कर्म से तपोवन तक / भाग 7 / संतोष श्रीवास्तव
राजमहल के द्वार पर प्रतीक्षा करते गालव के संग माधवी चुपचाप चलने लगी।
"तुम दुखी नज़र आ रही हो माधवी।हम एक वर्ष पश्चात मिल रहे हैं फिर भी?"
"तुम स्त्री नहीं हो न गालव ,पिता भी तो नहीं हो ।वरना समझते यह पीड़ा। यह पुत्र से बिछड़ने की मर्मान्तक चोट।"
गालव ने इस समय माधवी को और अधिक व्याकुल करना उसकी सोच में बाधा डालना उचित नहीं समझा ।माधवी को लिवा लाने के लिए जब गालव ने भोजपुर के राज महल की ओर प्रस्थान किया था उसके 1 महीने पहले से वह घने अरण्य में नदी के किनारे सुरम्य वनस्थली में कुटिया बनाने में लगा था ।कुटिया बहुत सुंदर बनी थी ।कुटिया के आसपास उसने गेंदा और मोगरे के पौधे लगाए थे। बरगद के नीचे चबूतरे का निर्माण कर अपने और माधवी के बैठने का आसन बनाया था जिस पर बैठकर वह माधवी के साथ अस्ताचलगामी सूर्य के सुनहरे रंग को निहारेगा,संध्या का आनन्द लेगा।भोजनगरी से दोनों ने सुबह सवेरे ही प्रस्थान कर दिया था ।अरण्य में बनी कुटिया तक पहुँचते दोपहर हो गई ।थकान से उत्पन्न स्वेद कणों से माधवी का मुखड़ा शिथिल जान पड़ रहा था ।लेकिन कुटिया देख वह सारी थकान भूल गई।
"गालव, तुम तो साक्षात विश्वकर्मा हो।" गालव भी मुस्कुराने लगा -
"स्वागत है मेरे मन की साम्राज्ञी।"
दोनों ने पास बहती नदी में स्नान कर संध्या वंदन किया , फिर कुटिया में प्रवेश कर मार्ग से खरीदे भोजन को ग्रहण कर तनिक भी विलंब न कर भूमि पर बिछी चटाई पर स्वयं के शरीर को निढाल छोड़ दिया। गालव माधवी से बात करना चाहता था। किंतु माधवी की पलकें नींद से बोझिल हो रही थीं, कदाचित नींद तो एक बहाना था। उसका ह्रदय पुत्र वियोग से व्याकुल हो रहा था। लेकिन वह अपनी मनःस्थिति गालव पर प्रकट नहीं होने देना चाहती थी ।इसलिए नींद का बहाना किए आंखें मूंदे रही।
प्रातः काल दोनों वृक्ष के नीचे चबूतरे पर आ बैठे । गालव शेष 200 अश्वों के लिए चिंतित था ।गुरु दक्षिणा से शीघ्र से शीघ्र छुटकारा पाकर वह माधवी के संग अपना संसार बसाना चाहता था ।पूरे वर्ष वह शेष अश्वों के लिए प्रयत्नशील रहा। किंतु अश्वों के मिलने की कहीं से सूचना नहीं मिली। माधवी इस सबसे अनभिज्ञ थी। उसने गालव से पूछा -
"अब कहाँ जाना होगा गालव?"
"वही तो सोच रहा हूँ ।वर्ष भर प्रयास करता रहा पर कहीं किसी राज्य में अश्वों के मिलने की सूचना नहीं मिली। चिंतित माधवी भी हुई । क्या 3 वर्षों का उसका त्याग व्यर्थ जाएगा? क्या तीन पुरुषों की अविवाहित अंकशायनी बन गर्भधारण करने की उसकी पीड़ा व्यर्थ जाएगी?
