कर्म से तपोवन तक / भाग 9 / संतोष श्रीवास्तव

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दृष्टि से ओझल होते गालव को अपलक निहारती माधवी निश्चल खड़ी रह गई। इतने बड़े त्याग की उसे स्वयं से अपेक्षा नहीं थी। मानो देवी सरस्वती उसके ह्रदय में विराजमान होकर उससे अनुष्ठान करवा रही थीं। हृदय विदारक निर्णय लिया था उसने। जैसे किनारा सामने था और तभी नौका डगमगाई और भंवर में फंस गई। यह भँवर उसे ले डूबे तो अच्छा है। किंतु जल की तलहटी तक ले जाकर भँवर ने उसे उछाल कर जल स्तर पर ला पटका। वह पुनः भंवर में फंस गई।

"माता, भोजन करके विश्राम करें । आप थकी हुई लग रही हैं।" शिष्य ध्रुपद ने माधवी के पास आकर कहा। माधवी को जो कक्ष दिया गया था वहाँ उसके विश्राम की व्यवस्था अभी शेष थी। शिष्य जुटे थे उसका कक्ष तैयार करने में। माधवी खिन्न मन से पुष्प वाटिका में भ्रमण करती रही। उसका उठा हर क़दम उसकी मनःस्थिति का बखान कर रहा था। माधवी ने अपने मन को नियंत्रित किया और संध्या वंदन के लिए पुष्प एकत्रित कर वट वृक्ष के नीचे बिराजे प्रभु के चरणों में पुष्प अर्पित कर धूप दीप नैवेद्य से आराधना करते हुए प्रार्थना की-'प्रभु उसका मन शांत करें और उसे उसके उद्देश्य में सफल करें ।'आराधना से मन की स्थिति नियंत्रित पा वह ध्रुपद के पुनः आग्रह पर भोजनशाला में आई। शिष्य प्रसन्न हो उसे भोजन परोसने लगे।

आप सब भी आइए साथ ही करते हैं भोजन।"

माधवी के कथन को आदेश मान शिष्य उसे घेरकर बैठ गए। भोजन करते हुए वे माधवी के विषय में अधिक से अधिक जानना चाहते थे। माधवी ने बस इतना ही कहा-

"धीरे-धीरे सब पता चल जाएगा। आप सबके साथ पूरे वर्ष यहाँ निवास करूंगी।"

शिष्यों की प्रसन्नता का ठिकाना न था । किंतु ध्रुपद उदास हो गया।

"क्या हुआ ध्रुपद तुम्हें मेरे आश्रम में रहने की सूचना से ख़ुशी नहीं हुई?"

"माता मेरी शिक्षा समाप्त हो चुकी है और दीक्षांत समारोह के पश्चात मैं सदा के लिए यहाँ से चला जाऊँगा ।बस यही सोच कर उदास हूँ। आपके सान्निध्य का अवसर भी मिला तो कितनी कम अवधि का।"

"यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आपकी शिक्षा पूर्ण हुई। अब आप स्वयं शिक्षा देने के योग्य हो गए।"

"हाँ माता, किंतु मुझे गाँव जाना पड़ेगा। अपने वृद्ध माता पिता के पास। उनका मैं ही एकमात्र पुत्र हूँ। उन्हें मेरी आवश्यकता है।"

"यह तो और भी प्रसन्नता की बात है तुम्हें अपने माता-पिता के साथ रहने का और उनकी सेवा करने का अवसर मिलेगा। बहुत पुण्यात्मा होते हैं वह जिन्हें माता पिता की सेवा का अवसर मिलता है।" कहते हुए माधवी को अपने तीनों पुत्रों का स्मरण हो आया। क्या उसके पुत्र उसे याद करते होंगे?अगले ही क्षण वह अपने मन में उठे प्रश्न पर खिन्न हो उठी ।जन्म के 6 दिन बाद ही उसे अपने पुत्रों को त्यागना पड़ा था तो पुत्रों को उसकी स्मृति कैसे होगी?

भोजन के पश्चात शिष्य माधवी को उसके तैयार कक्ष में ले आए। दूध, जल आदि की व्यवस्था भी देख ली-"विश्राम करें माता, शुभ रात्रि।"

आश्रम में प्रथम रात्रि का

सर्वथा नया अनुभव था माधवी का। महलों ,राजमहलों की मखमली सेज पर रात्रि व्यतीत करने वाली राजकुमारी कुश की चुभती शैया पर विश्वामित्र के अंक में ! जिसे अपने में समो लेने को आतुर विश्वामित्र उसके कानों में धीमे-धीमे कहने लगे -"तुममें और अप्सरा में कोई अंतर नहीं माधवी। रूप सौंदर्य, शालीनता ,देह की कोमलता... कभी सोचा न था कि मेरे भाग्य में तुम होगी। हमारे समागम से जो संतान होगी वह भी तेजोमय ,उदारमना और समस्त मानव जाति से प्रेम करने वाली होगी। आओ माधवी समा जाओ मुझ में ।"

आश्रम में चहुँओर हवन की सुगंध थी। एक पवित्र वातावरण में माधवी चौथी बार गर्भधारण करने के लिए विश्वामित्र के आगे समर्पित थी।

समागम के पश्चात माधवी ने अपने वस्त्र ठीक किए और विश्वामित्र को जल देते हुए कहा -

"ऋषीवर ,मुझे ज्ञात नहीं कि आपने कितनी स्त्रियों को अपनी अंकशायनी बनाया।"

चौक पड़े विश्वामित्र-

"माधवी क्या तुम ..."

