कर्म से तपोवन तक / भाग 6 / संतोष श्रीवास्तव
भोजनगर के राजमहल से आती भैरवी की तान और प्रातः वंदन के मधुर स्वरों ने गालव और माधवी को प्रसन्नता से भर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने राज महल की ओर क़दम बढ़ाए।
भोजनगर का राजा उशीनर सत्य, पराक्रमी और अपनी प्रजा के प्रति बहुत स्नेह शील था।पूजा पाठ से निवृत्त हो अल्पाहार के पश्चात उसने राज्य सभा की ओर प्रस्थान किया। सभी सभासदों ने उसकी जय जयकार करते हुए उसका सत्कार किया ।उशीनर के सिंहासन ग्रहण करने के पश्चात सभी अपने अपने आसन पर बैठ गए। गालव माधवी को द्वार पर आया देख सेवक ने सूचना दी-"महाराज अतिथि पधारे हैं। वेशभूषा से तपस्वी जान पड़ते हैं। आपसे मिलने की इच्छा प्रकट की है।"
"आदर पूर्वक उन्हें दरबार में लाया जाए। अतिथि तो भगवान होते हैं। हमारे अहोभाग्य जो वे पधारे।"
उशीनर का आदेश मिलते ही गालव और माधवी राजसभा में आ गए ।उशीनर ने स्वयं आसन से उठ कर उनका स्वागत किया और उन्हें उचित आसन दिया ।
"कहिए मुनिवर ,मुझ अकिंचन पर अपने आगमन की यह कृपादृष्टि कैसी?"
"राजन अकिंचन तो हम हैं जो आपके द्वार आए हैं ।"कहते हुए गालव ने गुरु दक्षिणा की पूरी कथा विस्तार से सुना दी। सुनकर उशीनर सोच में पड़ गया। उसके शरीर से यौवन विदा होने के कगार पर था और अश्वशाला में 400 अश्वमेधी अश्व भी न थे।
द्वार पर आये याचक को खाली हाथ कैसे लौटा दें।
"राजन ,गुरु दक्षिणा के लिए 400 अश्व मैंने जुटा लिए हैं .400 की और आवश्यकता है। जिसके बदले माधवी आपके पास रहेगी। आप के पुत्र को जन्म देगी ।मैं तो साधु हूँ मुझे अपने लिए अश्वों की आवश्यकता नहीं। गुरु विश्वामित्र को चाहिए गुरु दक्षिणा में ऐसे अश्व अन्यथा मैं आपसे याचना नहीं करता।"
उशीनर मौन ही रहा। उसकी ओर से कोई उत्तर न पाकर गालव ने अपनी बात दोहराई-
"राजन आप संतानहीन हैं। माधवी आप के पुत्र को जन्म देगी ।आप पितृऋण से मुक्त होंगे ।पुत्र जनित पुण्य फल का उपभोग करने वाला मनुष्य हमेशा मोक्ष को प्राप्त होता है अन्यथा पुत्रहीन मनुष्य की यातनाएँ तो अनंत हैं। आप अधिक बुद्धिमान हैं। 400 अश्व देकर मेरी गुरु दक्षिणा पूर्ण करें और माधवी को ग्रहण कर पुत्रसुख भोगें।"
यह कहते हुए वह अत्यंत पीड़ा से भर उठा।माधवी के प्रति प्रेम उसको ऐसा कहने से रोक रहा था किंतु गुरु दक्षिणा की बात भी प्रबल थी। मन को ढांढस भी दिया कि गुरु दक्षिणा पूर्ण होते ही माधवी केवल और केवल उसकी होगी।
उशीनर ने भर नज़र माधवी के सौंदर्य को निहारा ।उसके रूप सौंदर्य पर रीझते हुए उसने कहा-
"मुनिवर गालव आपकी पूरी कथा मैंने सुन ली है ।उस पर विचार भी कर लिया है ।मेरी अश्वशाला में दूसरी जाति के कई सहस्र अश्व हैं किंतु आप की मांग वाले अश्व 200 ही है। अतः मैं भी माधवी से एक ही पुत्र उत्पन्न करने का अधिकारी हुआ। मुनिवर मैं शेष अश्वों का मूल्य देकर आपका सारा शुल्क चुका दूं यह संभव नहीं है क्योंकि मेरा धन मेरा नहीं बल्कि मेरी समस्त प्रजा का है ।उसे मैं अपने उपभोग में नहीं ला सकता।“
माधवी ने पहली बार उशीनर को ग़ौर से देखा। उसे वह सत्य का पालन करने वाला तथा प्रजा के प्रति कर्तव्य निभाने वाला सच्चा शासक लगा। वह चाहता तो 2 वर्ष तक माधवी को अपने पास रखता किंतु पर्याप्त अश्व न होने से उसने ऐसा नहीं किया। उशीनर की बातों में माधवी को स्त्री के प्रति सम्मान का भी अनुभव हुआ।
गालव निर्णय ले चुका था-"ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक 1 वर्ष पश्चात मैं माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊँगा।"
"मुनिवर ,जाने से पहले हमारा आतिथ्य ग्रहण करें ।"कहते हुए उशीनर ने सेवक को आदेश दिया गालव को अतिथि गृह में ले जाने का ।
"मुझे कोई आपत्ति नहीं है ।किंतु यदि माधवी की भी इच्छा मेरे साथ घड़ी दो घड़ी और रहने की है तो मैं सोचता हूँ आप अन्यथा नहीं लेंगे।"
गालव के आग्रह को उशीनर ने सम्मान दिया। सेवक दोनों को भव्य सुसज्जित अतिथि गृह में ले आया जहाँ पहले से ही फल ,मिठाईयाँ और तरह-तरह के पकवान रखे थे। रजत पात्रों में भरा केसर युक्त सुगंधित दूध और पान के बीड़े रखे थे ।सेवक के जाते ही गालव माधवी के नज़दीक आकर बैठ गया-
"माधवी मन में तनिक भी क्लेश मत रखना। तुम मेरी हो ,मेरी ही रहोगी ।मैं 600 अश्व गुरु विश्वामित्र के चरणों में समर्पित कर क्षमा मांग लूंगा। फिर हम नया जीवन आरंभ करेंगे।"
"माधवी भी वर्षभर के लिए होने वाले गालव से बिछोह को लेकर अनमनी थी। उसके मन में इस समय बस एक ही प्रश्न उठ रहा था-
"गालव, इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा।"
"मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की?"
"संभवतः वह इन दुर्लभ अश्वमेधी अश्वों को प्राप्त कर ऋषि ,मुनि,तपस्वियों के सामने अपना प्रभुत्व रखना चाहते हों, बताना चाहते हों कि यह है उनकी शिक्षा जिसे पूर्ण करने में उनके शिष्य अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं।"
"हाँ सही कह रहे हो गालव। विश्वामित्र यही चाहते हैं। अब 600 अश्वों का प्रबंध तो हो ही गया .1 वर्ष बाद हम ये 600 अश्व उनके चरणों में समर्पित करेंगे। लेकिन यदि तब भी उन्होंने शेष अश्वों के लिए हठ किया तब हम क्या करेंगे ?"
"माधवी हम प्रयत्न करते रहेंगे। हमने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया है। यही क्या कम है ?"
