कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी की एम.ए. परीक्षा / रामचन्द्र शुक्ल
देशी भाषाओं की उच्च शिक्षा और देशी भाषाओं द्वारा उच्च शिक्षा दोनों की आवश्यकता अब लोग समान भाव से समझने लगे हैं। पहले तो आवश्यक यह है कि देशी भाषा और उसके साहित्य का प्रौढ़ ज्ञान शिक्षा द्वारा कराया जाय। इसके पीछे फिर जिन भिन्न विषयों को अंगरेजी आदि विदेशीय भाषाओं के द्वारा सीखाते हैं उन्हें देशी भाषाओं द्वारा ही सिखाने की व्यवस्था की जाय। ये दोनों बातें जरूरी हैं।
इनमें से पहली बात तभी हो सकती है जब जो या जितना कुछ साहित्य विद्यमान है वह व्यवस्थित कर दिया जाय। हिन्दी को ही लीजिए जिसमें कहने को पुराना साहित्य बहुत कुछ है। हिन्दी का पंडित होने के लिए इस साहित्य की जानकारी पूरी होनी चाहिए। बात पड़ने पर तो हम चन्द, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी, घनानन्द इत्यादि के नाम एक साँस में ले जाते हैं पर यदि कोई पूछे कि सूर, जायसी आदि की शुध्द प्रतियाँ कहीं छपी हैं, उनके ऐसे संस्करण कहीं निकले हैं जिनमें निर्णीत पाठ हों, कठिन और गूढ़ स्थलों की व्यांख्याथ आदि हो तो नहीं के अतिरिक्त कोई दूसरा उत्तर सोचने में समय व्यर्थ जाएगा। अब तक तो सरकारी शिक्षा पध्दति में साहित्य कोटि के ग्रन्थों को स्थान ही नहीं रहा है। इससे ऐसे ग्र्रन्थों को समझने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है। जब तक विद्वानों द्वारा इनके पठन पाठन के मार्ग की बाधाएँ न दूर की जाएँगी, इनके शुध्द और अच्छे संस्करण न उपस्थित किए जाएँगे तब तक जितने अध्यापकों की आवश्यकता होगी उतने अध्यापक तक नहीं मिल सकते।
अब रह गया हिन्दी का नया साहित्य, यह अभी थोड़े ही दिनों का है और ऐसी हड़बड़ी में पड़ा हुआ है कि जो लेखक हैं वे स्थिर चित्त होकर अपनी अपनी लेखनी के लिए अलग अलग मार्ग ही नहीं निर्दिष्ट कर सकते। कभी इधर लपकते हैं कभी उधर-जिससे पूर्णता और परिपक्वता नहीं आने पाती है। सच पूछिए तो हिन्दी में उच्च कोटि का साहित्य अभी नहीं है। केवल पुराने कवियों के बल पर हम कहाँ तक कूद सकते हैं? पर साहित्य अभी अथेष्ट नहीं है इसलिए जो कुछ है उसकी पढ़ाई भी मुल्तवी रखी जाय यह ठीक नहीं। शिक्षा के अधिक प्रचार से साहित्य की भी वृध्दि होगी। बड़े हर्ष की बात है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय ने देशी भाषाओं का महत्तव स्वीकार किया और उनमें एम. ए. की परीक्षा खोली। इस व्यवस्था के अनुसार वहाँ हिन्दी को भी एम. ए. तक का स्थान मिला। देखतें, प्रयाग विश्वविद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय कब इस ओर ध्यान देते हैं।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, सन् 1919 ई.)
[ चिन्तामणि: भाग-4]