माधवी ने उन्हें वाक्य पूरा नहीं करने दिया -"जानना चाहती हूँ स्त्री के प्रति आपके विचार क्या हैं? आपकी दृष्टि में कौन है स्त्री ? बिना विवाह संस्कार के आपने मुझसे सम्बंध बनाया ।क्या स्त्री मात्र उपभोग की वस्तु है? क्या उसका मान सम्मान कोई अर्थ नहीं रखता?"

माधवी के एकाएक किए इस तर्क की पूर्व संभावना नहीं थी विश्वामित्र को ।जल ग्रहण करने के पश्चात वे आसन पर सहज होकर बैठ गए ।माधवी का तर्क सही है विश्वामित्र को उसके तर्क के आगे अपना तर्क रखना होगा-

"तुम्हारी बात का समाधान होगा किंतु यह बताओ माधवी क्या तुम ने स्वयं को मान सम्मान दिया ?"

"स्वयं को मान सम्मान ?वह कैसे?" तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें दान में दिया तुम्हें इसका प्रतिकार करना था ।"

"मैं पिताजी को कैसे अपमानित होने देती ।उनकी दानशीलता पर कैसे कलंक लगने देती ?"

"एकमात्र तुम्हीं विकल्प थीं क्या और भी विकल्प हो सकते थे । दान में देते हुए तुम्हें राजा ययाति का महल त्याग देना था ।तुमने अपने जीवन को स्वयं कलंकित किया । गालव विभिन्न राजाओं की शैया पर जाने के लिए तुम पर दबाव तो नहीं डाल रहा था। तुमने स्वयं पुत्र उत्पन्न करने का उपकरण बनना स्वीकार किया और जो स्त्री अपने मान सम्मान को नहीं बचा पाई ।जो स्त्री प्रतिरोध करने से पीछे हटी ,वह मेरी दृष्टि में स्त्री नहीं मात्र उपकरण ही है ।"

विश्वामित्र के तिक्त वचनों ने माधवी को जैसे तपती भूमि पर ला

पटका। उसका बदन क्रोध मिश्रित वेदना से कांपने लगा।

और आप ऋषीवर? आपने भी तो गालव से कहा कि माधवी को यहाँ पहले क्यों नहीं लाये? अर्थात मुझसे पुत्रों को उत्पन्न करते हुए आप गुरुदक्षिणा के ऋण से गालव को मुक्त करना चाहते थे या मुझे भोगने की चाह प्रबल थी। कहिये ऋषिवर,तपस्वी होकर आपकी स्त्री देह कर लिए ऐसी लालसा!

क्षण भर मौन रहे विश्वामित्र। यह तो सत्य है, उनका तप मेनका को देखकर भी डगमगा गया था और माधवी को देखकर भी। सही जगह निशाना साधा है माधवी ने ।किंतु एक स्त्री के सामने पराजय कैसे स्वीकार करें?

"तुम कितने भी तर्क दो माधवी किंतु अपनी दुर्दशा की तुम स्वयं दोषी हो ।"

लंबे समय तक कक्ष में मौन रहा। विश्वामित्र ने उठते हुए माधवी की थोड़ी उठाकर मस्तक चूमा-

'अब खेद मत करो माधवी मेरे पुत्र की तुम माता बनने वाली हो। अपनी संपूर्ण मानसिक और शारीरिक क्रियाओं को असाधारण करो। गर्भ के नौ माह तुम्हारी तपस्या के दिन होंगे ।"

कहते हुए विश्वामित्र कक्ष के बाहर चले गए ।विश्वामित्र के जाते ही माधवी ने कक्ष के द्वार की कुंडी चढ़ा दी ।विश्वामित्र के कथन से उत्पन्न उत्तेजना अब भी उसे विचलित कर रही थी। विश्वामित्र ने उसके स्त्रीत्व को ललकारा है। अभी तक वह अपने मन को समझाती रही थी कि उसके साथ जो हो रहा है वह उसका त्याग है, पिताश्री राजा ययाति के प्रति उसका कर्तव्य है, गालव को गुरु दक्षिणा दिलाने का पुण्य कर्म है, किंतु विश्वामित्र ने उसे दूसरी सच्चाई के दर्शन कराए। अर्थात त्याग, कर्तव्य ,पुण्यकर्म सब व्यर्थ है।न केवल स्वयं के लिए बल्कि अपने से जुड़े लोगों के लिए भी। यह कार्य अपमानजनक है।

सिर पकड़ कर बैठ गई माधवी 'हे प्रभु ,अपना सर्वस्व समर्पित करके भी वह व्यर्थ के बोझ तले पिसने लगी।

चिड़ियों के चहचहाने से उसे भोर होने का आभास हुआ । शिष्य उसके कक्ष के बाहर चक्कर लगा रहे थे। आज माता को क्या हुआ? अब तक तो वे नदी से स्नान कर पुष्पवाटिका में पूजा के लिए पुष्प चुन रही होती हैं। स्वस्थ तो हैं न माता!

