कलाकृति और आलोचना की मर्यादा / निर्मल वर्मा

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एक अच्छी आलोचना हमें क्यों उद्वेलित करती है? इस प्रश्न को थोड़ा बदल कर इस तरह भी पूछ सकते हैं कि एक कलाकृति जिस तरह हमें उद्वेलित करती है, आलोचना द्वारा उत्प्रेरित उद्वेलन क्या वैसा ही होता है? एक क्षण के लिए अगर हम शास्त्रीय बहस में न पड़ें, कि आलोचना और कला के उद्वेलन-स्रोत कहाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं तो फिर इस जिज्ञासा का समाधान कैसे करें कि कभी-कभी कोई आलोचना हमें उतनी ही गहराई से मथने लगती है जितनी कोई कलाकृति - या शायद उससे भी ज्यादा? एक समीक्षा के द्वारा हम उस समीक्षित-कृति का कोई विराट सत्य पा लेते हैं जैसे किसी उपन्यास को पढ़ कर हम जीवन के एक अभेद्य रहस्य की कुंजी पा लेते हैं। अगर कलाकृति का संबंध उस चीज से है जिसे हम 'जीवन' कहते हैं, तो क्या उस जीवन का महत्व कम है, जो एक कलाकृति में संचारित होता है जिसे आलोचना एक चकाचौंध की तरह आलोकित कर देती है? इस अर्थ में दोनों ही अनुवादक हैं, लेखक अपने संसार का टेक्स्ट अपनी रचना में अनुवादित करता है, आलोचक उसी रचना को टेक्स्ट बना कर वापिस मुड़ता है, वापिस उस संसार में जो अब कलाकार की व्यक्तिगत संपत्ति न रह कर एक सार्वजनिक अनुभव बन गया है - कला का अनुभव - जिसमें सब साझा कर सकते हैं। यह वापिस मुड़ना महत्वपूर्ण है, क्योंकि महत्वपूर्ण आलोचना इसी 'मुड़ने' की प्रक्रिया में जन्म लेती है।

यही चीज एक आलोचक को एक पाठक से भी अलग करती है। जब एक समीक्षक किसी कलाकृति का रसास्वादन करता है, वह स्वयं एक पाठक है, बल्कि एक अच्छे आलोचक की प्राथमिक शर्त यही है कि वह कितना भाव-प्रवण, कितना चौकन्ना, कितना उत्सुक पाठक है; किंतु जब यही उत्सुकता पाठक को उस कृति का पुनरावलोकन करने को उत्प्रेरित करती है, जिसने उसे झिंझोड़ा है तो यहाँ रसास्वादन के साथ एक और चीज जुड़ जाती है - आलोचनात्मक जिज्ञासा - जो सिर्फ कृति का ही मूल्यांकन नहीं करती बल्कि पाठक को अपनी प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करने को भी बाध्य करती है। अब वह कलाकृति का निस्संग भावक मात्र नहीं रहता, सिर्फ इसी से संतोष नहीं कर लेता कि किसी कविता या कहानी में वह कितना डूबा है; वह डूबते-डूबते ऊपर आता है, उत्सुक और जिज्ञासु निगाहों से देखता है, कौन-सी वह लहर थी जिसने उसे इतने गहरे तल में डुबो दिया था, जहाँ से आई थी? उसने जो डूब कर तल की गहराई में देखा था, अब वही अनुभव उसे तल के ऊपर 'सतह' को देखने के लिए विवश करता है।

एक कलाकृति की सतह-उसकी भाषा के दृश्य-संकेत - उतना ही बड़ा सत्य है जितनी उसके अर्थ की गहराई; दोनों अभिन्न रूप से कला में संपूर्ण सत्य के साथ जुड़े हैं; बिना एक को जाने दूसरे को जानना असंभव है; दरअसल कला का रहस्य दोनों के अंतर्निहित रिश्ते में वास करता है। लेकिन रहस्य की एक अजीब विशेषता है; अगर वह पूरी तरह अभेद्य और अज्ञात हो, तो वह कभी 'रहस्य' नहीं रहेगा, क्योंकि तब वह अपने प्रति हमारी कोई जिज्ञासा नहीं जगा सकेगा। वे सब सत्य-और ऐसे लाखों सत्य होंगे - हमारे लिए कभी रहस्यमय नहीं हो सकेंगे क्योंकि वे हमेशा हमारे बोध के परे रहेंगे। ईश्वर का रहस्य उसके होने या न होने में नहीं है; उसका रहस्य 'ईश्वर' शब्द के बोध में है, जो उसके होने या न होने के बारे में जिज्ञासा जगाता है।

दूसरी तरफ वह सत्य भी कभी रहस्य का दर्जा नहीं प्राप्त करता, जिसके अर्थ को मनुष्य पूरी तरह उपलब्ध और हासिल कर लेता है, appropriate कर लेता है - क्योंकि तब उस अर्थ के परे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। उदाहरण के तौर पर अखबार की रपट जिस सत्य को संप्रेषित करती है, एक बार उसे जान लेने के बाद वह हमारे लिए कोई 'रहस्य' नहीं; रपट जिस स्थिति का वर्णन करती है, वह रहस्यमय भले ही हो, किंतु स्वयं रपट का कथ्य नहीं। एक कलाकृति का सत्य यदि रहस्यमय होता है तो इसलिए कि वह न तो पूरी तरह बोध के परे है, न पूरी तरह से मनुष्य उसे हासिल कर पाता है; वह कहीं इन दो चरमों के बीच में है; वह कुछ कहती है, कुछ नहीं कहती, इसलिए नहीं कि वह कहना नहीं जानती, बल्कि जो कलाकृति कहती है, उसमें वे अकथनीय सत्य भी शामिल होते हैं, जो अपनी चुप्पी के बावजूद उसमें मौजूद रहते हैं; आलोचना की यह एक बड़ी चुनौती है कि क्या वह कलाकृति के कथ्य से उसके अकथ्य को - उसकी भाषा से उसके मौन को - दो शब्दों में कहें तो उसकी सतह से उसकी गहराई को उजागर कर पाती है या नहीं।

