कलाकार की सामाजिक पृष्ठभूमि / अमृतलाल नागर
कलाकार अपने युग के साथ अवतरित होता है और उस युग के लिए ही उसकी हस्ती निछावर होती है। यह बात दूसरी है कि उसकी कला-सिद्धि के कारण मानव समाज युग-युग तक उसकी 'न्यौछावर' पर बलिहार होकर अपना विकास करते हुए कलाकार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता रहे।
विक्रमी संवत् 1956 दो दृष्टियों से उल्लेखनीय है। उस वर्ष मारवाड़-आगरा तक अकाल फैला था। उस अकाल की मर्म-व्यथा को चाहे आज हम पौने दो सेर का गेहूँ खाते हुए पूरी तौर पर न समझ पाएँ, परंतु उस समय रुपये का पाँच सेर गेहूँ खुद खाकर तथा पंद्रह सेर का भूसा अपने ढोरों को लिखाकर मनुष्य घोर कलयुग के आगमन से त्राहि-त्राहि कर उठा था। आगरा की एक बुढ़िया माई से मुझे छप्पनिया अकाल पर जोड़े गए गीत का वह अंश भी एक बार सुनने को मिला था :
आयो री जमाईड़ो ध्सक्यो जीव; कहाँ से लाऊँ मैं शकर घीव- छप्पनिया अकाल फेर मती आइजो म्हारी मारवाड़ में।।
संवत् 56 में ही मंगलपुर ग्राम में कलाकार भगवती प्रसाद वाजपेयी का जन्म हुआ। अपढ़ किसान का बेटा मातृकुल की सरस्वती से वरदान पाकर बढ़ा, और आगे चलकर उसने अपना सारा जीवन माँ सरस्वती के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया। वाजपेयी के कलाकार बनने के पीछे भी अनुभवों का लंबा-चौड़ा इतिहास है। सात वर्ष की आयु में मामा का स्वर्गवास हो जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई को बुजुर्ग बनना पड़ा। भगवतीप्रसाद हिंदी मिडिल से आगे न पढ़ पाए। आवश्यकतावश घर के गाय-भैंस, बैल, बकरियाँ खलिहान में दाँए और उड़नई का काम किया; पैसों की थैली लादकर गाँव की साहूकारी की; उसके बाद गाँव के प्राइमरी स्कूल की अध्यापकी की, शहर की लाइबेरी में पंद्रह रुपये मासिक पर लाइब्रेरियन रहे; किताबों का गट्ठर कंधे पर लादकर बेचा, बीवी के गहने बेचकर दुकानदार बने, चोरी हो गई; बैंक की खजांचीगिरी के अपरेंटिस हुए; कंपाउंडर बने; प्रूफरीडर बने; सहकारी संपादक हुए; फिर संपादक बने। रोटी की लड़ाई, में एक साधारण सिपाही बनकर वे आए, और भारतीय जन-समाज के नामी जनरलों में उनका स्थान है। लगभग तीन सौ कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास, नाटक, निबंध, काव्य, कोर्स की किताबें, रेडियों वार्ताएँ, फिल्म के कथानक-संवाद लिखकर इस अपढ़ किसान के बेटे ने कितना नाम कमाया है! वाजपेयी हिंदी साहित्य-सम्मेलन की साहित्य परिषद् के सभापति होने के गौरव भी प्राप्त कर चुके हैं और आज हिंदी माता की ओर से उनका अभिनंदन हो रहा है।
लेकिन वय और साहित्य क्षेत्र में अग्रज, अपने इस आदरणीय मित्र का सविनय-सप्रेम अभिनंदन करते समय यह बात मेरे भुलाए नहीं भूलती कि प्यारे 'भ.प्र.वा.' जी सब मित्रों-प्रशंसको के अभिनंदनों को ताज पहन लेने के बाद भी जस-के-तस ही रहेंगे - उनके छत-फोड़ कहकहे, बात-बात में जोर-जोर से 'खूब-खूब, धन्य-धन्य!' कहने की आदत बदलकर उस संजीदगी का रूप हरगिज धारण न कर सकेगी, जिसे ऐसी हालत में कोई पैदायशी मिडिल क्लास-वाला शायद बाआसानी ओढ़ लेता। यह विशेषता-सरलता वाजपेयी को मंगलपुर से ही मिली। भारत देश अपने मंगलपुरों में ही अधिक रहता है; बंबई, दिल्ली, कानपुर में बहुत कम।