तभी माधवी ने द्वार खोले उसके नेत्र रात्रि जागरण से लाल हो रहे थे चेहरा भी निस्तेज था।

"माता"

"मैं ठीक हूँ ।आप सब प्रातःकाल के नित्य कर्म करें। मैं स्नान करके अभी आती हूँ।" कहती हुई माधवी आश्रम के द्वार से निकल नदी की ओर जाने वाली ढलान में उतर गई। नदी में प्रवेश करते ही जैसे उसे अपनी काया का भान ही नहीं रहा। काया का भान होता, स्वयं को समझ पाती तो क्या पिताश्री राजा ययाति का विरोध नहीं करती? ईश्वर ने उसकी काया में जीव डालकर उसे धरती पर भेजा है ।फिर क्यों निर्जीव बनी रही? आज माधवी स्वयं कठघरे में है। वादी ,प्रतिवादी वही है। उसे ही अपने पक्ष विपक्ष में बोलते हुए न्याय करना है। किंतु अब न्याय करने से क्या ?अब तो सर्वस्व लुट ही गया। आदि से अंत तक वह पुरुषों के जाल में फंसकर ठगी जाती रही।

सूर्य आसमान में काफ़ी ऊपर पहुँच चुका था। उसने अर्घ्य देकर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।

सृष्टि का नियम है प्रतिदिन सुबह होना, प्रतिदिन शाम होना। दिन के आठों प्रहर अपने समय में आते हैं और व्यतीत हो जाते हैं। माधवी भी धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ होती गई ।प्रकृतिस्थ होने के सिवाय उसके पास दूसरा विकल्प भी तो नहीं था मन का क्लेश परिस्थितियों का दास हो गया। वह विश्वामित्र के प्रति भी सहज हो चली थी। हालांकि दोनों के बीच तर्क, विमर्श होते रहते थे। किंतु अब माधवी को उन संवादों में आनंद आने लगा था। विश्वामित्र ने ही उसे अनुभूति कराई कि उसके जीवन के रिश्तो में उसके प्रति पुरुष की भूमिका नकारात्मक रही है। राजा होकर भी पिताश्री राजा ययाति ने उसके प्रति पिता होने का कर्तव्य नहीं निभाया। उल्टे राजकोष का कीमती हीरा मान उसे वस्तु की तरह दान में दे दिया ।उसके पहले दोषी तो पिताश्री ही हैं। दूसरा दोषी गालव है जिसने दान में दी वस्तु को सहेज कर नहीं रखा। उसकी प्रदर्शनी लगाता रहा और डुगडुगी बजाकर घोषणा करता रहा कि जिसे चक्रवर्ती पुत्रों की चाह हो वह इसे शुल्क देकर ले जाए। हर्यश्व, दिवोदास, उशीनर भी उतने ही बल्कि उनसे अधिक दोषी हैं। उन्होंने भी उसका दुरुपयोग किया ।किसी ने भी बिना माधवी से पुत्र उत्पन्न किए गालव को दान में घोड़े नहीं दिये।

ऐसी अनुभूति कराते हुए विश्वामित्र स्वयं को दोषी मानने से साफ़ बच निकले।

"माधवी तुम स्वयं का सम्मान नहीं कर पाईं इसलिए तुम्हारे प्रति मेरे मन में सम्मान नहीं के बराबर है। अतः तुम्हें स्वीकार करते हुए मुझे अंश मात्र भी क्लेश नहीं है। मैं गालव को गुरु दक्षिणा के भार से मुक्त करना चाहता हूँ। तुम्हारे स्वीकार के पीछे मेरी यही भावना रही है। अन्यथा मत लेना माधवी।"

वाह, क्या तर्क दिया है विश्वामित्र ने। इस तर्क पर माधवी हंसे या रोये? परिस्थिति का लाभ उठाना इसे कहते हैं।

ये वही विश्वमित्र हैं जिनके तेज,तप और क्रोध से देवता तक कांपने लगे हैं। अकाल पड़ने पर जब सब नदियाँ सूख गई ।हरियाली नष्ट हो गई तब अपने स्नान अर्ध्य आदि की सुविधा के लिए विश्वामित्र ने कौशिकी नदी को जन्म दिया। दुर्गम पहाड़ों,कन्दराओं से बहती कौशिकी अत्यंत पवित्र नदी मानी जाती है।

जिन्होंने बीते दिनों में माधवी के त्याग और उत्सर्ग को व्यर्थ बताया था, हाँ, माधवी के सामने वे एक अधिवक्ता के रूप में उपस्थित हुए थे,किंतु जिनके कार्य सदैव चर्चा में रहे हैं।

इन्हीं ने तो एक दूसरे स्वर्ग की रचना राजा त्रिशंकु के लिए कर डाली थी ।जब गुरु वशिष्ठ के शाप से ग्रस्त त्रिशंकु तीनों लोकों में मारा मारा फिर रहा था ।विश्वामित्र ने न केवल उसे शरण दी बल्कि उसके लिए नवीन स्वर्ग की रचना कर डाली और तब देवताओं को त्रिशंकु का स्वर्ग में आना स्वीकार करना पड़ा।