हिंदी आलोचना में हमें प्राय: ऐसे वाक्य दिखाई दे जाते हैं... अमुक उपन्यास की भाषा बहुत सुंदर और संवेदनशील है, किंतु उपन्यास अपने में बहुत 'सफल' नहीं माना जा सकता। सफल शायद इसलिए नहीं है कि वह किसी गहरे, महत्वपूर्ण सत्य को संप्रेषित नहीं कर पाता। किंतु उपन्यास का सत्य अनिवार्यत: उसकी भाषा में संवेदित होता है। और यदि वह सत्य अनुपस्थित या आलोचना की कसौटी पर महत्वहीन और अप्रासंगिक है, तो उसकी भाषा को सशक्त या संवेदनशील माननेवाली कसौटी कौन-सी है? क्या भाषा की सामर्थ्य को कलाकृति की अर्थवत्ता से अलग किया जा सकता है? संवेदनहीन भाषा जिस तरह कलाकृति का अर्थ उद्घाटित नहीं कर पाती उसी तरह उस कलाकृति की भाषा कभी संवेदनशील नहीं मानी जा सकती, जो किसी महत्वपूर्ण सत्य से शून्य है। दिलचस्प बात यह है कि ऐसी आलोचना में भाषा के प्रति 'सौंदर्यवादी' सम्मोहन और कलाकृति के प्रति समाजशास्त्रीय आग्रह - दोनों साथ-साथ चलते हैं-और आलोचक इसमें कहीं भी कोई आत्म-विरोध नहीं देख पाता।

वह इस सत्य को अनदेखा कर देता है कि कलाकृति का रहस्य उसके अलग-अलग तत्वों या तंतुओं में नहीं, उसके समूचे संघटन-विधान में जीवित रहता है और ज्यों ही हम एक तत्व को दूसरे से अलगाते हैं, कलाकृति का सत्य और सौंदर्य दोनों ही बिखर जाते हैं, मुरझाने लगते हैं। कला के इस स्वायत्त धर्म पर विश्वास करना कहाँ तक उचित है - यदि उचित है - तो इस विश्वास का स्रोत कहाँ है? हम यह मान कर चलते हैं कि शब्दों के अर्थ होते हैं और ये अर्थ किसी-न-किसी रूप में बाह्य यथार्थ के अनुभवों से संबंध रखते हैं; जब हम हरे रंग का शब्द उच्चारित करते हैं, तो कहीं-न-कहीं घास का स्मरण हो आता है। अर्थ और अनुभव का यह साम्य(correspondance) सिर्फ बाहरी यथार्थ की ठोस चीजों पर ही नहीं, बल्कि हमारे अंतर्मन की सूक्ष्म और अमूर्त अनुभूतियों पर भी लागू होता है। हर शब्द किसी अनुभव की याद है, किसी जाने-पहचाने यथार्थ की स्मृति जगाता है - किंतु अजीब बात यह है कि शब्दों में संयोजित कविता अपने में एक ऐसे यथार्थ का सृजन करती है, जो शब्दों के अलग-अलग अर्थों में नहीं चुक जाता, बल्कि एक ऐसे अर्थ की सृष्टि करती है, जो कविता के बाहर कहीं उपलब्ध नहीं है। शब्दों के अर्थ परिचित हैं, किंतु कविता में उनका रहस्यमय संयोजन एक ऐसे सत्य से साक्षात्कार कराता है, जो अब तक अपरिचित था, एक ऐसा अनूठा और स्वायत्त सत्य, जो हमारे समस्त परिचित अनुभवों से अलग है और चूँकि सत्य का यह चमत्कार शब्दों के भीतर संयोजित है - वह किसी दूसरी विधा में संप्रेषित नहीं हो सकता।

किंतु यदि कलाकृति का सत्य अपने में बिलकुल स्वायत्त और विशिष्ट है, तब उसके मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? क्या यह जरूरी है कि कलाकृति का स्वायत्त अर्थ अपने मे महत्वपूर्ण, जीवनदर्शी और मूल्यवान सत्य भी हो? एक कलाकृति जो सत्य हमें संप्रेषित करती है, वह अपने में चाहे कितना अद्वितीय और अनूठा क्यों न हो - उसका मूल्य अंतत: उन रिश्तों में उद्घाटित होता है जो वह अब तक के हमारे अर्जित किए, अनुभूत सत्यों के साथ जोड़ पाती है। जब हम कोई महान उपन्यास या कविता पढ़ते हैं, किसी संगीत-रचना को सुनते हैं, किसी मूर्ति या पेंटिंग को देखते हैं तो वह उन सब अनुभवों की याद दिलाती है, जो न हमें सिर्फ दूसरी कलाकृतियों से प्राप्त हुए हैं बल्कि जो कला से बाहर हमारे अपने जीवन-अनुभव के भी सत्य हैं।

