कलामे सुरूर / प्रेमचंद

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मुंशी दुर्गासहाय सुरूर के देहावसान ने उर्दू की सभा में एक ऐसा स्थान रिक्त कर दिया है जिसका पूरा होना बहुत कठिन दिखाई देता है। प्राचीन शैली के शायरों में एक-दो वरिष्ठ शायरों के अतिरिक्त अन्य कोई शेष नहीं रह गया, और जो हैं, उन्हें भी पूछने वाले नहीं। आधुनिक शैली में कुछ युवा इस नशे से मस्त दिखाई देते थे लेकिन कुछ दुर्योग से उनके भी होंठ सिल गए। मौलाना हाली वार्द्धक्य से विवश हो गये, हजरत इकबाल और नैरंग को वकालत के तीव्र आकर्षण ने प्रभावित किया। पंडित चकबस्त साहब ने किसी कारण प्राचीन शैली अपना ली। हजरत सुरूर और नादिर - यही दो वरिष्ठ शायर ऐसे थे जिनसे यह गोष्ठी बनी हुई थी। अफसोस! सुरूर अब इस संसार में नहीं रहे और अब कविता के दृष्टिकोण से इस भाषा का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। उर्दू के एक सुविचारक काव्य-मर्मज्ञ ने उनके देहावसान की चर्चा करते हुए कहा है कि उर्दू भाषा के लिए यह आघात नसीम लखनवी की अकाल मृत्यु से किसी प्रकार भी कम नहीं है। सुरूर जन्मजात शायर थे। उन्होंने किसी गुरु के समक्ष सम्मान में घुटने नहीं टिकाए लेकिन उनके एक-एक शेर से काव्य-कौशल की सुगन्ध प्रवाहित होती है। वे किसी विशेष शैली के पक्षधर नहीं थे, उनकी शैली निराली थी।

उनकी कविताओं में प्राचीन और आधुनिक दोनों शैलियों की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। प्राचीन काल के कसे हुए छंद, मंजी हुई पद्धति, सुरुचिपूर्ण उपमाएँ और आधुनिक काल के नये सुलझे हुए विचार, राष्ट्रवादिता और सहानुभूति के उत्साह से छलकती भावनाएँ - ये उनके काव्य की विशेषताएँ हैं। वे आधुनिक काल के रूखेपन, सरलता और विद्वत्तापूर्ण ढंग से उतने ही दूर भागते हैं जितने प्राचीन काल की सदाचार विरोधी भावनाओं और बंधन में बाँधने वाली अलकों के जाल से दूर भागते हैं।

जिस काल में हजरत सुरूर कानपुर में थे, हमें उनकी छत्रछाया में रहने का गौरव प्राप्त था। वे हर समय काव्य-चिन्तन में लीन रहते थे। वे मूर्तिमान शायर थे और शायरों की दुर्बलताओं से भी उन्हें पर्याप्त अंश मिला था, लेकिन उनकी दुर्बलताएँ वे नहीं थीं जो विकृत मानसिकता का परिणाम होती हैं। उनका हृदय स्वच्छ, विचार पवित्र और दृष्टि सम्पूर्ण थी। उनकी दुबर्लताएँ वे थीं जो शायरों के लिये नैतिक आभूषण से कम नहीं होतीं। वह व्यक्ति जिसके स्वभाव में विश्वसनीयता, सावधानी और नम्रता हो शायर नहीं हो सकता। विश्वसनीयता और शायरी परस्पर विरोधी हैं। शराबीपन और उच्छ्रंखलता, आत्ममुग्धता और दुर्दशा - यही शायरी की भावभूमि है। मनमौजीपन ही हजरत सुरूर का प्रकट स्वभावगत वैशिष्ट्य था। जो कुछ मिलता, और उर्दू भाषा के शायर को मिलता ही क्या है, वह खुले हाथों खर्च करते। संसाधन अत्यन्त सीमित लेकिन हृदय नदी की भाँति विस्तृत था। कल की चिन्ता उन्हें कभी नहीं सताती थी। रहन-सहन बहुत ही साधारण और वाणी में ऐसा आकर्षण था जो अनचाहे ही हृदय को खींच लेता था। उन्हें पुस्तकों का अध्ययन करते हुए किसी ने भी बहुत कम देखा होगा लेकिन स्मृति इतनी प्रबल कि जो कविता एक बार भी दृष्टि में आ जाती, सदा के लिए अंकित हो जाती। प्रायः सूक्ष्म काव्यगत गूढ़ताओं और मतभेदों पर वरिष्ठ शायरों के शेर इस प्रवाह से पढ़ते थे कि आश्चर्य होता था।