ये वही विश्वामित्र हैं जो अयोध्या के राजा राम के गुरु थे ।जिन्होंने त्रिशंकु के लिए स्वर्ग की रचना की थी ।जिन्होंने इंद्र की भेजी अप्सरा मेनका पर मोहित हो तप, ध्यान छोड़ दिया था और उसके रूप के मोहजाल में वर्षों लिप्त रहे। शकुंतला इन्हीं विश्वामित्र मेनका की तो पुत्री थी जिसने राजा दुष्यंत से गंधर्व विवाह कर महा प्रतापी भरत को जन्म दिया था ।भरत के नाम पर ही आर्यावर्त का नाम भारत पड़ा।

इन्हीं विश्वामित्र के कहने पर राम ने सीता के स्वयंवर में भाग लिया। कुशवंशी राजा गाधि के पुत्र होने के नाते उनमें एक राजकुमार और एक राजा होने के संपूर्ण गुण विद्यमान थे। वे प्रजा वत्सल महाप्रतापी राजा कौशिक के नाम से जाने जाते थे ।

पिताश्री राजा ययाति के राज महल में शिक्षा के दौरान माधवी को अपने गुरु से विश्वामित्र के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला था। गुरु जी ने बताया था कि

"महर्षि विश्वामित्र इतिहास के सबसे श्रेष्ठ ऋषियों में से एक हैं,जो कि जन्म से ब्राह्मण नहीं थे लेकिन अपने तप और ज्ञान के कारण इन्हें महर्षि की उपाधि मिली जिसके साथ ही इन्हें चारो वेदों का ज्ञान एवम ओमकार का ज्ञान प्राप्त हुआ। ऐसे केवल 24 गुरु हैं जो गायत्री मन्त्र के मर्म को समझते हैं उन्ही में सर्वप्रथम थे महर्षि विश्वामित्र ।

यह सुनकर माधवी के मन में ऐसे विद्वान विश्वामित्र के दर्शन करने की तीव्र इच्छा जागी थी॥उस समय सोचा न था कि विश्वामित्र से इस तरह के सम्बंध स्थापित होंगे।

गुरुजी ने बताया था कि -

"विश्वामित्र ने कई सालों तक सफलतापूर्वक राज किया और वे उस समय के सर्वश्रेष्ठ राजाओं में गिने जाते थे। महर्षि विश्वामित्र एक पराक्रमी, शक्तिशाली और महान तपस्वी भी थे। क्योंकि गुरु विश्वामित्र ने अपने पुरुषार्थ और तपस्या के बल पर ही क्षत्रियत्व को त्याग कर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और राजर्षि से महर्षि बने।

अपनी तपस्या के बल पर ही उन्हें सप्तर्षियों में महान स्थान प्राप्त हुआ।"

माधवी के मन में सन्देह उठा था कि "जो जन्म से क्षत्रिय है वह ब्राह्मण कैसे हो सकता है ?"

"तपस्या से मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर सकता है।" गुरु जी ने समझाया।

"ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए विश्वामित्र ने कठोर तपस्या की थी।जब हम किसी विशेष कार्य के लिए उद्यत होते हैं तो कई विघ्न भी आते हैं । जो उन विघ्नों को चुनौती मान उनका सामना करे,समझो वह अपने उद्देश्य में सफल हुआ। विश्वामित्र के साथ भी यही हुआ था।

एक बार भोजन के समय एक याचक उनके पास आया। विश्वामित्र ने उसे अपना सारा भोजन दे दिया और सोचा शायद अभी उनकी तपस्या की अवधि पूर्ण नहीं हुई है इसलिए ईश्वर ने इस याचक को मेरे पास पहुँचा दिया है। इसके पश्चात उन्होंने प्राणायाम करके और श्वांस रोककर कठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस तपस्या से सारा ब्रह्मांड थर्रा उठा। तपस्या के फल से उनका तेज चारों दिशाओं में प्रकाशित हो रहा था।

वे क्रोध और मोह की सीमा से परे जा चुके थे और तपस्या की पराकाष्ठा को भी पार कर चुके थे। उनकी तपस्या के तेज से स्वयं सूर्य और चंद्रमा धुंधले पड़ गये। तब जाकर उन्हें ब्राह्मणत्त्व प्राप्त हुआ।"

"वाह,अद्भुत।"

"किंतु माधवी अभी भी कार्य शेष था। विश्वामित्र का हठ था कि उन्हें यह उपाधि महर्षि वशिष्ठ दें। महर्षि वशिष्ठ ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें गले लगाया और कहा-" वास्तव में आप ब्रह्मर्षि है आज मैं आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ।"

विश्वामित्र के हठ को तो माधवी भली-भांति समझ चुकी है ।अब जबकि पिछले चार वर्षो से वह गालव की गुरुदक्षिणा जुटाने में सहयोग कर रही है। ऐसे विलक्षण,दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की विश्वामित्र ने निर्धन गालव से ?अगर गालव ने गुरुदक्षिणा देने का हठ ही किया था तो वे उससे आश्रम के लिए दूध देने वाली गौएँ ही मांग सकते थे जिसे प्राप्त करना बहुत सहज सरल था।

एकाएक माधवी के मन में विचार आया कि श्याम कर्ण के चांदनी के समान शुभ्र अश्व तो केवल राजा गाधि के पास ही थे जिसकी कथा गरुड़ ने सुनाई थी। तो क्या विश्वामित्र इस तरह अपने ही अश्वों को वापिस प्राप्त करना चाहते हैं । संभवतः अपने होने वाले पुत्र के लिए वे तरह व्यवस्था कर रहे हों। तपस्वी होकर ग्रहस्थों जैसी कामना? वैसे उनके तपस्वी होने को कई बार उनसे तर्कों के बीच माधवी ललकार चुकी है।