एक कलाकृति का अनुभव अब तक के अर्जित हमारे समूचे अनुभव-संसार को झिंझोड़ जाती है। वह एक टूरिस्ट का निष्क्रिय अनुभव नहीं है जिसे वह अपनी नोटबुक में अंकित करके संतोष कर लेता है। वह एक जीवंत, सक्रिय अनुभव है जो हमारे अनुभव-संसार में प्रवेश करता है, उसमें अजीब किस्म की हलचल उत्पन्न कर देता है, अपने मात्र अस्तित्व से उसके समूचे स्वरूप और पैटर्न को बदल देता है और अंतत: हमें विवश करता है कि उस कलाकृति के आलोक में अपने समस्त अनुभव-सत्यों की मर्यादा का पुनर्मूल्यांकन कर सकें। एक महान कलाकृति मनुष्य को नहीं बदलती, न उसके संसार को बदलती है, वह सिर्फ उस रिश्ते को बदलती है जो अब तक मनुष्य अपने संसार से बनाता आया था; लेकिन एक बार रिश्ता बदल जाने के बाद न तो वह मनुष्य ही वैसा मनुष्य रह पाता है जैसा वह कलाकृति के संपर्क में आने से पहले था, न उसका संसार वैसा संसार रह जाता है जो उसे कलाकृति के अनुभव के बाद दिखाई देता है। एक आलोचक जितनी सूक्ष्म दृष्टि से इस बदलाव को परिभाषित कर सकेगा, उतनी ही अधिक प्रामाणिकता के साथ वह उस कलाकृति के मूल्य और अर्थवत्ता को भी रेखांकित कर सकेगा। अत: यदि समर्थ आलोचना की पहली शर्त यह है कि वह कलाकृति के अखंडित और स्वायत्त यथार्थ को पहचान सके; तो दूसरी शर्त यह भी है कि वह कलाकृति के बाहर फैले यथार्थ को भी एक संपूर्ण और अविभाज्य के रूप में स्वीकार सके; एक ऐसा यथार्थ जिसकी अर्थवत्ता सिर्फ इतिहास और समाज के अनुभवों में ही समाप्त नहीं हो जाती - जो बिना मनुष्य के भी जीवित था और तब भी जीवित रहेगा जब मनुष्य नहीं होगा।

जब तक वह यथार्थ के इस सार्वभौमिक अनुभव को अपनी आलोचना का संदर्भ-बिंदु (reference point) नहीं बनाता, तब तक वह कलाकार की इस अदम्य लालसा को नहीं समझ पाएगा जो इस नामहीन यथार्थ को नाम, आकारहीन यथार्थ को बिंदु, अराजक यथार्थ को एक अर्थ देना चाहती है। यदि कला का मूल रहस्य मनुष्य की इस सृजनात्मकता में निहित है कि वह यथार्थ के नामहीन अनुभव को रूपायित कर सके, तो क्या सृजनात्मक आलोचना की प्रतिज्ञा यह नहीं होगी कि वह इसी यथार्थ को कसौटी मान कर कलाकार के शब्द, रूप और नामों की सच्चाई और सार्थकता का परीक्षण कर सके? किंतु इस अनुभव का मूल्यांकन मनुष्य की समूची संस्कृति के संदर्भ में ही हो सकता है। इसी अर्थ में एक महान आलोचक अपनी संस्कृति का भी आलोचक होता है; वह कलाकृति के स्वायत्त अनुभव को मानवीय संस्कृति की निरंतरता में - जिसे हम परंपरा कहते हैं - उसके भीतर परिभाषित करता है। वह एक साथ दो प्रश्नों का सामना करता है - क्या दुनिया का बाह्य यथार्थ कला के अंतर्निहित यथार्थ का साक्षी हो सकता है? इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है - क्या कला का अंतर्निहित सत्य दुनिया के यथार्थ का साक्षी हो सकता है?

ऊपर से देखने पर भ्रम हो सकता है कि कला का यथार्थ और दुनिया का यथार्थ दो स्वतंत्र इकाइयाँ हैं; - एक यदि इतिहास के द्वारा अनुशासित होती है तो दूसरी के नियम कहीं मनुष्य के भीतर परिचालित होनेवाले मिथक और स्मृतियों - एक कालातीत स्वप्न-भाषा - में बसते हैं। यह अकारण नहीं है कि अनेक यूरोपीय भाषाओं में उपन्यास को 'रोमान' या रोमांस की संज्ञा दी जाती है, जिसका अनुभव मनुष्य के दैनिक और दुनियावी यथार्थ से बाहर और परे की चीज है। जब उपन्यास जैसी समाजोन्मुख विधा को काल्पनिक रोमांस माना जाता है तो कविता या संगीत जैसी विधाओं की लौकिक मर्यादा कितनी संदिग्ध हो सकती है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। हम एक ऐसी सभ्यता में रहते हैं जहाँ दुनिया के यथार्थ को कला के सत्य से विलगित कर दिया गया है - पानी में खड़ी दो चट्टानों की मानिंद - जिनकी छाया एक-दूसरे को भले ही छूती हो -किंतु जिनका मूल तत्व और आधारभूमि एक-दूसरे से बिलकुल अलग हैं। कहना न होगा, कि इस अलगाव के रहते न केवल हमारा जीवन-यथार्थ सत्वहीन हो गया है, बल्कि स्वयं कल्पनाशीलता की गरिमा - जो हर कलाकृति का ऊर्जा स्रोत है - धीरे-धीरे सूखने लगी है।

