कर्म से तपोवन तक / भाग 1 / संतोष श्रीवास्तव
सघन वन में संध्या दोपहर ढलते ही प्रतीत होने लगती है ।माधवी ने अपने आश्रम के भीतरी प्रकोष्ठ से गगरी उठाई और वृक्षों की हरीतिमा में छुपी ऊँची नीची ढलानों पर बहती नदी की ओर चल दी ।नदी का बहाव हमेशा तेज ही रहता है। किंतु निर्मल जलधारा मनमोह लेने में सिद्धहस्त है । खिंची चली आती है माधवी और फिर थोड़ा समय नदी के किनारे बैठने को वह विवश हो जाती है। आज भी गगरी जलधारा की ओर लगाई ही थी कि लगा गालव खड़ा है उसके पीछे। जिसका प्रतिबिंब वह नदी के जल पर स्पष्ट देख रही है। देख रही है कि किस तरह उसने गालव और उसके मित्र गरुड़ के साथ इसी प्रयाग वन में प्रथम रात्रि गुज़ारी थी। प्रथम रात्रि ...उसके जीवन के कठोर कंटकाकीर्ण पथ की साक्षी जिसकी ओर उसके क़दम बढ़ चुके थे ।
वह पौष मास की बेहद ठंडी रात्रि थी ।खुले वन में ओस टपकाते आसमान के नीचे तीनों बैठे थे ।गरुड़ सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी कर लाया था और उन्हें जलाकर अलाव के आसपास तीनों विश्राम कर रहे थे। अचानक उत्तर दिशा की ओर से टूटते तारे को देखकर गालव ने कहा-"देखो मित्र गरुड़, उस टूटते तारे को ।धरती की ओर तेजी से आता तारा अभी भी प्रकाशित है। मेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। गुरु विश्वामित्र की दक्षिणा मैँ अवश्य दे पाऊँगा ।"
"और तुम गुरु दक्षिणा न दे सकने के क्षोभ में आत्महत्या करने चले थे। तपस्वी मुनि तुम और काम कायरों जैसा !संसार से पलायन भी भीरु पुरुषों का काम है गालव।"
"तुम नहीं समझ सकते गरुड़। अश्वों की चिंता ने मेरा सुख चैन छीन लिया था ।जीवन निरर्थक लगने लगा था ।ऐसे जीवन का नष्ट हो जाना ही अच्छा था ।"
किंतु तुम्हारा हठ ही तो तुम्हारी दुश्चिंता का कारण था। गुरु विश्वामित्र के बार-बार गुरु दक्षिणा लेने को मना करने पर भी तुम दुराग्रह करते रहे।"
"वह दुराग्रह नहीं था मित्र गरूड़, शास्त्र कहता है दक्षिणा युक्त कर्म ही सफल होता है। दक्षिणा देने वाला पुरुष ही सिद्धि को प्राप्त होता है। माधवी चुपचाप दोनों का वार्तालाप सुन रही थी ।वह जानती थी गालव अश्व प्राप्त करने के लिए धन की
याचना लेकर ही पिताश्री के पास आया था ।किंतु वानप्रस्थ धारण किए वनवासी पिताश्री कहाँ से देते धन? उन्होंने माधवी को ही अपनी संपत्ति मानते हुए गालव को दान में दे दिया।
आह, पुत्री नहीं संपत्ति! वह दानवीर राजा ययाति की संपत्ति माधवी, पिताश्री के शब्द कानों में गर्म लावे-सा टपक रहे थे-
"मुनिवर, गुरु दक्षिणा दुर्लभ है। चंद्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण और श्याम कर्ण के 800 अश्व एक ही राज्य में मिलना असंभव है। मेरे राज्य में तो इस तरह का एक भी अश्व नहीं है ।अतः मैं अपनी कन्या माधवी आप को दान में देता हूँ। यह आपकी गुरु दक्षिणा के निमित्त अश्वों को जुटाने का साधन बनेगी। यह अक्षत यौवना का वरदान प्राप्त है और एक चक्रवर्ती पुत्र को जन्म भी देगी ।"