वह मानती है कि गालव भी उसका दोषी है। किंतु गालव उसे प्रेम भी तो करता है।

गालव को लेकर वह प्रायः दिवास्वप्न में खो जाती। बहुत अधिक व्याकुलता पर वह अपने मन को समझाती। वर्ष भर का ही तो वियोग है। फिर वे दोनों इसी अरण्य में कहीं आश्रम बनाएँगे ।शिष्य आएँगे पढ़ने। गालव से दीक्षा ग्रहण करने ।वह भी अध्यापन में गालव का साथ देगी। गुरुमाता कहलाएगी।ओह, कितना सुरम्य होगा वह दृश्य। गालव के साथ वह जीवन का आनंद उठाते हुए गालव के पुत्र पुत्रियों की माता बनेगी। तब उसे अपने शिशुओं को नहीं त्यागना होगा। वे जब उसे माता कहकर पुकारेंगे तब...

इस कल्पना मात्र से माधवी रोमांचित हो उठी । भोर ने पूर्व दिशा को सिंदूरी और सिलेटी रंगों से रंग दिया था ।अनुराग के सिंदूरी रंग में माधवी भी रंग गई ।कक्ष से निकलकर वह पुष्पवाटिका में आई। वसंत ऋतु ने पुष्पवाटिका सहित पूरे वनप्रदेश पर अपना एक छत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

वन रंग-बिरंगे पुष्पों से सज्जित था। सरोवर में सफेद और नीले कमल खिले थे जिन पर भंवरे गुंजार कर रहे थे। तितलियाँ नवमल्लिका के सुगंधित सफेद पुष्पों पर नर्तन कर रही थीं।आम्र मंजरी की सुगंध से मतवाली कोयल मधुर बोली से वन प्रदेश को तरंगित कर रही थी ।

वसंत की अनुरागमयी ऋतु ने माधवी के अंग प्रत्यंग गालव के प्रति प्रेम से सराबोर कर दिए ।आश्रम के आसपास के वृक्षों की शोभा निहारती वह नदी की ओर स्नान के लिए जा रही थी। नदी में डुबकी लगाते ही उसकी सारी थकान मिट गई और बदन स्फटिक-सा जगमगा उठा। सूर्य वंदना कर जब आश्रम में लौटी तो शिष्य दूध ओंटा रहे थे।

समय तेजी से व्यतीत हो रहा था गर्भ के लक्षण भी प्रगट होने लगे थे।

माधवी को देखकर शिष्य आपस में कानाफूसी कर रहे थे, किंतु गुरु के सम्मान में वे माधवी से कुछ भी पूछने में अपने को असमर्थ पा रहे थे।

शिष्यों की दुविधा से परिचित थी माधवी। उसने स्वयं ही उनके सामने अपनी स्थिति स्पष्ट

"मैं तुम्हारे गुरु विश्वामित्र के पुत्र की माँ बनने वाली हूँ ।ईश्वर की यही इच्छा है ।"

शिष्यों ने तत्काल तो बधाई देते हुए हर्ष व्यक्त किया किंतु मन ही मन वे गुरु विश्वामित्र के ऐसे चरित्र से आहत हुए । माधवी तो गुरु विश्वामित्र के पास गालव की धरोहर है । गालव गुरुदक्षिणा के अश्व एकत्रित करने गया है। अतः माधवी को गुरु विश्वामित्र की शरण में छोड़ गया है ।यह तो विश्वासघात हुआ । किसी की धरोहर का दुरुपयोग विश्वासघात नहीं तो और क्या है?

विश्वामित्र का आदेश था कि सभी शिष्य माधवी पर विशेष ध्यान दें। उसके सोने-जागने तथा अन्य आवश्यकताओं को अनदेखा न करें।

समय मिलते ही विश्वामित्र माधवी को आध्यात्मिक कथाएँ सुना कर मानो गर्भ में शिशु का संस्कार कर रहे थे।

गालव ने तीनों राज्यों से अश्वों को एकत्रित करना आरंभ किया । अश्वों को एकत्र करने के कारण वन में उसका भ्रमण लगभग समाप्त हो गया था और वह काशी ,भोजनगर और अयोध्या के मंदिरों ,गली ,हाट, चौराहों को देखते हुए नदियों में स्नान ,ध्यान करता और भोजनालय में भोजन करता। अश्वों के विश्राम के लिए अश्वशालाओं में उसे जगह भी मिलती जाती ।वह भी धर्मशालाओं में दिन व्यतीत करने लगा।