बीसवीं शताब्दी वाजपेयीजी को हमउमर है। रोटी के लिए कठिन संघर्ष करने वाले कलाकार का इतिहास ही बीसवीं सदी का भी इतिहास है। तिरेपन बरस पहले से आज तक के शहरी समाज के विकास का नक्शा देखते हुए जब हम कलाकार के संघर्ष और उनकी साहित्य-सृष्टि को देखते हैं तब उसकी हार-जीत, दोनों ही की कीमत का सही-सही अंदाज लगता है।
उन्नीसवीं शताब्दी की अंतिम दशाब्दि से ही जमाना काफी तेजी से बदलने लगा था। शहरों में अंग्रेजी स्कूल हो गए थे, क्लर्की का चलन काफी हद तक फैल चुका था; हिंदुस्तानी घरों में गोरी-काली मिशनरी में जाकर हमारी पुरखिनों को साक्षर और प्रभु यीसू की भेड़ बनाने का भरसक प्रयत्न करने लगी थीं। गदर में बुरी तरह से कुचले जाने के बाद से भारतीय प्रजा आमतौर पर अंग्रेजों से दब गई थी। जन-समाज में यह विश्वास प्रचलित था कि मल्का विक्टोरिया त्रिजटा राक्षसी का अवतार है तथा सीताजी के वरदान से उनका और उनके वंशजों का भारत पर अटलछत्र राज्य रहेगा। 'जी हुजूरी' समाज के अभिमान की वस्तु बन गई थी। जो जितना बड़ा जी हुजूर होता था, उसका समाज में उतना ही बढ़-चढ़कर आदर होता था।
उस समय अंग्रेज भारत का ब्राह्मण था। अंग्ररेजियत हमारा आदर्श थी और अंगरेज का वतन हमारा आदर्शलोक बैकुंठ था। जो विलायत पास कर आता था, वह स्वर्गदूत की तरह आता जनता के बीच, सिक्कों में गिन्नी और नगों में हीरा-मानिक बनकर, अंगरेज सरकार की छत्र-छाया में अपने-आपको प्रतिष्ठित करता था। यद्यपि यहाँ के रूढ़िवादी समाज में उन्हें हर अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। मैंने इस संबंध में बड़े ही मजेदार किस्से इकट्ठा किए हैं। एक 'पंडत साहब' ने पूरी कश्मीरी ब्राह्मण बिरादरी को बिरादरी से बाहर निकाल दिया था, क्योंकि उन्हें शक हो गया था कि विलायत पास पंडित विशननारायण दर के समर्थक 'बिशन-सभाई' बिरादरी के हर घर में हो गए हैं। अपने कुल को पवित्र रखने के लिए उन्होंने अपनी लड़कियों को आजन्म कुँवारी रखाना कबूल किया, पर बिरादरी से खान-पान और रक्त संबंध स्थापित करना कबूल न किया। स्वयं मेरी बुआ अपने इकलौते भाई, मेरे पिता के विवाह के अवसर पर सम्मिलित होने से रोक दी गई थी; उनके जेठ विलायत हो आए थे और प्रायश्चित भी नहीं किया था। इसलिए उन्हें यह दंड भोगना पड़ा। हमारी बिरादरी की आगरा निवासिनी एक जन-दादी - सरस्वती दादी - की बातों से मालूम पड़ा कि मेरी बुआजी के जेठ डॉक्टर पंड्या ने पंचो पर सिरकार से कहकर मुकद्दमा चलवाया कि हमें जात बाहर कर दिया है। उस बखत में आगरा हमारीज जात में 'हैड कलेक्टर' था। चारों ओर चिट्ठियाँ पड़ जाती थीं। जो आगरा से चिट्ठी जाए, वो सबको मंजूर। मुकदमा चला तो आगरा से सब जगै चिट्ठी पड़ी। सो सब लोग गुस्सा हो गए कि चाहे पंचों को हथकड़ियाँ पड़ जाएँ या कुछ हो, मगर जात में तो नहीं ही लेंगे। फिर सिरकार ने पंचों को हथकडियाँ नहीं डाली।
यों उक्त डॉक्टर साहब 'जात-निकाले' के संबंध में भले ही पंचों से मुकद्दमा हार गए हों, मगर काशी के एक प्रतिष्ठित और धनाढ्य कुल ने इसी विलायत-गमन के मामले में प्रिवी काउंसिल तक केस लड़कर अपनी बिरादरी के पंचों की चीं बुलवा दी थी। अंत में बिरादरी चंदा देते-देते हार गई, और उसका चौधरी अपनी निजी संपत्ति भी इस सामाजिक केस के निमित्त फूँककर कँगला हो गया।
इस तरह धन, कुरसी, डॉक्टरी और बैरिस्टरी की शक्ति ने उस समय प्रगतिशील बनकर उस प्रतिक्रियावादी समाज को परास्त कर दिया जिसने (इतिहास के लिए भी) अनजाने काल से समुद्र लाँधने से रोक रखा था।
