कलई के पार देखनेवाली नजर / संजीव कुमार
रवींद्र कालिया की कहानियों से मेरा पहला परिचय देर आयद दुरुस्त आयद वाले अंदाज में हुआ था। पूरी बीसवीं सदी गुजर गई, जिसके एक-तिहाई हिस्से में इपंले भी इस धरती पर मौजूद था और कालिया जी की कहानियाँ निगाह से नहीं गुजरीं। इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दो-तीन साल बीतने के बाद 'अमन और न्याय के लिए तालीम' नामक एक परियोजना के सिलसिले में साहित्य अकादेमी के पुस्तकालय में कहानियाँ तलाशते हुए मुझे तीन ऐसी कहानियाँ मिलीं जिनके नाम मैंने पहले किसी प्रसंग में नहीं सुने थे और जिन्हें अपनी 'खोज' मानने के गर्व में मैं आगे कई महीनों तक आत्ममुग्ध रहा। ये कहानियाँ थीं: स्वयं प्रकाश की 'रशीद का पजामा' , शेखर जोशी की 'गलता लोहा' और रवींद्र कालिया की 'पनाह' । परियोजना के अंतर्गत हमें जाति और सांप्रदायिकता के सवाल को ध्यान में रखकर एनसीईआरटी की हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा करनी थी और ऐसे पाठ इकट्ठा करने थे जिन्हें हम इन प्रश्नों पर किशोरों को संवेदनशील बनाने की दृष्टि से उपयोगी मानते थे। कहानियाँ तो कई जुटाई गईं, पर उनमें से इन तीन के नाम अलग से इसलिए ले रहा हूँ कि इनका जिक्र किसी आलोचना-पुस्तक में नहीं मिला था।
सचाई है कि इससे पहले कहानीकार कालिया से मेरा परिचय बिलकुल नहीं हुआ था। उनके बारे में जिस तरह की धारणा हिन्दी के वायुमंडल में व्याप्त थी, उससे लगता था कि कहानियों में भी 'बदमाशी' ही ज़्यादा करते होंगे। ऐसे व्यक्ति को गंभीरता से क्या लेना! (इस द्वयर्थक वाक्य के दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं।) 'पनाह' पढ़कर मैं दंग रह गया। लगा कि अगर ऐसी कहानियाँ आपके पास हों और आप उन्हें कच्ची उम्र के दोस्तों तक ले जाने के लिए संसाधन-संजाल-संपन्न हों तो बहुत कुछ किया जा सकता है। उस समय प्रयोजन ही यही था!
कहानी एक मुस्लिम चरित्र के एकालाप के रूप में है, सम्बोधन शैली में। शहर में कर्फ्यू के बीच दो घंटे की छूट मिलने पर यह व्यक्ति पेचिश की शिकार अपनी बिटिया के लिए बेल का मुरब्बा खरीदने निकला था। जब पागलों की तरह घंटियाँ बजाती दमकल और उसके पीछे बंदूकधारियों से लदी पीएसी की गाड़ियाँ बगल से गुजरीं तो वह डरकर भागता हुआ किसी के घर में पनाह माँगने चला आया है। कहानी शुरू ही इस तरह होती है: "मुझे देखकर घबराइए नहीं। घड़ी दो घड़ी के लिए पनाह माँग रहा हूँ। मैं ज़िन्दगी भर आपका अहसान नहीं भूलूँगा। मैं कोई चोर उचक्का या लुटेरा नहीं हूँ। आप ही की तरह इस मुल्क का बाशिंदा हूँ।" यह सम्बोधन जिसके लिए है, वह कहानी में कहीं दिखता नहीं। इस तरह हर पाठक इसका सम्बोध्य बन जाता है-एक ऐसे परेशानहाल मुसलमान के एकालाप