कर्म से तपोवन तक / भाग 4 / संतोष श्रीवास्तव

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काशी नरेश दिवोदास का महल राजा के रसिक स्वभाव ,रंगरेलियों के लिए प्रसिद्ध था ।दिवोदास सदा स्त्रियों से घिरा रहता और नित्य नई स्त्री का साहचर्य पाता। उसके रनिवास में 35 रानियाँ थी किंतु किसी के भी पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था ॥ दिवोदास के हृदय में शूल की तरह यह बात चुभी हुई थी ।वह पुत्र विहीन अपने भाग्य को ज्योतिषियों से बार-बार पढ़वाता रहता था ।यह सुनकर कि उसके भाग्य में पुत्र है पर न जाने किन ग्रह नक्षत्रों की रुकावट है जो अब तक वह इस सुख से वंचित है। वह बौखला जाता। रनिवास में रानियों के बीच भी खिन्नता भरा माहौल रहता। राज महल में सारे सुख हैं किंतु पुत्र के बिना सब अधूरे। वे अपने महाराज की वंशबेल बढ़ाने में सहायक सिद्ध नहीं हुईं। यह बात भीतर ही भीतर उन्हें त्रस्त करती रहती।

वे ईश्वर से प्रार्थना करतीं- "हे प्रभु, ऐसा कोई चमत्कार हो जाए कि राज महल पुत्र के आगमन के हर्ष से भर जाए।"

न जाने कितने व्रत ,उपवास ,पूजा, अनुष्ठान ,मन्नत आदि वे कर चुकी थीं।जब महाराज के भाग्य में पुत्र है तो कहाँ रुकावट है ?हर संभव प्रयास के बाद भी पुत्र आगमन का मार्ग अवरुद्ध क्यों है?

एक दिन पंडितों ने परामर्श दिया "महाराज पुत्रेष्टि यज्ञ करा लीजिए।

त्रेता युग में अयोध्या नरेश दशरथ को पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराने वाले ऋषि श्रृंगि की तपोभूमि श्रृंगेश्वर आज भी पुत्र की कामना करने वालों के लिए बहुत ही जागृत स्थान माना जाता है ।पौराणिक कथाओं के अनुसार सदियों पूर्व वह स्थल घना अरण्य था। ऋषि श्रृंगि इसी घने अरण्य में तपस्या में लीन थे। राजा दशरथ को पुत्र नहीं होने पर उन्हें श्रृंगि ऋषि द्वारा पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने का परामर्श महर्षि वशिष्ठ ने दिया । राजा दशरथ ने श्रृंगि ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया। ऋषि श्रृंगि यजुर्वेद विशेषज्ञ थे और उस पवित्र यज्ञ के पर्यवेक्षक थे। इस यज्ञ के पश्चात ही राजा दशरथ को

राम सहित अन्य पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी ।"

यह सुनकर सभी रानियाँ महाराज दिवोदास से पुत्रेष्टि यज्ञ कराने की

विनती करने लगीं।

दिवोदास का तर्क था कि जब उसके भाग्य में पुत्र प्राप्ति का योग है तो फिर पुत्रेष्टि यज्ञ कराने का क्या औचित्य?

पटरानी के निरंतर आग्रह पर दिवो दास ने यह सोचकर यज्ञ की स्वीकृति दी कि पुत्र प्राप्ति में जो भी व्यवधान है वह इस यज्ञ से संभवतः दूर हो ही जाएगा। स्वीकृति प्राप्त होते ही राज महल में यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ हो गई ।

वसंत ऋतु आरंभ हो चुकी थी।

"महाराज ईश्वर की ओर से संकेत हो गया है। आपने यज्ञ की स्वीकृति वसंत ऋतु के आरंभ होते ही दी है। हालांकि यह अनजाने में हुआ किंतु यही ऋतु इस यज्ञ के लिए उत्तम और फलदायक मानी गई है। आप सभी को यज्ञ में आमंत्रित करते हुए न्योता भेज दीजिए।" राजपुरोहित के कहते ही पटरानी ने दिवोदास को बधाई दी। रनिवास में हर्ष छा गया।यज्ञ के लिए राज महल में उचित स्थान देखकर बड़े परकोटे में हवन कुंड बनाया गया। तथा राज पंडितों ने सामग्री जुटानी आरंभ कर दी। मुहूर्त देखकर यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित की गई तथा मंत्रोच्चार के साथ देवताओं को आमंत्रित किया गया। यज्ञ में सम्मिलित होने दूर-दूर से राजा महाराजा पधारे थे .5 दिन तक चलने वाले इस यज्ञ के विशिष्ट अतिथि थे। सभी के आवास की उचित व्यवस्था थी । 5 दिन तक यज्ञ की अग्नि में दूध ,चावल और केसर मिश्रित खीर पकने के लिए रखी गई। जो कामना पूर्ण करने वाली और स्वाद में अनुपम हो।

पांचवें दिन जैसे ही हवन कुंड में पूर्णाहुति डाली गई माधवी और गालव के क़दम राजमहल के द्वार पर पड़े।

यज्ञ के भव्य आयोजन को देखकर गालव ने कहा -"प्रतीत हो रहा है जैसे यहाँ यज्ञ हो रहा है ।"

पास खड़े सेवक ने कहा-

"आपने ठीक कहा मुनिवर, यहाँ ,पुत्रेष्टि यज्ञ ही हो रहा है ।पूर्ण आहुति दे दी गई है। आइए आप भी पवित्र अग्नि के दर्शन कर लीजिए ।"

कहते हुए वह गालव और माधवी को हवन कुंड की ओर ले गया।

यज्ञ समाप्ति के पश्चात ब्राह्मणों को यथेष्ट दान दक्षिणा देकर आमंत्रित राजा महाराजाओं को भी विदा किया गया। यज्ञ की खीर का प्रसाद सभी रानियों ने इस आशा में हर्ष पूर्वक ग्रहण किया कि क्या पता वही देवदास के पुत्र की माता कहलाने का श्रेय पाये। गालव और माधवी को भी प्रसाद देते हुए सेवक ने पूछा -"मुनिवर ,अपने आने का प्रयोजन बताएँ। क्या मात्र यज्ञ में सम्मिलित होने आए हैं या किसी विशेष कार्य से क्योंकि आप यज्ञ की समाप्ति पर आए हैं और वनवासी दिखते हैं।"

"हाँ, हम राजा दिवोदास से मिलने आए हैं।कृपया उन्हें हमारे आने की सूचना दे दें।"

"जी तब तक आप अतिथि गृह में विश्राम करें ।"

कहते हुए सेवक उन्हें अतिथि गृह में ले गया और जलपान आदि की व्यवस्था कर दी।

"मुझे तो लगता है आज राजा दिवोदास से मिलना संभव नहीं हो पाएगा ।क्योंकि यज्ञ तो अभी समाप्त हुआ है और वे विश्राम कर रहे होंगे।"