वे इसी चिंता में ग्रस्त दिनभर अरण्य में विचरण करते ,कंदमूल फल इकट्ठा करते और संध्या होने के पहले कुटिया में लौट आते।
देखते ही देखते 2 माह व्यतीत हो गए। एक दिन जब वे प्रातः काल चबूतरे पर बैठकर सूर्य दर्शन कर रहे थे तभी उन्हें मित्र गरुड़ आता दिखाई दिया ।हर्ष मिश्रित आवेग में गालव गरुड़ की ओर दौड़ा ।दोनों गले मिले ।कुशल क्षेम पूछकर गालव गरुड़ को कुटिया में ले आया। आसन बिछाते हुए उसने कहा-"बैठो मित्र कितने वर्षों बाद तुम से मिलना हुआ कहो कैसे हो?"
"तुम कैसे हो गालव? माधवी भी मुरझाई हुई दिख रही है।"
"हाँ मित्र, हम शेष अश्वों को पाने के लिए चिंतित हैं ।किंतु कहीं से भी अश्वों के होने की सूचना नहीं मिल रही है।"
गालव ने आहत स्वरों में कहा। माधवी ने पत्तल पर फलों को काटकर गरुड़ को परोसा ।
"फलाहार लें आदरणीय। इस कुटिया में बस यही है हमारे पास।"
"ऐसा न कहो माधवी। छप्पन भोग से क्या कम है ।इसमें तुम्हारा स्नेह आशीष जो है।"
"कहो गरुड़ शेष अश्वों के लिए मैं कहाँ प्रयास करूँ?"
"समाचार अच्छा नहीं है गालव ।"
गरुड़ ने बिना किसी भूमिका के गालव को अवगत कराया।
"अब ऐसे अश्व पृथ्वी पर किसी के भी पास नहीं है ।"
"क्या कह रहे हो गरुड़? क्या पृथ्वी अश्वमेधी अश्वों से रहित हो गई? क्या केवल 600 अश्व ही पृथ्वी पर शेष हैं! विश्वास नहीं हो रहा।"
माधवी भी आकुल हो गई। अब क्या होगा ?विश्वामित्र की गुरु दक्षिणा तो पूरी नहीं हुई ।उसका त्याग व्यर्थ गया।
गरुड़ ने चिंतित स्वर में बताया-" तुम्हें पता है गालव ।तुम्हारे गुरु विश्वामित्र पुरु वंशी राजा गाधि के पुत्र हैं इसीलिए तो उनमें राजसी हठ विद्यमान है जो तुमसे ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग की। महाराज गाधि के पास एक हज़ार अश्वमेधी अश्व थे। उस समय भी केवल महाराज गाधि के पास इस तरह के अश्व थे और किसी राज्य में किसी राजा के पास नहीं ।
तुम्हारे गुरु विश्वामित्र पुरु वंशी राजा गाधि के पुत्र हैं इसीलिए तो उनमें राजसी हठ विद्यमान है जो तुमसे ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग की। महाराज गाधि के पास एक हज़ार अश्वमेधी अश्व थे। उस समय भी केवल महाराज गाधि के पास ही इस तरह के अश्व थे और किसी राज्य में किसी राजा के पास नहीं ।
राजा गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह ऋचीक मुनि से हुआ था ।विवाह के बाद पत्नी सत्यवती के व्यवहार से ब्रह्मर्षि ऋचीक बहुत संतुष्ट हुए।उन्होंने उसे मनपसंद वर देने की इच्छा जताई। इस पर सत्यवती ने अपनी माता के लिए पुत्र प्राप्ति का वरदान मांगा। तब ऋषि ऋचीक ने अपनी सास व पत्नी सत्यवती दोनों को पुत्र प्राप्ति का वर दिया। सास को पीपल व पत्नी सत्यवती को गूलर के पेड़ का आलिंगन करने की सलाह देते हुए दोनों को खाने के लिए दो अलग- अलग पात्रों में चरू (यज्ञ की अग्नि में पकाया हुआ औषधि युक्त खीर का हलवा) दिया।जब सत्यवती ने दोनों चरु अपनी माता के सामने रखे तो माँ ने बेटी वाला चरु ख़ाकर अपना चरू बेटी को दे दिया। आलिंगन करने वाले पेड़ भी मां- बेटियों ने आपस में बदल लिए।उसके प्रभाव से ब्राह्मण तेज वाला जो पुत्र ऋषि ऋचीक ने पत्नी सत्यवती के लिए तय किया था वह गाधि के पुत्र विश्वामित्र के रूप में पैदा हुआ। जो क्षत्रिय कुल में पैदा होकर भी ब्राह्मण गुण वाला परम तपस्वी हुआ।"