का सम्बोध्य जिसके सामने यह सवाल मुँह बाए खड़ा है कि "जो शख्स बिना हुज्जत के सरकार का पूरा टैक्स अदा कर देता है, जिसकी किसी से कोई अदावत नहीं, जो सिर्फ़ अपने काम से काम रखता है और गर्दन नीची किए हुए उसी अल्लाह मियाँ को याद करके चुपचाप चलता रहता है, वह क्यों इतना परेशाँ है? जिधर निकलता हूँ, वहीं आवाजें आने लगती हैं-मारो! मारो! क्यों मारोगे भाई? मैंने क्या गुनाह किया है, किस जुर्म की सजा मुझे देना चाहते हो?" भारतीय मुसलमान के भीतर बैठे डर और असुरक्षा-बोध को और उन हालात को जिनमें यह डर जन्मा-पला-बढ़ा है, यह छोटी-सी कहानी बहुत सधे हुए हाथों से खोलती है। कहानी के वाचक-चरित्र का बेटा इसी डर की वजह से आज बेगुनाह ही जेल की हवा खा रहा है:
"दरअसल उसे मालूम नहीं था कि शहर में दंगे हो गए हैं। वह इत्मीनान से घर के बाहर नाली में पेशाब कर रहा था कि उसे कुछ लोग भागते हुए नजर आए. वह भी नाड़ा बांधते हुए भागा। उससे यही गलती हो गई. उसे पीएसी देखकर भागना नहीं चाहिए था। उसे चाहिए था, वहीं नाली पर चुपचाप बैठा रहता। पेशाब उतरता या न उतरता। लगता है, वह पीएसी को देखकर घबरा गया।"
अब वह जेल में है और इनकी हैसियत नहीं कि उसकी जमानत करवा सकें। "पड़ोसियों से बहुत मिन्नत समाजत की, मगर कोई जमानत लेने के लिए तैयार न हुआ।"
ऐसा ही डर खुद इस शख्स के अंदर भी है। कर्फ्यू में दो घंटे की छूट मिलने पर जब यह बाहर निकला तो इसे लग रहा था कि-
"आसमान पर गिद्ध मँडरा रहे हैं। पेड़ों की हर शाख पर उल्लू और शहर के हर चौराहे पर पीएसी के जवान डट गए हैं। हर इमारत के बाहर चमगादड़ लटक रहे हैं और या अल्लाह! पुलिस से लदी वे खौफनाक जीपें! ...मैं चुपचाप अल्लाह मियाँ की याद में सिर झुकाए धीरे-धीरे चल रहा था कि फिर वही आवाजें। लड़ो! लड़ो! किससे लड़ें भाई? मारो! मारो! किसको मारो? फँसाओ! फँसाओ! किसे फँसाओ. मैं एकदम होशो-हवास खो बैठा।"
पीएसी जैसे कुख्यात पुलिस बल की चर्चा और पूरे माहौल में बसी हुई मुस्लिम-विरोधी साजिशों की बू कहानी में बार-बार आती है।
"सब लोग हैरत में हैं कि एक नेकदिल खुदातरस इनसान के पीछे वे क्यों पड़े हैं? आप ही की तरह वे पूछते हैं कि कौन हैं वे जो तुम्हारे पीछे पड़े हैं? हम क्या बतावें? कोई सामने आवे तो बतावें। बस छिप-छिपकर इशारा करते हैं और जीना मुहाल किए रहते हैं। क्या वे चाहते हैं कि मैं अपने बच्चों को भूखा मार दूँ या अपने बड़े भाई की तरह पाकिस्तान चला जाऊँ? वे शायद यही चाहते हैं। अगर वे यही चाहते हैं तो सामने क्यों नहीं आते, छिप-छिपकर पीछा क्यों करते हैं। मगर यह तय है कि मैं पाकिस्तान नहीं जाऊँगा। मुझे अपने वतन से बेपनाह मुहब्बत है और फिर हिंदुस्तान में पैदा होकर मैं पाकिस्तान क्यों जाऊँ? मरने के लिए?"