"कोई बात नहीं गालव हम उनकी प्रतीक्षा कर लेंगे।"

गालव और माधवी मौन ही रहे क्योंकि जब उद्देश्य सामने हो तो कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता।

घड़ी भर पश्चात सेवक ने आकर सूचना दी कि महाराज आपसे प्रातः काल राजसभा में भेंट करेंगे। तब तक आप यहीं पर विश्राम करें। चाहें तो उद्यान में आप भ्रमण कर सकते हैं ।आपके भोजन की व्यवस्था शीघ्र हो जाएगी।"

माधवी में धैर्य और संयम है ।वह कभी भी किसी बात के लिए आतुर नहीं होती। लेकिन गालव अधीर हो रहा था।

"आज का दिन तो व्यर्थ ही गया। राजा दिवोदास से भेंट हो जाती तो तो अश्वों की संख्या की जानकारी प्राप्त होती। अगर इनके पास भी कम अश्व हुए तो मैं शीघ्र ही शेष अश्वों की खोज में जुट जाता ।"

"धैर्य रखो गालव ।समय व्यर्थ नहीं जाता ।समय हमेशा मूल्यवान होता है ।अपना मूल्य देकर ही बीतता है ।

"तुम्हारी दार्शनिक बातें मुझे और अधीर बना रही हैं।"

माधवी ने द्राक्ष का दाना गालव को खिलाते हुए हंस कर कहा -"लो मीठे द्राक्ष का आनंद लो। भविष्य भी मीठा और आनंदमय होगा।

यह भी तो संभव है कि शेष सभी अश्व हमें यहाँ से प्राप्त हो जाए।"

"सचमुच तुम्हारी मनमोहक बातों में मैं सारा अवसाद और चिंता भूल जाता हूँ।माधवी, मेरी प्रिया ।"

कहते हुए गालव ने माधवी को बाहों में भर लिया ।खिड़की से रात रानी की सुगंध लिए वायु ने कक्ष में प्रवेश किया। कक्ष का कोना-कोना रातरानी की सुगंध से भर उठा।

प्रातः काल की दिनचर्या संपन्न कर दिवोदास सभागृह की ओर जा ही रहा था कि सेवक ने आकर सूचना दी -

"महाराज कोई मुनि कुमार पधारे हैं। आपसे मिलना चाहते हैं ।साथ में कन्या भी है ।"

"कन्या!" देवदास के कान खड़े हुए- "आदर पूर्वक मुनि कुमार को सभागृह में ले आओ।"

सभागृह की ओर प्रस्थान करते हुए स्त्रीगामी,रसिक दिवोदास मन ही मन अत्यंत प्रसन्न था।सभागृह सभासदों से भरा था ।एक सभासद उसके सम्मान में आसन से खड़े होकर उनकी जय-जयकार करने लगा । दिवोदास ने सिंहासन पर बैठते हुए तनिक भी विलंब नहीं किया।

"कहाँ हैं हमारे विशिष्ट अतिथि?" तभी माधवी के साथ गालव ने सभागृह में प्रवेश करते हुए दिवोदास को प्रणाम किया।

अपूर्व सुंदरी माधवी जैसे पूर्णिमा की रात्रि खिल आई हो सभागृह में माधवी के चंद्र मुख से। अधीर हो गया दिवोदास-"कहिए मुनि कुमार ,हम तक पहुँचने का मंतव्य स्पष्ट करें।"

गालव ने बिना किसी भूमिका के उनके पास पहुँचने का उद्देश्य बताया -

"महाराज मुझे गुरु दक्षिणा के लिए 600 अश्वमेधी अश्व चाहिए ।आपको भी चक्रवर्ती पुत्र की आकांक्षा है। यह कन्या माधवी आप ग्रहण करें और मुझे 600 अश्व दे दें।माधवी आपके पुत्र को जन्म देगी। आपका पुत्र चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। आपके वंश की वृद्धि करेगा। आपके नाम को अमर करेगा।"

दिवोदास गालव के चुंबकीय वचनों से बंधता चला जा रहा था । क्या यह पुत्रेष्टि यज्ञ का चमत्कार है? कभी सोचा न था कि जीवन में ऐसा क्षण भी आ सकता है ।वह तो अपनी रानियों से भरे रनिवास में स्वयं को रंक पा रहा था। जिसका पुत्र ही नहीं उसका कैसा राजपाट? उसने माधवी के रूप सौंदर्य को आंखों ही आंखों में भ्रमर-सा पान करते हुए सेवकों को अश्वशाला में जाकर अश्वमेधी अश्वों की गणना करने का आदेश दिया।

"मुनिवर आप के प्रस्ताव पर विचार करने और अश्वों की गणना करने में थोड़ा समय लग सकता है। तब तक आप अतिथि गृह में विश्राम कीजिये।"

कहते हुए दिवोदास ने गालव और माधवी को अतिथि गृह में ले जाने का आदेश दिया।

माधवी को काशी नरेश का भव्य राज महल तनिक भी आकर्षित नहीं कर रहा था। राज महलों की भव्यता और उसका सौंदर्य तो जन्म लेते ही उसके सामने था। राजा ययाति की इकलौती पुत्री भला इस सब के सम्मोहन में कैसे बंधती? मार्ग में उसकी थकान का पर्याप्त ध्यान रखा था गालव ने। इस समय उसका मुख म्लान-सा था ।दोनों ने ख़ामोशी से जलपान ग्रहण किया और कक्ष के हरे-भरे पौधों ,पुष्पों से भरे गलियारे में खड़े हो आकाश में उड़ते पंछियों को देखने लगे ।गालव सोच रहा था यदि दिवोदास के पास घोड़े होंगे तो माधवी आज ही उससे बिछड़ जाएगी। कदाचित हमेशा के लिए या...