अरुणोदय की बेला ,विश्वामित्र का आश्रम भी पुत्र के जन्म की सूचना से रक्ताभ हो उठा।जैसे धरती ने खुले हाथों कुमकुम मिश्रित स्वर्ण लुटाया है। विश्वामित्र प्रभु की आराधना में लीन थे। माधवी को प्रसव की पीड़ा के आरंभ होने की सूचना उन्हें मिल चुकी थी ।एक घड़ी पश्चात ही पुत्र जन्म की सूचना भी मिल गई। प्रसूति कक्ष से अब माधवी की पीड़ा भरी कराह भी बंद हो चुकी थी। लेकिन शिशु का क्रंदन था जिसे सुनकर विश्वामित्र सहित पूरा आश्रम हर्ष से भर उठा था ।थोड़े समय पश्चात वे प्रसूति कक्ष में गए। माधवी स्वयं कुशा की शैया पर तो थी ही शिशु भी उसकी बगल में शांत लेटा था मानो उसके कोमल गात ने भी ऋषि के आश्रम में जन्म लेने का अपना भाग्य स्वीकार कर लिया था । जबकि माता-पिता दोनों राजघराने के ही थे ।विश्वामित्र ने शिशु के सिर पर हाथ रखकर कहा -"आज से तुम विश्वामित्र पुत्र अष्टक के नाम से जाने जाओगे पुत्र। तुम्हारी कीर्ति,यश दीर्घकाल तक इस पृथ्वी पर रहेगा।"

आहत हुई माधवी। विश्वामित्र पुत्र ! माधवी का कहीं नाम नहीं! कोई अस्तित्व नहीं! विश्वामित्र भी पुत्र से ही उन्मुख हैं।

कितनी पीड़ा सहकर उसने पुत्र को जन्म दिया ।यह नहीं जानना चाहा विश्वामित्र ने?उनकी दृष्टि में तो वह पुत्र को जन्म देने वाला उपकरण मात्र बनकर रह गई ।विश्वामित्र के कक्ष से बाहर होते ही वह पुत्र से लिपट कर रो पड़ी ।

शिष्य गुरु विश्वामित्र के प्रति राग द्वेष की भावना का त्याग कर नवजात शिशु की ओर उमड़े पड़ रहे थे। उनके लिए तो आश्रम की एकरसता को भंग करता मानो खिलौना ही आ गया था ।माधवी के रोकने पर भी वे उसे गोद में उठाकर पुष्पवाटिका में ले जाते। उन्होंने उसके लिए पालना भी बनाया था जिसमें वह निद्रा लेता और जागने पर शिष्यों की ओर देखता मुस्कुराता रहता।

माधवी अधीरता से गालव की प्रतीक्षा करने लगी ।अब उसका आश्रम में मन नहीं लग रहा था । एक एक क्षण मानो कल्प-सा लग रहा था। अष्टक के जन्म के दस दिन बाद एक शिष्य ने आकर सूचना दी -

"माता अश्वों सहित मुनिवर गालव पधार रहे हैं।आश्रम की ओर आने वाली वीथिकाएँ अश्वों के खुरों से उठी धूल से भर गई हैं। कहाँ रहेंगे इतने अश्व?"

'यह तो तुम अपने गुरु से पूछो। जिनकी महत्त्वाकांक्षा के नुकीले चक्र में माधवी चार वर्षों से लहूलुहान है।' कहना चाहा माधवी ने।

तभी कुछ शिष्यों ने आकर अश्वों के लिए तैयार की जा रही अश्वशाला की ओर संकेत किया ।

"गुरुजी ने अश्वशाला का निर्माण तो कब से करवा कर रखा है ।क्या तुम नहीं जानते मित्र?"

जिस शिष्य ने आकर माधवी को अश्वों के आने की सूचना दी थी वह नया-नया आश्रम में आया था ।उसे वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं था। वह क्षमा मांगते हुए वहाँ से चला गया।

गालव को सम्मुख पा माधवी नदी की धार-सी उमड़ पड़ी। किंतु विश्वामित्र की उपस्थिति ने उसके पैरों को रोक दिया। गालव ने विश्वामित्र के चरणों में नमन करते हुए कहा-"गुरुवर पुत्र जन्म की बधाई ।"

विश्वामित्र ने गालव को बैठने का संकेत किया-

"गालव मेरे प्रिय शिष्य , तुमने गुरु दक्षिणा पूर्ण की। मेरी दुर्लभ मांग को भी पूर्ण कर दिखाया।तुम मुक्त हो, स्वतंत्र जीवन जीने के अधिकारी । माधवी को उसके पितृग्रह पहुँचाकर तुम इस पृथ्वी पर अपना ज्ञान बांटो ।स्वयं सुख से रहो ।दूसरों को भी सुखी करो। 2 दिन पश्चात तुम्हारा दीक्षांत समारोह होगा ।और भी चार शिष्यों ने दीक्षा पूर्ण की है उनका भी तुम्हारे साथ ही दीक्षांत समारोह आयोजित होगा। सभी ऋषि - मुनियों ,तपस्वियों को सूचना दे दी गई है ।"

कहते हुए विश्वामित्र खड़े हो गए। उन्होंने गालव के सिर पर हाथ रखा ।"दीर्घायु यशस्वी हो ।जाओ विश्राम करो। यात्रा से आ रहे हो। थकान चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है।"

विश्वामित्र के चरण स्पर्श कर गालव उनके कक्ष से बाहर आया। द्वार पर ही माधवी व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रही थी। "गालव सब ठीक है न?"