यथार्थ के प्रति यह खंडित दृष्टिकोण हमारी आधुनिक सभ्यता की विलक्षण देन है, जो शायद पहले किसी समाज में मौजूद नहीं था। इस दृष्टिकोण के कारण स्वयं मार्क्सवादी आलोचना - जो एक समय में यथार्थ की समग्रता को प्रतिपादित करने का दावा करती थी - आज अविश्वास से उस बिंदु पर आ खड़ी हुई है, जहाँ बीसवीं शती के शुरू में प्रतीकवादी एस्थेरिक आलोचना थी। यदि एक का अविश्वास उस 'यथार्थ' से है जो कलाकृति में जीवित रहता है, तो दूसरे का संदेह उस कल्पनाशीलता से है, जो यथार्थ की अंतहीन संभावनाओं को उजागर करती है। हम एक ऐसे विकट समय में रह रहे हैं जहाँ हमने यथार्थ के बहुमुखी स्वरूपों को इतिहास की एक-आयामी धारा में ढाल कर सर्वथा श्रीहीन बना दिया है वहाँ कला को सिर्फ व्यक्ति के अंतर्मन की छाया में संकुचित कर एक ऐसी विपन्न 'मिनिमल' अवस्था में डाल दिया है, जहाँ उसका दूसरे की स्मृति और संस्कार में कोई साँझा नहीं। दोनों ही स्थितियों में यथार्थ का अनुभव और कला की क्षमता अपने को एक खंडित, और अवमूल्यित अवस्था में पाते हैं।

संकट के ऐसे बिंदु पर आलोचना का हस्तक्षेप गहरे और व्यापी अर्थों में एक नैतिक हस्तक्षेप होगा, ऐसा मैं मानता हूँ। नैतिक केवल कलाकृति के मूल्यों के निर्धारण में नहीं, बल्कि समूची सभ्यता की मर्यादाओं के मूल्यांकन में, जिसके बिना किसी भी कलाकृति की प्रासंगिकता या सार्थकता को नापना असंभव है। कलाकृति की मूल्यवत्ता आँकने की तब एक ही विश्वसनीय और प्रामाणिक कसौटी रह जाती है-क्या वह अपने युग के संदेह और अविश्वास के कुहरे को भेद कर एक ऐसे सत्य से साक्षात कराती है, जहाँ मनुष्य के मन और बाहर की सृष्टि में कोई विभाजन नहीं रहता?

एक कलाकृति में यह साक्षात्कार एक स्वप्न की तरह होता है, लेकिन यह स्वप्न मायावी नहीं है, आत्मछलना नहीं है; यह एक खोया हुआ सत्य है, जो एक समय में मनुष्य के अनुभव-संसार के केंद्र में था, जिसे आधुनिक व्यक्ति - अपनी खंडित अवस्था के बावजूद या शायद उसी के कारण - एक स्मृति की तरह सँभाले और सँजोए रहता है। आदमी उसी चीज का स्वप्न देखता है, जो कभी पहले था, जो आज भी कहीं छिपा है; हम उसकी छिपी हुई मौजूदगी को एक गुजरी हुई याद की तरह महसूस करते हैं - नॉस्टेलाजिया की तरह नहीं, बल्कि एक छिपे हुए जख्म की तरह। चूँकि हमने इस स्मृति को नहीं खो दिया है, इसलिए वह कभी भी हमारे यथार्थ में प्रवेश कर सकती है, उसका हिस्सा बन कर उसे संपूर्ण रूप से बदल सकती है। हर सृजनात्मक आलोचना इस विश्वास को केंद्रबिंदु बना कर कलाकृति का मूल्य आँकती है - कलाकृति जो खुद अपने में जख्म है और एक जख्मी विभाजित जीवन का अतिक्रमण करने का प्रयास भी! आज तक हम कला को सभ्यता का अंग मानते आए थे, किंतु पिछले चार सौ वर्षों के दौरान - विशेषकर यूरोपीय रेनेसेन्स के बाद - सभ्यता के सब प्रतीक - वे चाहे विज्ञान के हों या दर्शन के - मनुष्य को उसके संपूर्णत्व, उसके आत्यंतिक और अखंडित 'आत्म' को विभाजित करते आए हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य की बुद्धि का उसकी संवेदना से, उसकी देह का उसकी आत्मा से, उसके अस्तित्व का उसकी दृष्टि से कोई संबंध नहीं रह गया है। आज हमें इस अद्भुत विडंबना का सामना करना पड़ता है कि कला जो क्लासिक और मध्यकालीन युग में मानव की संपूर्ण चेतना की सबसे समर्थ अभिव्यक्ति मानी जाती थी, हमारे युग में आते-आते उसकी सार्थकता संस्कृति का अंग बनने में नहीं, बल्कि उन मूल्यों और मर्यादाओं को अस्वीकृत करने में निहित हो जाती है, जिसके रहते मनुष्य का यथार्थ उत्तरोत्तर एकांगी, पंगु और विश्रृंखलित होता गया है।

संस्कृति जो एक समय में कला की संरक्षित पीठिका थी, उसे पोषित करती थी - जिसके रहते दाँते और तुलसीदास जैसे कवियों को सहज रूप से ही अपने काव्य-संसार के भरे-पूरे रूपक और प्रतीक मिलते थे, अब उस संस्कृति ने अपनी परंपरागत भूमिका छोड़ दी है। आज का सुसंस्कृत मनुष्य कोई भी हो, कलाकार नहीं है; उसका ऐसी 'संस्कृति' से कोई सरोकार नहीं जिसने व्यक्ति की स्वायत्तता के नाम पर उसे 'आत्म-शून्य' बना दिया है और समूह के नाम पर लोक स्वभाव की सहज धारा और स्मृति को सुखा दिया है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि व्यक्ति-ग्रस्त और समूह-ग्रस्त दोनों ही व्यवस्थाओं ने एक ही समानधर्मा संस्कृति को जन्म दिया है - इतिहास, प्रगति और विज्ञान की आक्रामक मर्यादाओं से मंडित, जिसमें कला समाज के केंद्र में नहीं, बल्कि मानवीय अनुभव के हाशिए पर ठेल दी गई है - एक उपभोग्य कला-वस्तु, (art-object), फिर चाहे उसे मनोरंजन का मात्र साधन माना जाए या समाज के लिए उपयोगी वस्तु, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यहीं पर एक कलाकृति का मूल्यांकन एक व्यापक संदर्भ में एक पूरी संस्कृति का मूल्यांकन हो जाता है; एक आलोचक आधुनिक मानसिकता की उस विश्लेषणात्मक शैली को नहीं स्वीकार करता जहाँ कलाकृति के सौंदर्य को एस्थेटिक्स के हवाले कर दिया जाता है और उसकी प्रासंगिकता को इतिहास के फार्मूलों द्वारा मूल्यांकित किया जाता है।