माधवी का मन भी उद्विग्न था ।अगर गालव से पुनः वियोग होगा तो... किंतु इस से भी ऊपर माधवी का विचार था, हो, वियोग हो ,हो ही जाए ।कम से कम गालव तो अपने उद्देश्य में सफल होगा। वह भी तो गुरु दक्षिणा के लिए दर-दर भटक रहा है। तभी गलियारे की रेलिंग पर दो नीले परों वाले पक्षी आकर बैठ गए ।गालव ने माधवी का हाथ कस कर पकड़ लिया ।उस एक पल में कितना कुछ कह दिया दोनों ने एक दूसरे से। घड़ी भर बाद सेवक ने आकर सूचना दी-"मुनिवर ,महाराज सभागृह में आप दोनों को बुला रहे हैं ।"

माधवी को जैसे ज्ञात हो गया था कि रास रंग में डूबा दिवोदास उसे आसानी से छोड़ेगा नहीं ।सभागृह की ओर जाते हुए माधवी गालव के बिछोह से मन ही मन व्यथित थी ।जिसकी आशंका थी वही हुआ। गालव और माधवी को देखते हुए माधवी के प्रति व्यग्र दिवोदास ने कहा -

"मुनिवर भृगु महाराज के सौजन्य से मुझे 200 अश्वमेधी अश्व प्राप्त हुए हैं जो राज्य की अश्वशाला में है ।उन्हें मैं आपको दे सकता हूँ। यदि आप स्वीकार करें।"

गालव के मुख पर हल्की-सी प्रसन्नता झलकी अर्थात गुरु दक्षिणा के लिए अब 400 घोड़ों का और प्रबंध करना होगा।

"ठीक है महाराज ,आपके दो सौ अश्व मुझे स्वीकार हैं। शुल्क स्वरूप ययाति पुत्री माधवी आपको चक्रवर्ती पुत्र देगी। 1 वर्ष पश्चात मैं आऊँगा अश्व और माधवी को लेने।"

रूप की अथाह सागर माधवी के 1 वर्ष बाद बिछोह से देवदास व्यग्र हो गया । उसे लगा माधवी और गालव ने उसकी व्यग्रता पहचान ली है। अपने पौरुष की विरुदावली के लिए उसने पास खड़े मंत्री से कहा-

"न जाने क्यों स्त्रियाँ हमारी ओर खिंची चली आती हैं।"

"आप तो साक्षात कामदेव हैं और फिर आपका शौर्य क्या कम है ।"

मंत्री भी चाटुकारिता में कम नहीं था।

दिवोदास ने माधवी की ओर देखा जिसके मुख पर इस विरुदावली का कोई असर न था। वह तो दिवोदास की भड़कीली वेशभूषा,पौरुष को लज्जित करते हुए आभूषण ,आंखों में काजल, मुख से निकले अशोभनीय वाक्यों को सुनकर दिवोदास के प्रति तिरस्कार की भावना से भरी जा रही थी।

"मुनिवर,पुत्र ही होगा यह बात आप दावे से कह सकते हैं ?अभी तक तो मेरी रानियों के पुत्रियाँ ही उत्पन्न हुई हैं। वह भी 17 पुत्रियाँ।"

"आप निश्चिंत रहें महाराज, माधवी को वरदान प्राप्त है चक्रवर्ती पुत्रों का ।आप पुत्र के सुख से वंचित नहीं रहेंगे।"

दिवोदास आश्वासन पाकर भी तिरस्कृत वाक्यों का प्रयोग करने से नहीं चूका।

"यदि इसने पुत्र को जन्म नहीं दिया तो मैं तुम दोनों को कारावास में डाल दूंगा। समझ गए ना मुनिवर ?"

गालव दिवोदास के ऐसे सन्तप्त वाक्यों को सुनकर क्रोध कर सकता था पर उसने धैर्य से काम लिया-"ठीक है महाराज, अब आज्ञा दें .1 वर्ष पश्चात मैं दो सौ अश्व और माधवी को ले जाऊँगा ।"

दिवोदास गालव के माधवी को पुत्र ही होगा इस विश्वास से चकित था ।उसे भी अपने ऊपर विश्वास होने लगा।

गालव ने न माधवी को देखा और न सभागृह में आसीन दिवोदास के चाटुकारों को। वह तेजी से पलटा और सभागृह के बाहर चला गया।

दिवोदास ने उसे जाने से नहीं रोका ।वह तो माधवी को शीघ्र पा लेने को उतावला था ।उसने धृष्टता से माधवी से पूछा- "कामकला जानती हो या वनचारणी ही हो। वैसे तो तुम राजमहलों से आई हो, राजमहलों की स्त्रियाँ काम कला में माहिर होती हैं ।क्यों ठीक कहा न मैंने?" माधवी सिर झुकाए खड़ी थी। दिवोदास के शब्द उसके मन में अंगारे बो रहे थे। अंगारों की भीषण आग में वह सर्वांग व्यथित थी। कैसे रहेगी इस कापुरुष के साथ पूरे वर्ष?कैसे समर्पण करेगी इसके आगे ?कैसे स्पर्श करने देगी अपने अंगों को ? नियति ने उसे जीवन के कितने कठोर दिन सौंपे हैं ।काँटों की भाँति उसके शरीर में खुबते से। उसे लगा दिवोदास के 200 घोड़े उसके शरीर को कुचलते हुए गालव की ओर बढ़ रहे हैं। उसका मन हाहाकार कर उठा।

दिवोदास ने अधिक विलंब न करते हुए उसे रनिवास में ले जाने के लिए दासी को आदेश दिया।

सभा समाप्त कर वह अपने चाटुकारों के साथ विशेष सुसज्जित कक्ष में आ गया। जहाँ मदिरा के साथ वह राजनर्तकी का नृत्य देखेगा ।मखमली बिछावन पर गाव तकियों के सहारे वह माधवी के खयालों में मग्न था ।

रनिवास की सभी रानियों में सबसे अधिक सौन्दर्यवान माधवी को वह वर्ष भर अंकशायिनी बनाएगा।इस विचार मात्र से वह उत्तेजित हो रहा था ।

दासी ने मदिरा पात्र भर कर दिया और राजनर्तकी के घुंघरू बज उठे । शृंगार रस के उत्तेजना जगाने वाले गीत से वाद्य यंत्र झंकृत हो उठे ।नर्तकी के पैरों की गति, लय और मदिरा के उन्मत्त घूंटों से दिवोदास का स्वयं पर से नियंत्रण खोता जा रहा था ।उसके संग -संग उसके चाटुकार भी अनियंत्रित थे।

माधवी को दासी गुलाब की पंखुड़ियों से सुवासित जल से स्नान कराकर कीमती वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत कर रही थी।

चुभ रहे थे आभूषण माधवी को ।मन कर रहा था सारे आभूषण नोच कर फेंक दे और चली जाए यहाँ से।न जाने किन पापों का दंड ईश्वर उसे दे रहा है जो उसका शरीर शरीर नहीं रहा केवल योनि और कोख में सिमट कर रह गया है, जिसे पाने को लोलुप पुरुष किसी भी सीमा तक जा सकता है ।किसे परवाह है कि उसके शरीर में एक हृदय भी है। जिसमें सातों भावनाएँ वास करती हैं। अब वह दिवोदास जैसे लंपट पुरुष के पुत्र को कोख में धारण करेगी। एक वर्ष तक उसकी कामुक चेष्टाओं को झेलेगी,नियोग का पालन करेगी ।एक वर्ष पश्चात अपनी ममता को मारकर किसी और की अंकशायनी बनाने गालव उसे ले जाएगा ।यह कैसा समय का चक्र है ।क्यों नहीं एक ही राज्य में गालव की गुरु दक्षिणा पूर्ण हो रही है। अश्व नहीं मिलने का परिणाम कितना सहे माधवी। 'गालव तुमने मुझे कैसे संकट में डाल दिया ।'सोचते हुए माधवी के नेत्रों से एक अश्रु ढलका जिसे दासी से छुपाकर माधवी ने अपनी हथेली में सोख लिया।