जिस समय कलाकार भगवतीप्रसाद मंगलपुर ग्राम में अपना संघर्ष भरा बचपन बिता रहें थे, उस समय शहरों में नए पढ़े-लिखे वर्ग की सामाजिक और राजनैतिक जागृति हो रही थी। अंगरेज आक्राओं की खूबियाँ निरखते-निरखते जब-जब 'पढे-लिखे' लोग अपने समाज और धर्म (अर्थात वह सब खुराफात जो इस शब्द के साथ उस समय प्रचलित था और काफी हद तक अब भी है) की बुराइयों को देखते, तो अपने अंदर शर्म, घृणा, चिढ़ और क्रोध महसूस करते थे। यह सब महसूस करते हुए भी उस समय तक उन धार्मिक, बुराइयों के विरुद्ध बगावत करने की बात उनके सपने तक में नहीं जाती थी। हाँ, हर जाति के पढ़े-लिखों - नए बनते हुए मिडिल क्लास ने - अपनी-अपनी जातियों की क्लब सभाएँ खोलकर सुधार-चर्चा आरंभ कर दी थी। पुराने समाज और इस नए पढ़े-लिखे समाज को जो अत्यंत घरेलू और मानसिक संघर्ष विदेशी शासकों की भाषा, विज्ञान, साहित्य और संस्कृति की टक्कर से उस समय उत्पन्न हुआ था, वह उस नए भारत का भी अंकुर था, जो आज की फैली हुई घोर राजनैतिक, नैतिक और सांस्कृतिक अराजकता के बावजूद मानव हृदय के घने छायादार और विशाल वृक्ष की तरह बढ़ रहा है; जिसके नीचे बैठकर आज के तपते अहंकार से त्रस्त दुनिया कल विश्राम पाएगी। कलाकार वाजपेयी ने संस्कार रूप में अपने बचपन के वातावरण से ही सही प्रेरणा लेकर इसी वृक्ष को सींचा है। उन्होंने सचमुच इनसान का दिल पाया है।
स्वदेशी आंदोलन, श्री अरबिंद और लाल-बाल-पाल की त्रिपुटी ने देश के इस मध्यम वर्ग को झिंझोड़ कर जगाया । रामानुजम, सी.वी. रामन; जगदीश बसु आदि के वैज्ञानिक अन्वेषण तथा रवींद्रनाथ की नोबुल प्राइज विजय और रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, दयानंद, भारतेंदु, बंकिम, नर्मद, आदि महर्षियों का योगबल गौरांग प्रभुओं की तुलना में अपने को अत्यंत हीन और निकम्मी, क्लर्की के सिवाय और किसी काबिल न समझने वाली भारत की पढ़ी-लिखी टॉनिक बनी।
इस तरह जिस समय देश का शहरी समाज, बढ़ने वाले आर्थिक संकटों के बावजूद नई चेतना की शक्ति लेकर आगे बढ़ रहा था, उसी समय देश का ग्रामीण अपनी निरक्षरता और कूप-मंडूकता के कारण इस नए प्रकाश से वंचित रहकर घोर आर्थिक संकट के कारण क्रमशः टूटता चला जा रहा था। अंगरेजों के आने से पहले तक हमारे गाँवों ने चाहे और कितने ही संकट झेले हों, पर विषय आर्थिक संकट से कभी उसका सामना नहीं पड़ा था। यह बात नहीं कि अंगरेज से पहले के भारतीय गाँवों में गरीब होते थे, होते थे; पर गरीबी के कारण किसी को अपने बाल बच्चों के साथ कभी भूखों नही मरना पड़ा। परंतु बालक वाजपेयी के जमाने में बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक क्रांतियों के बावजूद अंगद के चरण की तरह डटे रहने वाले भारतीय लड़खड़ा चुके थे। नया जमाना गाँवों में भी अपनी चाल चल रहा था। संपन्न किसान पटवारियों के बेटे शहरों में पढ-लिखकर बाबू बनने के लिए आने लगे थे। आर्थिक नाग-पाश से मुक्त होने के लिए बहुत से लोग बंबई, कलकत्ता, अहमदाबाद, मद्रास आदि की मिलों में जाकर मजदूर हो गए। बहुत से लोग दूसरे आस-पास के शहरों में जाकर पल्टल के सिपाही, दफ्तरों के चपरासी, पुलिममैन, गुमाश्ते, टहलुये, रसोइए, पानी-पांडे, चौकीदार या छोटे-मोटे फेरी वाले सौदागर बन गए। रोटी की कशमकश ने हमारे कलाकार वाजपेयी को क्या-क्या नहीं बनाया?