गालव के वाक्यों को सुन माधवी गंभीर हो गई। अब जब गालव ने प्रेम निवेदन कर ही दिया है और वह भी उससे प्रेम करने लगी है ऐसी स्थिति में अब वह किसी और की अंकशायिनी कैसे हो सकती है। उसका मन नहीं मानता अब पुनः उस स्थिति से गुजरने का। माधवी की शंका गालव कुछ-कुछ समझ चुका था ।उसने माधवी की ठोड़ी पकड़ कर उसका चेहरा ऊपर उठाया-
"कुछ मत सोचो माधवी।हम अपने उद्देश्य की ओर बस पहुँचने ही वाले हैं। मेरे लिए तुम्हारा त्याग इस संसार में युगों-युगों तक याद किया जाएगा । ऐसा न कभी हुआ और न भविष्य में होगा।"
माधवी मन ही मन मुस्कुराई, कहना चाहा। सही कह रहे हो गालव ।पिता द्वारा ,मुनि द्वारा प्रेमी द्वारा अनजान पुरुषों के बीच धकेली गई स्त्री की कथा, हे प्रभु अब न दोहराई जाए। अब कोई माधवी इस आँच में न झुलसे। दोपहर ढलने को थी।
"माधवी अब चलता हूँ।अंधेरा होने के पहले किसी स्थल को विश्राम के लिये चुनना भी है। अब वर्ष भर बाद तुमसे भेंट होगी।तुम तो निमग्न होगी मेरे उद्देश्य को पूर्ण करने में ।किंतु मैं हर पल तुम्हें याद करता तुम्हीं में खोया रहूँगा ।विदा दो माधवी।" कहते हुए गालव ने उसे आलिंगनबद्ध करते हुए चूम लिया और द्वार की ओर बढ़ गया। माधवी चाक पर चढ़ाए जाने के लिए मिट्टी के लौंदे में परिवर्तित होने लगी।
उशीनर के राज महल में माधवी के दिन हर्यश्व और दिवोदास के राजमहलों की तरह नहीं गुजरे ।उशीनर ने पूरे वर्ष माधवी के साथ जो जीवन ज़िया उसे जीते हुए माधवी ख़ुद को भूल चुकी थी। उसे उशीनर से भरपूर प्रेम, मान सम्मान मिल रहा था ।
"माधवी तुम्हें पाकर मैं धन्य हो गया। काश मेरे पास 400 अश्व होते तो मैं 2 वर्ष तक तुम्हारे साथ विहार करता या मुनिवर गालव से याचना करके हमेशा के लिए तुम्हें मांग लेता ।तुम से पाणिग्रहण कर लेता ।तुम्हें अपनी परिणीता बना लेता।"
"राजन विधि का विधान किसने देखा है? मैं आज हूँ, कल नहीं ।इतनी दूर तक का मत सोचिए।"
"हाँ ,मैं भी वर्तमान में जीना चाहता हूँ। क्या तुम्हें भ्रमण पसंद है?"
"जी भ्रमण तो मेरा मनपसंद शौक है।" माधवी ने कहा।
"वाह, मैं कल ही अपने सचिव से विचार विमर्श करके कार्यक्रम बनाता हूँ।"
अगले दिन विचार-विमर्श कक्ष में सचिव और अपने सहयोगियों के साथ उशीनर ने भ्रमण की योजना बनाई ।
मानचित्र में उन स्थलों को ढूँढा गया जो हिमालय जाते हुए मार्ग में स्थित हैं।
"और राजकाज?" उशीनर ने चिंता व्यक्त की।
"राज्य के पदाधिकारी किस दिन काम आएँगे महाराज ?प्रजा के हित में जीवन भर आप स्वयं को भूले रहे तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम आपके विषय में कुछ सोचें। उशीनर कुछ कहता कि सचिव ने मानचित्र को देखते हुए कहा-" महाराज राज्य के समीप के वन में आप तीन-चार दिन उत्सव मनाएँ। हाथी ,घोड़े ,सेवकों और सैनिकों के साथ। उसके बाद हम यहाँ से वायुयान भेज देंगे ।साथ में मार्गदर्शक और पंडित जी।"
"पंडित जी का वहाँ क्या काम! कोई पूजा अनुष्ठान भी करना होगा क्या ?"उशीनर ने परिहास किया। "महाराज, आप परम ज्ञानी तथा आध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञाता हैं। आपको किसी भी प्रकार की जानकारी की अपेक्षा नहीं । किंतु आप पहली बार उन सभी स्थलों का भ्रमण करेंगे अतः सावधानी के लिये पंडित जी साथ रहेंगे जो उन धार्मिक स्थलों के विषय में आपको जानकारी देंगे जिनके आप दर्शन करेंगे।"
"किंतु वायुयान की क्या आवश्यकता? हम तो हाथी ,घोड़ों पर भ्रमण करेंगे ?"
"महाराज आप तो जानते हैं कि इतने सुगम नहीं हैं वहॉं के मार्ग। बिना वायुयान के संभव नहीं है भ्रमण। ऊँचे -नीचे, पथरीले कंटकाकीर्ण मार्ग हैं ।तीव्र वेग से बहती नदियाँ हैं । जिन्हें रज्जू मार्ग से पार किया जा सकता है। ऊँचे पर्वतों पर जब भेड़ के झुंड चलते हैं तो पत्थर लुढ़कते हैं।"
अपने विषय में पदाधिकारियों की ऐसी चिंता देखकर उशीनर का मन गदगद हो गया। उशीनर के प्रसन्न चेहरे को देखकर पदाधिकारी भी प्रसन्न हो गए-
"महाराज, सच में बहुत आनंद आएगा।
"ठीक कहते हैं आप। हमने तय कर लिया है, हमारी रानियों में केवल पटरानी जाएँगी और माधवी ।"
दूसरे ही दिन से भ्रमण की तैयारियाँ आरंभ हो गईं। उशीनर माधवी के साथ अधिक से अधिक समय तक विहार करना चाहता था। अतः उसने पटरानी से परामर्श किया। पटरानी ने सुझाव दिया कि "आप माधवी के साथ ही जाएँ। आपकी अनुपस्थिति में मैं राजकाज संभाल लूंगी। अभी आरंभिक अवस्था है गर्भवती होने के पश्चात माधवी को विश्राम की आवश्यकता होगी । उस स्थिति में उसका भ्रमण करना उचित नहीं।"
उशीनर की पटरानी विदुषी महिला थी, राजकाज में पारंगत थी और युद्ध के मैदान में भी वह एक वीरांगना की तरह उतरती थी। मजाल है कि शत्रु जीते। उशीनर ने गदगद हो पटरानी को गले लगा लिया । वह सोचने लगा पटरानी ने उसे सब कुछ दिया, एक पुत्र ही नहीं दे पाई। बस यही कमी तो खटकती रहती थी उशीनर के मन में ।अब माधवी आ गई है ।अब वह भी पितृऋण से मुक्त हो जाएगा।
राज पंडित द्वारा बताए शुभ मुहूर्त में उशीनर और माधवी का दल चल पड़ा वनों,कन्दराओं और नदी तट की ओर। उशीनर और माधवी दोनों युद्ध की वेशभूषा में थे ।तमाम हथियारों से लैस ।शत्रु का क्या ,कहीं से भी आक्रमण कर सकता है ।वनों में हिंसक पशुओं का डर... सुबह से दोपहर हो गई । वन में भांति भांति के वृक्ष और फलों को निहारते ,विचरण करते दल रुका ,नदी के किनारे सघन वृक्षों के नीचे ।वृक्षों पर मचान डाला गया जिस पर चढ़कर उशीनर और माधवी ने भोजन और विश्राम किया। साथ आए सेवकों,सैनिकों के लिए तंबू ताने गए। हाथी घोड़ों के लिए पर्याप्त प्रबंध किया गया। ऐसा लगता था जैसे वन भोज का उत्सव हो।
संध्या को सूर्य की विदा होती रश्मियों ने वन को सुनहरी आभा से भर दिया ।उशीनर और माधवी नदी के तट पर आ बैठे -
"देखो नदी की उर्मियों को। इंद्रधनुषी रंगों को लिए कलकल बही जा रही है। उशीनर रोमांस में आकंठ निमग्न था। उसने माधवी के चेहरे पर आई लटों को संभालते हुए कहा -"तुम्हारे बोल तो बहुत मीठे हैं माधवी ।कोई गीत सुनाओ न ।"
माधवी को लगा जैसे उशीनर नहीं गालव ही उसकी लटों को संवारते हुए उससे गीत सुनाने का आग्रह कर रहा है। कैसी चुम्बकीय शक्ति है उसमें। माधवी स्वयं के वश में न रही। वह धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी ।गुनगुनाहट लयबद्ध हो मधुर तान बन वन की हवाओं को गुदगुदाने लगी। नदी की उर्मियाँ जैसे थमने लगीं। संध्या के क़दम भी ठिठक गए ।पक्षियों का एक जोड़ा सामने छतनारे आम्र वृक्ष पर बैठा एकटक माधवी को निहार रहा था। गीत समाप्त होते ही माधवी ने उशीनर की ओर देखा। वह नेत्र मूँदे आनंद के सागर में डूबा था।
"महाराज"माधवी ने धीमे पुकारा... इस पल वह गालव के ध्यान से मुक्त होना चाहती थी ।आपको गीत पसंद नहीं आया क्या?