गालव भी इन्हीं विचारों से ग्रस्त हो राज महल से निकलकर गंगा के तट पर आ गया ।संध्या होने को थी ।गंगा आरती का अनुष्ठान बस आरंभ होने ही वाला था ।वह तेज गति से तट पर बिछी बालू पर चहल कदमी करने लगा ।अपनी खड़ाऊँ उसने उतार दी थी और नंगे पैर बालू पर चलते हुए उसके पैर धँस-धँस जाते थे ।बालू भी किसी तपस्वी साधु-सी मोह रहित थी। तभी तो पैरों से लिपटती नहीं। धँसे पैरों को आहिस्ता से छोड़ देती है और एक वह है गुरु विश्वामित्र की प्रदान की गई साधनाओ, तपस्या से श्रेष्ठता को प्राप्त श्रेष्ठ मुनि। फिर भी मोहग्रस्त। तट के उस पार विशाल जल राशि को लिए पुण्य सलिला गंगा बह रही थी। यह वही गंगा है न जहाँ गुरु दक्षिणा न दे पाने की विवशता ने उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया था और यहीं तो मिला था मित्र गरुड़ ।जिसने आत्महत्या को कायरता बताते हुए उसे गुरु दक्षिणा प्राप्ति का मार्ग बताया था। वह कल्पना करने लगा कि वह राजा ययाति के पास न जाकर सर्वप्रथम राजा हर्यश्व के पास ही जाता तो क्या उसे 200 अश्व मिलते? क्या बिना शुल्क लिए उसे अश्व दान में मिल जाते। नहीं नहीं यह संसार क्रय विक्रय का विशाल केंद्र है ।यहाँ बिना शुल्क दिए कुछ भी नहीं मिलता।

एकाएक घंटे ,मंजीरों की तुमुल ध्वनि से उसके विचार टूटे। उसने देखा गंगा आरती आरंभ हो चुकी है। आरती कपूर और घी डूबी बत्तियों से जलती हुई विशाल लौ लग रही है ।

तट पंडितों और भक्तों के समूह से भरा है ।आरती की लौ रात्रि आगमन से काले दिखते गंगा के जल में लहरों पर सवार दिपदिपा रही है ।आरती की समाप्ति पर भक्तों के द्वारा गंगा की जय जयकार से दिशाएँ गूंज उठीं। गंगा के जल में पत्तों पर रखे दीप जगमगा उठे। जैसे आसमान से सितारे उतर आए हों।

गालव भी समीप गया। आरती पर हाथ घुमा कर श्रद्धा पूर्वक माथे से लगाया। गंगा जल का आचमन कर प्रसाद ग्रहण किया ।धीरे-धीरे तट सूना हो गया। गंगाजल की लहरों पर बहाए दीप अब अन्य तटों को रोशनी देने चले गए थे। आसमान में चतुर्थी का चांद देख सहसा माधवी के खयालों से वह व्यग्र हो उठा।न जाने क्या बीत रही होगी उस पर कामुक दिवोदास की शैया पर ।

तन मन दोनों से कोमल राज महलों के सुख में पली माधवी को उसने किस परिस्थिति में ला पटका ।लगा जैसे गंगा के तट पर चंद्र से शुभ्र 800 अश्व दौड़ रहे हैं जिनके खुरों में रक्त लगा है। माधवी के मन की हत्या का रक्त। आत्महत्या से तो बच गया गालव। पर इस हत्या के पाप से कैसे मुक्त हो ।भावों के अतिरेक में वह गंगा तट से जल में उतर आया। कंठ तक जल, बहाव की तीव्रता में वह ख़ुद को साधने में असमर्थ हो रहा था। तभी दो हाथ उसकी ओर बढ़े-" क्या कर रहे हैं मुनिवर ,अथाह जल है वहाँ ।मेरा हाथ पकड़िए शीघ्र।

और वह अनजान युवक गालव को तट पर ले आया-

"जीवन समाप्ति का विचार था क्या?" गालव ने युवक की ओर देखा और उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगे ।

"पुरुष होकर रोते हैं आप !लीजिए इस अँगोछे से मुख पोछकर वस्त्र निचोड़ लीजिये। हवा तेज है ।अभी सूख जाएँगे वस्त्र ।"कहते हुए वह युवक गालव को जलपान गृह में ले आया। गर्म दूध पीकर गालव प्रकृतिस्थ हुआ।

"वनचारी लगते हैं ।काशी के वनों में निवास होगा ।"

"नहीं मित्र, अभी तो मार्ग तलाश रहा हूँ। रात्रि यहीं विश्राम करूंगा। प्रातः काल प्रस्थान करुंगा वन की ओर।"

"बचाइएगा स्वयं को ।जीवन अनमोल है। दोबारा नहीं मिलता ।चलता हूँ मित्र।"

" आपका आभार मित्र ,दुविधा में था आपने मार्ग प्रशस्त किया। स्मृति में रहेंगे आप ।शुभ रात्रि।

माधवी का सोलह सिंगार कर दासी ने दिवोदास के शयनकक्ष में पहुँचा दिया। केसर की सुगंध से रचे बसे दूध के दो रजत पात्र भी शैया के बाजू में तिपाई पर रख दिए ।सुगंधित पान के बीड़े भी।

"अब मैं चलती हूँ ,महाराज कभी भी यहाँ पधार सकते हैं। शुभरात्रि।"

दासी के जाते ही माधवी ऐश्वर्य को लजाते कक्ष में खिड़की के पास जा खड़ी हुई। खिड़की के उस पार फुलवारी थी ।खिले फूल दीप स्तंभ की रोशनी में अपने होने का एहसास दे रहे थे। आसमान सितारों से जगमगा रहा था। कहाँ होगा गालव ?वन प्रदेश में किसी वृक्ष के नीचे भूमि पर विश्राम कर रहा होगा या उसके ध्यान में डूबा इसी तरह आसमान के सितारे देख रहा होगा, जैसे वह देख रही है। यह भी तो हो सकता है कि वह बाक़ी बची गुरु दक्षिणा के लिए अश्व जुटाने के विषय में सोच रहा हो।

एकाएक द्वार खुलने बंद होने की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा ।दिवोदास ने लड़खड़ाते कदमों से कक्ष में प्रवेश किया वहाँ क्या कर रही हो माधवी ?तुम्हें तो इधर शैया पर मेरी प्रतीक्षा में रत होना था ।कहीं किसी और के विचारों में तो नहीं डूबी हो?"