सत्तर के दशक में लिखी गई इस कहानी के वे लोग, जो 'छिप-छिपकर इशारा करते हैं और जीना मुहाल किए रहते हैं,' आज सामने आ गए हैं। उन्हें इशारों में बात करने या लुक-छिपकर पीछा करने की कोई ज़रूरत नहीं। राज्य पर उनका कब्जा लगभग मुकम्मल है। वे त्रिशूल, तलवार, कुल्हाड़े और कट्टे लहराते घूम रहे हैं, हत्याएँ कर रहे हैं और 'हिंदुत्व' से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान भेजने पर आमादा हैं। उनके खिलाफ अदालतों में मामला न बनता हो, ऐसा नहीं है, पर जाँच एजेंसियों से लेकर अदालतों तक कुछ ऐसा है कि हर मामला निरस्त हो जाता है और वे दुगुने उत्साह से अपनी कारगुजारियों में लग जाते हैं।
'पनाह' कहानी जैसे पिछली सदी के उत्तरार्ध के गर्भ में पलती इस अगली सदी को पहचान रही है। यह भारतीय मुसलमान के लगातार अकेले और दयनीय होते जाने की कहानी है, जिसमें शायद उसके कट्टरीकरण की कहानी भी छिपी है। पढ़ते हुए आपको लगता है कि सत्तर के दशक का एक मुसलमान अपने ही मुल्क में जिस तरह की बेगानगी और असुरक्षा महसूस कर रहा था, उसके कितने गंभीर निहितार्थ थे, जिन्हें समय के साथ अधिकाधिक खुलते जाना था।
कालिया जी को आगे पढ़ते हुए इपंले ने गौर किया कि 'पनाह' उनके यहाँ कोई अपवाद-स्वरूप आई हुई कहानी नहीं है। उनके यहाँ मुस्लिम चरित्र, मर्कजी या गैर-मर्कजी किरदार में, उनके समकालीनों और उत्तरकालीनों के मुकाबले अधिक हैं। शानी को हिन्दी के कथाकारों से जो शिकायत थी, उसके अपवाद ठहरते हैं रवींद्र कालिया। 'खुदा सही सलामत है' जैसा महाकाव्यात्मक उपन्यास तो इसका उदाहरण है ही, कहानियों में भी 'सुंदरी' और 'नया कुरता' पूरी तरह से मुस्लिम निम्नवर्ग पर केंद्रित हैं और उम्दा कहानियाँ हैं। इनके अलावा 'हथकड़ी' का अदीब, 'टाट की किवाड़ों वाले घर' की हजरी बी जैसे यादगार मुस्लिम चरित्र उनके यहाँ हैं। 'चकैया नीम' की वह गली भी याद रह जाती है जो "एक भरे-पूरे परिवार के आबाद आँगन की तरह महकती थी। दीवाली हो या ईद, मुहर्रम हो या होली, यह गली रतजगे पर उतर आती। दीवाली के दिनों पूरी गली मिठाई के डिब्बों का कारखाना बन जाती। रोजों के दौरान रात-भर चहल-पहल रहती और अल-सुबह जब बाँगी 'सहरी का वक्त हो गया है, खुदा के बंदो जागो' की बाँग देता तो बरतनों की खनक के साथ एक नए दिन की शुरुआत हो जाती। होली पर रंग बेचनेवाले इसी गली से रंगों के पहाड़ ठेलों पर लादे हुए निकलते। रात भर पिचकारियाँ बनतीं। मुहर्रम के दिनों नीमतले पेट्रोमैक्स की रोशनी में रातभर छुरियाँ तेज होतीं-किर्र-किर्र-किर्र..."