“अर्थात ऋचीक मुनि की कृपा से विश्वामित्र का जन्म हुआ?” माधवी ने कहा।
"और जो महाराज गाधि के पास एक हज़ार अश्वमेधी अश्व थे उनका क्या हुआ?"अधीर होते हुए गालव ने गरुड़ से पूछा।
महाराज गाधि ने वे सभी एक हज़ार अश्व ऋचीक मुनि को दहेज में दे दिए। किंतु ऋचीक तो बैरागी स्वभाव के ...उनके लिए उन अश्वों का कोई मूल्य नहीं था ।उन्होंने जब यज्ञ किया तो वे सभी अश्व यज्ञ में आए ब्राह्मणों को दान कर दिए। जब वे ब्राह्मण अपने घरों की ओर वापस लौट रहे थे तो हर्यश्व ,दिवोदास और उशीनर के पूर्वजों ने उनसे 200 ,200 अश्व खरीद लिए।"
"बाकी के 400 अश्व कहीं न कहीं तो होंगे ।हमें उन ब्राह्मणों के नाती, पोतों, पुत्रों की खोज करनी होगी ।कहीं न कहीं से तो सूत्र हाथ आएगा ।"
गालव ने उतावले हो कर कहा ।
गरुड़ ने गालव का उतावलापन देखा। खेद उसके मन में भी था ।वह गालव को आगे का हाल सुनाने के लिए अपने मन को दृढ़ करने लगा ।जब वे ब्राह्मण वितस्ता नदी पार कर रहे थे तो सभी 400 अश्व नदी की तेज धार में बह गए। लाख कोशिशों के बावजूद वह अश्वों को बचा नहीं पाए ।"
"ओह ,दुर्भाग्य और क्या होगा गरुड़ ,इतने वर्षों का मेरा प्रयास ,माधवी जैसी सुकन्या की दुर्दशा, सहन नहीं कर पा रहा हूँ मित्र ।"
गालव ने रुआंसे स्वर में कहा ।
गरुड़ ने स्थिति को संभालते हुए गालव को सलाह दी-
"अब इसका उपाय केवल गुरु विश्वामित्र के पास है ।वही इस संकट से तुम्हें उबार सकते हैं। तुम माधवी को लेकर उनके पास जाओ और बाक़ी की गुरु दक्षिणा क्षमा कर देने की याचना करो।"
"मैं ऐसा नहीं कर सकता गरुड़, यह मेरे स्वाभिमान का प्रश्न है। मैंने ही हठ करके उनसे गुरु दक्षिणा को मांगने की बात कही थी। अब किस मुंह से जाऊँ उनके पास?"
"तो क्या मुंह छुपाते घूमोगे?"
इतनी देर से मौन माधवी ने कहा-"सभी तुम्हारी हंसी उड़ाएँगे। सभी कहेंगे कि गालव कायर है। गुरु की दक्षिणा तक नहीं दे सका। इतने वर्षों का हमारा प्रयास एक क्षण में धूल में मिल जाएगा। हमें विश्वामित्र के पास जाना ही चाहिए।"
माधवी ठीक कह रही है गालव। कल ही प्रस्थान कर दो तुम दोनों गुरु विश्वामित्र के आश्रम की ओर ।अभी मौसम भी अनुकूल है। मार्ग में बाधाएँ नहीं आएँगी। थोड़े ही समय पश्चात ग्रीष्म काल आरंभ हो जाएगा। पतझड़ी हवाएँ, धूल भरी आंधियाँ मार्ग की रुकावट बनेंगी।"
तीनों में दो घड़ी और विचार-विमर्श चला । यही तय हुआ कि गालव और माधवी कल प्रातःकाल होते ही गुरु विश्वामित्र के आश्रम की दिशा में जाएँगे और गरुड़ अपने गंतव्य की ओर ।माधवी ने चूल्हे में लकड़ी जला कर कंदमूल को भूनकर स्वादिष्ट रसोई तैयार की ।गरुड़ के साथ जाकर गालव कमंडल में जल भर लाया था ।भोजन के पश्चात गरुड़ ने कई रोचक कथाएँ सुनाकर गालव के दुखी मन को शांत किया।
"एक बात पूछना चाहता हूँ गरुड़, क्या तुम अश्वों की वर्तमान स्थिति बतलाने के लिए मेरे पास आए हो या मित्र प्रेम ?"