कहते हुए दिवोदास ने उसे समीप आकर दबोच लिया जैसे अपने शिकार पर कोई हिंसक पशु झपटता है ।उसे शैया पर लाकर पशुवत व्यवहार ही किया उसने। उसके अंगों को रौंदकर मसलते हुए परम तृप्त होकर वह शैया के एक ओर लुढ़क गया और थोड़ी देर में खर्राटे भरने लगा ।

माधवी अपने वस्त्रों को ठीक करती हुई उठी और शयनकक्ष से लगे स्नानागार में जाकर अपने अंगों को मल-मल कर धोने लगी ।पानी की बहती धार में मानो एक कापुरुष का अस्तित्व भी बहा जा रहा था ।बहा रही थी माधवी हर उस पल को जो अभी-अभी दिवोदास के साथ गुजरा था ।लेकिन इस बार न उसकी आंखों में आंसू आये, न हृदय पर बोझ ।उसने स्वयं को नियति को सौंप दिया था ।जो कुछ उसके भाग्य में है वह तो होकर रहेगा। स्नानागार से तरोताजा होकर वह शयनकक्ष में आई। उसने पात्र में रखा दूध भी पिया और पान भी खाया ।फिर देर तक अपलक आसमान देखती रही। धीरे-धीरे उसकी पलकें मुंदने लगीं। वह शैया पर आकर गहरी नींद सो गई।

प्रातःकाल वह दिवोदास को सोता छोड़ दासी के साथ रनिवास आ गई ।रनिवास में दिवोदास की रानियाँ उसे कुछ इस भाव निहार रही थीं 'देखते हैं तुम महाराज को पुत्र देने में सफल हो पाती हो या ,हमारी पुत्रियों से तो उन्हें विशेष स्नेह नहीं है और यही कारण है कि हम सब उनकी आवश्यकता नहीं है अब। अभी थोड़ी देर में दासी आपको श्रंगार आदि के लिए ले जाएगी। फिर पूजन -हवन ।भोजन आपका हम सबके साथ होगा ।"

उनमें से एक रानी ने आगे बढ़कर माधवी का हाथ थामते हुए कहा ।तभी दिवोदास के कक्ष से दासी तेजी से वहाँ आई -"महारानी प्रणाम करती हूँ, महाराज का आदेश है कि वे दोपहर का भोजन महल के उत्तरी कक्ष में माधवी के साथ एकांत में करेंगे।"

सभी रानियों में कानाफूसी होने लगी। एक ही रात में ऐसा क्या जादू कर दिया ययाति पुत्री ने जो राजा इतने दीवाने हो गये।

दिवोदास सचमुच माधवी का दीवाना हो गया था।भोजन करते हुए उसने स्वयं पहला ग्रास माधवी को खिलाया। "जादूगरनी हो माधवी, राज महलों के कायदे कानून से विज्ञ तो तुम दिखाई ही देती हो किंतु तुमने जो सहवास सुख मुझे दिया है ,अन्य रानियों से प्राप्त नहीं हुआ ।"

माधवी ने आंखें झुका लीं। सहवास की पीड़ा अब तक उसके बदन में व्याप्त थी। कदाचित इतनी पीड़ा का एहसास नहीं होता यदि दिवोदास उसके साथ पशुवत व्यवहार न करता । अपने ऐसे व्यवहार का दिवोदास को भी खेद था।

"माधवी तुम सोच रही होगी कि मैं कितना असंयमी और कठोर हूँ ।क्या करूं ,पुत्र सुख से वंचित हृदय की पीड़ा से ऐसा हो गया हूँ। तुम्हारे साथ रहकर सुधर जाऊँगा ।"

कहते हुए दिवोदास ने जोरदार ठहाका लगाया।

इस बार माधवी भी मुस्कुराई।कहना चाहा 'जानती हूँ पुरुष के इस रूप को। जहाँ मनभावनी स्त्री मिली कि पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में जुट जाता है। उसे लगता है कहीं स्त्री उसके कठोर व्यवहार से रुष्ट न हो जाए । रुष्ट होगी तो सहवास का आनंद कैसे प्राप्त होगा ।कितना स्वार्थी है पुरुष ।अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए उसे स्त्री की कोख भी चाहिए और सहवास का सुख भी ।कितना निर्दय है दिवोदास अपनी रानियों से पुत्र प्राप्ति न होने पर उसने उन्हें भोग कर ,उनकी अवहेलना कर ,तिरस्कृत किया।'

माधवी को गालव के द्वारा गुरुदक्षिणा के हठ पर जितना रोष था उससे कहीं अधिक विश्वामित्र पर था ।आखिर उन्होंने इतनी कठिन गुरुदक्षिणा क्यों मांगी ! जब उसके पिताश्री ययाति के राज्य में एक भी ऐसा अश्व नहीं था तो अन्य राजाओं के पास मिल ही जाएँगे इसका क्या भरोसा? ऐसी गुरु दक्षिणा के पीछे न जाने विश्वामित्र का क्या प्रयोजन था ।वनों में रहने वाले तपस्वी ऋषि की यह कैसी महत्त्वाकांक्षा? संभवत संपूर्ण आर्यावर्त में जितने अश्वमेधी घोड़े हैं वे सब विश्वामित्र पाना चाहते हों जिसके लिए उन्होंने गालव को साधन बनाया । यह भी तो हो सकता है कि इतने अश्व पाकर विश्वामित्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हों कि उन से बढ़कर कोई नहीं कि मात्र उन्हीं के पास विलक्षण अश्व हैं। अपने शिष्य के हठ को दंड देने का यह कौन-सा तरीका?

माधवी की सोच द्रुत गति से हर कोण को तर्क में लिए थी ।चाहे पिताश्री ययाति हों,चाहे विश्वामित्र हों, चाहे गालव ,महाराज हर्यश्व या दिवोदास। इस चक्रव्यूह में फंसी है तो माधवी। माधवी पिताश्री ययाति की संपत्ति, माधवी गालव के दान ग्रहण करने वाले पात्र में डाली गई दान की वस्तु ,माधवी गालव द्वारा मंडी में विक्रय की जा रही वस्तु ।माधवी हर्यश्व और दिवोदास की क्रीतदासी। पितृसत्ता की आंच में मोम-सी पिघलती माधवी का अब अस्तित्व ही कहाँ रह गया।

संध्या ने धीरे-धीरे राज महल को पहले सुनहली आभा से भरा फिर सलेटी रंग बिखेरती रात्रि में बदल गई। महल दास दासियों की चहल-पहल, उजाले की रौनक ,चाटुकारों की भीड़, मदिरा के खनकते प्याले और घुंघरूओं की झंकार से भर उठा।मदमस्त करने वाले गीतों का क्रम चल निकला।