उनसे परिचय प्राप्त करने का प्रथम अवसर मुझे कानपुर में मिला। उस समय वे ‘जमाना’ पत्रिका के प्रबन्धक थे। उनसे मिलने की उत्कंठा हृदय में हिलोरें भर रही थी। तृतीय प्रहर के लगभग तीन बजे उनके निवास पर गया तो देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मेज पर शराब की बोतल, हाथ में गिलास, एक मैला सा कुर्ता पहने खुर्री चारपाई पर बैठे स्वर्गीय स्वामी रामतीर्थ का शोकगीत लिख रहे थे। स्वामीजी में उन्हें परोक्ष श्रद्धा थी। काव्य-चिन्तन में इतने खोए हुए थे कि उन्हें कई मिनट के पश्चात् पता चला कि वे कमरे में अकेले नहीं हैं। निम्नांकित छन्द को पुनः-पुनः पढ़ते और झूमते थे। अपनी कविता के नशे से स्वयं ही मस्त हो रहे थे। यह वही काव्य है जो शायर को कालजयी बनाता है -

ख़ुल्द से है किसको लेने को क़ज़ा आई हुई

साहिले गंगा पे है ग़म की घटा छाई हुई

डूबती है किसकी कश्ती आज चकराई हुई

मौजे क़िस्मत की तरह इक इक है बल खाई हुई

आश्ना दरिया से क़तरा कौन सा होने को है

इश्तियाक़े मिह्र में शबनम फ़ना होने को है

इस शोकगीत में छन्द की शुद्धता और शायर के विचारों की उड़ान आकाश तक जा पहुँची है। एक-एक शेर हताशा और शोक की भावनाओं से परिपूर्ण है। अपनी शैली में यह उर्दू भाषा का सम्भवतः सर्वाधिक स्मरणीय शोकगीत है। कैसा उत्कृष्ट विचार है-

हो फ़ना तूफ़ान में इक ज़िंदए जावेद क़ौम

आह यू गंगा में डूबे कश्ती-ए-उम्मीदे क़ौम

ख़ाक का पैवन्द ऐसा गौहरे नायाब हो

ऐसा बेड़ा आह गंगा में ग़रीक़े आब हो

इस शोकगीत का एक-एक शेर हताशा का एक-एक महाग्रन्थ है। उन्होंने जब मेरी ओर देखा तो उत्साह से उठकर हाथ मिलाया और पारस्परिक परिचय के उपरान्त काव्य पर वार्ता होने लगी। उनकी सादगी और निर्धनता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। खेद है कि उर्दू का ऐसा उत्कृष्ट शायर, ऐसा वाक्पटु साहित्यकार इस निर्धनता में जीवनयापन करे! वे जब तक कानपुर में रहते रहे मैं प्रायः उनकी संगति से लाभान्वित होता रहा।

यद्यपि उनकी कविता का विशिष्ट गुण निराशा और हताशा की भावनाएँ हैं लेकिन मित्रों की सभा में उनके सम्भाषण के ढंग और मुखाकृति से विनोदप्रियता टपकती थी और उनके अट्टहास की ध्वनि मित्रों के मन में गुदगुदी करती थी। सम्भवतः इतनी विनोदप्रियता उनके जीवन के लिए आवश्यक थी। यदि वे दिन-रात काव्य-चिन्तन में व्यस्त रहते तो मुस्कान को उनके मुँह पर आने का सौभाग्य प्राप्त न होता। निराशा में आँसू बहाना, जीविका न होने का उलाहना देना, विरहाग्नि में जलना, विगत दिनों को स्मरण करना - ये उनकी शायरी के विषय थे। हाथ में कलम थामते ही उनकी प्रसन्नता विदा हो जाती थी। शायरी की परिभाषा में बचपन का काल निश्चिन्तता और सम्पन्नता का पर्याय है। सम्भव है उनका बचपन भूखों मरते बीता हो लेकिन प्रायः शायरी की कल्पनाओं में व्यक्तिगत अनुभवों को स्थान नहीं होता।