वह आधुनिक संस्कृति के इस छद्म वर्गीकरण से ऊपर उठ कर कलाकृति के मूल सत्य पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। यह सत्य फिलासफी या तर्कशास्त्र की बौद्धिक अवधारणाओं का सत्य नहीं है, बल्कि वह कहानी, कविता या उपन्यास रचने की प्रक्रिया में एक ऐसे संसार में उद्घाटित होता है, जिसके मिथक और प्रतीक आधुनिक संस्कृति की मर्यादाओं से बिलकुल अलग हैं। हर महत्वपूर्ण कलाकृति का सत्य उसके विकल्पीय संसार में निहित रहता है। यह विकल्पीय संसार कोई ऐसा संसार नहीं है, जिसका यथार्थ से कोई नाता नहीं, बल्कि वह उस यथार्थ का सत्य है, जिससे मनुष्य का नाता टूट गया है; एक स्वायत्त संसार, किंतु आत्मकेंद्रित संसार नहीं, वह एक खुली स्पेस का संसार है, एक कला-वस्तु का सीमित, सुंदर संसार नहीं, जिसे दर्शक बाहर से देखता है बल्कि एक सक्रिय और संपूर्ण सत्य का वाहक - जो बार-बार हमारी दुनिया में प्रवेश करता है, उसे भंग करता है, झिंझोड़ता है; संपूर्ति और संपूर्णता की स्मृति जगाता है। इसी अर्थ में कलाकृति की अनुभूति हमारी संस्कृति के विभाजित अनुभवों की सबसे सटीक और प्रखर आलोचना हो जाती है। व्यावहारिक आलोचना की मर्यादा यह है कि वह उस 'भाषा' का मूल्य पहचान सके, जिसमें एक कलाकृति हमारे युग की संस्कृति पर आलोचना करती है। कलाकृति की भाषा - मैं इस प्रश्न पर दुबारा लौटना चाहूँगा।

इस निबंध के आरंभ में मैंने कहा था कि किसी आकृति का विशिष्ट सत्य उसकी भाषा में ही गुंफित रहता है, उसके बाहर नहीं। किंतु यह एकतरफा व्यापार नहीं है। जहाँ यह सच है कि एक कलाकृति का सत्य शब्दों के विशिष्ट संयोजन में ही उद्घाटित होता है, वहाँ यह भी उतना ही सच है कि वह सत्य कला की भाषा को भी अपनी विशिष्ट गुणात्मकता में उजागर करता है। दूसरे शब्दों में, एक कलाकृति की भाषा संप्रेषण का महज माध्यम मात्र नहीं है बल्कि कलाकृति में ही वह अपना आत्मीय और आत्यंतिक चरित्र उद्घाटित करती है। यहीं पर कलाकृति की भाषा और संसारी-उपयोग की भाषा में पहली बार मूलभूत अंतर दिखाई पड़ता है। हाइडगर ने इस सत्य को बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित किया है। एक कारीगर जब औजार बनाने के लिए पत्थर का इस्तेमाल करता है तो औजार बनने पर पत्थर की उपयोगिता भी खत्म हो जाती है; किंतु जब एक मूर्तिकार उसी पत्थर को मूर्ति बनाने में इस्तेमाल करता है तो वहाँ पत्थर माध्यम या साधन नहीं रहता, जिसकी उपयोगिता मूर्ति बनने के बाद चुक जाती है; उलटे स्वयं मूर्ति का सत्य पहली बार पत्थर के सहज आत्मीय गुण-उसके पत्थरपन-को उजागर करता है। एक अखबारी रिपोर्ट में शब्दों की उपयोगिता रिपोर्ट के कथ्य को संप्रेषित कर देने के बाद समाप्त हो जाती है किंतु एक कविता को एक बार पढ़ लेने के बाद शब्दों का महत्व खत्म नहीं हो जाता - यहाँ शब्द सिर्फ माध्यम नहीं है, इसीलिए हम बार-बार उसके पास लौटते हैं क्योंकि यदि शब्दों के बीच कविता ने अपना सत्य पाया है, तो इसी सत्य ने पहली बार कविता के शब्दों को 'शब्द' होने की मर्यादा से पुष्ट किया है। कविता में शब्द असली अर्थ में शब्द बनते हैं जैसे मूर्ति में पत्थर असली अर्थ में पत्थर बनता है।