उशीनर ने नेत्र खोले-"हम तो गीत गंगा में डुबकी लगा रहे थे । तुमने चेता दिया माधवी। कितना मधुर गाती हो तुम। तुम्हारी मखमली आवाज़ ने जादू कर दिया।"
धन्यवाद महाराज ,आपको गीत पसंद आया। मेरा गाना सार्थक हुआ।"
रात घिरने लगी थी। सेवकों ने आकर आग्रह किया -"क्षमा करें महाराज ,रात्रि से पहले यह स्थान छोड़ दें ।हिंसक पशु रात्रि होते ही यहाँ पानी पीने आयेंगे।"
उशीनर ने स्नेह से अपने प्रति चिंतित सेवकों की ओर देखा। यही सब तो हैं उनके और उनके साम्राज्य के रक्षक। माधवी का हाथ पकड़कर उठते हुए उशीनर ने कहा -"माधवी रात्रि कालीन वन का सौंदर्य हम मचान से देखेंगे।"
"क्या आखेट की आकांक्षा है?"
"नहीं माधवी किसी का वध करने में कहाँ का शौर्य है ।अपना शौर्य तो रणभूमि में दिखाना चाहिए। अपने राज्य की ,अपने देश की रक्षा करते हुए।"
माधवी को हर्यश्व याद आया और याद आए वन में बिताए हुए दिन जब वह हर्यश्व के साथ आखेट के लिए गई थी और संध्या होते तक एक भी पशु हाथ नहीं आया था। आखेट किए पशु के बिना राज्य में लौटने की लज्जा से ग्रस्त हर्यश्व को माधवी ने ही उबारा था और तेंदुए का वध करने में उसकी सहायता की थी ।कितना अंतर है हर्यश्व और उशीनर के स्वभाव में ।एक आखेट किए बिना लज्जित था और दूसरा आखेट करने में स्वयं को दोषी समझता है। वैसे भी उशीनर हर्यश्व और दिवोदास से सर्वथा भिन्न ,बेहद दयालु और सुसंस्कृत चरित्र का है।
वन में विहार करते हुए 4 दिन व्यतीत हो गए ।इन 4 दिनों में उशीनर ने माधवी के साथ पर्वतों से निकलते स्फटिक से शुद्ध जल वाले जलप्रपात देखे। जिनमें स्नान करती माधवी के भीगे बदन को उशीनर मुग्ध भाव से देखता रहा।
ओह कितनी मोहक कितनी पवित्र है माधवी। दो पुत्रों को जन्म देकर भी कौमार्य धारण किये मात्र 1 वर्ष के लिए ही उसकी संगिनी रहेगी।
झरने की गिरती बूंदे वायु के संग उड़ चलीं उशीनर की ओर। उशीनर ने अपने वस्त्रों से बूंदों को झटका...
"आप भी आइए महाराज ,जलप्रपात में स्नान का आनंद लेने।"
माधवी के आमंत्रण से उशीनर संकोच से भर उठा । अपनी असमर्थता ,अपना संकोच माधवी पर प्रगट न हो सोच उसने शीघ्रता से कहा-"शीघ्र आओ माधवी। वायुयान हमारी प्रतीक्षा कर रहा है ।आज हम उत्तर दिशा के वनों का भ्रमण करेंगे ।"
वायुयान !माधवी चकित थी। इस वन में यह व्यवस्था कैसे कर ली महाराज ने?
वह यह समझ ना सकी कि जिस राज्य और जिन सेवकों,राज्य के पदाधिकारियों के लिए उशीनर अपने प्राण न्योछावर करते हैं उनके सुख-दुख में सहायक रहकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं वे उशीनर को उतना ही बल्कि उससे कहीं अधिक मानते हैं ।
राजपथ से इस वन तक उशीनर का दल हाथियों और अश्वों पर सवार होकर आया था लेकिन अब आगे का रास्ता दुर्गम है। ऊँचे-नीचे ,पथरीले, कंटकाकीर्ण मार्ग ,सघन वन जहाँ सूर्य की रोशनी तक प्रवेश नहीं करती पार करना ,गहरी घाटियों को फलांगना लगभग असंभव है ।अतः उनके लिए राज आज्ञा से वायुयान भिजवाया गया है। उशीनर ने माधवी को बताना चाहा लेकिन वह माधवी के चेहरे पर विस्मय देख चुप रहा।
माधवी वायुयान में पहली बार बैठी थी। उशीनर का वायुयान जब फूलों भरी घाटी से गुजरा तो उसने हर्षित हो माधवी से कहा -"देख रही हो माधवी रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित इस घाटी को ।ऐसे विचित्र पौधे ,ऐसे पुष्प तो हमने पहले कभी नहीं देखे।"
"महाराज यह पुष्पों भरी घाटी है । जो हिमालय का पश्चिमी क्षेत्र है ।त्रेता युग में जब लंका में युद्ध करते हुए लक्ष्मण को मेघनाथ का शक्ति बाण लगा था और वे मरणासन्न हो गए थे तब हनुमान जी यहीं से संजीवनी बूटी ले गये थे।
हिमालय की इस घाटी में विभिन्न प्रजातियों ,रंग और सुगंध के 500 प्रकार के पुष्प खिलते हैं।
यहाँ वन्यजीव भी हैं। जैसे काला भालू, हिम तेन्दुआ, भूरा भालू ...
उशीनर परम विदुषी माधवी को न केवल चकित होकर देख रहा था बल्कि उसके प्रति उसके मन में आदर सम्मान भी दुगना हो गया था। उसने माधुरी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा-
"तुम मेरे लिए वरदान बनकर आई हो।भले ही अल्प समय के लिए आई हो लेकिन मैं धन्य हो गया।"
"महाराज ज्ञान पिपासा तो अनंत है। पिताश्री के राजमहल में रहते हुए और गालव के साथ वनों में विचरण करते हुए मैंने यह सब देखा है। प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य पर कौन न मुग्ध होगा। अब तो पिताश्री राजा ययाति का आश्रम भी ऐसे ही पेड़ ,पौधों और पुष्पों के बीच है।"
माधवी का कथन सुन उशीनर को अपने जीवन के वर्षों के यूं ही व्यतीत हो जाने का खेद हुआ ।उसने कभी भ्रमण, मनोरंजन की ओर ध्यान नहीं दिया और अपनी प्रजा के हित अपने कर्तव्यों का ही उम्र भर पालन करता रहा।
दूसरे दिन वायुयान ने उन्हें जहाँ उतारा वह देवप्रयाग था । प्रातः काल की सुनहरी किरणें जल को भी स्वर्णिम किए थीं।
पंडित जी ने बताया-" महाराज
इस स्थान पर भागीरथी और अलकनंदा का संगम होता है। दोनों नदियों की धाराएँ मिलकर गंगा कहलाती हैं। माना जाता है कि यहाँ पर स्नान करने से प्रयाग स्नान का फल मिलता है।"
उशीनर स्नान करने को तत्पर हुआ। कान पर जनेऊ चढ़ाकर व प्रयाग की जल धारा में उतरने ही वाला था कि माधवी ने रोका-"महाराज जल की थाह लिए बिना नदी में न उतरें।"
उशीनर जहाँ के तहाँ रुक गया। उसने देखा माधवी स्नान की तैयारी कर रही थी। सेवक नदी में उतरा। उसने थोड़ी दूर तक नदी की थाह ली ।उशीनर को सचेत किया- "महाराज इससे आगे न जाएँ।" कुछ सेवक नदी में घेरा बनाकर खड़े हो गए । उशीनर के जल में उतरते ही माधवी ने छलांग लगाई और दूर तक तैरती चली गई। सिद्धहस्त माधवी को उशीनर मुग्ध हो देखता रहा । स्नान करके बाहर आते ही पंडित जी ने उसका तिलक करते हुए हाथ में जल से भरा तांबे का कलश दिया -