प्रत्येक व्यक्ति के मन में बचपन की याद अठखेलियाँ करती है। ऐसा कौन है जो अपने बालपन के काल को अपने जीवन का सर्वाधिक प्रिय काल नहीं समझता। इसके अनुसार यौवन काल मस्ती तथा मद्यपान, गाने तथा मिलने और भोग तथा आनन्द का पर्याय है। शायर का कलम बाल्यकाल की निश्चिन्तताओं और यौवन काल की उच्छ्रंखलताओं का आनन्द लेते नहीं थकता। सुरूर साहब ने उन संवेदनाओं को जिस करुणापूर्ण और सुन्दरतापूर्ण ढंग से सजाया है, उर्दू शायरी में उसका उदाहरण कहीं और कठिनता से ही मिलेगा। मगर उनकी यह दशा एक शायर के रूप में ही है अन्यथा दुर्गासहाय एक चिन्ताविहीन और सदाबहार आदमी था। एक ही लेखक के शायराना और मानवीय स्वभाव में ऐसा विरोध होना कोई असामान्य बात नहीं है। चार्ल्स डिकेन्स अंग्रेजी भाषा का बड़ा भारी हास्य लेखक था लेकिन मित्रों की सभा में गम्भीरता और खिन्नता उसका विशेष गुण हो जाता था। संक्षेपतः सुरूर मनुष्य की निराशापूर्ण भावनाओं का चितेरा है और इस रूप में उसका स्थान उर्दू में आधुनिक शैली के समस्त शायरों से कहीं ऊँचा है। लेकिन अपनी श्रेष्ठता का विचार उन्हें कभी स्वप्न में भी नहीं आया। वे अपने से कहीं निम्न कोटि के शायरों के समक्ष निष्ठाओं का अन्तर प्रकट नहीं होने देते थे। आत्मप्रशंसा और अक्खड़पन उर्दू शायरों का आवश्यक गुण है। उनमें आत्मश्लाघा नाम को भी नहीं थी। कविता की प्रशंसा करने के लिए वे हर समय प्रसन्नमुख से तत्पर रहते थे और प्रायः हलके शेरों पर भी मस्ती में आ जाते थे। इसे नम्रता और विनय से संवर्धित गुणग्राहकता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है!

खेद है कि उर्दू-संसार ने उनका कुछ सम्मान नहीं किया। कुछ तो उनका हिन्दू होना, कुछ उनकी स्वभावगत नम्रता, कुछ साहित्यिक क्षेत्र से अपरिचित होना - इन कारणों ने उन्हें प्रतिष्ठा के पुष्पों से अपनी झोली नहीं भरने दी। ऐसी हालत में उनके अधिकांश मित्रों को आशंका होती थी कि उनके काव्य-संकलन को जनता के सामने आने का सम्भवतः अवसर ही नहीं मिलेगा। मगर सन्तोष की बात है कि यह आशंका निराधार सिद्ध हुई और वे इच्छाएँ जो उत्पन्न होकर मुरझा चली थीं पुनः हरी हो गईं। इस समय उनकी कविताओं के एक नहीं वरन् दो संकलन प्रकाशित हो गए हैं। एक इंडियन प्रेस, इलाहाबाद की ओर से प्रकाशित हुआ है, दूसरा जमाना प्रेस, कानपुर की ओर से। एक ‘जामे सुरूर’ है और दूसरा ‘खुमखाना सुरूर’। ‘जामे सुरूर’ में उनके काव्य से संचयन प्रकाशित किया गया है और ‘खुमखाना सुरूर’ में प्रायः वही कविताएँ हैं जो ‘जमाना’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं, और इस तथ्य को तो नकारा ही नहीं जा सकता कि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ ‘जमाना’ में ही प्रकाशित होती थीं। कागज अत्युत्तम, लिखाई सुरुचिपूर्ण, छपाई स्पष्ट। ‘जामे सुरूर’ की भूमिका सार्थक है। उनके चित्र ने ‘खुमखाना सुरूर’ की शोभा दोगुनी कर दी है। कविता कहने में उनकी व्यस्तता के परिप्रेक्ष्य में यह परिमाण, जो उनके दस वर्ष के प्रयासों का फल है, कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता लेकिन काव्य के प्रभाव, भावनात्मक सौन्दर्य, अद्भुत विचार और विषयों की नवीनता उस कमी की प्रतिपूर्ति कर देते हैं। बाह्य रूप में तो यह संकलन सुरूर के अत्यधिक काव्य-लेखन का खण्डन करता है लेकिन इस अवसर पर अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है कि सुरूर के काव्य-चिन्तन का एक बड़ा अंश दूसरों को शायर बनाने में व्यय हो जाता था। मुसहफी के अत्यधिक काव्य लेखन ने कितने ही लोलुपों को शायर बना दिया था। सुरूर साहब को भी अत्यल्प मूल्य में प्रायः अपनी अधिकांश कविताएँ दूसरों के नाम से लिखनी पड़ती थीं। उर्दू जनता की गुणग्राहकता पर यह एक लज्जाजनक कलंक है।