माधवी पिताश्री के शब्दों से आहत थी। उसका सर्वांग मानो उन शब्दों की आंधी में पत्ते-सा कांप रहा था। क्या वह इन्हीं राजा ययाति की पुत्री है जिन्होंने माता देवयानी के अतिरिक्त किसी और स्त्री से शारीरिक सम्बंध नहीं बनाने का नाना शुक्राचार्य को दिया वचन शर्मिष्ठा के कारण तोड़ दिया था ?उनके राज महल में दासी बनकर आई दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के सौंदर्य और प्रणय निवेदन के आगे पिताश्री कमजोर पड़ गए थे। शर्मिष्ठा के मोहपाश में उन्हें यह भी याद न रहा कि वह नाना शुक्राचार्य से वचनबद्ध थे। वह वचन की अवहेलना ही तो थी जिससे क्रुद्ध होकर नाना शुक्राचार्य ने उन्हें आजीवन वृद्धावस्था का शाप दिया था ।वृद्धावस्था के शाप से घबरा उठे थे राजा ययाति। अभी तो वे स्वयं को युवा ही समझते थे। युवावस्था में ही वृद्धावस्था! वे गुरु शुक्राचार्य के चरणों में गिर पड़े-
"क्षमा,क्षमा करें गुरुदेव। वचन तोड़कर मैंने जो अपराध किया उसका निवारण बताएँ।"
"दिया हुआ शाप कभी वापस नहीं लिया जाता। उसका निवारण हो सकता है।"
"गुरुदेव उपाय बताएँ। मैं अक्षरशः उसका पालन करूंगा ।"
नाना शुक्राचार्य ने कहा -"यदि तुम्हारा कोई पुत्र तुम्हें अपनी जवानी दे तो तुम जब तक चाहो युवा रह सकते हो ।"
यह सुनकर पिताश्री राजा ययाति अत्यंत प्रसन्न हुए। लेकिन यह बात भी अपने पुत्रों से कहें कैसे? कई दिनों तक इसी सोच विचार में वे खोये रहे। फिर सोचा अगर कहेंगे नहीं तो समस्या का निदान कैसे होगा ?क्या वे दीर्घकाल तक प्रौढ़ावस्था को ही जीते रहें? समस्त सांसारिक भोग विलास का त्याग करके?
उनकी इस सोच में पुत्रों के प्रति तो तनिक भी स्नेह भाव न था। उन्होंने यह तो सोचा ही नहीं कि अगर वह किसी पुत्र की जवानी लेते हैं तो वह पुत्र युवावस्था में ही वृद्ध हो जाएगा और जीवन के तमाम सुखों से वंचित हो जाएगा।
उन्होंने राज्यसभा में अपने सभी पुत्रों को बुलाकर सारा वृत्तांत कह सुनाया । किंतु उनका कोई भी पुत्र उन्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार नहीं था ।स्वाभाविक भी थी पुत्रों की अस्वीकृति।
अस्वीकृति के बावजूद अपने कक्ष में बुलाकर प्रत्येक पुत्र से आग्रह किया
ज्येष्ठ पुत्र यदु ने तो सोच विचार करने का समय ही नहीं लिया ।तुरंत बोला-"पिताश्री! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं कैसे जीवित रहूँगा, यह संभव नहीं है। अतः मुझे क्षमा करें।"
ययाति ने अपने शेष पुत्रों को भी अपने कक्ष में बुला कर यही मांग की। लेकिन सभी ने अस्वीकार कर दिया। केवल सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया।"
पुनः युवा हो जाने पर पिताश्री राजा ययाति ने यदु से कहा, "ज्येष्ठ पुत्र होकर भी तुमने अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुम्हें राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूँ। मैं तुम्हें शाप भी देता हूँ कि तुम्हारा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।"
पिताश्री राजा ययाति ने कई वर्षों तक युवावस्था का सुख भोगा। एक दिन उन्हें अपनी भूल और पुत्र पुरु के प्रति किए गए अन्याय का एहसास हुआ। वे आत्मग्लानि से भर उठे और उन्होंने पुत्र पुरु को उसकी युवावस्था सौंप राजपाट भी सौंप दिया और अपनी पारिवारिक एवम राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त हो प्रभु की उपासना के लिए वानप्रस्थ धारण कर वन की ओर प्रस्थान किया।