आज दिवोदास का मन न गायक द्वारा छेड़े गीत की धुन में था न राजनर्तकी के नृत्य में। उसने मदिरा की अंतिम घूंट समाप्त की और उठने को तत्पर हुआ। अभी तो राजनर्तकी अपनी पूरी लय में आई भी नहीं थी। आज महाराज को क्या हुआ? राजनर्तकी ने अपनी मादक भाव भंगिमा से उसे मोहित करने का प्रयत्न किया-"महाराज यह गीत विशेष तौर से आपके लिए तैयार किया गया है इसकी धुन में जैसे इंद्रलोक से अप्सराएँ धरती पर उतर कर नृत्य कर रही हैं।"

कहते हुए राजनर्तकी ने अपने हाथों दिवोदास का मदिरा पात्र भरा और उसके होठों से लगाते हुए नशीले नेत्रों के कटाक्ष से उसे रिझाने का प्रयत्न करने लगी।

वैसे भी जब वह द्रुत गति से नृत्य करती। उसकी एक-एक मुद्रा लचक में कामुक आमंत्रण रहता।

जो देवदास राजनर्तकी की भावभंगिमाओं पर न्योछावर था। मदिरा की हर घूंट को वह राज नर्तकी के हाथों पीता और यह क्रम देर रात तक चलता था ,वह दिवोदास आज आधी घड़ी पश्चात ही जाने को उतावला हो उठा ।माधवी का सौंदर्य उसे अपनी ओर खींच रहा था। जैसे पूर्णचंद्र के उदित होते ही सागर की लहरें उसकी ओर ज्वार बनकर उमड़ पड़ती हैं। उसने वादकों को वाद्य यंत्रों को रोक देने का संकेत दिया और मदिरापात्र की अंतिम घूँट समाप्त कर उठने को तत्पर हुआ ।राजनर्तकी के पैर थम गए -"क्षमा महाराज, कोई भूल हुई क्या हमसे ?"

"नहीं ,किंतु हम विश्राम करना चाहते हैं ।"

कहते हुए वह विलासिता कक्ष से बाहर चला गया।

दिवोदास ने लड़खड़ाते कदमों से शयनकक्ष में प्रवेश किया। शयनकक्ष जैसे स्वप्नलोक-सा मोहक। शैया पर सौंदर्य की खान माधवी। वह होश खो बैठा।

माधवी की कालरात्रि आरंभ हो चुकी थी।

यथा समय माधवी गर्भवती हुई। यह समाचार पूरे राज महल में बिजली की गति-सा फैल गया। चूंकि दिवोदास के राज ज्योतिषी ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि माधवी के गर्भ से पुत्र ही होगा और महर्षि भृगु ने भी भविष्यवाणी की थी दिवोदास के वंश वृद्धि की ।और पुत्रेष्टि यज्ञ का चमत्कार भी था।अतः हर्षोल्लास से महल गूंज उठा ।बधाई के गीत गाए जाने लगे ।सभी को लड्डुओं का प्रसाद बांटा गया। तथा राज महल के सभी द्वार शुभ संकेत माने जाने वाले अशोकपत्र के बंदनवारों से सज उठे। माधवी को उबटन लगाकर स्नान कराया गया। पंडितों ने माधवी का विशेष ध्यान रखने की सलाह दी ताकि गर्भधारण के 9 महीने निर्विघ्न पूरे हों।

शयन कक्ष में माधवी को चुंबनों से नहला दिया दिवोदास ने -

"माधवी तुमने मेरी आकांक्षा पूर्ण करने की दिशा में क़दम बढ़ा दिया है। आज तुम जो चाहो मांग सकती हो मुझसे।" माधवी ने उत्तर दिया -"महाराज मैं आपकी क्रीतदासी क्या मांग सकती हूँ? मुनिवर गालव को शुल्क स्वरूप 200 घोड़े आप दे ही रहे हैं। यही तो अनुबंध हुआ है आपके और गालव के बीच ।"

"वह तो मिलेंगे ही।वह तो गालव की गुरु को दी जाने वाली दक्षिणा हुई ।किंतु हम तुमसे प्रसन्न हुए। अतः हम तुम्हें उपहार तो दे ही सकते हैं।" कहते हुए दिवोदास ने अपनी कनिष्ठा उंगली से उतारकर रत्न जड़ित अंगूठी माधवी की उंगली में पहना दी ।

"यह हमारी निशानी है ,जिसे तुम हमेशा अपने पास रखना ।"

महाराज क्या इतने रंक हो गए कि अपनी ही अंगूठी दे दी ।परिहास करना चाहा माधवी ने पर वह मौन ही रही।

दिवोदास तकिए के सहारे पलंग पर अधलेटे हो गए -

"जानती हो माधवी।अपनी रानियों से गर्भवती होने का समाचार मुझे जितना हर्ष से भर देता था उतना ही हर बार कन्या का जन्म विषाद से ।"

"क्यों महाराज ?कन्या तो लक्ष्मी होती है।"

'लेकिन वंश वृद्धि तो पुत्र से होती है। कन्या तो पराया धन है। वह जिस परिवार में ब्याही जाएगी उस परिवार की वंश वृद्धि करेगी।"

"किंतु महाराज वंश वृद्धि के लिए भी तो स्त्री ही चाहिए।

बिना स्त्री के वंश वृद्धि क्या संभव है? देखिए आपने भी वंश वृद्धि के लिए मेरा आश्रय लिया। फिर कन्या जन्म इतने विषाद का कारण क्यों ?"

दिवोदास माधवी के इस तर्क के आगे निरुत्तर था। बस इतना ही कहा -"तुम बहुत बुद्धिमान हो माधवी। निश्चय ही मेरा पुत्र भी बुद्धिमान होगा। राजज्योतिषियों ने कहा है वह बहुत पराक्रमी होगा। समस्त शत्रुओं का विनाश कर बरसों बरस राज करेगा ।

उसके राज्य में न कहीं निर्धनता होगी न कोई अत्याचार ।कभी दुर्भिक्ष भी नहीं पड़ेगा।"

"यह तो समय बताएगा महाराज ।भाग्य किसने देखा है।"

माधवी ने दिवोदास के स्वप्न को लगाम दी।

"ऐसा क्यों कहती हो माधवी। भाग्य तो मनुष्य के प्रयत्नों से बनता है।"

"प्रयत्नों के साथ भाग्य भी तो बलवान है ।मैं भी राज महल में जन्मी ।राजा ययाति की इकलौती पुत्री ,लाड़, प्यार, दुलार क्या नहीं मिला मुझे ।किंतु भाग्य ने क्रीतदासी बना दिया। न राजमहल से दुल्हन बन कर विदा हुई। न वैवाहिक बंधन में बंधी। पति ,ससुराल स्वप्न बनकर रह गये। सुहाग सेज भी नहीं सजी लेकिन नियति ने मुझे प्रसूति गृह पहुँचा दिया , मैं बिन ब्याही दो बालकों की माँ। यह भाग्य नहीं तो और क्या है महाराज?"