एक छोटी-सी कहानी है, 'जरा-सी रोशनी'। साधारण कहानी है, पर इसके अंत में एकदम क्षणिक किंतु निर्णायक भूमिका में एक मुसलमान लड़का आता है और ऐसा असर छोड़ जाता है कि कहानी याद रह जाती है। यह एक ऐसी कॉलोनी की कहानी है जो किसी मुस्लिम गाँव के पास बसाई गई है। मस्जिद तो वहाँ है, आसपास मंदिर नहीं है। धीरे-धीरे कॉलोनी के पार्क में बैठनेवाले बुज़ुर्ग योजना बनाने लगते हैं कि एक मंदिर का निर्माण करवाया जाए और ऐन वहाँ हो जहाँ दो-तीन मुस्लिम परिवार बसे हुए हैं। इस योजना के बारे में सुनकर एक सिंह साहब गुस्से में आ जाते हैं और बहस हो जाती है। 'हिंदुओं की दशा' आदि के बारे उन लोगों की चिंता की बखिया उधेड़ते और उन्हें 'हजारों वर्षों से चली आती साझा संस्कृति का दुश्मन' बताते हुए वे उस मंडली से अलग होकर पार्क में वहाँ जा बैठते हैं जहाँ कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने की तैयारी कर रहे हैं। दो टीमें बन गई हैं। एक में सिर्फ़ हिंदू बच्चे हैं, दूसरी में सिर्फ़ मुस्लिम बच्चे। सिंह साहब को घोर निराशा होती है कि सांप्रदायिकता का जहर यहाँ भी फैला हुआ है। पर इसके बाद जो होता है, वह सुखद आश्चर्य का विषय है। बच्चे तय करते हैं कि उनके बीच भारत पाकिस्तान का मैच होगा। अनुराग घोषणा करता है, 'हम भारत की टीम के कप्तान और मुख़्तार पाक टीम का कप्तान।' आगे की बातचीत है:
'यह नहीं हो सकता।' मुख़्तार ने कहा, 'तुम्हें बनानी हो तो बनाओ पकिस्तान टीम। हम हिंदुस्तानी हैं, हम भारत की टीम के कप्तान बनेंगे जैसे अजहर भारत का कप्तान है।'
'तुम अपने को अजहर समझते हो तो हम भी इमरान से कम नहीं।' अनुराग ने कहा।
यह सुनकर सिंह साहब खुशी से झूम उठते हैं। यही है उनके लिए, जरा-सी रोशनी। कहानी पढ़कर आपको ज़रा भी संदेह नहीं रह जाता कि इसकी घटना सच्ची हो या काल्पनिक, ये सिंह साहब और कोई नहीं, स्वयं कहानीकार कालिया हैं। सांप्रदायिक माहौल में यह जरा-सी रोशनी उस कहानीकार के लिए तिनके के सहारे की तरह है जो 'पनाह' जैसी कहानी लिखता है और जिसकी 'टाट के किवाड़ों वाले घर' की हजरी बी फसाद होने पर रो-रोकर कहती है, "इन लौंडों को कैसे समझाऊँ, गरीबों की एक ही बिरादरी होती है। मरता गरीब ही है, वह हिंदू हो या मुसलमान! आज तो मुसलमान इतना तैश दिखा रहे हैं, कल दीवाली आने पर यही पटाखे बेचेंगे और होली आने पर रंग। भला इसने पूछो, अल्लाह मियाँ की आँखों में कहीं धूल झोंकी जा सकती है। बहू, वे लोग इसे फसाद कहते हैं, मैं कहती हूँ यह गरीबों को गरीबों से लड़ाने की साजिश है।"