"सूर्य भगवान को अर्ध्य दें महाराज।" कहते हुए स्वयं आदित्य स्रोत का पाठ करने लगा ।माधवी ने भी स्नान के पश्चात गायत्री मंत्र पढ़ते हुए सूर्य को अर्ध्य दिया। पंडित जी ने बताया -
"महाराज, रावण का वध करने के बाद ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान राम, लक्ष्मण और सीता यहाँ तपस्या करने आये थे।
जब राम ने सीता का त्याग किया था तब लक्ष्मण ने यहीं पर सीता को छोड़ा था। भागीरथी की तपस्या से गंगा जब धरती पर आने के लिए तैयार हुई तब यहीं पर सबसे पहले गंगा प्रकट हुई थीं। धरती पर गंगा के आगमन को देखने के लिए यहाँ 33 करोड़ देवी-देवता भी आये थे।"
पंडित जी के मुख से इस कथा को सुनकर उशीनर का मन भक्ति भाव से भर उठा ।उसने बारंबार देवप्रयाग के जल को ,किनारे की मिट्टी को स्पर्श कर प्रणाम किया, माथे से लगाया।
देवप्रयाग के वन में उशीनर का शिविर लगा ।जहाँ भोजन और विश्राम के बाद उन्हें प्रातः काल होते ही रुद्रप्रयाग की ओर प्रस्थान करना था ।
दोपहर को भोजन के पश्चात उशीनर माधवी के साथ वन भ्रमण के लिए निकल गया ।यह वन अन्य वनों से भिन्न था। यहाँ वृक्षों की सघन शाखाओं पर रंग-बिरंगे पक्षी चहचहा रहे थे ।इतनी अधिक संख्या में विभिन्न प्रजाति के पक्षियों को देख माधवी ने कहा- "महाराज निश्चय ही यह वन पक्षी विहार है।"
उशीनर के साथ चल रहे अंगरक्षक ने जो पक्षियों की विशेष जानकारी रखता था बताया-
"महाराज इस वन में अधिकतर वे पक्षी है जो धरती से बहुत ऊँचाई बल्कि पर्वतीय इलाकों वाले वनों में घोंसले बनाते हैं ।वह देखिए, मोनाल पक्षी ।"
उशीनर ने देखा दाहिनी ओर के वृक्ष पर मोनाल पक्षियों का झुंड जिनके पंख फड़फड़ाने से वन मुखरित हो रहा था।
"महाराज इस वन में चिड़ियाँ, गौरैया , घूघती, सेंतुला, हरीयल, तोता, चटक, पपीहा, हल्दू, नीलकंठ, कबूतर और तीतर विविध रंगों में काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं। जो शीतकाल में वनों की ऊँचाई से उड़ कर निचले वनों में जाते हैं।"
तभी मोनाल के पंख फड़फड़ाने से उसका सुंदर पंख टूट कर गिरा। उसी समय माधवी ने क़दम आगे बढ़ाया। पंख हवा में लहराता उसके बालों में अटक गया। जिसे निकालते हुए उशीनर ने कहा - "अद्भुत, कितना सुंदर पंख है। माधवी, वन ने तुम्हारे आगमन पर हर्षित होकर इस पंख के रूप में तुम्हें उपहार दिया है ।"
माधवी पंख को उलट-पुलट कर देख रही थी। वन में संध्या ने दबे पांव प्रवेश किया। सुरमई रंगों से वन सराबोर हो गया।
भोर होते ही उशीनर का वायुयान रुद्रप्रयाग की दिशा में उड़ चला। इस विशिष्ट विमान में उशीनर, माधवी ,अंगरक्षक और चालक सवार थे ।बाकी के वायुयानों में अन्य लोग।
रुद्रप्रयाग के दर्शन होते ही पंडित जी ने बताया -" महाराज,
इसे देवर्षि नारद की तपस्थली कहा जाता है। यहाँ पर भगवान विष्णु के चरण पखारती अलकनंदा और भगवान शिव के चरणों का रज लेती पवित्र मंदाकिनी नदी आकर मिलती है।
इन नदियों के संगम से ही इस स्थान की महत्ता है ।भगवान शिव के चरण यहाँ पड़े हैं अतः यह रूद्र प्रयाग के नाम से जाना जाता।"
रुद्रप्रयाग में भी स्नान, ध्यान ,पूजन इत्यादि के पश्चात उशीनर ने एक रात्रि विश्राम किया।
जब वे कर्णप्रयाग आए तो उशीनर ने पंडित जी से कहा "पंडित जी इस स्थान के बारे में बताइए।"
पंडित जी कुछ कहते उसके पहले ही माधवी ने कहा -"महाराज जहाँ तक मेरी जानकारी है
यह स्थान शकुन्तला एवं राजा दुष्यंत का मिलन स्थल माना जाता है। "
"अच्छा !"
"जी महाराज यह बात मुझे माता शर्मिष्ठा ने बताई थी।"
"फिर इस स्थान का नाम कर्णप्रयाग क्यों पड़ा?"
"महाराज इस स्थान पर पवित्र अलकनंदा के साथ पिण्डर नदी आकर मिलती है। पिंडर को कर्ण गंगा भी कहते हैं इसीलिए इसका नाम कर्णप्रयाग पड़ा।"
"महाराज अगर आप आदेश दें तो अभी हम लोग वायुयान से नहीं बल्कि यूं ही भ्रमण करते हुए नंदप्रयाग भी जा सकते हैं।
यहाँ से मात्र 22 कोस ही तो है नंद प्रयाग।"
"इतनी दूर पैदल कैसे जाएँगे ?"
"अश्वों से महाराज,अश्व हमें शुल्क देकर मिल जाएँगे ।"
"मुझे अश्वों से जाना उचित नहीं लग रहा है। पहाड़ी रास्ता है और मार्ग दुर्गम।भले ही 22 कोस दूर है लेकिन समय ज़्यादा लग जाएगा पहुँचने में।"
उशीनर को माधवी का यह तर्क सही लगा और उसने वायुयान से ही जाने की आज्ञा दी।
इस बार अपने वायुयान में उशीनर ने पंडित जी को भी साथ लिया ताकि वह नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग के विषय में जानकारी देते चलें।नंदप्रयाग के विषय में बताते हुए पंडित जी ने कहा-"महाराज नंद प्रयाग में
अलकनंदा और नंदाकिनी का संगम होता है।
भगवान कृष्ण के पिता राजा नंद अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में यहाँ अपना महायज्ञ पूरा करने आये तथा उन्हीं के नाम पर नंदप्रयाग का नाम पड़ा।
नंगप्रयाग को महर्षि कण्व का आश्रम भी कहा गया है जहाँ दुष्यंत एवं शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी। स्पष्ट रूप से इसका नाम इसलिये बदल गया क्योंकि यहाँ नंद बाबा ने वर्षों तक तप किया था।
यह उत्तराखंड का चौथा प्रयाग माना जाता है। यहाँ से पैदल रूद्र कुंड तक यात्रा कर सकते हैं।"
"प्रयाग तो पांच हैं, पवित्र नदियों के संगम के कारण इन स्थानों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। महाराज, मैं भाग्यशाली हूँ कि इन प्रयागों के दर्शन कर पा रही हूँ। माधवी ने कहा।
"हाँ देवी,उत्तराखंड का पांचवा प्रयाग विष्णु प्रयाग है। यहाँ विष्णु कुण्ड का बड़ा महत्त्व है ।यहाँ धौली गंगा तथा विष्णु गंगा का संगम होता है। श्रद्घालु इस प्रयाग के दर्शन करते हुए बद्रीनाथ धाम की यात्रा करते हैं।"
"पंडित जी हिमालय के चारों धाम भी हमारी यात्रा में सम्मिलित है न।"
"जी हाँ महाराज ,बद्रीनाथ केदारनाथ, गंगोत्री ,यमुनोत्री के दर्शन करते हुए हम वापस लौटेंगे।"
नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग के दर्शन करते हुए उशीनर के दल ने बद्रीनाथ की ओर प्रस्थान किया।
"महाराज मेरी सखी वासवदत्ता इस कथा का उल्लेख प्रायः करती थी। कथा मुझे पता थी किंतु हम बार-बार इस कथा को दोहराते आनंद लेते थे।"
"वैसे तो हर कथा आनंद देती है किंतु इस कथा में विशेष क्या था?" उशीनर ने जिज्ञासा प्रकट की ।
"बात ही ऐसी थी महाराज ।एक दिन नारद मुनि सीधे क्षीरसागर पहुँचे और शेषनाग की शैय्या पर लेटे लक्ष्मी से पांव दबवा रहे विष्णु को उलाहना देने लगे-
"आप सृष्टि का तो कुछ सोचते नहीं और यहाँ आनंद सागर में डूबे रहते हैं ।यह तो सृष्टि के प्रति अन्याय है।"
नारद के उलाहने से व्यथित हो विष्णु हिमालय की ओर चल दिए। हिमालय की ऊँची ऊँची चोटियाँ, भयावह गड्ढे... कहीं ऐसा स्थान नहीं था जो निरापद हो। न कहीं वृक्ष ,न लताएँ। हरियाली का दूर-दूर तक पता न था। विष्णु नारायण पर्वत पर बैठकर सृष्टि के कल्याण के लिए तप करने लगे। भीषण ठंड में विष्णु की रक्षार्थ लक्ष्मी बद्री वृक्ष बन कर उनकी तपस्थली पर छा गईं।वह स्थल बद्रीवन कहलाने लगा ।"
"रोचक कथा माधवी ,बद्री का अर्थ बेर है न।"
"जी महाराज।"
तभी मार्गदर्शक ने दो पर्वतों की ओर संकेत किया -" ये जय विजय पर्वत हैं। इन्हें पार करते ही बद्री विशाल के दर्शन होंगे।
मार्ग टेढा-मेढ़ा होने और पर्वतों के कारण कभी वायुयान दाएँ झुकता कभी बाएँ ।बैंगनी सफेद पुष्पों से आच्छादित घाटियाँ अब समाप्त हो चुकी थीं और हिमनद दिखने आरंभ हो चुके थे। चोटियों से तीव्र वेग से उछलती,कूदती जलप्रपातों की धाराएँ बड़ा मनोरम दृश्य पैदा कर रही थीं।
"और भी पर्वत देखें महाराज, नारायण पर्वत के पास यह नर पर्वत है और यह नीलकंठ पर्वत।"
पर्वतों के दर्शन मात्र से ही मन आनंद से ओतप्रोत हो गया। वायुयान के रुकते ही उशीनर और माधवी ने बद्री विशाल की पवित्र भूमि की ओर देखते हुए प्रणाम किया। सामने ही अलकनंदा बह रही थी।
"महाराज अलकनंदा का जल तो हिमयुक्त बेहद ठंडा है। इसमें स्नान करना संभव नहीं ।आप नारद कुंड चलिए ।वहाँ गर्म पानी की धार है। सभी वहाँ स्नान कर इस भूमि पर आने का लाभ उठाते हैं।" कहते हुए मार्गदर्शक आगे आगे चलने लगा उसके पीछे उशीनर और माधवी अंगरक्षक के साथ। पंडित जी पूजा सामग्री लिए साथ चल रहे थे। स्नान, पूजन, हवन के पश्चात माधवी के संग उशीनर अलकनंदा के तट पर बैठकर ध्यान करने लगे। तब तक सेवकों ने शिविर लगाकर भोजन तैयार कर लिया था। तथा शिविर के आसपास अलाव जलाकर ठंड को काफ़ी कम कर दिया था।
भोजन के पश्चात मार्गदर्शक ने उशीनर को विश्राम करने की सलाह देते हुए कहा -"महाराज यहाँ से हम यमुनोत्री जाएँगे यमुनोत्री का मार्ग अत्यंत दुर्गम है पदयात्री तो सयाना चट्टी ,हनुमान चट्टी, जानकी चट्टी में विश्राम करते हुए यमुनोत्री पहुँचते हैं। मार्ग जितना दुर्गम है उतना ही सुंदर। अब आप विश्राम करें।" कहते हुए मार्गदर्शक चला गया।
किंतु उशीनर की उत्सुकता शांत नहीं हुई ।माधवी तुम्हें यमुनोत्री के विषय में जानकारी हो तो बताओ" मुझे तो मात्र इतना पता है कि सूर्यपुत्री यमुना ने वहाँ तप किया था ।
"महाराज, सूर्यपुत्री यमुना हिमालय के हिमाच्छादित पर्वतों पर तपस्या में रत थी। पुत्री की कठोर साधना देख पिता सूर्य विचलित हो गए ।उन्होंने जिस पर्वतीय स्थान पर बैठ कर वह तप कर रही थी वहाँ अपनी एक किरण भेजकर उसे गर्म कर दिया और समीप के कुंड के हिमयुक्त जल में गर्म जल की धारा प्रवाहित कर दी। वे कालिंदी पर्वत पर तप कर रही थीं।कृष्ण जन्म की सूचना से हर्षित और उतावली हो कर वे नदी के रूप में बहकर वृंदावन पहुँच गई।
"प्रेम का उद्दाम स्वरूप ।यही प्रेम तो ब्रह्मांड को संभाले है।"
माधवी को गालव याद आया ।गालव का स्मरण करते ही माधवी विचलित हो गई ।जैसे वह भी नदी के वेग-सी गालव की ओर उमड़ी पड़ रही है।
यमुनोत्री का मार्ग बेहद रोमांचक और सुंदर था ।एकाएक मौसम बदल जाता। कभी वर्षा होने लगती, कभी ओले गिरने लगते, ओलों की ध्वनि के साथ दामिनी की कड़कड़ाहट भय पैदा करती। दुर्गम ,खड़ी ,पथरीली चढ़ाई वाले मार्ग नुकीले पर्वत ।सचमुच प्रकृति का अनुपम करिश्मा है यमुनोत्री धाम ।गहरी गहरी घाटियाँ और गगनचुंबी पर्वत ।प्रकृति की गहराई और ऊँचाई दोनों का एक साथ आभास कराते हैं।
मौसम अनुकूल होने पर वायुयान उतरा। उशीनर और माधवी ने तीव्र गति से बहती यमुना1 नदी के दर्शन मात्र किये। हड्डी कँपाती ठंड ,हिमयुक्त हवाएँ ऐसे में स्वयं पर संतुलन रखना भी कठिन हो रहा था । उशीनर माधवी का हाथ मजबूती से थामे था ।पंडित जी ने किसी तरह लुटिया में जल लेकर दोनों पर छिड़क दिया और श्लोक बोलते हुए यमुना जी का पूजन कराया । उशीनर माधवी का हाथ पकड़े पकड़े ही गर्म जल के कुंड के पास गए ।अंजलि में जल लेते ही सुखद अनुभूति से भर उठे। कालिंदी पर्वत की उस चट्टान पर दोनों ने पांव रखे। जिस पर बैठकर यमुना ने तपस्या की थी। चट्टान इतनी गर्म थी कि तलवों में ततूरी लगने लगी। प्रकृति का यह कैसा आश्चर्य की हिमाच्छादित पर्वतों के बीच गर्म चट्टान और गर्म जल से भरा कुंड।
लगभग आधी घड़ी वे उस स्थान के सुखद आश्चर्य में खोए रहे। संध्या के पहले वे रात्रि विश्राम के लिए हनुमान चट्टी लौट आए। हनुमान चट्टी अपने आपमें प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। चीड़, देवदार के घने जंगलों में सूर्य रश्मियाँ कठिनाई से प्रवेश कर पाती हैं।
गंगोत्री तो और भी अधिक अनुपम नज़र आया। वायुयान से ही दिखाई दे रहा था ज्वाला पर्वत का भव्य सौंदर्य। वर्णन से परे है यह सौंदर्य।
"माधवी इस सौंदर्य को शब्दों में ढालना अत्यंत कठिन है । हिमाच्छादित चोटियाँ , उगते सूर्य की रश्मियों ने हिमालय को सुनहला कर दिया था जैसे सोने का पर्वत हो हरी-भरी घाटियाँ..."