"तुम्हें क्या लगता है गालव कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता? अगर तुम से प्रेम नहीं होता तो मैं यहाँ आता ही क्यों?"
थोड़ी देर पश्चात फिर गरुड़ ने कहा अब तुम अपने उद्देश्य के निकट हो उद्देश्य पूर्ण होगा और तुम गुरु दक्षिणा के ऋण से मुक्त हो जाओगे। तब मैं उत्सव मनाने पुनः आऊँगा।"
गालव अभिभूत था ।अगर गरुड़ जैसा मित्र नहीं होता तो उसे आत्महत्या अवश्य करनी पड़ती।
प्रातःकाल होते ही सूर्य वंदना, पूजन अर्चन और जलपान से निपट कर तीनों ने कुटिया को अलविदा कहा और अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। अपनी दिशा की ओर जाते हुए गरुड़ ने कहा -"मित्र मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा कि तुम गुरु दक्षिणा से मुक्त हो जाओ। जब भी मुझे याद करोगे मुझे अपने समीप पाओगे ।यह गरुड़ का वादा है तुमसे।“
दोनों प्रगाढ़ता से गले मिले। माधवी ने भी गरुड़ को प्रणाम करते हुए मार्गदर्शन के लिए आभार प्रकट किया।
वह नहीं जानती थी कि भविष्य में अब वह किस दुर्दशा का शिकार होने वाली है। वह तो यही सोच रही थी कि गुरु विश्वामित्र से क्षमा मांग वह गालव के साथ अपना संसार बसाएगी। पिछले 3 वर्षों से वह जिन विषम परिस्थितियों का सामना करती रही। तनिक भी इच्छा शेष नहीं है कि राजमहलों का सुख मिले। राजमहलों ने उसे छला ही है।
फिर चाहे पिताश्री का राज महल हो या राजा हर्यश्व का हो या राजा दिवोदास का हो या राजा उशीनर का हो।स्वयं को समर्पित कर भी उसका न हुआ राजमहल। अब तो ये वन लुभाते हैं। इन्हीं वनों में वह अपने प्रियतम गालव के साथ शेष जीवन गुज़ारेगी। कुछ ही दिन तो शेष हैं। गुरु विश्वामित्र को 600 अश्व सौंप शेष 200 अश्वों के लिए क्षमा प्रार्थना कर गालव और वह स्वतंत्र हो जाएँगे। तब पूरा आकाश उनकी बाहों में होगा ।पूरा वन प्रदेश उनका होगा।
गालव के साथ कितने स्वर्णिम दिन बीते हैं इन वनों में ।इन वनों में रहते हुए ही दोनों के अंतरंग सम्बंध बने। ये वन जैसे गालव के साथ का मोहक संसार। वह निर्बंध कामना जो यहीं अंकुरित हुई। हालांकि इस कामना ने उसे कितनी परीक्षाओं, कितनी कसौटियों पर परखा ।वह हर कसौटी को चुनौती मान स्वीकार करती गई। जैसे ईश्वर ने ,पूरे ब्रह्मांड ने उन्हें एक दूसरे के लिए ही रचा है। तभी तो वह निमित्त बनी गालव की गुरु दक्षिणा की और गालव भी निमित्त बना पिताश्री राजा ययाति से उसे दान में प्राप्त करने का।