सांप्रदायिक प्रश्न और मुस्लिम जीवन पर केंद्रित कालिया जी की कहानियों के उदाहरण मैं क्यों दे रहा हूँ? इसलिए कि उनकी छवि उस पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में रूढ़ है जो अपनी कहानियों में, नितांत निजी वृत्त रचते हुए, समाज और साहित्य के स्थापित मान-मूल्यों को ध्वस्त करने का काम कर रही थी। इस छवि में रूढ़ होने का नतीजा यह हुआ कि अगर आपने रवींद्र कालिया को पूरा नहीं पढ़ा है तो आपको लगेगा कि अपनी तरह के इस निहिलिज्म के अलावा उनके यहाँ कुछ भी रेखांकनीय नहीं है। यह साहित्यालोचन को प्रवृत्ति-निरूपक साहित्येतिहास का अनुषंगी बनाने का अनिवार्य दुष्परिणाम है। मेरी खुशकिस्मती थी कि मैंने 'पनाह' जैसी कहानी से रवींद्र कालिया का पहला प्रत्यक्ष परिचय पाया और इस तथ्य ने मेरे अंदर पर्याप्त श्रद्धा जगाई कि यह ऐसा कहानीकार है जो समाज-सापेक्षता का शोर-शराबा किए बगैर गहरे सामाजिक अर्थ और यथार्थ की कहानी दे सकता है। (यह अलग बात है कि अपने प्रति श्रद्धावनत रखना साठोत्तरी के चार यारों की फितरत ही नहीं रही। कुछ सालों बाद ही 'नया ज्ञानोदय' के एक साक्षात्कार को लेकर जो प्रतिक्रिया हुई, उस पर संपादक के रूप में कालिया जी के रवैये ने इपंले को खासा दुखी किया।)
बहरहाल, मुझे लगता है कि कालिया जी के कहानी-संसार में पर्याप्त विविधता है। यहाँ अगर ऐसी कहानियाँ हैं जो लगभग निरर्थक विवरणों में ही खत्म होकर आपको रोजमर्रा ज़िन्दगी की निरर्थकता के अहसास से भर देती / भर देना चाहती हैं ( 'मैं' , 'थके हुए' , 'विकथा' , 'अकहानी' ) , तो ऐसी कहानियाँ भी हैं जिनमें बेरोजगारी ('सिर्फ एक दिन' , 'चाल' ) , आधुनिक जीवन का संत्रास ( 'त्रास' , 'बड़े शहर का आदमी') , प्रेम और दांपत्य सम्बंधी नया गैर-रूमानी भावबोध ('सबसे छोटी तस्वीर' , 'प्रेम' , 'संदल और सिंथाल' , 'नौ साल छोटी पत्नी' , 'डरी हुई औरत' , 'हथकड़ी' ) आदि बहुत ठोस अंतर्वस्तु के रूप में उभरते हैं। यहाँ अगर ऐसी कहानियाँ हैं जो कहानीकार के अपने शहरी मध्यवर्गीय दायरों तक महदूद हैं (पूर्वोल्लिखित सभी कहानियाँ) , तो ऐसी कहानियाँ भी हैं जिनमें हाशिये का समाज अत्यंत विश्वसनीय ब्योरों के साथ चित्रित हुआ है ( 'तफरीह' , 'सुंदरी' , 'गरीबी हटाओ' , 'चकैया नीम' , 'टाट के किवाड़ों वाले घर') । यहाँ अगर दुनियादार, टुच्चे और धूर्त चरित्रों की भरमार है (भरमार ही है तो फिर गिनती क्या कराना!) , तो साथ में गैर-दुनियादार, मिसफिट और ईमानदार चरित्रों की एक यादगार शृंखला है ( 'बाँकेलाल' का बाँकेलाल, 'नया कुरता' का साहिल, 'काला रजिस्टर' का भैंगा, 'सुंदरी' का जहीर मियाँ, 'बड़े शहर का आदमी' का पी.के.) । इस विविधता का हर आयाम आपको संतुष्ट ही करे, यह ज़रूरी नहीं। मसलन, मुझे उनकी अधिकांश ऐसी कहानियाँ जो निरर्थक विवरणों में ही खर्च होकर जीवन की निरर्थकता का अहसास जगाना चाहती हैं, बेमानी कहानियाँ लगती हैं। जीवन की निरर्थकता का अहसास जगाना एक चीज है और खुद ही निरर्थक प्रतीत होना कतई दूसरी चीज। इसका अंतर समझना हो तो 'थके हुए' और 'विकथा' कहानियों को देख सकते हैं। 