"महाराज घाटियों में उतरते बादल देखिए। जैसे अंबर धरती पर उतर आया हो।" कहते हुए माधवी ने मार्गदर्शक से पूछा-"यह नदी क्या गंगा है जो वायुयान की गति से बह रही है?"
"नहीं देवी यह जाड़गंगा है और वह भैरव घाट। हम पहुँच गए गंगोत्री"
"ओह गंगोत्री ,अद्भुत।किन पुण्यों का प्रताप है यह जो स्वर्ग से उतरी शंकर की जटाओं से होती हुई भागीरथी के दर्शन हो रहे हैं।"
उशीनर की प्रसन्नता का ठिकाना न था । गंगोत्री तक का मार्ग यमुनोत्री जैसा दुर्गम न था। वायुयान से उतरकर उशीनर का दल अपने प्रिय महाराज और देवी माधवी के भोजन ,विश्राम की व्यवस्था में जुट गया। मार्गदर्शक उशीनर और माधवी को लेकर विभिन्न जगहों की सैर कराने लगा। गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने की कथा से तो दोनों भलीभांति परिचित थे। किंतु वे गोमुख के दर्शन भी करना चाहते थे। जो गाय के मुख जैसा था और उसी मुख से अवतरित भागीरथी की सूत जैसी धार जो आगे चलकर हरहराती गंगा कहलाने लगी।
किंतु मार्गदर्शक ने निवेदन किया "महाराज अत्यंत कठिन है वहाँ तक जाना ।हिम की बड़ी-बड़ी चट्टानों से घिरा क्षेत्र बहुत ही भयावह है। जहाँ किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है।"
"ठीक ही कह रहे हैं ये। ऐसे भयावह क्षेत्र में हमें नहीं जाना चाहिए।"माधवी ने उशीनर से प्रार्थना की।
"मुझे तो भोजपत्र के वन देखने की बहुत इच्छा है। जिसके पत्र पर हमारे आध्यात्मिक ग्रंथ लिखे गए हैं।"
"हाँ महाराज ,वह स्थान भोजबासा कहलाता है ।उसके बाद आपको गोमुख तक कहीं भी कोई वृक्ष और हरियाली नहीं मिलेगी। बहुत खूबसूरत होते हैं भोजबासा के वृक्ष। बेर के पत्तों जैसे लाल किनारी वाले हल्के से चुन्नटदार हरे पत्ते और सफेद वृक्ष ।तने पर की छाल पर ही हमारे आध्यात्मिक ग्रंथ पुराण इत्यादि लिखे गए हैं।" मार्गदर्शक ने बताया।
माधवी के नेत्र चमकने लगे
"वह देखिए महाराज भागीरथी के आसपास की अद्भुत गुलाबी रंग की चट्टानें मानो ऋषि मुनि तपस्या में रत हों।"
माधवी का हाथ पकड़कर उशीनर भागीरथी के तट पर आ गए। दूर-दूर तक हिम से लदे पर्वत पर चीड़ के ऊँचे ऊँचे वृक्ष वातावरण को आह्लादकारी बना रहे थे ।पंडित जी ने उशीनर को पवित्र जल छिड़क कर आचमन करा कर विधिवत भागीरथी पूजन करवाया। कड़ाके की ठंड में तीव्र गति से बहती भागीरथी में उतर कर स्नान करने का साहस न था। अतः लोटे से जल छिड़ककर इतिश्री करना पड़ा।
उशीनर के लिए इतना ही संतोषजनक था कि इस पावन स्थल पर वह सशरीर खड़ा है और पवित्र नदियों के जल की बूंदें उसके बदन पर पड़ रही हैं।
साथ लाए कमंडल में राजमहल के लिए भागीरथी का जल भरा गया ।इस जल को पाकर पटरानी सहित सभी रानियाँ अत्यंत प्रसन्न होंगी ।सोचते हुए उशीनर को एकाएक राजमहल का स्मरण सताने लगा। "बहुत समय हो गया न राजमहल से निकले। लगभग एक मास तो हो ही गया होगा ।"उशीनर ने माधवी से कहा
"हाँ महाराज, कल केदारनाथ की पवित्र भूमि के दर्शनों के बाद राज महल ही लौटना है।
"पंडित जी किस विशेषता के कारण केदारनाथ प्रसिद्ध है?"
सेवकों ने शिविर के सामने चीड़ की लकड़ियों का अलाव जला लिया था ।सभी अलाव घेरे बैठे थे। भीषण ठंड का इससे बेहतर दूसरा विकल्प न था ।साथ आए रसोइए खिचड़ी पका रहे थे। घी की सुगंध भूख को और बढ़ा रही थी।
" महाराज आप बद्रीनाथ के दर्शन कर चुके हैं ।उस स्थान पर पहले शिव निवास करते थे। विष्णु को वहाँ तपस्या के लिए आया देख उन्होंने वह स्थान छोड़ दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे । उस पवित्र भूमि का स्पर्श ही मन में त्याग की भावना जगाता है। मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदार भूमि मोक्ष प्राप्ति की वाहक है ।
"प्रातः काल शीघ्रता करना ताकि केदार भूमि के शीघ्र दर्शन हो सकें।"
माधवी भलीभांति समझ रही थी कि महाराज की व्याकुलता राजमहल के लिये है। वह विभिन्न कथाओं से उसका मनोरंजन करने लगी ।
धीरे-धीरे पूर्णचंद्र की चांदनी छाने लगी और अपने भरपूर प्रकाश सहित इन स्वर्ग स्वरूप वादियों में बिखर गई। हिमाच्छादित पर्वतों पर मानो असंख्य रजत दीप प्रकाशमान हो गये हों।
सूर्य उदित होते ही उशीनर के दल ने केदारनाथ की दिशा में प्रस्थान किया ।ऊँचे ऊँचे पर्वत वहाँ तक पहुँचने के लिए रज्जू मार्ग थे। गहरी घाटियों में जलप्रपात पिघली चांदी-सा दिखाई दे रहे थे।
जंगलचट्टी से होते हुए केदार भूमि तक पहुँचना बड़ा रोमांचक था। सामने मंदाकिनी का पारदर्शी जल अपनी ओर खींच रहा था। शिव की पवित्र भूमि पर क़दम पड़ते ही हृदय तरंगित होने लगा। मंदाकिनी में स्नान का मन था किंतु साहस नहीं हो रहा था। अतः लोटे से जल छिड़क कर इतिश्री करना पड़ा। उशीनर के लिए इतना ही संतोषजनक था कि इस पावन स्थल पर वह सशरीर खड़ा है और पवित्र नदियों के जल के छींटे उसके शरीर पर पड़ रहे हैं।
केदार भूमि से गौरीकुंड स्पष्ट दिख रहा था ।खड़ी चढ़ाई के दोनों और चीड़ के घने जंगलों में चांदनी बिखर गई थी। अपने शिविर में बैठे उशीनर और माधवी इस स्वर्गिक सौंदर्य का साक्षात्कार करते हुए निहाल हो रहे थे ।
प्रातः काल राजमहल की दिशा में उड़ते वायुयान में उशीनर ने माधवी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा -
"माधवी लगभग एक माह तक हमने तीर्थयात्रा की। पर्वत ,कंदरा, नदी के सुरम्य तट ,जलप्रपात, विभिन्न राज्यों की रमणीय अट्टालिकाएँ, प्रासाद, शिखर सभी का अवलोकन किया। विहार किया। कभी सोचा न था कि यह सब मेरे भाग्य में है। जो तुम्हारे आने से पूर्ण हुआ।"
"महाराज मेरा भाग्य भी तो जैसे आप ही की प्रतीक्षा कर रहा था। सब कुछ कितना अविश्वसनीय किंतु कितना विशिष्ट। भाग्य हमें कहाँ से कहाँ ले जाता है, क्या हम जान पाते हैं?"