कहते हुए माधवी पीड़ा से भर उठी। उसके चेहरे की वेदना दिवोदास को गहरे कुरेद गई। उसने माधवी को गले लगाते हुए कहा- "तुम ,क्रीतदासी नहीं मेरी पटरानी बनकर अनंत काल तक मेरे साथ रहना। हम देखेंगे अपने पुत्र का राजसुख।"

पुत्र ...पुत्र ...दिवोदास के मुख से पुत्र शब्द छूटता ही नहीं।माधवी दिवोदास के बंधन से छूटते हुए पलंग के किनारे बैठ गई । उसकी सांसें सूखी सिसकी से भरी थीं।

समय पंख लगा कर उड़ चला।देखते ही देखते 9 महीने पूरे हुए और प्रसव का समय आ गया । कुशल दाईयों की देखरेख में माधवी ने अपार पीड़ा सह कर पुत्र को जन्म दिया। आकाशीय ग्रह नक्षत्रों में शुभ संकेत दृष्टिगोचर होने लगे। राज ज्योतिषियों ने शुभ फलों से युक्त जन्म कुंडली का सृजन आरंभ कर दिया। राजमहल नगाड़ों,शहनाईयों की ध्वनि से गूंज उठा। दिवोदास के क़दम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।ख़ुशी के अतिरेक में वह दौड़ता हुआ प्रसव कक्ष में प्रवेश करना ही चाहता था कि बड़ी रानी ने उसे रोका -"महाराज अब आप पुत्र के पिता हो गए ।धैर्य धारण करें। दासी अभी शिशु को नहला कर आपके समक्ष प्रस्तुत होगी ।"

पर दिवोदास ने सुना ही कहाँ। उसने तो भावातिरेक में बड़ी रानी को ही कसकर आलिंगनबद्ध कर लिया-

"मैं पुत्र का पिता बन गया ।हे प्रभु ,मैं, मैं ।"

दासी ने जब गुलाबी वस्त्र में लिपटे शिशु का खुला मुख उसे दिखलाया तो उसने उसके माथे को चूम लिया।

"मेरा पुत्र मेरे कुल का तिलक, कुल का दीपक ।ओह प्रभु मैं तो मालामाल हो गया ।"

वह पूरी रात्रि जागरण में बीती। दिवोदास पुत्र जन्म से शिथिल माधवी को और पालने में सोये शिशु को बार-बार उठकर प्रसव कक्ष का पर्दा हटा कर देखता रहा। आज वह अनुभव कर रहा था जैसे पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में है। माधवी दूसरी बार माँ बनी थी ।पहली बार वह बहुत सारी बातों में अनाड़ी थी। लेकिन इस बार वह अपना हर पल अपने पुत्र के साथ बिता रही थी। उसे पता है बिछोह शीघ्र ही होगा ।अतः पुत्र के प्रति अपनी ममता का हर कण उस पर न्योछावर कर रही थी। इतनी दासियाँ होने के बावजूद वह पुत्र का हर काम अपने हाथों करती। स्तन भारी होते ही वह पुत्र को दुग्ध पान कराने लगती। उसके ज़रा-सा अनमना होने पर वह स्वयं अनमनी हो उठती। सुमधुर स्वरों में वह लोरी गाकर सुनाती और पालने की डोर अपने हाथों खीँचती।

दिवोदास पुत्र के प्रति माधवी के प्रेम को देखकर फूला नहीं समा रहा था ।वह भूल गया था कि माधवी से बिछोह का समय समीप आ गया है ।वह माधवी जिसने उसकी कामवासना को संतुष्ट किया ,वह माधवी जिसने उसे उपहार स्वरूप पुत्र दिया ,वह माधवी जो उसके संकेतों पर वर्ष भर कठपुतली की तरह नाचती रही ।थोड़े ही समय पश्चात उससे सदा के लिए दूर चली जाएगी।

राज ज्योतिषियों ने नामकरण का मुहूर्त तय किया। गालव भी काशी के महलों के निकट ही था ।सूचना उसे भी मिली। वह भी शीघ्र ही राजपथ की ओर अग्रसर हो गया। माधवी को अंतिम बार पटरानी जैसा सजाया ,संवारा गया ।कल तो वह गालव के साथ विदा हो जाएगी। राजमहल सुनहली, रूपहली रोशनी से जगमगा उठा ।राजमहल की सुंदरता कोसों दूर देखी जा सकती थी और क्यों न हो ,विवाह के बरसों बाद दिवोदास के महल में पुत्र जन्म हुआ है। राजरसोई में पकवानों की सुगंध जैसे पूरी काशी नगरी में समा गई थी। गालव भी नियत समय पर राजमहल पहुँच गया। उत्सव कक्ष में गालव का आसन भी उच्चकोटि का था ।आखिर उसी की बदौलत यह दिन देखना नसीब हुआ है। न वह ययाति कन्या माधवी को लेकर आता न यह शुभ दिन आता।

नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। राजपुरोहित ने घोषणा की

"महाराज समस्त शुभ लक्षणों से युक्त आपका यह पुत्र प्रत्तर्दन नाम से जाना जाएगा। इसकी कीर्ति दिग दिगंत में फैलेगी और समस्त ऐश्वर्य को भोगते हुए यह दीर्घकाल तक राज करेगा ।"

यह घोषणा सुनते ही उत्सवकक्ष करतल ध्वनि से गूँज उठा। माधवी ने लाड़ से अपने राजकुमार पुत्र को निहारा।रीझ गई माधवी पुत्र के तेजस्वी मुख मंडल से। उसके स्तनों में दूध उमड़ आया। नेत्र भी अश्रुजल से भीग गये। उसकी ममतामयी अवस्था देख रानियाँ विचलित हो गईं। पूजा विधि संपन्न होने के पश्चात वे माधवी और प्रत्तर्दन को उनके कक्ष में ले आईं और उन्हें अकेला छोड़ दिया। माधवी का मातृत्व उमड़ पड़ा। वह पुत्र को छाती से लगाए बुदबुदा उठी -"मेरे लाड़ले, कल मैं यहाँ से प्रस्थान करूँ