यदि एक आलोचक भाषा के इस प्राकृतिक आयाम को नहीं समझ पाता, वह कला के एक अत्यंत मूल्यवान सत्य को अनदेखा कर देता है जो उसे संस्कृति से नहीं - प्रकृति के विराट परिवेश से मिलता है, जहाँ मनुष्य का कोई दखल नहीं, किंतु जो बार-बार मनुष्य के संसार को खटखटाता है। कुछ शब्द जादुई होते हैं, अपने अर्थों में नहीं; बल्कि उनके परे; दैहिक रूप से जादुई, जिनका जादू उनकी ध्वनि में निहित होता है, ऐसे शब्द जो कोई संदेश देने से पहले भी अपना अर्थ रखते हैं, शब्द जो अपने में ही अर्थ और संकेत हैं, जिन्हें समझना नहीं, सुनना होता है, एक जानवर के शब्द, एक बच्चे की स्वप्न-भाषा... मारिना स्वेतायोवा ने यह बात पुश्किन के संदर्भ में कही थी, किंतु क्या वह हर कलाकृति पर लागू नहीं होती? इसी अर्थ में एक कलाकृति मानवीय भी होती है, और गैर-मानवीय भी। मिट्टी, पत्थर, स्वर, शब्द - शब्द जो सबसे शुरू में था - एक ऐसी भाषा की सृष्टि करते हैं, जिसे समझना नहीं, सुनना होता है, देखना होता है, अनुभूत करना होता है। किंतु जो सभ्यता प्रकृति पर विजय पाने में ही अपना गौरव प्राप्त करती है, वह सुनने, देखने और अनुभूत करने की क्षमता को ही नष्ट कर देती है।

उसका संबंध प्रकृति के प्रति उतना ही आक्रामक है, जितना कलाकृति के प्रति लोलुप - समझना एक तरह से हासिल करने का पर्याय हो जाता है, जो गर्वीली स्पर्धा से उत्पन्न होता है, अनुभूत करने की विनयशील आत्मीयता से नहीं। कितना अजीब है कि जिस आक्रामक रिश्ते से प्रकृति का प्रदूषण होता है, कला की भाषा का दूषण भी ठीक उसी रास्ते से होता है। इसीलिए कुछ आश्चर्य होता है, जब लीविस और ऑर्वेल जैसे आलोचक कला-भाषा के अवमूल्यन पर तो विक्षोभ करते हैं - और ठीक ही करते हैं - किंतु उसके कारण केवल राजनीति, पत्रकारिता या शिक्षा-पद्धति में ही टटोल कर संतोष कर लेते हैं। वे कला की भाषा को मात्र माध्यम मान कर चलते हैं, मानवीय-संस्कृति का मात्र एक उपादान – इसीलिए वे उस वैषम्य को नहीं देखते जो स्वयं मनुष्य की संस्कृति और कलाकृति की प्रकृति, शब्द और सत्य के बीच आ खड़ा हुआ है। किंतु यदि कलाकृति की भाषा अपनी 'गूँज' की प्रकृति से लाती है, जो मनुष्येतर है, उसका सत्य बराबर उस स्वप्न में ध्वनित होता है, जो मनुष्य के भीतर है, जब वह प्रकृति से अलग नहीं हुआ था। इसीलिए एक कलाकृति से साक्षात कभी-कभी एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव भी होता है। क्या आज की आलोचना ने कभी ऐसे अनुभव को परिभाषित करने का प्रयास किया है, जो किसी दार्शनिक धर्मशास्त्र के घेरे में नहीं आता, जो परंपरागत अर्थ में 'आध्यात्मिक' नहीं है, जो मनुष्य को किसी धार्मिक संदेश देने का दावा नहीं करता - लेकिन वह अपने में इतना संपूर्ण है कि एक कौंध में हमें अपनी 'स्थिति के समूचे सत्य' से साक्षात करा देता है।

यह तभी हो पाता है जब एक कलाकृति विभाजित मानस की पीड़ा और अंतर्द्वंद्व से जन्म ले कर भी महज उसकी प्रतिच्छाया नहीं रहती, वह पीड़ा एक दूसरा दरवाजा भी खोलती है, जहाँ हर खंडित अनुभव के बाकी अवशेष दिखाई देते हैं - जीवन की कुहलिका में उपेक्षित, दबे हुए, तिरस्कृत - किंतु कलाकृति के आलोक में - उसी अनुभव को पूरा करते हुए, अर्थ देते हुए - जिसके कारण एक अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी कृति में आनंद का अनुभव पीड़ा को काटता नहीं, न ही पीड़ा का घटाटोप आनंद को ओझल करता है, बल्कि दोनों अनुभव एक साथ होते हैं। गोएटे का नायक वर्थर अपने खंडित अनुभवों के बीच पहली बार प्रेम की संपूर्णता - उसके अलौकिक आनंद - को अनुभूत करता है।