हम पूर्व में ही लिख चुके हैं कि सुरूर निराशापूर्ण भावनाओं के चितेरे थे इसलिए उन्होंने अधिकांशतः उन्हीं विषयों पर कलम उठाई है जो हृदय में व्यथा और जलन की भावनाएँ भर सकें। उनकी कोई भी कविता इस भावना से खाली नहीं है। यह हमारा सौभाग्य है कि देश को भी इस नैराश्य भावना का पर्याप्त अंश प्राप्त हुआ है। ‘खाके वतन’, ‘उरूसे हुब्बे वतन’, ‘हसरते वतन’, ‘मादरे हिन्द’, ‘यादे वतन’- ये सभी इसी राष्ट्रीय रंग में डूबी हुई कविताएँ हैं। ‘मादरे हिन्द’ में सम्भवतः बंकिम के सुप्रसिद्ध राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम’ का अनुकरण किया गया है लेकिन कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो बाह्य रूप में तो प्रेमपरक प्रतीत होती हैं मगर वास्तव में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत हैं। ‘गुलो बुलबुल का फसाना’ में कहते हैं-

चमन में नहीं यादगारे चमन कुछ

परेशाँ ज़मीं पर हैं ख़ारे चमन कुछ

यहीं मेरी सय्याद तुर्बत बनाना

यहीं मेरी मिट्टी ठिकाने लगाना

इस कविता का एक-एक शेर हृदय में सुईयाँ चुभाता है। ‘शमा-ए-अंजुमन’ में कहते हैं -

रातों को जिस तरह तू जलती है अंजुमन में

जलता हूँ मैं भी यूँ ही सोज़े ग़मे वतन में

हृदय राष्ट्रीय व्यथा से व्याकुल है। जब अवसर पाता है अपनी व्यथा-कथा सुना जाता है। राष्ट्रीय कविताओं के पश्चात् ऐतिहासिक और धार्मिक कविताओं का स्थान है और इस रंग में भी जो कुछ कहा है वह व्यथा की भावनाओं से परिपूर्ण है। ‘पद्मिनी’, ‘पद्मिनी की चिता’, ‘सीताजी की गिरिया व जारी’, ‘महाराजा दशरथ की बेकरारी’, ‘जमना’, ‘गंगा’, ‘प्रयाग का संगम’, ‘सती’, ‘नूरजहाँ का मजार’, ‘हसरते दीदार’ - ये सभी इसी श्रेणी में है। नल और दमयन्ती की करुण कथा पर दो अत्यन्त कारुणिक कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं के शीर्षकों से शायर की मनोदशा स्पष्ट परिलक्षित होती है। शायर हर्ष और अभिलाषा की भावनाओं से परिचित नहीं है, उसे तो प्रकृति ने नैराश्य गीत गाने के लिए उत्पन्न किया है और इसी भावभूमि में उसका मन कुलाचें भरता है, इसी क्षेत्र में उसका चिन्तन-सागर अपने मोती लुटाता है। उसका हृदय तो अगरु है जिसमें जलने से ही सुगन्ध आती है। जमना और गंगा पर दो उत्कृष्ट कविताएँ लिखी हैं जो वर्णना शक्ति, वैचारिक सौन्दर्य और भावनात्मक गाम्भीर्य की दृष्टि से उर्दू काव्य संसार में प्रथम स्थान की अधिकारी हैं। इन दोनों पवित्र नदियों में हिन्दुओं की जो धार्मिक आस्था है उसे अभिव्यक्त करने में शायर कला के चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता है। ‘गंगाजी’ देखिए -

