कलाकार / शोभना 'श्याम'
अरे! ये तो लड़का तो बिलकुल निशांत जैसा लग रहा है, बल्कि निशांत ही तो नहीं ... हाँ-हाँ पक्का निशांत ही है। मगर ये यहाँ ...इस तरह।? दिल जैसे यकीन नहीं करना चाह रहा था। उसने आँखों से पूछा, "तुमने ग़लत तो नहीं देखा न?"
"लो भला! अब हम निशांत को नहीं पहचानेंगी क्या, इतनी कम भी नहीं हुई हमारी रौशनी।"
"लेकिन निशांत होता, तो नमस्ते करने की बजाय ऐसे आँख चुराकर अंदर क्यों चला जाता।"
"आँख चुरा कर ही न, अगर कोई और होता तो आँख क्यों चुराता। जाहिर है, वह तुम्हारे सामने इस स्थिति में असहज महसूस कर रहा है।"
"अ... हाँ सो तो है, पर क्या तुम्हें नहीं याद? कितना प्रतिभाषाली था यह?" दिल ने सीधे मुझसे सवाल किया।
" हाँ, हाँ, सब याद है, चार साल पहले मेरी नेशनल ओपन स्कूल के बारहवीं के छात्रों के लिए ड्राइंग पेंटिंग की क्लास लेने की ड्यूटी लगी थी। कुल अट्ठारह छात्रों में निशांत की न केवल ड्राइंग ही सबसे बढ़िया थी बल्कि उसकी कल्पना-शक्ति भी अद्भुत थी, साथ ही इतना जहीन भी कि उससे किसी भी विषय पर बात की जा सकती थी। ड्राइंग पेंटिंग की कोई भी तकनीक हो, वह मिनटों में सीख लेता था। बेशक गरीबी के चलते पिता के काम में हाथ बँटाने के कारण वह नियमित कालेज में नहीं जा पाया था लेकिन हौंसले बुलंद थे उसके।
"मैम! आप पहले क्यों नहीं मिली मुझे?"
"क्यों, उससे क्या होता?"
"अब तक तो मैं एम.ऍफ़ हुसैन की तरह बड़ा आर्टिस्ट बन जाता। ...खैर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप देखना, मैं हुसैन जी जैसा नहीं तो खूब बड़ा आर्टिस्ट ज़रूर बनूंगा और सबको बताऊँगा कि आपने सिखाई है मुझे पेंटिंग। ... यहाँ की क्लास खत्म होने के बाद भी आप अपने घर पर मुझे सिखाएंगी न मैम, हाँ मैं फीस ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा।"
"तूने बताया था न, तू चाय बहुत बढ़िया बनाता है, तो बस! हर क्लास में तू मुझे बढ़िया-सी चाय बना कर पिलाना। यही है मेरी फ़ीस।"
ठीक है नन्हे बच्चे-सा किलक उठा निशांत। एन.ओ.एस की परीक्षा के बाद कुछ दिन तक तो निशांत पेंटिंग सीखने मेरे घर आता रहा फिर उसने आना बंद कर दिया। मैंने उसके दिए किसी पडोसी के नंबर पर फोन मिलाया तो पता चला उसका परिवार वहाँ से जा चुका है। एक अफ़सोस-सा रहा कि उसको कई चीजें नहीं सिखा पाई, लेकिन ये विश्वास भी था कि उसने बिना सीखे भी स्व-अभ्यास से बहुत कुछ सीख लिया होगा। अभी आर्टिस्ट भले न बना हो लेकिन उस डगर पर ज़रूर चल पड़ा होगा, लेकिनआज यहाँ ऐसे...? तभी दुकान के मालिक के आवाज देने पर निशांत को वहाँ आना ही पड़ा और साथ ही मुझे नमस्ते भी ।
"निशांत! तुम यह काम ...?"
"मैडम! हमने यही तो कहा था, हम पेंटर बनेंगे ...अब कैनवास पर हो या दीवार पर, कहलाती तो पेंटिंग ही है न?"
मेरी आँखों में कई प्रश्न, दो बूँद और एक अफ़सोस छोड़ वह फिर अपने काम में मशग़ूल हो गया।