यहाँ एक बात खासतौर से ध्यान से देने योग्य है। गाँव से शहर में आया हुआ कुलीन ब्राह्मण, ठाकुर तथा इतर हीन कहलाने वाली जातियों के लोग एक नए मजदूर वर्ग के सदस्य होकर बराबर की सतह पर आ गए थे। बहुधा यह भी होता कि हीन जाति के लोग कुलीन जाति लोगों के अफसर (मजदूरियत की चौहद्दी के अंदर ही) बनकर ऊँच-नीच का एक नया मापदंड स्थापित करते थे।
नए आर्थिक ढाँचे ने ब्राह्मण की सनातन-काल से चलती आई हुई - बपौती -पुरोहितडम - की कुतुबमीनार को ढाना शुरू किया। ब्राह्मण कुली बना, दूधवाला, गाड़ीवान, रसोइया, बनिया, चपरासी, गुमाश्ता, अत्तार, सिपाही बना और बकौल शरत बाबू के बाबूओं का 'कंबाइंड हैंड' बनकर कहीं-कहीं तो वह मालिक के जुते साफ करने और जूठे बर्तन माँजने तक का काम करने लगा था। नए आर्थिक ढाँचे के समाज में - जो धनी और निर्धनों के बीच एक मिडिल क्लास बनकर खड़ा हुआ था - ब्राह्मण की पोजीशन अजब कार्टूनी किस्म की हो गई। इस आर्थिक ढाँचे में खुद ब्राह्मण-ब्राह्मण में ही गहरी खाई खुद गई। सत्ताधारी मिडिल क्लास का ब्राह्मण स्वयं अपने - निर्धन-निरक्षर भाई-बिरादर को हिकारत से देखने लगा। यह सब होत हुए भी निर्धन, निरंतर, 'कंबाइंड हैंड' ब्राह्मण पंडित और महाराज की पदवियों से विभूषित रहा। कनागतों में उसका भाव कुछ बढ़ जाता था। मंसापूजी और दान-दक्षिणा देने के सिलसिले में इन 'कंबाइंड हैंडों' के मालिकों का यह रुख रहता था कि "अरे बेचारा ब्राह्मण है। इसे कुछ दे दों; पुण्य होगा।" यह पुण्य प्रदान करने की क्षमता रखना ही निर्धन-निरक्षर भट्ट-पंडित महाराज के कुचले-कुचले अहं को संतुष्ट रखना था। उसे मालिक से सुअर, डैमफूल आदि सुनने की आदत शुरू-शुरू में तो कुछ खल कर ही पड़ी, पर बाद में गोरे-काले साहबों के बूटों की ठोकरें तक खाकर 'आसिरबाद' देने का अभ्यास उसे बड़ी अच्छी तरह से हो गया था।
इस तरह ब्राह्मणत्व और कुलीनता का पुराना मापदंड टूट गया और उसके स्थान पर अंग्रेजी पढ़े-लिखे पर तथा उससे भी अधिक पैसे की ऊँचाई-निचाई ही इस देश में नई मान-दंडिका बनकर सर्वत्र पुजने लगीं।
ब्याह-शादी रिश्तों तक में शहर के (गाँव छोड़े हुए) पढ़े-लिखे अफसरों-क्लर्कों ने गाँवों से प्रायः नाता तोड़ दिया। गाँव के रिश्तेदार, अनपढ़ और गरीब माँ-बाप तक उनकी 'बिरादरी' से निकल गए। यही भेद शहरों के मुहल्ले से सिविल लाइन्स में जा बसने वाली रिश्तेदारियों में पढ़ने लगा। पति-पत्नी में भेद पड़ गया। बौद्धिक छोटाई-बड़ाई घर-घर की अहम समस्या बन गई।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही पश्चिमी विज्ञान की नई-नई करामातें औसत मध्यवर्गीय घरों में भी तेजी से पहुँचने लगी थीं। तेल के दीपक के स्थान पर मध्यवर्ग के जिस घर में लालटेन आ जाती थी, वह बड़ी शान का समझा जाता था। सिलाई की मशीनें, घड़ी साइकिल, मोटर, गैस के हंडे, आर्गन-बाजे यह सब उस जमाने में लोगों की जहनियत में समाने लगे थे। सन 1912 में इलाहाबाद में होने वाली प्रदर्शनी ने लोगों के दिलों और दिमागों पर गहरा असर डाला था।