वो दिन भी होगा जब हम होंगे ग़रीक़े रहमत

और तेरी नज़्र होंगी ये हड्डियाँ हमारी

गंगा में फेंक आना बादे फ़ना उठा कर

बरबाद हो न मिट्टी ओ आस्माँ हमारी

एक छंद और देखिए -

आई अजल की ज़द पर जब अपनी उम्रे फ़ानी

और ख़त्म रफ़्ता रफ़्ता हो सैले ज़िन्दगानी

दुनिया से आह जब हो अपने सफ़र का सामाँ

बालीं पे अक़्रबा हों सरगर्म नौहाख़्वानी

जब होंट ख़ुश्क हों और दुश्वार हो तनफ़्फ़ुस

अहबाब अपने मुँह में टपकाएँ तेरा पानी

हँसते हुए जहाँ से हम शादकाम जाएँ

दुनिया से पी के तेरी उल्फ़त का जाम जाएँ

‘जमना’ में ऐतिहासिक तथ्यों को काव्यात्मक भावनाओं के साथ इस सूक्ष्मता से मिलाया है जो किसी रसविहीन से भी अपनी कला की प्रशंसा करा सकता है -

ये वो जमना है कि राधा सी हसीं ने मुद्दतों

ब्रज की एक पाक दामन नाज़नीं ने मुद्दतों

बंसी वाले की जुदाई में उड़ाई सर पे ख़ाक

अपने अश्कों से किया है दामने साहिल को पाक

अब कहाँ छोटा सा वो राधा का कुंजे ख़ुशगवार

अब कहाँ वह आह मथुरा तेरे फूलों की बहार

अब कहाँ वो बंसीवाले की अदाए जाँनवाज़

अब कहाँ वो आह मुरली की सदाए जाँनवाज़

अब कहाँ वो ख़िल्वते राज़ो नियाज़े हुस्नो इश्क़

बेसदा ज़ेरे ज़मीं है आह साज़े हुस्नो इश्क़

‘लक्ष्मीजी’ और ‘वेद मुकद्दस’ दो धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत कविताएँ हैं। पहली कविता में हिन्दी शब्द इस कौशल से प्रयोग किये हैं कि सहसा प्रशंसा करने का मन होता है -

रुख़े ताबाँ पे बरसता था तेरे नूरे अज़ल

बनके सावन की झड़ी और कभी भादों की भरन

खिड़कियाँ तेरे शिवाले की थीं आँखें अपनी

उन झरोकों से किया करते थे तेरे दर्शन

मगर अब क्या हालत है -

तेरे मंदिर में न बत्ती न दिया है अफ़सोस

आह देवी तेरा सूना है पड़ा सिंघासन

लेकिन यदि सुरूर को उनकी शायरी के चरमोत्कर्ष पर देखना हो तो वे कविताएँ देखिए जिनमें उन्होंने हताशा और व्यथा का राग गाया है, जिनमें बाल्यकाल और यौवनावस्था की स्मृतियाँ ताजा की गई हैं। ‘दीवारे कुहन’, ‘हसरते शबाब’, ‘अंदोहे गुरबत’, ‘मुर्गाने कफस’, ‘यादे तिफ्ली’, ‘गुलो बुलबुल का फसाना’, ‘हसरते दीदार’, ‘मातमे आरजू’, ‘मुर्गो सैयाद’ आदि कविताएँ हताशा के शोकगीतों से कम प्रभावशाली नहीं हैं। ‘गुलो बुलबल का फसाना’ में देखिए कि चमन की क्या दशा है -