"हाँ माधवी ,तुम कैसी हो? स्वस्थ ही दिख रही हो। निश्चय ही गुरुजी ने तुम्हारा विशेष ध्यान रखा। तुमने मेरी गुरु दक्षिणा पूर्ण की, यह उपकार मैं जन्म जन्मांतर तक नहीं भूल सकता।" न जाने माधवी को क्यों ग़ालव के व्यवहार में परिवर्तन और अलगाव का अनुभव हुआ ।सोचा इतने राज्यों से अश्व एकत्र कर लंबी यात्रा से आ रहा है। निश्चय ही थका होगा। उसने प्रगाढ़ प्रेम से उस की ओर देखते हुए कहा-"भोजन के पश्चात विश्राम करो गालव। वैसे भी दीक्षांत समारोह के लिए व्यवस्था करने वालों की तुम्हें सहायता करनी होगी। देखो आश्रम के प्रांगण में कितना बड़ा और सुंदर हवन कुंड तैयार हुआ है।"

कहते हुए माधवी ने गालव से विदा ली और कक्ष की ओर चली गई। अष्टक भूख से रो रहा था ।उसने उसे गोद में उठा लिया और स्तनपान कराने लगी। माधवी के चेहरे पर गालव के प्रति प्रेम और पुत्र के प्रति वात्सल्य के भाव गड्ड मड्ड हो रहे थे। विजय वात्सल्य की हुई। माधवी का ह्रदय ममता से सराबोर था।

दीक्षांत समारोह का आयोजन गुरु विश्वामित्र की विद्वत्ता और गरिमा के अनुकूल था। सैंकड़ों की संख्या में ऋषि -मुनि ,तपस्वी और शिष्य थे।हवन कुंड में हवन सामग्री से उत्पन्न अग्नि ने वन प्रदेश को उज्ज्वलता प्रदान करते हुए वातावरण को पवित्र धुएँ से भर दिया था।मन्त्रों के उच्चारण से मानो धरती आकाश एक हो रहे थे। दीक्षा के लिए प्रस्तुत सभी शिष्य पीत वस्त्रों में शोभायमान हो रहे थे। मानो गुरु विश्वामित्र के आश्रम में वसंत ऋतु डेरा डाले थी। हवन के पश्चात गुरु विश्वामित्र ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा- "मेरे प्रिय शिष्यों और मेरी विशिष्ट,दुर्लभ गुरु दक्षिणा पूर्ण करने वाले प्रिय गालव, मेरे पास तुम्हें देने के लिए जो शिक्षा थी आज तुमने उस शिक्षा को सार्थक करते हुए गुरु दक्षिणा प्रदान कर गुरु शिष्य परंपरा का पालन किया ।भविष्य के लिए मैं तुम पर विश्वास करता हूँ कि तुम उस शिक्षा को सत्कर्मो में उपयोग में लाओगे ।मैंने शिक्षा दी इसका अर्थ यह नहीं कि तुम स्वयं के विवेक का त्याग कर उसका मात्र पालन ही करते रहो। तुम्हें उस शिक्षा का अपनी अंतरात्मा में मूल्याँकन भी करना होगा ।सत्यान्वेषी होना होगा ।अपने कुल ,समाज और देश के हित उन्मुख होते हुए तुम्हें व्यवहारिकता का पालन करना होगा। गालव इस तरह कर्म करते हुए तुम महर्षि गालव कहलाओगे । उज्ज्वल भविष्य तुम्हारी और मेरे सभी दीक्षित शिष्यों की प्रतीक्षा कर रहा है ।"

सभा में उपस्थित सभी ने तथास्तु की ध्वनि से सभा स्थल को हर्ष से भर दिया।

दीक्षांत समारोह संपन्न हुआ ।सभी ने शिष्यों का आतिथ्य ग्रहण करते हुए सुस्वादु भोजन, प्रसाद का भोग लिया और प्रस्थान किया ।

हवन कुंड की अग्नि धीमी होने लगी। विश्वामित्र ने माधवी को अपने समीप बुलाकर पुत्र के प्रति उसके कर्तव्यों से मुक्त करते हुए आशीर्वाद दिया-

"माधवी पुत्र की बिल्कुल भी चिंता मत करो। उसका यहाँ भली-भांति पालन-पोषण होगा । तुम्हें तो अपना कौमार्य पुनः प्राप्त करने का वरदान है ।जाओ विवाह कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करो। अभी तुम्हारी आयु ही कितनी है ।पूरा जीवन है तुम्हारे सामने।अब अधिक समय आश्रम को देकर स्वयं को पुत्र मोह में मत डालो ।प्रातः काल होते ही गालव के साथ राजा ययाति के घर प्रस्थान करो। इसी में तुम्हारा हित है ।"

विश्वामित्र के इस बदले स्वरूप पर माधवी को विश्वास नहीं हो रहा था। अभी तो दीक्षांत भाषण देते हुए तीनों लोकों का ज्ञान बखान रहे थे और अब!

जब तक उन्हें गुरु दक्षिणा वसूल करनी थी तब तक माधवी विश्व की अनिद्य सुंदरी थी। उसे पाकर वे अपने भाग्य को सराह रहे थे और अब उच्छिष्ट, भोगी हुई वस्तु। अब माधवी का आश्रम में क्या काम ?उसका यहाँ रहने का क्या प्रयोजन ?