नए जमाने से गहरा झकोला खाकर समाज अपनी सनातन कमजोरियों के साथ नए सुधारों का जहाँ तक समझौता कर सकता था, करने लगा था। आर्यसमाज ने देशी समाज पर गहरा प्रभाव डाला।
इन सब प्रभावों से नए-नए फैशन प्रचलित हुए। महाशयजी और नमस्ते शब्द चलन में आए। जय शंकर, जय राम, जय श्रीकृष्ण, जय बजरंगी, पालागन-दंडवत वगैरह मुहल्ला-समाज के सुधारक वर्ग को पुरानी जँचने लगीं। नमस्ते के साथ-साथ गुडमार्निंग का भी जाबेला इस्तेमाल होने लगा। लड़कों में अंग्रेजी मिश्रित हिंदी (या अपनी-अपनी प्रादेशिक मातृ-भाषा में) बोलने का रिवाज हुआ। चूँकि उन दिनों स्कूलों में अंग्रेजी में बातचीत करने पर अधिक जोर दिया जाता था, इसलिए जो लड़के फराफर अंग्रेजी बोल लेते थे उनकी बड़ी धूम मचती। यह देखकर 'जैराम-जैसी-किस्न' वाला गर्व भी चलने लगा। उसके पिता ने राष्ट्रीय स्वाभिमान वश होकर उसे म्लेच्छ भाषा नहीं पढ़ने दी थी, परंतु वह अब नए जमाने के प्रभाव में अपने लड़कों को अंग्रेजी पढ़ाने का पक्षपाती हो गया था। उस जमाने में मिडिल पास की बड़ी वकत थी। मैट्रिक छोड़ बी.ए. पास तक जनसाधारण की दृष्टि में मिडिल पास से बड़े न थे। लोगबाग बी.ए. पास वालों से पूछ बैठते थे - "अर्मी एमे.बी.ए. किया सो ठिक, मगर अभी तक मिडिल पास किया या नहीं?" औरतों ने गीत तक जोड़ लिए थे - "औरतों ने गीत तक जोड़ लिए थे - सैयाँ हमारे मिडिल पास अंग्रेजी बिगुल बजाते हैं।" हमारे भ.प्र.वा. उसी जमाने के मिडिल पास हैं - हालाँकि उन्होंने अपने जीवन को सार्थक बनाने में जो प्रबल निष्ठा 'पास' की है, उसके आगे सारी डिगरियाँ हेय हैं।
औरतों में भी गोटे-पट्ठे की साड़ियों का रिवाज धीरे-धीरे उड़ने लगा; पारसी साड़ियोंयों का फैशन चला। पैरों में कलकतिया स्पीपरें, मोजे, रेशमी रूमाल भी फैशन में आ गए। पत्तियों की दुपत्तियाँ, चौपत्तिया माँग निकलने लगीं। सलूके की जगह जंपर ने ले ली। जंपर में भी नए-नए तरीके के गले और बहों की काट आ गई। गहनों में नेकलेस (बोलचाल में नेकलस, निकलिस, नेकलेट आदि)का माहात्म बढ़ा; इसी तरह इयरिंग (ऐरिंग, ऐरन), डायमंड-कट (डामर-काट, डामल) आदि गहने फैशनेबुल चर्चा का विषय बने। धीरे-धीरे तमाम किस्मों के पुराने गहनों का चलन बद हुआ। यद्यपि अब फिर कुछ पुराने गहने चलन में लौटा आए हैं।