वो गुल जो कभी यादगारे चमन थे

वो ग़ुंचे जो आईनादारे चमन थे

हुए सूख कर ख़ारे हसरत चमन में

बरसती है अब उन पे इबरत चमन में

चमन में नहीं यादगारे चमन कुछ

परेशाँ ज़मीं पर हैं ख़ारे चमन कुछ

लेकिन फिर भी चमन से कितना प्यार है कि -

यहीं मेरी सय्याद तुर्बत बनाना

यहीं मेरी मिट्टी ठिकाने लगाना

‘मातमे आरजू’ के दो शेर देखिए -

हाए वो दिल जिसमें उम्मीदों की थी बज़्मे निशात

उसमें है इक आह छोटा सा मज़ारे आरज़ू

हसरते मुर्दा के ग़म में हाए मेरी ग़मगुसार

मर मिटा क्या तो भी शौक़े बेक़रारे आरज़ू

सम्भवतः ‘मुर्गो सैयाद’ सुरूर की सर्वश्रेष्ठ कविता है। हताशा के ऐसे कारुणिक शेर कहे हैं कि पढ़ने से जिगर पर चोट सी लगती है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उर्दू में ऐसी करुणापूर्ण कविता सम्भवतः अन्य किसी ने नहीं लिखी। एकान्त पिंजरे में बैठा हुआ मुर्गा हवा से कहता है। विचारों का खुलापन प्रशंसनीय है -

ऐ नसीमे सुब्ह! ये गह्वारा जुंबाने चमन

हो अगर तेरा गुज़र सूए जवानाने चमन

उनसे कहना मेरी जानिब से बसद इज़हारे शौक़

साथ के खेले हुए हैं वो जो याराने चमन

इक गिरफ़्तारे कफ़स ने है कहा तुमको सलाम

और पूछा है मिज़ाजे सर्द औ रेहाने चमन

फिर ये दुनिया मेरी जानिब से नवेदे जाँफ़िज़ा

सैरे गुलशन हो मुबारक तुमको मुर्ग़ाने चमन

बेचारा मुर्गा स्वयं पिंजरे में बंद है लेकिन चमन के युवाओं को आनन्ददायक प्राणवायु की शुभ सूचना देता है। अपना हृदय हताशा से कुचला हुआ है लेकिन दूसरों की प्रसन्नता देखकर वह कुछ समय के लिए अपनी व्यथा भूल जाता है -

छेड़ती है क्या क़फ़स में हमको ऐ बादे नसीम

इस चमन में हम भी थे परर्वर्दए नाज़े क़दीम

हम कहाँ के ख़ुशनवा थे हम कहाँ के बज़्लासंज

हम पे ऐ सय्याद जो टूटा तेरा क़हरे अज़ीम

हमसफ़ीराने चमन के क्या तग़ाफ़ुल का गिला

जब क़फ़स में फँस गए कैसी रह-ए-रस्मे-क़दीम

दीदे गुल से वास्ता क्या हम असीरों के लिये

सैरे गुलशन हो मुबारक हमसफ़ीरों के लिये

फिर सुनेगा हाए किसके ज़मज़मे सय्याद तू

हम क़फ़स में और हैं नग़्मासरा दो चार दिन

हसरते परवाज़ भी जाती रहेगी ऐ अजल

हम से उड़ लें और मुर्ग़ाने हवा दो चार दिन

फिर कहाँ सय्याद हम और फिर कहाँ कुंजे क़फ़स

आबो दाना है मुक़द्दर में तेरा दो चार दिन

घुट के इस ज़िन्दाँ में जाएगा कभी तो दम निकल

और हैं हसरतकशे ज़ौक़े फ़ना दो चार दिन

लेकिन मुर्गे को हाथ से खोकर बहेलिये की क्या दशा होगी, स्वयं मुर्गे के मुँह से सुनिये -

जब बनाएगा हमारा आह छोटा सा मज़ार

चुपके चुपके तू हमारे ग़म में होगा अश्कबार

याद रह रह कर जफ़ाएँ अपनी आएँगी तुझे

और हमारी बेकसी पर रोएगा तू ज़ार ज़ार

इसी कविता में एक ऐसा तड़पाने वाला शेर भी हो गया है जिस पर संकलन के संकलन न्योछावर किए जा सकते हैं -