राजमहल आतुर था उशीनर और माधवी के स्वागत के लिए ।पुष्प वर्षा और जय जयकार से महल के मुख्य द्वार से प्रांगण तक का रास्ता गूंज रहा था। पटरानी ने उशीनर के माथे पर रोली ,कुमकुम का तिलक लगाकर आरती उतारी ।माधवी को उशीनर की सभी रानियाँ गले लगा रही थीं। उशीनर चकित था कि इन सब को क्या हो गया है ।जैसे वह कोई युद्ध जीतकर आ रहा हो ।वह अपनी शंका के समाधान के लिए सचिव की ओर मुड़ा ।
"महाराज आपने पहली बार अपने लिए जीवन ज़िया ।पहली बार राजसभा से अवकाश लिया ।अन्यथा आपका जीवन तो हम सबकी भलाई और कर्तव्य पालन में ही बीता। न्यौछावर रहे आप प्रजा के हित ।आप स्वस्थ हों, चिरायु हों ।हम सबकी ईश्वर से यही प्रार्थना है ।
पटरानी ने भी सचिव की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा-'वैसे भी आप पर्वतराज हिमालय के समस्त तीर्थों का दर्शन लाभ करते हुए सकुशल लौटे हैं। यह हम लोगों के लिए बहुत सौभाग्य की बात है। वरना उतने दुर्गम रास्ते और पल-पल बदलते मौसम में व्यक्ति का टिक पाना कठिन हो जाता है।"
कहते हुए वे उशीनर और माधवी को मंदिर की ओर ले गईं, प्रभु के चरणों में साष्टांग दंडवत कर उन्होंने प्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
स्नान ,ध्यान ,पूजन के पश्चात उशीनर
राजसभा में आया ।इतने दिनों की अपनी अनुपस्थिति के दौरान सभी सचिवों ,प्रबंधकों,मंत्रिमंडल से उनके कार्यों का ब्यौरा लेकर विधिवत निरीक्षण करता रहा। भोजन का समय हो चुका था भोजन कक्ष से महारानी का बुलावा था किंतु उशीनर अपने कार्यों में काफ़ी देर तक व्यस्त रहा ।माधवी सहित सभी रानियाँ भी उसकी प्रतीक्षा करती रहीं। कार्य समाप्त कर उशीनर ने भोजन कक्ष की ओर क़दम बढ़ाए ।यही तो विशेषता है उशीनर की। स्वयं हर क्षेत्र के कार्यों को देखना और प्रजा की भलाई के लिए योजनाएँ बनाना और इसीलिए वह राजसभा से लेकर संपूर्ण राज्य में लोकप्रिय और सबका स्नेही है।
भोजन कक्ष में विलंब से पहुँचने के कारण पटरानी ने उलाहना दिया- "महाराज आप तो हमें भूल ही गए ।एक मास के प्रवास के बाद लौटे हैं। किंतु...
"महारानी क्या यह संभव है कि हम आपको भूल जाएँ किंतु राजकाज भी देखना आवश्यक है ।वहाँ भी तो एक मास की अनुपस्थिति रही हमारी।"
"आपकी यही बातें तो हमें मोहती हैं। महाराज, आप कभी किसी की अवहेलना नहीं करते। राजमहल के छोटे से लेकर बड़े व्यक्ति तक सभी यह समझते हैं जैसे आप उसी के लिए इस संसार में आए हैं ।"
उशीनर ने माधवी की ओर देखा ।क्या माधवी भी यही सोचती है और इस सोच के रहते क्या वह हमेशा के लिए उसके पास रुक जाएगी? न जाने क्या आकर्षण है माधवी में कि वह हृदय से चाहता है कि माधवी उसके साथ रहे। किंतु वह यह भी जानता है कि यह संभव नहीं है। एक वर्ष के पश्चात गालव उसे आकर ले जाएगा । उशीनर भी वचनबद्ध है। वह अवसाद से भर उठा। पटरानी और रानियों को दुख न हो अतः उसने थोड़ा-सा भोजन अवश्य किया और थकान का बहाना बना शयन कक्ष की ओर चला गया ।माधवी भी शीघ्रता से भोजन समाप्त कर उसके पास आ गई। उशीनर हल्की निद्रा में था। माधवी ने व्यवधान नहीं डाला। बिना हलचल के वह धीमे कदमों से कक्ष से बाहर निकलकर उद्यान में आ गई।
दोपहर ढलने को थी ।पखेरू अपने घोंसलों की ओर लौटने को आतुर कतार बद्ध उड़ रहे थे ।सबके अपने अपने ठिकाने हैं ,सबके घर- द्वार ,बाल- बच्चे परिवार है किंतु माधवी का कुछ नहीं। कोई घर नहीं जो उसका अपना हो। कोई परिवार नहीं जहाँ वह अपनों के सुख में दुख में सम्मिलित हो। यह कैसी विधि की विडंबना है। यह कैसी उसकी नियति जिसका न कोई आरंभ है न अंत। कहने को उसका जन्म राजमहल में हुआ। राजसी परिवेश में पली बढ़ी किंतु पिताश्री राजा ययाति का उसके प्रति व्यवहार ! अब लगता है जैसे राजमहल के उद्यान में पिताश्री के हाथों लगाया वह कोई वृक्ष है जिसके फल चखने के लिए दूसरों को दे दिए गए ।
क्या वह एक भटकती आत्मा नहीं जो इस संसार में केवल अपने होने को सह रही है जबकि उसका होना भी उसके अपने लिए नहीं।
निश्चय ही तीर्थ यात्रा का पुण्य प्रताप था जो उशीनर को अगले सप्ताह ही माधवी के गर्भवती होने की सूचना पटरानी ने दी। उशीनर ने हर्ष में भरकर पटरानी को गले से लगा लिया और कहा "महारानी अब हमारा वंश भी पल्लवित, पुष्पित होगा। निश्चय ही पुत्र होगा।"
पटरानी ने कहा -"हाँ महाराज ,ऐसा ही होगा।"
माधवी के गर्भवती होने की सूचना से राजमहल ख़ुशियों से भर उठा ।अब उशीनर का अधिकतर समय पूजा अनुष्ठान में व्यतीत होने लगा ।वह प्रार्थना करता - "हे ईश्वर, इस बार पुत्र सुख से वंचित नहीं रखना ।मेरा जीवन तभी पूर्ण होगा जब वंशवेल बढ़ेगी। पुरखों का उद्धार होगा ।तभी तो मोक्ष की प्राप्ति होगी और मैं पितृऋण से मुक्त होऊँगा।"
पटरानी सहित सभी रानियाँ माधवी की विशेष देखभाल करतीं। उसकी हर सुख,
सुविधा का ध्यान रखतीं और उसे हमेशा प्रसन्न चित्त रखतीं।
उशीनर अधिक से अधिक समय माधवी के साथ व्यतीत करता और उसे पौराणिक कथाएँ सुनाता ताकि उसका गर्भस्थ शिशु धर्म के प्रति आस्थावान हो।
9 मास तक निरंतर ईश वंदना में लीन उशीनर को सुबह-सुबह पटरानी ने आकर एक पूरा लड्डू उसके मुंह में ठूंस दिया ।
"अरे ,क्या कर रही हो?"
"पूरे राज्य में लड्डू बटवाईये महाराज, माधवी ने आपके पुत्र को रात्रि के तीसरे प्रहर जन्म दिया है ।"
"क्या सच!"
विश्वास नहीं हुआ उशीनर को -"क्या पुत्र रत्न का राजमहल में मेरे तुम्हारे जीवन में पदार्पण हो चुका है ?"