'थके हुए' दो ऐसे लोगों की बातचीत है जिन्हें 'दफ्तर काट खाने को दौड़ता है'। उनकी बातचीत का असंगत भटकाव उनकी ज़िन्दगी की रुटीनी ऊब के बारे में बहुत कुछ कहता है। वे बोरियत, प्रेम, प्रतियोगिता परीक्षा आदि के बारे में बिखरी-बिखरी बातें करते हैं। हर अनसुलझे सवाल पर दफ्तर के बाद टैक्सी से कॉफी हाउस जाकर बात करना तय करते हैं। अंततः पाँच बजने पर एक साथ दफ्तर की सीढ़ियाँ उतरते हैं और टैक्सी स्टैंड की ओर जाने के बजाये हाथ मिलाकर अपने-अपने घर की और जानेवाली बसों की 'क्यू' में जुड़ जाते हैं। कहानी के अंत तक पहुँच कर आपको लगता है कि निरर्थकता के अहसास को कहानी ने अपने अर्थ के रूप में अर्जित कर लिया है। यही बात 'विकथा' के बारे में नहीं कही जा सकती। प्रथम पुरुष वाचक के प्रलाप के रूप में चलनेवाली यह कहानी असंगत ब्योरों में भटकती हुई यूँ ही खत्म हो जाती है और आपके पास जीवन की निरर्थकता से ज़्यादा कहानी की निरर्थकता का अहसास बचा रहता है।
पर अपनी अच्छी-बुरी सभी तरह की कहानियों में रवींद्र कालिया की दो विशेषताएँ अनाहत रही हैं। एक, ऐसे ब्योरे जो ऊपरी कलई के पार देखनेवाली बेधक दृष्टि और क्षण भर में कौंध जानेवाले असाधारण प्रेक्षण की गवाही देते हैं और दो, अत्यंत परिपक्व, आयासहीन कथा-भाषा। ये दोनों विशेषताएँ उनकी निहायत औसत दर्जे की कहानियों में भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, पीछे जिस 'विकथा' का जिक्र लगभग निरर्थक कहानी के रूप में किया गया, उसका एक प्रसंग देख सकते हैं। वाचक अपने एक ऐसे मित्र की चर्चा करता है जो उससे अपनी प्रेमिका को खत लिखवाता है क्योंकि वह 'हिंदी के अतिरिक्त कोई और भाषा नहीं जानती'। वाचक कहता है:
'वह कोई विशेष हिदायत भी नहीं देता, कभी-कभी यह अनुरोध अवश्य किया करता है कि मैं पत्र ज़रा सफाई से लिखा करूँ। मैं जब उसकी प्रेमिका के पत्र उसे पढ़कर सुनाया करता हूँ तो मुझे लगता है कि लड़की मेरी प्रेमिका है, उसकी नहीं। उसमें मेरी बातों का उत्तर होता है। मेरा मित्र एक माध्यम और बाधा बनकर समाज की तरह बीच में अड़ा नजर आता है। अब तो कई बार मैं उससे बिना पूछे ही पत्र लिख दिया करता हूँ, जब कभी उदास होता हूँ या निराश या बहुत खुश।'
ऐसी अनुभूतियों, मनःस्थितियों और प्रेक्षणों के लिए कहानी में जगह निकालना रवींद्र कालिया की ऐसी विशेषता है जो उनके यहाँ लगातार मिलती है और जिनसे उनकी कहानियों की एक अपनी लय निर्मित होती है। यही उनकी कहानी-कला का स्व-भाव है। इस लय में चलनेवाली कहानी को पढ़ते हुए आप अंत के प्रति जिज्ञासु नहीं रहते। यह लय आपको शुरुआत से ही आश्वस्त किए रहती है कि पूरा सफर अपने-आपमें मानीखेज है, इसे किसी आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर अपना मानी हासिल नहीं करना है और इसीलिए इसमें अंत जैसा कुछ होना नहीं है। 