अपनी मिट्टी है कहाँ की क्या ख़बर बादे सबा

हो परीशाँ देखिए किस-किस जगह मुश्ते ग़ुबार

दो शेर और देखिए -

हम न फँसते किस तरह सय्याद तेरे जाल में

आबो दाना था मुक़द्दर में तेरे घर का लिखा

तेरे मुर्ग़े दस्त परवर हम हैं सय्यादे अज़ल

ख़्वाह हमको ज़िब्ह कर तू ख़्वाह हमको कर रिहा

हाफिज का मक्ता किस कौशल से चिपकाया है -

सुन न आँ मुर्ग़म के नालम अज़ जफ़ाए तेग़ तू

ज़िब्हकुन सय्याद बा क़ुर्बां अदाए तेग़ तू

सुरूर साहब का अंग्रेजी ज्ञान सीमित था लेकिन अंग्रेजी भावभूमि को वे जिस कौशल से काव्यबद्ध कर देते थे, वह वर्तमान शायरों में कदाचित् किसी को उपलब्ध नहीं है। इन दोनों संकलनों में लगभग 20 कविताएँ इसी प्रकार की हैं। कहीं कविताओं का अनुवाद कर दिया है, कहीं मात्र विचार लेकर कविता का रूप दे दिया है। ‘मुर्गाबी’, ‘तराना-ए-ख्वाब’, ‘बच्चा और हिलाल’, ‘मुताल्ला-ए-कुतुब’, ‘कारजारे हस्ती’, ‘उम्मीद और तिफ्ली’, ‘मौसमे सर्मा का आखिरी गुलाब’ अपनी शैली की अच्छी कविताएँ हैं। इनके विषय में यह कहना ही पर्याप्त है कि इनमें लेखन तथा कथन का सौन्दर्य और स्पष्टता विद्यमान है। और अनुवाद की कभी इससे अधिक प्रशंसा नहीं की जा सकती।

‘तराना-ए-ख्वाब’ देखिए। मोमिन का सा प्रवाह और कोमलता विद्यमान है -

सो गए ऐ दिल दुनिया वाले

अब तो ज़रा आँखें झपका ले

दरिया की खामोश हैं लहरें

नींद से हमआग़ोश हैं लहरें

‘मुताल्ला-ए-कुतुब’ में शाब्दिक सौन्दर्य दृष्टव्य है -

तुम ग़िज़ा-ए-रूह हो तुम सैक़ले अख़्लाक़ हो

सफ़हा-ए-दानिश पे गोया जद्वले अख़्लाक़ हो

हो दबिस्ताने ख़मोशी में अदब आमोज़ तुम

और ग़मे आलाम में हो मूनिसे दिलसोज़ तुम

इन कतिपय उदाहरणों से स्पष्ट है कि उन्हें अनुवाद पर कितना अधिकार और अभ्यास था। इसी शैली में ‘कोयल’ और ‘बीर बहूटी’ - दो मौलिक कविताएँ लिखी हैं। काव्यात्मक क्षमता हताशा से हटकर शब्दाडम्बर और ऊँची उड़ान में लय हो गई है। विषय वर्णन में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। सुरूर ने कोई कसीदा नहीं लिखा लेकिन इस कविता ने सिद्ध कर दिया है कि यदि वे कसीदा-लेखन के क्षेत्र में आते तो उत्कृष्ट कसीदे कहते -

बर्क़े आलम सोज़ की नन्हीं सी हैकल है कोई

आतिशे याक़ूत की छोटी सी मुन्क़ल है कोई

या शफ़क़ का कोई टुकड़ा है ज़मीं पर जल्वागर

जामे ज़र्री में है या सहबा-ए-अह्मर जल्वागर

सुरूर साहब ने नैतिकता और शिष्टाचार पर कलम नहीं उठाई। वे मद्यप थे, पीरे मुगाँ 1 के द्वार पर नतमस्तक होने वाले। वे सौन्दर्य-प्रेमी थे, इच्छाओं को मन में पालने वाले। ऐसा व्यक्ति हितोपदेश का प्रेमी कैसे हो सकता था। प्रकृति ने उन्हें भावनाओं को लिपिबद्ध करने के लिए उत्पन्न किया था, धर्मोपदेशक बनने के लिए नहीं। फिर भी उन्होंने कम से कम तीन ऐसी कविताएँ लिखी हैं जिन पर नैतिकतापूर्ण होना चरितार्थ होता है। ‘जने खुशखू’, ‘बेसबाती-ए-दुनिया’ और ‘आवा-ए-शर्म’। यद्यपि इस मार्ग से वे नितान्त अपरिचित हैं फिर भी वह सुरुचिपूर्ण वर्णना शक्ति जो उनका विशेष गुण थी, यहाँ भी अपनी चमक दिखा गई है। ‘जने खुशखू’ एक लम्बी कविता है जिसमें 22 छन्द हैं। यहाँ वे सदुपदेशक बने हैं लेकिन दयावान; और नम्र स्वभाव वाला विषय रूखा है मगर वर्णन के सौन्दर्य से सुसज्जित। ‘जने खुशखू’ में कहते हैं –