बिना उस आनंद के क्या वह अपनी पीड़ा को छू पाता जिसने उसे आत्महत्या करने को विवश किया? किंतु बिना उस पीड़ा को भोगे क्या हम प्रेम के उस संपूर्ण अनुभव को देख पाते, जिसे कोई दूसरा उपयुक्त शब्द न मिलने के कारण मैंने 'आध्यात्मिक अनुभव' कहा है? यदि मैंने आलोचना के संदर्भ में वर्थर का उदाहरण दिया है, तो इसलिए कि हमारी आज की आलोचना ने अपने को ऐसे संकीर्ण दायरे में बाँध लिया है जिसके बाहर कला के अनेक अनुभव उपेक्षित और अपरिभाषित पड़े रहते हैं जिन्हें आसानी से रोमांटिक या आध्यात्मिक कह कर खारिज कर दिया जाता है। यही नहीं, हमारे विज्ञ आलोचक एक ही लेखक के अनुभव-संसार को विभाजित करने की शल्य-क्रिया करने में नहीं हिचकते -हम उन अनुभव-खंडों को स्वीकार लेते हैं जो आज के हमारे सामाजिक-ऐतिहासिक आग्रहों से मेल खाते हैं, किंतु उसी लेखक के उन पक्षों के बारे में चुप रहते हैं - जो उसकी बनी-बनाई इमेज को किसी रूप में भंग करते हैं, उसमें असंगति उत्पन्न करते हैं। यही कारण है कि हम तॉलस्तॉय के चिंतनशील निबंधों को 'धार्मिक प्रोपेगेंडा' मान कर उपेक्षित करते हैं, जबकि उनके उपन्यासों को यथार्थवादी मान कर उनकी पूजा करते हैं - मानो तॉलस्तॉय के आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्वों और विश्वासों का उनके कला के यथार्थ से कोई संबंध न हो। वे यह भूल जाते हैं कि इसी संबंध के रहते 'ईवान ईलिच की मृत्यु' जैसी महान रचना का जन्म हुआ था। आलोचना की सबसे मूल्यवान मर्यादा यह है कि वह कलाकृति के समूचे तंतुजाल के रेशों को विश्लेषित करे, जिसमें संसारी यथार्थ और आध्यात्मिक लोक के अनुभव एक-दूसरे से गुँथे रहते हैं - जिनके भीतर एक ऐसा सत्य जन्म लेता है, जहाँ यथार्थ का अनुभव दूसरे यथार्थ के अनुभव का निषेध नहीं करता, बल्कि वह एक खुली भूमि तैयार करता है, जहाँ यथार्थ की अनेक परतें खुलती हैं, एक-दूसरे से टकराती हैं, एक साथ अनेक अर्थों को उद्घाटित करती हैं। यदि यथार्थ के विभिन्न अर्थों का कोई लोकतंत्र है, तो वह केवल उस स्वतंत्रता में ही उपलब्ध होता है, जिसे हर कलाकृति अपने भीतर ले कर चलती है, जो न किसी एक अर्थ से अपने को नत्थी करती है, न किसी दूसरे अर्थ की तानाशाही स्वीकार करती है। किंतु सब अर्थ एक तरह से ही मूल्यवान नहीं होते। किसी कलाकृति का कोई भी अनुभव नगण्य नहीं है - लेकिन वह है, इसीलिए मूल्यवान नहीं बन जाता। समर्थ आलोचना - जहाँ अर्थों के लोकतंत्र को स्वीकार करती है, वहाँ वह मूल्यों की वर्ण-व्यवस्था को भी गहरा सम्मान देती है, जिसके बिना किसी भी कलाकृति की गुणवत्ता या - गुणहीनता को पहचानना असंभव है।

पिछले वर्षों में यदि हिंदी आलोचना का परिदृश्य कुछ अधिक उत्साहवर्धक नहीं दिखाई देता तो इसका एक कारण शायद यह है कि स्वयं आलोचना ने अपनी मूल्य-व्यवस्था का निर्माण करने की कोई विशेष चेष्टा नहीं की। किसी रचना की समीक्षा पढ़ते हुए हमें आलोचक के सामाजिक आग्रह जरूर दिखाई देते हैं, किंतु उन आग्रहों की मूल्यवत्ता जो परंपरा, संस्कृति और कलात्मक अनुभवों के संबंधों के बीच निर्मित होती है, वह कहीं दिखाई नहीं देती। किसी कृति की आलोचना पढ़ते समय हम आलोचना की राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा से तो परिचित होते हैं - उस सांस्कृतिक परिवेश की आबोहवा से नहीं - जहाँ बहुत-सी धाराएँ एक साथ चलती हैं - जिनके बीच कलाकृति अपना विशिष्ट चरित्र बनाती है। चूँकि आलोचक का अपनी संस्कृति की व्यापक अर्थसत्ता से कोई लगाव नहीं, इसीलिए उसमें कलाकृति की अंतर्निहित समग्रता को जाँचने का भी ज्यादा उत्साह नहीं। इसीलिए हमारे यहाँ संस्कृति के विचारक एक वर्ग मंए आते हैं - कला के आलोचक दूसरे वर्ग में - दोनों में कहीं आदान-प्रदान नहीं होता।

यदि हम हजारीप्रसाद जी को अपवाद मान कर छोड़ दें - तो किसी एक आलोचक में दोनों लगाव लगभग साथ नहीं दिखाई देते। हिंदी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है - और शायद सिर्फ हिंदी आलोचना का नहीं - कि वह कलाकृति की बहुआयामी भूलभुलैयों में जाने से कतराती है - कोई कृति नितांत वैयक्तिक पीड़ा में सामाजिक संदर्भों को खोल सकती है और सामाजिक यथार्थ के बीच व्यक्ति का रहस्यमय मनोसंसार उद्घाटित कर सकती है - कला के इस अंतर्विरोधी चरित्र में उसे ज्यादा विश्वास नहीं। वह एक सीधा-सादा रास्ता अपनाना पसंद करती है, जहाँ एक खास अर्थ को चुना जा सके - और फिर उस एकांगी अर्थ की सूली पर कलाकृति के समूचे चरित्र को टाँगा जा सके। मुश्किल यह है कि खूँटे से उतार कर जो चीज हाथ आती है, वह कलाकृति नहीं, उसकी मुर्दा देह है, जिसकी प्राणवत्ता को आलोचक न जाने किस अँधेरी गली में फेंक कर फरार हो जाता है? ऐसी आलोचना ने ही हमारे यहाँ प्रसाद को 'हिंदू आध्यात्मिकता' और प्रेमचंद को 'यथार्थवादिता' की सूली पर चढ़ा कर अपने कर्तव्य से मुक्ति पा ली है। यदि आज तक निराला और मुक्तिबोध ठीक-ठीक किसी एक सैद्धांतिक कटघरे में फिट नहीं होते, तो उसका श्रेय हमारी आलोचना को नहीं, इन कवियों के उस विराट, संश्लिष्ट और अंतर्विरोधी धाराओं में विस्फोटित होती हुई ऊर्जा को जाता है जिसे किसी एक सामाजिक और रूपवादी व्याख्या में रिडयूस करना असंभव है। हमारी आलोचना का अभिशाप यह नहीं है कि वह किसी मार्क्सवादी या कलावादी दृष्टि के बोध से आक्रांत है - काश, ऐसी कोई विवेकशील दृष्टि अपनी संपन्न प्रखरता में हमारे पास होती - उसका अभिशाप यह है कि वह कला के प्रति बहुत ही सँकरा और सिकुड़ा हुआ -अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करूँ - तो निरा रिडक्टिव रुख अपनाती है; उससे कलाकृति का अवमूल्यन तो होता ही है, उस दृष्टि या विचारधारा की विपन्नता भी जाहिर होती है, जिसकी कसौटी पर कलाकृति को आँका गया है।