वह पटरानी का हाथ पकड़े पूजन कक्ष में आया और प्रभु को साष्टांग दंडवत कर प्रभु पर चढ़ाये पुष्पों में से एक पुष्प उठाकर सीधा प्रसूति गृह पहुँचा। माधवी तीसरी बार माँ बनी थी । किंतु प्रसूति के पश्चात भी उसके चेहरे की आभा देखते ही बनती थी ।पुत्र ने माधवी को अधिक कष्ट न देकर जन्म लिया था ।माधवी के पहलू में रेशमी वस्त्र में लिपटा शिशु चांद का टुकड़ा लग रहा था। उशीनर के नेत्र भर आए। वह माधवी को स्पर्श करना चाहता था। जिस माधवी ने उसे पुत्र का पिता बनाया क्या वह माधवी किसी दूसरी मिट्टी की बनी है वरना उसके रनिवास में इतनी रानियाँ होते हुए वह अब तक पुत्र सुख से वंचित क्यों रहा ? वह पुत्र को गोद में लेने के लिए भी उतावला हो रहा था किंतु महारानी ने कहा -"नहीं महाराज ,वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है ।राज पंडित से मुहूर्त निकलवा कर आप उसे गोद में लेना ।"
पटरानी ने उशीनर के हाथ में पकड़े पुष्प को शिशु के माथे से स्पर्श कराया । शिशु ने चौक कर नेत्र खोले और मुस्कुराया ।निहाल हो गया उशीनर।
राजपंडित के बताए मुहूर्त पर उशीनर ने शिशु को गोद में लिया ।उसके मस्तक को चूमते हुए उशीनर के नेत्रों में अश्रु झलकने लगे। उसने गद्गद कंठ से कहा -"देखो महारानी हमारा पुत्र।"
पटरानी भी भावुक हो गई। उसने माधवी को सम्बोधित करते हुए कहा- "माधवी तुम्हारा यह उपकार हम जन्म जन्मांतर तक याद रखेंगे। तुमने वंशवेल बढ़ाई। तुमने हमें जीने का उद्देश्य दिया। पुत्र की माता बनाया। हमारा जीवन सफल हुआ।"
अभी पुत्र को गोद में लिए कुछ ही पल गुजरे होंगे कि राजपंडित ने कहा-"महाराज अति उत्तम समय है।राजकुमार को पंचामृत में से एक अमृत शहद का पान करा दीजिए और इस तरह इस संसार में उसके पदार्पण का स्वागत करिए।"
उशीनर ने चांदी की चम्मच न लेकर उंगली से शहद की बूंद चटाई और उसका मुख चूम लिया।
कक्ष में एकांत होते ही उशीनर ने माधवी के समीप बैठते हुए कहा-"तुम महान हो देवी ।तुमने मेरा जीवन सार्थक कर दिया।"
माधवी मुस्कुराई-"पुत्र आपके भाग्य में था महाराज ।मैं तो केवल निमित्त हूँ।"
"यह सोच कर मेरा मन विचलित हो रहा है कि अब तुम्हें मुनि गालव ले जाएँगे।"
"हाँ महाराज 200 अश्वमेधी अश्वों की भेंट लेकर गालव मुझे ले जाएगा ।"
तुम पर तो मेरी पूरी अश्वशाला न्योछावर है। काश मैं तुम्हें रोक पाता।"
"मिलन -बिछोह ईश्वर के द्वारा निर्धारित हैं। इसमें हम मनुष्यों का तनिक भी वश नहीं ।अब देखिए न,कहाँ मैं पिताश्री राजा ययाति के राजमहल में पैदा हुई और कहाँ आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट का भोजनगर। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं आप से मिलूंगी। आपके पुत्र को जन्म दूंगी।"
"तुम मेरा सौभाग्य हो माधवी। गालव के पहुँचने तक मैं एक क्षण भी तुमसे दूर नहीं रहूँगा।"
माधवी ने अपार सुख से नेत्र मूंद लिए। ऐसे प्रेम की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी।
उशीनर और माधवी के पुत्र का नाम शिबि रखा गया ।राजपुरोहित ने नामकरण संस्कार की विधि संपन्न करते हुए कहा महाराज बाल सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार शिबि का यश चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगा। ये नर श्रेष्ठ दानवीर के रूप में प्रख्यात होंगे। मनुष्य तो क्या पशु पक्षियों तक की रक्षा के लिए यह अपनी परवाह नहीं करेंगे ।
(वे राजा शिबि ही थे जिन्होंने कबूतर के प्राणों की रक्षा के लिए उसके वज़न का स्वयं का मांस काटकर तराजू के पलड़े पर रख दिया था ।)
राजकुमार परोपकारी ,धर्मात्मा और अजातशत्रु होंगे। उनके यहाँ से कभी कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटेगा । राजकुमार सदैव भगवद अराधना में लीन रहेंगे और अपनी त्याग बुद्धि के लिए बहुत प्रसिद्ध होंगे।"
ऐसा लग रहा था जैसे राजपुरोहित उशीनर के चरित्र का चित्रण कर रहे हों। यही सारे गुण तो उनमें हैं। जो उनके पुत्र में आए हैं।
राजपुरोहित की भविष्यवाणी ने जैसे पूरे राजमहल में पुष्प वर्षा कर दी। राजमहल अपने भाग्य पर इतरा रहा था। राजकुमार शिबि मात्र 4 दिन का ही था कि गालव माधवी को लेने आ गया। इस बार की विदाई माधवी के लिए अधिक पीड़ादायक थी। पुत्रबिछोह तो था ही ,उशीनर से बिछोह की पीड़ा कम न थी। उशीनर ने माधवी को मानो एक वर्ष की मलिका बनाकर हृदय सिंहासन पर बैठाया था ।उसके साथ विहार करते हुए उशीनर ने अपनी समस्त इच्छाओं को पूर्ण किया था और इस पूर्णता के लिए साथ देने में माधवी कभी पीछे नहीं हटी । रानियों पटरानियों का भी उससे लगाव हो गया था ।
किंतु जाना तो है ही ।
यह कैसी विडंबना है माधवी के भाग्य की? यह कैसा अंतर्द्वंद कि जिससे छुटकारा पाना असंभव है।
माधवी ने राजसी वस्त्र अलंकरण उतारने के लिए दासी की ओर देखा किंतु पटरानी ने मना किया-"नहीं माधवी ,तुम राजसी वस्त्रों में ही विदा होगी ।महाराज का यही आदेश है।" माधवी मौन रही। बहुत मुश्किल था इस आदेश की अवज्ञा करना। अंतिम बार माधवी को आलिंगनबद्ध करते हुए उशीनर के नेत्र भर आये।
"महाराज ,विचलित न हों। इसे भाग्य का लेखा मान स्वीकार करें।"
उशीनर ने पालने की ओर इंगित किया- "पुत्र भी विचलित है माधवी, देखो तुम्हें चौक चौक कर देखे जा रहा है।"
माधवी का मन उमड़ पड़ा। पालने से उठाकर उसने शिबि को अंक में भर लिया और रो पड़ी -
"मेरे लाल ,अपनी दुर्भाग्यशाली माँ को क्षमा करना। मैं वचनबद्ध हूँ।"
कहते हुए मुंह मोड़ कर वह तेजी से कक्ष के बाहर चली गई।
अपने प्रेमी गालव से एक वर्ष के बिछोह के बाद माधवी का मिलन होना था। प्रसन्न होना था उसे परंतु जाने क्यों वह विचलित थी। स्त्री का मन शायद ऐसा ही होता है ।हर स्थान से लगाव हो जाता है। स्त्री होती ही है प्रेम की ,दया, ममता, कोमलता की खान और इन सब में सबसे भारी होता है पुत्र वियोग। ऐसा पुत्र वियोग जो कभी मिलन में नहीं बदलेगा ।तीन पुत्रों की अभागी माता पुत्रवती होकर भी पुत्र हीन है। उसके स्तनों से पुत्र के प्रति उमड़ आये दुग्ध की धार बहने लगी।
वह ममता, वात्सल में आकंठ डूबने लगी।
राज महल के मुख्य द्वार की ओर जाते हुए माधवी को राजसी वस्त्र बोझ लग रहे थे। उसने कनखियों से महल के झरोखों की ओर देखा जहाँ रानियों सहित पटरानी उसे हाथ हिलाकर विदा कर रही थी । उशीनर के कक्ष के सामने के विशाल गलियारे में स्तंभ की आड़ लिए उशीनर खड़ा था। नयनों में छलक आए अश्रुओं में माधवी का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था। पल भर को माधवी के क़दम ठिठके फिर वह तेजी से राजमहल के द्वार से सदा के लिए दूर हो गई। अब कभी इस राज महल में वह पदार्पण नहीं कर पाएगी। अब कभी उशीनर जैसे महापुरुष से उसकी भेंट नहीं होगी। पुत्र शिबि के लिए बिसूरना आरंभ हो चुका है जो जीवन पर्यंत रहेगा।