'त्रास' , 'नौ साल छोटी पत्नी' , 'डरी हुई औरत' , 'इतवार नहीं' , 'दफ्तर' आदि कहानियाँ पढ़ते हुए इस बात पर गौर किया जा सकता है। हाँ, ऐसी कहानियाँ भी उनके यहाँ हैं जो अपने ढब से एक समुचित-सार्थक-बाकायदा अंत की अपेक्षा जगाती हैं, जैसे 'चकैया नीम' , 'टाट के किवाड़ों वाले घर' , 'हथकड़ी' , 'नया कुरता' , 'दादा दुबे' , 'बाँकेलाल' , 'बुढवा मंगल' आदि। इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि सफर-भले ही वह अपने-आप में मजेदार हो-कहीं पहुँचने के लिए है। तब कहानी को आँकने का आधार आपके लिए यह हो जाता है कि वह अंततः कहाँ पहुँची। कालिया जी ऐसी कहानियों में कई बार कमजोर नजर आते हैं। मिसाल के लिए, 'टाट के किवाड़ों वाले घर' के अंत पर पहुँचकर आपको लगता है कि कहानी की चाल में तो कहीं-न-कहीं पहुँचने का आश्वासन था, पर वह कहीं पहुँची नहीं। या यह कि अगर यहीं पहुँचना था, तो खा-म-खा इतना भटकाया गया! 'बुढवा मंगल' में कमाल के व्यंग्य और असाधारण प्रेक्षणों से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कहानी जिस तरह अपने उत्तरार्ध में सिलसिलेवार ढंग से एक प्रसंग के उद्विकास पर केंद्रित हो जाती है, उससे आपको लगने लगता है कि कुछ होगा, कुछ होना चाहिए, कुछ होना मँगता है। पर अंत तक पहुँचकर पाते हैं कि कुछ हुआ नहीं।
किसी कहानी में क्लाइमेक्स जैसा कुछ न होना अपने-आपमें कोई समस्या नहीं है। इस चीज पर तो पहले ही बहुत बात हो चुकी है (नई कहानी में ही कॉन्फ्लिक्ट-क्लाइमेक्स-रिजौल्युशन वाले फ़ॉर्मूले को ध्वस्त कर दिया गया था) और यह अगर अपने-आप में कोई समस्या होती तो 'नौ साल छोटी पत्नी' या 'त्रास' भी अच्छी कहानियाँ न होतीं। यह समस्या वहाँ बन जाती है जहाँ कहानी की प्रस्तुति का ढब उसके क्लाइमेक्स-शुदा होने की अपेक्षा जगा चुका होता है और वह पूरी नहीं होती। तो हम कह सकते हैं कि कहानियाँ सिर्फ़ क्लाइमेक्स-सहित और क्लाइमेक्स-रहित नहीं होतीं। कहानियाँ क्लाइमेक्स की उम्मीद जगानेवाली और नहीं जगानेवाली भी होती हैं। यह स्थितियों के साथ कहानीकार के बरताव से तय होता है। इस बरताव में अगर किसी हद तक अग्रगमन की तत्परता दिखती है-जिसे मैंने पीछे 'एक प्रसंग का उद्विकास' कहा-तो हम कहानी से क्लाइमेक्स की उम्मीद करने लगते हैं और अगर विवरण देने का धैर्य-स्थैर्य अधिक दिखता है तो ऐसी उम्मीद नहीं जगती, कहानी की रोचकता अंत की जिज्ञासा से नहीं बल्कि सफर के दौरान ही मिलनेवाली तृप्ति से तय होती है। अब अगर आप अपने हँसने पर लगाम लगा सकें तो पहले प्रकार को इपंले क्लाइमेक्स-आपेक्षी और दूसरे को क्लाइमेक्स-अनापेक्षी कहना पसंद करेगा। जब क्लाइमेक्स-आपेक्षी कहानी क्लाइमेक्स-सहित हो तो हम कह सकते हैं कि उसकी संरचना सुसंगत है। ऐसी कहानी में क्लाइमेक्स न मिले तो संरचना असंगत ठहरती है और कहानी आपको संतोष नहीं दे पाती। ऐसा ही कालिया जी की उक्त कहानियों के साथ हुआ है। मुझे कालिया जी की ऐसी कहानियों को पढ़कर खत्म करते हुए अक्सर ऐसा लगता है कि यह 