जमाना और बढ़ा तो मुहल्लों की लड़कियाँ स्कूल जाने लगीं। सिविल लाइन्स की बाज-बाज लड़की कालेज को पहुँचने लगी। शादी में पढ़ी-लिखी लड़कियों की माँग होने लगी, लड़की की फोटो देखने का हठ लड़कों में बढ़ा। दूल्हे सूट पहनकर घोड़े पर बैठने लगे। लड़कों को जरी की कामदार टोपियों से चिढ़ हो गई। कुछ रईस बच्चे असली और बाकी नकली फैल्ट कैप पहनने लगे। सिर पर खस-खसी, पट्टेदार बालों के बजाय अंग्रेजी फैशन के बाल आ गए। यह सब नए चलन समाज में आ तो गए; परंतु उस काल की पूर्व सूचना के रूप में, जो काल पहली लड़ाई के दौरान में और उसके तुरंत बाद - आने वाला था। रहा मूँछ पुराण, जो खासतौर पर दूसरी दशाब्दी में तेजी से बढ़ा, सो उनके माहात्म्य कहाँ तक बखानूँ? देश में अगर कोई मुछ-मुंडन इतिहास बटोरने को निकले, तो नोट्स के इतने कागज जमा हो जाएँगे कि उस इतिहासकार के कमरे में या तो वह खुद ही रहेगा या उसके नोट्स रहेंगे। कहने का मतलब यह है कि जिस देश में मूँछ के बाल गिरवी रखकर हजारों रुपये कर्ज में मिल सकते हों, उस देश में यह कहर बरपा हो जाए कि मूँछ नदारद हो जाए! महाकवि अकबर उस जमाने के हिंदुस्तानी वालिद-बुजुर्गवारों के जी की बात कह गए हैं :
कर दिया कर्जन ने जन मर्दों की सूरत देखिए। इब्तिदा दाढ़ी से की और इंतेहा में मूँछ ली।।
मगर इन सब परिवर्तनों से हुआ क्या? नए-पुराने पेशों का हेर-फेर हुआ। पुराने पेशों के जानकार बेकार होकर बाल-बच्चों सहित भूखों मरने लगे। यहीं तक नहीं, अब तो पढ़े-लिखों के लिए भी बेकारी की समस्या सामने आ गई थी। बीसवीं सदी के पहले दस वर्षों में पिछली सदी की दो दशाब्दियों की अपेक्षा पढ़ा-लिखा वर्ग कहीं अधिक तेजी से बढ़ा। आगे भी पढ़ा-लिखा तबका तेजी से बढ़ा और बराबर बढ़ता जा रहा है। अपने 'क्लाइमैक्स' पर पहुँच जाने वाली आज के शिक्षित वर्ग की बेकारी अपनी विकरालता का प्रथम परिचय नगरनिवासी 'जेंटिलमैन' समाज को देने के लिए, पहली लड़ाई से पहले ही आ गई थी।
इस जगह, क्षण-भर रुककर एक बार हम पीछे की तस्वीर को दुहराकर देख लें। अंग्रेजों के आने से पहले नगर और ग्राम अपनी-अपनी आर्थिक चौहद्दी में सुरक्षित, खाते-पीते मस्त थे। गरीबी-अमीरी का भेद था; अमीरों द्वारा गरीब सताए भी जाते थे; सूदखोरी, मुनाफाखोरी भी होती थी - यह सब होते हुए भी कोई भूखा नहीं मरता था; क्योंकि इन नगरों और गाँवों में रहने वाले आमतौर पर प्रत्येक जन को काम अवश्य मिल जाता था। इसके दो कारण थे : एक तो हमारी सांस्कृतिक परंपरा के प्रताप से निरंकुश सामंतों और सूदखोर महाजनों का यह धार्मिक कर्त्तव्य हो जाता था कि वे किसी को भूखा न रहने दें; दूसरे हमारे उद्योग-धंधे वैज्ञानिक साधनों के प्रभाव में छोटे पैमाने पर थे। इसलिए मुनाफे का पेटा भी अधिक फैला हुआ न था।