गी ।तुम्हें पता है तुम्हारा बड़ा भाई अयोध्या में है ।वह 1 वर्ष से कुछ ही महीने बड़ा है तुमसे ।किंतु पुत्र तुम्हारी माता बड़ी दुर्भाग्यशाली है ।उसे दोबारा देखने का अवसर कभी नहीं आया ।अब तो वह माँ माँ पुकारने लगा होगा ।माधवी की गोद की ममता भरी गर्माहट में प्रत्तर्दन अपार सुख में डूबा मुस्कुराने लगा। निहाल हो गई माधवी ।उसने अपने दूध से भरे स्तन को उसके मुख में देकर नेत्र मूंद लिए। इससे बढ़कर सुख संसार में दूसरा नहीं ।यह सृजन का सुख, पुत्र को दूध रूपी ऊर्जा देने का सुख । कितने कष्ट सहती है स्त्री अपने गर्भ में पल रहे शिशु को जन्म देने में। हड्डी तोड़ती पीड़ा मानो चाकू की धार से कोई बदन को चीरे डाल रहा हो।तब होता है जन्म शिशु का। उस जन्म से ही तो संसार का चक्र चलता है। स्त्री सोचती है अब दुबारा यह कष्ट नहीं झेलेगी। गर्भ धारण नहीं करेगी। किंतु शिशु का मुख देखते ही वह अपने सारे कष्ट, सारी पीड़ा भूल जाती है ।ममता वात्सल्य से भरी वह अपने शिशु के लिए कुछ भी कर डालने को व्यग्र हो उठती है।

माधवी के पास पुत्र वियोग की कुछ ही घड़ियाँ शेष हैं। वह इन घड़ियों में मानो पूरा जीवन जी लेना चाहती है। उसने प्रत्तर्दन को कसकर छाती से लगा लिया। एक कोमल पुष्प उसके हृदय को प्रफुल्लित करने लगा ।वह नेत्र मूंदकर मानो दूसरे ही संसार में विचरण करने लगी।

तभी दिवोदास ने शयन कक्ष में प्रवेश किया। माधवी का बिल्कुल मन नहीं था कि वह दिवोदास का मनोरंजन करे। किंतु स्वयं पर उसने नियंत्रण रखा। यह दिवोदास के साथ की अंतिम रात्रि है और वह यह भी नहीं चाहती कि वर्ष भर के अपने संतुलित व्यवहार को असंतुलित करे।अतः उसने दिवोदास की बाहों में स्वयं को ढह जाने दिया। दिवोदास की किसी भी चेष्टा का उसने विरोध नहीं किया। अंतिम बार सहवास से संतुष्ट दिवोदास माधवी के चंद्रमुख को अपनी हथेलियों में भरकर कहने लगा -"चाहता हूँ तुम हमेशा मेरे साथ रहो। काश में गालव की गुरु दक्षिणा पूर्ण कर पाता और तुम्हें जाने से रोक लेता ।"

"यही मेरी नियति है महाराज, इसमें आपका कोई दोष नहीं।" माधवी ने संयत होकर कहा ।

"माधवी तुम जैसी न तो मेरी कोई रानी है जिसने मुझे संतुष्टि दी हो, न ही किसी ने मेरे वंश की वृद्धि में सहयोग किया और न ही कोई तुम्हारे जैसी विदुषी है।"

लंबी सांस खींचकर देवदास ने पल भर को अपनी वाणी को विराम दिया और फिर कहा-

"तुम प्रातः काल मुझसे दूर चली जाओगी ।पर मेरे हृदय में हमेशा रहोगी। प्रत्तर्दन की माता को सब तुम्हारे नाम से याद करेंगे ।हमारा पुत्र प्रत्तर्दन माधवी दिवोदास पुत्र कहलाएगा। दिवोदास ने अपने बाजुओं के कठोर बंधन में बाँध लिया माधवी को ।माधवी शांत रही। वह दिवोदास के सोने की प्रतीक्षा करती रही।

धीरे-धीरे बंधन शिथिल हुए। उसने अपने कंधे पर से दिवोदास का सिर तकिये पर आहिस्ता से रख दिया। संतुष्टि भरी गहरी नींद थी दिवोदास की।

माधवी बिना आहट किए पलंग से उतरी और पालने के पास पहुँची। उसने प्रत्तर्दन को पालने से उठा लिया और हृदय से लगाए शयन कक्ष में टहलती रही। उसकी एक-एक थपकी मानो न जाने कितने जन्मों का ऋण थी जो वह बस इस अंतिम रात्रि में चुका देना चाहती थी। जैसे ही पूर्व दिशा में उषा ने अपना सिंदूरी रंग बिखेरा माधवी ने गोद में सोये प्रत्तर्दन को पालने में सुला दिया और तेजी से कक्ष के बाहर चली गई।

रनिवास में रानियाँ उसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। दासी ने माधवी को स्नान करा के सादे वस्त्र पहनाये।आदित्य हृदय स्रोत के उच्चारण, सूर्य देवता वंदन के साथ माधवी राज महल से विदाई के लिए पूरी तरह तैयार थी। सभी रानियाँ बारी-बारी से उसे गले लगा कर अपने वंश की वृद्धि के लिए किये हुए उसके महान कार्य की प्रशंसा कर रही थीं। पटरानी ने दासी को आदेश दिया "प्रत्तर्दन को ले आओ ताकि माधवी अंतिम बार उससे मिल ले।"

"नहीं महारानी मैं विदा ले चुकी हूँ अपने पुत्र से ।मैंने अपने मन को कठोर बना लिया है ।मुझे विचलित न करें।" माधवी ने प्रतिवाद किया ।सभी रानियाँ आश्चर्य से भर उठीं-"कैसी माता हैं आप? सद्यप्रसूत पुत्र को देखने तक से मना कर रही हैं।"

पटरानी ने आंखें तरेर कर उनकी ओर देखा-

"तुम सब भी तो माताएँ हो। विचार करके देखो। अपने शिशु का त्याग कितना प्राणघातक होता है ।माधवी देवी है ,चरण स्पर्श करने योग्य है। हम इनका त्याग कभी नहीं भूल सकते। हम इनके ऋणी हैं,इन्होंने हमें कुलदीपक दिया है, जिसकी हमें वर्षों से प्रतीक्षा थी।" कहते हुए पटरानी ने पुनः माधवी को गले से लगाकर उसे पकवानों ,मिष्ठान्नों की टोकरियों और वस्त्रों के उपहार से लाद दिया ।माधवी यह सब स्वीकार नहीं कर सकी-

"क्षमा करें महारानी ,आपका प्रेम ,स्नेह मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं। किंतु मैं इन्हें नहीं ले सकती। अभी तो 400 अश्वों के लिए और प्रयास करना है ।"

माधवी के यथार्थ के तीखेपन से भरे ये वचन माधवी का भविष्य स्पष्ट बता रहे थे। रानियाँ पुरुष की आकांक्षा पूर्ण करने की मात्र साधन स्त्री की पीड़ा से भर उठीं।माधवी की विदाई जैसे पुत्री की विदाई थी। महल के झरोखों पर खड़ी वे तब तक माधवी और गालव को देखती रहीं जब तक दोनों दृष्टि से ओझल नहीं हो गये।