'उनका चाय का प्याला' नहीं है, भले ही इस श्रेणी में भी उन्होंने 'बाँकेलाल' , 'दादा दुबे' और 'नया कुरता' जैसी उम्दा कहानियाँ दी हों। उनकी असल क्षमता वैसी कहानियों में दिखती है जिनमें कहानी किसी स्थिति-मनःस्थिति या अति-सामान्य-से दिखनेवाले कार्य-व्यापार के विवरणों में छुपी होती है। इनमें सफर खुद ही अपना मकसद होता है, कहीं पहुँचना मकसद नहीं होता और अगर सफर किसी 'खास' मुकाम पर पहुँचकर खत्म होता भी है तो कम-से-कम यात्रा के दौरान यह महसूस नहीं होता कि यह किसी मुकाम तक पहुँचने के लिए है। 'काला रजिस्टर' इसका उदाहरण है। एक पत्रिका के दफ्तर में मुख्य संपादक के अधिनायकत्व से जो दमघोंटू माहौल बना हुआ है, उसके व्यंग्यात्मक, रोचक और विश्वसनीय विवरणों से पूरी कहानी बुनी गई है और कहानी के अंत में भैंगे के साथ जो होता है, वह हमें कहानी के मुकम्मल होने की तृप्ति अवश्य देता है, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके बगैर कहानी में कोई अधूरापन होता। क्लाइमेक्स-अनापेक्षी कहानी में क्लाइमेक्स का आना उसकी संरचना को असंगत नहीं बनाता, उलटे उसमें एक अतिरिक्त आस्वाद जोड़ देता है।
विवरणों से कहानी बुनने में व्यंग्य और चुहल की मास्टरी कालिया जी के बहुत काम आती है और ये उनके असाधारण प्रेक्षण के ही उत्पाद हैं। मुझे अनेक कहानियों के अनेक प्रसंग याद आ रहे हैं, पर प्रतिनिधि नमूने के तौर पर 'काला रजिस्टर' का एक प्रसंग बताना चाहूँगा। कहानी में एक 'उप' (यानी उप-संपादक) है, छोटा। वह छाया जी से इश्क़ लड़ाता है। उसकी पत्नी पहले इस अफवाह को अनसुना कर देती है, पर एक मौका आता है जब वह अपना संतुलन खो बैठती है और 'हमेशा के लिए मैके लौट जाने पर आमादा' हो जाती है। वाचक बताता है कि 'छोटा उस दिन दफ्तर के पास-यह अंग्रेज़ी का' पास'है-से छायाजी को जैज सुनाकर लौटा था और अच्छे मूड में था।' जब झगड़ा बढ़ जाता है तो वाचक कहता है, 'छोटा जैज सुनकर लौटा था और इन सब के लिए तैयार न था।' बीवी घर छोड़कर जाने लगती है और बच्चे रोने लगते हैं तो वाचक कहता है, 'छोटा जैज सुनकर लौटा था, उससे यह सब देखा न गया।' इस पूरे प्रसंग में छोटे के जैज सुनकर लौटे होने का बार-बार हवाला कमाल का व्यंग्य निर्मित करता है। जो चीजें अच्छे 'टेस्ट' की समझी जाती हैं, उनके प्रति सुविधाहीन मध्यवर्ग का दिखावटी राग, जिसका दिखावा वह दूसरों के सामने ही नहीं, खुद अपने सामने भी करता है, इस प्रसंग में सिर्फ़ 'जैज सुनकर लौटा था' के दुहराव से व्यंजित हो जाता है।
तीखी निगाह के ऐसे 'ऑब्जरवेशंस' आपको कालिया जी की कहानियों में हर जगह मिलते हैं, चाहे वह उनकी सशक्त रचना हो या अशक्त। इसीलिए वे खासे पठनीय कहानीकार हैं। आज के कहानीकारों के लिए तो उनकी कहानियाँ प्रशिक्षण-पाठ हो सकती हैं, बस यह विवेक जाग्रत रहना चाहिए कि उनके यहाँ क्या ग्राह्य है और क्या त्याज्य!