फिर अंग्रेज आए। ये लोग कोरे सम्राट न थे, बनिए भी थे। बड़े-बड़े उद्योग-धंधे चलाने के लिए इन्हें शहरों की जरूरत थी। हिंदुस्तानी बनिया भी सूदखोरी और छोटे औद्योगिक क्षेत्र से निकलकर वैज्ञानिक युग का उद्योगपति बना। इन देसी-विलायती बनियों को चूसने के लिए गाँव गन्ने के समान जान पड़े। अंगरेजों के आने पर भारत के इतिहास में शायद पहली बार गाँवों की स्वतंत्र स्थिति नष्ट हुई। गाँव नगर के जरखरीद ग़ुलाम बन गए। गाँव उजड़ने लगे, शहरों की रौनक बढ़ी। शहरों में रहने वाला अफसरवर्ग, व्यवसायी वर्ग और 'पढ़ा-लिखा' वर्ग तीनों बड़े खुशहाल थे; किंतु ज्यों-ज्यों पढ़ा लिखा वर्ग बढ़ता गया त्यों-त्यों शहरों में भी बेकारी फैलने लगी। इस तरह नए आर्थिक ढाँचे में ढलने वाले समाज में पहली बार प्रायः समान रूप से सार्वभौमिक बेकारी बढ़ी। देश में जागने वाला राजनीतिक आंदोलन इस बेकारी से बल पा रहा था।
इसी अवसर पर पहला महायुद्ध आया। बेकारी की समस्या अस्थायी तौर पर हल हुई। मगर उन महायुद्धों से - जो प्रबल राष्ट्रों द्वारा अपने-अपने उद्योग-धंधों के लिए बाजार बनाने के वास्ते, अपनी मुनाफाखोरी का पेटा बढ़ाने के वास्ते किए जाते हों - मानव की मौलिक समस्याएँ कभी हल हो ही नहीं सकतीं। यह हम दो महायुद्धों के अनुभव से भली-भाँति जान गए हैं। गांधी के नेतृत्व में होने वाला भारतव्यापी महान जन-आंदोलन पहले महायुद्ध के कारण रोज-ब-रोज बढ़ने वाली महँगाई, बेकारी, गरीबी, भुखमरी का नाश करने के लिए ही आया था। दूसरे महायुद्ध के बाद विलायती बनिया तो रोग-अकाल पीड़ित नंगी भारतीय जनता के तेज से तपकर भाग खड़ा हुआ; और अब हमारा देसी बनिया सींग-पूँछ फटकार कर जनता का बल-वैभव तथा अपनी निरंकुशता, नृशंसता का अंत देखने के लिए तैयार हो रहा है।
छप्पनिया अकाल की पृष्ठभूमि में जन्म लेने वाला मंगलपुर का हीरो नगर में आकर, मिंडिल क्लास का अंग बनकर उन सभी अच्छी-बुरी मान्यताओं से टकराया है जो इन तिरेपन वर्षों से इस देश पर छा रही हैं। वाजपेयी रोमांटिक कहानियों के प्रणेता हैं, यह सही है; पर न तो उन्होंने सस्ती छिछली भावनाओं को बढ़ावा दिया है और न वे कभी समाज की कुरीतियों तथा राजनीति की कुरीतियों से गाफिल रहे हैं। उन्होंने दहेज प्रथा की हृदयहीनता का चित्रण किया है, पतिता कहलाने वाली स्त्रियों का उज्ज्वल पक्ष दिखलाकर पाठकों के हृदय में उनके लिए सहानुभूति जगाई है। बापू की छत्र-छाया में होने वाले जन-आंदोलन की तस्वींरें पेश की हैं और मजदूरों, भिखमंगों को भी अपने साहित्य का हीरो बनाया है।
इतने पापड़ बेलने के बाद, चौवन वर्ष की आयु तक पहुँचकर भी मेरे महामना कलाकार भ.प्र.वा. ने कभी सुख-चैन की रोटी नहीं खाई। इस अपढ़ किसान के बेटे का साहित्य-दान बड़े-बड़े धनाधीशों के लाखों के दान से कई लाख गुना अधिक मूल्यवान है।
ऐसे अटूट लगने वाले चौवन बरस के नौजवान कलाकार को मेरे शत्-शत् प्रणाम् !