीं होने से इनकी वंशावली का कोई मूल्य नहीं था।
हाथों में वरमाला पकड़े माधवी ने पूरे मंडप का चक्कर लगाया। फिर पिताश्री राजा ययाति के पास आकर खड़ी हो गई ।कुछ पलों के लिए मंडप में सन्नाटा छा गया। सब सांस रोके प्रतीक्षा कर रहे थे कि अगले पल न जाने क्या हो?
माधवी ने नेत्रों को उठाते हुए सब की ओर देखा-
"आप सभी राजकुमारों, राजाओ, तपस्वियों,ऋषि मुनियों का अभिनंदन करते हुए मैं दानवीर राजा ययाति की पुत्री माधवी बस एक प्रश्न आपसे करना चाहती हूँ।"
सभा मंडप में खुसर पुसर आरंभ हो गई। पिताश्री राजा ययाति ने आश्चर्य से माधवी की ओर देखा। मानो जानना चाहते हों उस प्रश्न को सभी से कहने के पहले उनसे क्यों गोपनीय रखा गया।
"अपने हृदय पर हाथ रखकर आप स्वयं से पूछिए ।क्या आप चार पुत्रों की माता को अपनी अर्धांगिनी बनाएँगे ? मात्र स्त्री के लिये बनाई गई ऐसी कट्टरपंथी परंपराओं के अनुसार समाज इसे स्वीकार करेगा ?क्या यह धर्म के विपरीत नहीं होगा? वह धर्म जिसकी लक्ष्मण रेखा केवल स्त्री के लिए खींची गई?पुरुष के लिये नहीं।
बताइए?"
सभा मंडप में सन्नाटा छा गया। पिताश्री राजा ययाति अपने स्थान से उठकर खड़े हो गए-"पुत्री तुम्हें तो कौमार्य का वरदान मिला है। सदा अक्षता बने रहने का।"
"वही तो ,वही तो पिताश्री, इसी वरदान के कारण तो आपने स्वयंवर रचाया। वरना है किसी में हिम्मत चार पुत्रों की माता से विवाह रचाने की ? समाज धिक्कारेगा नहीं उन्हें और फिर पिताश्री भले ही मैं पुनः अक्षतयौवना हूँ किंतु चार बार गर्भधारण किया है न मैंने। चार बार मेरी देह का उपभोग तो हुआ है न पिताश्री।"
सभा मंडप में बैठे प्रत्येक व्यक्ति ने माधवी के तर्क के आगे सिर झुका लिया। उनकी वाणी मूक हो गई थी ।पत्ता भी खड़कता तो तूफान आने का संदेह होता ।
तभी शर्मिष्ठा अपने स्थान से खड़े होकर बोली-"ठीक कह रही है पुत्री माधवी। विडंबना तो देखिए कि उसके चार पुत्रों में से दो के पिता इस स्वयंवर मंडप में उपस्थित हैं।"
"शांत रहें देवी शर्मिष्ठा। यह समय तर्क का नहीं है।" ययाति ने शर्मिष्ठा को रोकते हुए कहा।
"यही तो उचित समय है महाराज, एक दो राजकुमारों को छोड़कर बाक़ी सभी पत्नी और पुत्रों वाले हैं ।फिर भी वे स्वयंवर में भाग लेने आए ।यह पुरुष के लिए धर्म का खुला मार्ग नहीं है क्या? जिसे लांघना स्त्री के लिए अपराध है।" शर्मिष्ठा सभा की ओर उन्मुख हुई
"इस स्थिति में जो भी मेरी पुत्री से विवाह करना चाहता है कृपया स्वयं आगे आए।"
स्वयंवर सभा में बहुत देर तक मौन रहा। माधवी के लिए इस अपमान को झेल पाना कठिन हो रहा था।
"देखा माताश्री आगे आया कोई मुझसे विवाह करने को? नहीं माताश्री नहीं । भोगी हुई स्त्री को अपनी पत्नी बनाना पुरुष की प्रतिष्ठा और धर्म के अनुकूल कहाँ है? जाइए आप सब , इसके पहले कि आप मुझे अब अस्वीकार करें । मैं ही आप सबको अस्वीकार करती हूँ। आप में से कोई भी मेरा पति कहलाने के योग्य नहीं है।"
कहते हुए माधवी ने पिताश्री राजा ययाति और शर्मिष्ठा के चरण स्पर्श किए और सभा मंडप से प्रस्थान करते हुए कहा -
"शेष जीवन मैं तपोवन में व्यतीत करने का प्रण लेती हूँ।
हाथों में पकड़ी माला सहित उसने आकाश की ओर देखते हुए कहा-
"हे समस्त देवी देवताओं, साक्षी हो तुम माधवी के विनाश के ।"
पलभर मौन रहकर माधवी ने दृढ़ स्वरों में कहा-
"किंतु माधवी टूटी नहीं वह पूरी ऊर्जा, पूरे विश्वास से आज स्वयंवर मंडप में तपोवन को स्वीकार करती है।"
उसने स्वयंवर मंडप के द्वार से बाहर तपोवन की ओर माला उछाल दी। फिर जहाँ खड़ी थी वहीं से मुड़ कर कहा-" मेरे जीवन में आए जिन पुरुषों से मैं ठगी गई हूँ ।अंदर तक टूट गई हूँ उस टूटन,उन दरारों को मैं स्वर्ण से जोड़कर और भी अधिक मूल्यवान बना लूँगी।
मेरा अतीत मुझे बिखरने नहीं देगा मैं जानती हूँ ।जीवन कभी भी इतना नहीं तोड़ता कि पुनः खड़े न हो सकें। स्वयं को समेट न सकें। जो भी हुआ मैंने उसका सामना किया और पूरे हौसले से उस परिस्थिति से निकली। जीवन इतना बुरा भी नहीं ।मैं जानती हूँ जीवन हर बार नया रूप चाहता है और इस नए रूप को पाने के लिए चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ता है।
आप देखेंगे तपस्विनी माधवी सदियों तक एक दृढ़ व्यक्तित्व के रूप में याद की जाएगी। आपसे सदा के लिए विदा चाहती हूँ।"
कहते हुए माधवी ने प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े और स्वयंवर मंडप के द्वार से बाहर निकल गई।
विस्फारित नेत्रों से सभी माधवी को तपोवन की ओर जाते हुए देखते रहे। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उसे रोक पाते।