कैसी विडंबना है पिताश्री पूरे आर्यावर्त में एक दानवीर राजा के रूप में प्रतिष्ठित हुए किंतु अपनी ही संतान के प्रति न्याय नहीं कर पाए न भ्राता पुरू के प्रति न माधवी के प्रति। देखा जाए तो अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु के प्रति भी तो उन्होंने न्याय नहीं किया।
और माधवी के प्रति तो अन्याय की चरम सीमा ही पार कर दी। गालव के द्वारा मांगे गए 800 विलक्षण अश्वों को न दे सकने की असमर्थता में उन्होंने उसे ही गालव को सौंप दिया जैसे वह कोई वस्तु हो जिसके आकर्षण में बंधकर गालव उसे स्वीकार कर लेगा। एक ऐसी स्वर्ण मुद्राओं से भरी मखमली थैली जिसके द्वारा गालव चक्रवर्ती पुत्रों की आकांक्षा वाले बाज़ार से अपनी आकांक्षा पूरी कर सकता है। माधवी का मन खिन्नता से भर उठा।
हवा के चलने से वनस्थली पर गिरे सूखे पत्ते खड़के ।गरुड़ गालव से कह रहा था-"
"तुम्हारी जैसी धारणा गालव, सुबह मैं विष्णु लोक प्रस्थान करुंगा ।तुम राजकुमारी माधवी को लेकर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास आरंभ करना ।"
वन में रात्रि विचरण करने वाले पशु भिन्न भिन्न प्रकार की आवाजें निकाल रहे थे ।इसके अलावा वन में निस्तब्धता थी ।धीरे-धीरे अंधकार गहराता गया। माधवी और गालव की पलकें भी नींद से बोझिल हो मुंदने लगीं लेकिन गरुड़ जागता रहा ।वह हिंसक पशुओं से माधवी और गालव की रक्षा एक रक्षक की भांति करता रहा।
प्रातः काल गरुड़ ने गालव से बिदा ली-"तुम अपने लक्ष्य में सफल होगे। यही प्रार्थना है भगवान विष्णु से ।जब तुम्हें 800 अश्व प्राप्त हो जाएँ तुम मुझे स्मरण करना मित्र। मैं तुम्हारा हर्ष देखने आ भी सकता हूँ ।चलता हूँ मित्र।"
गालव ने गरुड़ को गले से लगा लिया ।माधवी ने हाथ जोड़ते हुए कहा -"आदरणीय ,भविष्य किसने देखा है। रात भर तनिक भी विश्राम न कर आपने हमारी रक्षा करते हुए हिंसक पशुओं से बचाया। यह मैं कभी नहीं भूलूंगी। सदैव आभारी रहूँगी आपकी ।"
दोनों से विदा ले गरुड़ ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। गालव ने भी माधवी के संग अयोध्या की ओर जाने वाली राह पकड़ी।
बहुत नाम सुना था अयोध्या नरेश हर्यश्व का।उनके पास अवश्य अश्व होंगे ।सोचते हुए गालव ने माधवी की ओर देखा। वह सिर झुकाए गालव से हाथ भर की दूरी बनाए उसके संग चल रही थी ।अपूर्व सुंदरी माधवी इस समय राजकन्या कम वनकन्या अधिक लग रही थी। नहीं वनकन्या भी नहीं इंद्र की सभा की कोई अप्सरा लग रही थी जिसे इंद्र ने उसी के कार्य की पूर्ति के साधन के रूप में धरती पर भेजा था।
पल भर को गालव के मन में विचार आया था क्यों न माधवी के संग वह स्वयं विवाह कर अपना संसार बसा ले ,चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करे। कल्पना मात्र से ही उसे रोमांच हो आया ।माधवी को वह अपने हृदय के आसन पर तरह-तरह की भाव भंगिमा में प्रतिष्ठित करने लगा। किंतु अगले ही पल उसने इस विचार को परे ढ़केल दिया ।इस समय उसके जीवन का उद्देश्य केवल गुरु दक्षिणा के लिए अश्व प्राप्त करना है।