आशा की बात यह है कि समय-समय पर अवमूल्यन की इस प्रक्रिया का विरोध किया गया है, व्यवस्थित रूप से नहीं, लेकिन गहरी संस्कारसंपन्न व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं के आधार पर। विजयदेव नारायण साही और कुँवरनारायण के अनेक निबंध इस प्रतिक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण है। स्वयं डॉ. नामवर सिंह ने बरसों पहले कहानी के क्षेत्र में सामान्याकृति धारणाओं का खंडन करते हुए एक समर्थ और सृजनात्मक हस्तक्षेप किया था। अज्ञेय द्वारा नई कविता का आकलन, नेमिचंद्र जैन की उपन्यास-आलोचना इसी कोटि में आती है। किंतु कला के प्रति जिस 'रिडक्टिव' रुख का उल्लेख मैंने ऊपर किया है, यदि उसका कोई निरंतर, मूल्यवान और सब बाधाओं और अभियोगों के बावजूद एक सुचिंतित और साहसी आलोचनात्मक विरोध हुआ है - उन युवा आलोचकों द्वारा -जिन्हें पूर्वग्रह की 'बदनाम मंडली' का सदस्य माना गया है। पिछले वर्षों में आलोचना के क्षेत्र में यदि मलयज, रमेशचंद्र शाह और अशोक वाजपेयी का योगदान इतना महत्वपूर्ण रहा है तो इसलिए कि उन्होंने आलोचना की मूल्यहीनता के कुहासे से निकल कर एक सांस्कृतिक पीठिका प्रदान की है, जिसमें आलोचक की दृष्टि उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी कलाकृति की स्वायत्तता। दोनों के टकराव से ही ऐसी बिजली पैदा होती है, जो हमारी चिंताओं और सरोकारों के समूचे परिवेश को आलोकित कर पाती है।

हर महत्वपूर्ण आलोचक के पास अपनी दृष्टि या दर्शन होना चाहिए - सिर्फ कला के संबंध में नहीं, बल्कि समूची संस्कृति के बारे में - उसे आप उसकी 'आइडियालॉजी' कहें, तो भी इस प्रसंग में कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई आलोचक खाली हाथ किसी कलाकृति के पास नहीं जाता; जो आलोचक खाली हाथ जाते हैं, मुझे डर है, वे खाली हाथ लौट भी आते हैं। एक आलोचक नंगा और निरीह हो कर नहीं, अपने सब विश्वासों, पूर्वग्रहों, अस्त्रों-शस्त्रों से लैस हो कर एक कलाकृति का सामना करता है। ये अस्त्र और औजार वह अपने अध्ययन, सूझ-बूझ और अनुभव-संसार से अर्जित करता है। इसी अनुभव-संसार के भीतर वह उन मूल्यों की व्यवस्था बनाता है जो उसे कलाकृति के मूल्यांकन में योग देती है। किंतु यदि आलोचक की मूल्य-व्यवस्था कलाकृति के अनुभव को आलोकित करने के बजाय धुँधलाते हैं, खंडित करते हैं, तो मूल्यांकन के वे सब अस्त्र-औजार बेकार और निरर्थक पड़े रहेंगे, जो वह अपने साथ लाया है।

एक आलोचक इन्हीं औजारों से कलाकृति के मूल्यों को परखता है; किंतु ऐसा भी होता है, कि कोई कलाकृति एक ऐसी विकल्पीय संसार के मूल्यों की रचना करे, जिसके संपर्क में आते ही आलोचक को अपनी मूल्य-व्यवस्था के सब औजार और कसौटियाँ अपर्याप्त, एकांगी और असंतोषजनक जान पड़ें। यह उसके सामने गहरी चुनौती का प्रश्न है : क्या वह अपनी मूल्य-व्यवस्था से चिपका रहेगा, और किसी दर्शन, विश्वास और विचारधारा को अपनी बैसाखी बना कर कलाकृति की वैकल्पित सत्ता को खारिज कर देगा - अथवा उसमें इतना नैतिक साहस और आलोचनात्मक विवेक होगा, कि वह अपने अस्त्रों और विश्वासों को अनुपयुक्त मान कर छोड़ दे, और आलोचना के ऐसे औजारों का निर्माण करे, जो उस कलाकृति के अपरिचित संसार की अर्थवत्ता को नए सिरे से परिभाषित करने में सक्षम हो सके। यदि आलोचना की मर्यादा इसमें है, कि वह तटस्थ हो कर नहीं, अपने विश्वासों और आग्रहों के साथ कलाकृति से मुठभेड़ करती है, तो उससे कहीं ऊँची मर्यादा यह है कि जरूरत पड़ने पर वह अपनी उन सब कसौटियों और मापदंडों को त्याग सकती है, जो उस कलाकृति के सामने झूठी और अप्रासंगिक बन गई हों। किंतु यह वही आलोचक कर सकेगा, जिसके पास छोड़ने को कुछ है, जो खाली है, वह क्या कुछ छोड़ेगा?