माधवी को भी अब एक पल भी आश्रम में रहना दूभर लग रहा था ।अपमान महसूस हो रहा था ।तिरस्कार किया है उसका विश्वामित्र ने। ऋषि होकर वे स्त्री का सम्मान नहीं कर पाए तो उनकी तपस्या का क्या लाभ।

इससे तो राजा हर्यश्व, दिवोदास और उशीनर ज़्यादा चरित्रवान थे जिन्होंने उसे अपने राजमहल में से जाने को नहीं कहा बल्कि वहीं रहने के लिए आग्रह भी किया।

वह चौथी बार पुत्र त्याग कर रही थी उसकी मर्मान्तक पीड़ा के एक कण का भी न तो विश्वामित्र को भान था और न ही गालव को । वह व्यर्थता के बोझ से संतप्त थी। प्रकृतिस्थ होने में उसे समय लगा।

शिष्य चकित थे कि अपने नवजात शिशु को त्यागकर माधवी कैसे जा रही है? कोई माता अपने पुत्र का त्याग कैसे कर सकती है? क्या हो गया है माधवी को?

"यह बात आप अपने गुरु से पूछिए। आपको अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।"

किंतु शिष्यों में इतना साहस नहीं था। हालांकि गुरु विश्वामित्र के इस कृत्य को लेकर शिष्यों के मन में उनके प्रति आदर और भक्तिभाव में कमी आ गई थी। किंतु अब माधवी भी उनके प्रश्न के दायरे में आ गई थी। माँ की पुत्र के प्रति ऐसी तटस्थता से वे अपरिचित थे। समाधान गालव ने करना चाहा -"गुरु दक्षिणा के 800 अश्वों में 200 अश्व कम है । अतः गुरु विश्वामित्र ने उसके बदले माधवी का पुत्र ले लिया ।"

"क्या!"एक साथ चकित होकर इस शब्द के उच्चारण को सुन माधवी के मन में आया कि यही समय है जब वह विश्वामित्र की सच्चाई सबके सामने ला सकती है ।उन्हें भविष्य के प्रति सचेत कर सकती है कि तुम सब भी शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु दक्षिणा का आग्रह मत करना अन्यथा संकट में पड़ जाओगे। विश्वामित्र कुछ भी मांग सकते हैं ।किंतु वह चुप रही ।वर्ष भर साथ रहते हुए उसे शिष्यों से स्नेह हो गया था। वह गुरु के प्रति उनकी आस्था, विश्वास का खंडन नहीं करेगी।

"प्रातः काल प्रस्थान करेंगे हम। आओ प्रिय शिष्यों, तुम सबके साथ अंतिम रात्रि का भोजन लें। मन में किसी प्रकार का खेद मत लाना। मनुष्य समय का दास होता है ।हमें पता भी नहीं चलता और समय हम से तय किया हुआ काम करा ले जाता है।"

कहते हुए माधवी ने अपने हाथों सभी को भोजन परोसा ।वातावरण उदासी से भरा था ।रात्रि की अंतिम प्रार्थना कर सब अपने अपने कक्ष में चले गए। माधवी नहीं जान सकी कि उसकी चर्चा करते हुए शिष्य रात भर जागते रहे और भोर होने से पहले ही कक्ष से बाहर आ गए। वर्ष भर जिन्हें बच्चों जैसा दुलार प्यार दिया था माधवी ने वे हिरण प्रातः काल से ही पुष्प वाटिका की घास पर ठगे से खड़े माधवी के कक्ष को निहार रहे थे।

प्रतिदिन यह समय होता है माधवी के नदी में स्नान का और वे माधवी के संग संग चौकड़ी भरते हुए नदी तक जाते हैं और उसके साथ ही लौटते हैं। किंतु आज वे निश्चल मौन खड़े थे। जैसे उन्हें ज्ञात हो गया था कि माधवी उनसे बिछड़ रही है। सत्य है पशु मानव से अधिक विश्वासपात्र,स्नेहिल होते हैं।

आश्रम से विदा लेते हुए माधवी ने भर नज़र आश्रम को देखा ।वह राजमहल की वासिनी किंतु जिसने एक वर्ष तक आश्रम में तपस्विनी जैसा जीवन जिया, जिसने गालव के उद्देश्य को पूरा करने के लिए किसी भी कष्ट को आत्मसात किया ।क्या था इसमें ?कर्तव्यनिष्ठा! ईमानदारी या गालव के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा! कदाचित... कदाचित हाँ। पुत्र के प्रति उमड़ आई ममता को त्याग वह गालव के साथ आश्रम से बाहर निकल आई।

शिष्यों के लिए यह घड़ी मर्मान्तक थी जब अति स्नेही माधवी उनसे बिछुड़ रही थी। सभी ने माधवी के चरणों में शीश नवाया।

"सदा प्रसन्न रहो। आशा ही नहीं विश्वास है कि तुम कोई भी अनैतिक कार्य नहीं करोगे और सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ोगे।" "आपका स्मरण सदा रहेगा माता। आप ही से हमने सीखा है त्याग और परोपकार।"

कुछ दूर तक शिष्य उसे छोड़ने आए । पीछे पीछे हिरणों का झुंड भी। माधवी को कुछ पल सब कुछ ठिठका हुआ लगा मानो उसके बिछोह में आश्रम और उसके परिसर की गति ही थम गई हो।

विदाई वेदना पूर्ण थी फिर भी माधवी ने हृदय पर पत्थर रखकर शिष्यों को आश्रम में लौट जाने को कहा और गालव के साथ आगे की राह पकड़ी।