1. मदिरालय का बूढ़ा प्रबन्धक।

फ़र्ज़ाना है ज़ीरक है अक़ीला है निको होश

कम गो है मुअद्दब है रज़ा जू है वफ़ा कोश

हर्फ़े सुख़न ख़ूब है गाहे गहे ख़ामोश

आरामे जिगर, राहते जाँ, ज़ीनते आग़ोश

हुस्न जिसमें नहीं है कि वफाएँ नहीं इसमें

हाँ, कौन सी पाकीज़ा अदाएँ नहीं इसमें

सुरूर साहब ने आश्चर्यजनक प्रत्युत्पन्न मति पाई थी। विचार में विषय आया और मन चिन्तन का आनन्द लेने लगा। वे जिन दिनों कानपुर में थे उस समय क्राइस्टचर्च कालेज के छात्रों ने विदेश जा रहे प्रोफेसर क्रास्थवेट को एक विदाई गीत प्रस्तुत करने का निश्चय किया। तीसरे पहर के समय कुछ छात्रों ने आकर सुरूर साहब से एक ऐसी कविता की माँग की जो समयानुकूल हो। समय अत्यल्प था लेकिन दो घंटे के चिन्तन में ही सुरूर ने दस छन्दों की एक ऐसी आकर्षक कविता लिख दी जिसके एक-एक छन्द से वह श्रद्धा टपकती है जो प्रतिष्ठित प्रोफेसर के किसी निष्ठावान शिष्य के मन में उत्पन्न हो सकती हो।

लेकिन खेद! अब उर्दू के उद्यान में इस सुन्दर पक्षी की चहक सुनाई नहीं देगी। वह बुलबुल जो स्वतंत्र रहकर भी बहेलिये के बन्धन की कामना में घुलता रहा, जिसकी व्यथा-कथा में मनमोहक गीत का आकर्षण और नैराश्य गीत में प्रसन्नता का आनन्द था, वह शोक-मदिरा का दीवाना, कामनाओं की मदिरा का मूर्त रूप, वह हताशा की मूर्ति; खेद है वह प्रसन्नचित्त शायर अब इस संसार में नहीं रहा। उर्दू की सभा में उसका स्थान रिक्त हो गया और दीर्घकाल तक रिक्त रहेगा। उसकी कविता कहती है कि मैं क्या कुछ हो सकती थी लेकिन निर्दयी मृत्यु ने नहीं होने दिया। वह अधखिला फूल था, जैसे ही उस पर अभिलषित दृष्टियाँ पड़ने लगीं, जैसे ही बहुत बेचैन लोग उसकी बलाएँ लेने लगे, ठीक उसी समय वह विषैली हवा का एक झोंका खाकर मुरझा गया और सूखकर धरती पर गिर गया। अब उसकी स्मृति में कुछ व्याकुल पृष्ठ शेष हैं जो हताशा की भाषा में बता रहे हैं कि हम क्या होने वाले थे लेकिन हो नहीं पाए।

सुरूर! हमने जीवित रहते तुम्हारा सम्मान नहीं किया लेकिन अब जबकि तुम हमें वियोग का संताप देकर चले गए हो, हमें तुम्हारी याद आती है। तुम्हें हाथों से खोकर अब हम तुम्हारा सम्मान कर रहे हैं। यदि तुमने संसार के किसी अन्य देश में जन्म लिया होता तो आज तुम्हारी समाधि पर हीरे-मोती न्योछावर किए जाते, तुम्हारे स्मारक बनते, लोग तुम्हारे नाम पर जान छिड़कते। लेकिन यद्यपि हम इस योग्य नहीं हैं कि तुम्हारी समाधि पर हीरे-मोती न्योछावर कर सकें, यद्यपि हममें तुम्हारा स्मारक बनाने की योग्यता और पात्रता नहीं है, तथापि तुम्हारे नाम पर जान छिड़कने वालों की संख्या कम नहीं है। यद्यपि तुम्हारी सभा निर्जन हो गई लेकिन तुम्हारा वह खुमखाना अभी शेष है जो मस्ती और प्यार का एक अनित्य निर्झर है। परमात्मा से हमारी प्रार्थना है कि हम दीर्घकाल तक इस जामे सुरूर से मदमस्त और छलकते रहें।