कला, अहम् और विसर्जन / राजेन्द्र यादव
मैंने कैमरे को दो-तीन बार जोर से हवा से हिलाया और सारी शक्ति से उन लपलपाती लपटों में फेंक दिया। फिर सब कुछ भूलकर उस आग की ओर दौड़ा।
दस वर्ष पहले की बात है!
पिता जी की मूर्ति मेरी आंखों के आगे झलमलाती है-‘हमारी हैसियत इतनी नहीं है कि कैमरा लें, फिर फिल्म इत्यादि पर भी रुपया पानी की तरह बहा सकें। शौक हमने भी किए हैं, पर ऐसे घर-बिगाड़ू शौक हमने नहीं किए। इसमें सिवा खर्चे के कुछ और है ही नहीं। तुम आखिर समझदार हो, तुमसे मुझे बहुत-सी आशाएं हैं, लेकिन इस प्रकार फिज़ूलखर्ची करोगे, यह बात मैं सोच भी नहीं सकता।’ मित्रों का स्वर सुनाई देता है-‘‘भई, कैमरा चीज तो अच्छी है, ‘पिकनिक’ में गए, ले गए, अपना कोई ‘आइटम’ (कार्यक्रम) हुआ, कोई क्षण अमर करने योग्य हुए, ‘स्नैप’ दे मारा और जब तुम्हारा लेने का विचार ही है, तो कुछ अच्छा लो, ‘लैंस’ कुछ शक्तिशाली हो। ये ‘बॉक्स-वॉक्स’ तो लेना मत। लेकिन एक बात फिर भी हम कहेंगे, ये फोटोग्राफी है बड़ी ‘एक्सपैंसिव हॉबी’ (खर्चीला शौक), रुपया यों ही जाता है, पानी की तरह!’’ और मुझे अपनी अवस्था याद आती है। कैमरा लेने की बात मेरे मस्तिष्क में आई थी, सो मैं रात-दिन उसी के स्वप्न देखता! एक मूर्ति हृदय में उठ रही है। हमारे घर एक विवाह हुआ, दूर के एक भाई आए उन्हें देखा-कैसे भी स्थान पर यों ही फोटो ले लेते, कि मैं आश्चर्यचकित रह जाता। प्रकाश का कितना सूक्ष्म अध्ययन उन्होंने कर लिया है कि देखकर मैं मन-ही-मन उनके आगे श्रद्धावनत हो जाता। बस, तभी से यह बात मस्तिष्क में बैठ गई कि इस नश्वर जीवन की सार्थकता तब तक न होगी, जब तक मैं भी अपनी खींची हुई फोटुओं से एक ऐसा ही ‘एलबम’ न तैयार कर लूं। कैमरा, फोटो, ‘एलबम’-इन तीन बातों के अतिरिक्त किसी और बात को सोचने को मैं तैयार न था।
वे क्षण भी मेरी आंखों के सामने हैं, जब अपनी दो-तीन वर्षों की जमा-पूंजी जोड़कर मैं बावजूद सारे विरोधों के चुपचाप ‘फोर पाइंट फाइव’ का जर्मन कैमरा, ‘अग्फा बिली रैकर्ड’ (कैमरे का नाम) ले आया। उसे प्रयुक्त करने की सारी विधियां मैंने दुकानदार से सीखीं। दो रुपये सात आने की ‘फिल्म’ भी उसमें चढ़वाई, क्योंकि यह सब कुछ मैं नहीं जानता था। अन्य सारी विशेषताएं जानकर उस दिन मैं हवा के पंखों पर तैरता कब घर चला आया, मुझे नहीं पता। उस दिन आते समय लगा, जैसे बाजार के सारे आदमी मुझे ही देख रहे हों। इसे पौने तीन सौ का लाया हूं; फोर पाइंट फाइव है!
आज अपने उस बच्चों-जैसे रूप पर मेरा मन बेतहाशा हंस पड़ने को होता है, जब मैंने घर के सभी आदमियों की विभिन्न ‘कलापूर्ण’ मुद्राओं में खड़ा करके फोटो ली। प्रत्येक बार शटर दबाने के पश्चात् मैं अंधेरे में जाकर फिल्म बदलता कि कहीं व्यर्थ ही असावधानी से एक फिल्म खराब न हो जाए। कैमरे को प्रत्येक बार झाड़-पोंछकर रखता और झाड़-पोंछकर निकालता। जब फोटो खींचनी होती तो बड़े अंदाज से खड़ा होता। ‘डाइफ्राम’ (लेंस का छेद छोटा-बड़ा करने) वाले पहिए को किसी भी नंबर पर कर देता और ‘एक्सपोजर’ (समय) वाले को भी। फिर कैमरा रखकर फीते से ठीक दूरी इंचों में नापता। काले रूमाल में बांधकर फोटोग्राफर की दुकान पर ‘डैवलप’ (धुलने) के लिए देने गया। उसने बताया कि आठ आना ‘डेवलपिंग’ के होंगे, फिर तीन आना हर प्रिंट के। मैंने कहा, आप धोइए तो। वह दिन मेरा कैसे कटा, मैं ही जानता हूं। मुझे विश्वास था कि इसमें चार तो ऐसे आए होंगे, कि मेरे उक्त भाई साहब लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं ले सकते। मैंने लिए तो बड़ी सावधानी से हैं। दिमाग में रह-रहकर फोटो घुमतीं, रात भर मैं सो नहीं सका। कैमरे को न जाने कितनी बार खोला, शटर को दबाया, लगता, जैसे न जाने दिन क्यों नहीं निकल रहा। दूसरे दिन जब सुबह ही दुकान पर पहुंचा तो मुझे देखते ही बोला, ‘अरे, तुमने उसमें क्या कर दिया था? किस तरह एक्सपोजर किए थे? फिल्म तो बिल्कुल खराब हो गई है।’ फिर तो उसने मुझसे सैकड़ों प्रश्न कर मारे, ‘‘लैंस ऐपर्चर’ क्या था? एक्सपोजर कितना दिया था? फोकस तो ठीक मिला लिया था न? समय क्या था? रोशनी कितनी और किधर से आ रही थी? तुम अपने विषय से ऊपर खड़े थे या नीचे? ‘व्यू फाइंडर’ में अच्छी तरह देख भी लिया था?’’ इन शब्दों से मेरा अभी तक परिचय भी नहीं हुआ था। उसने सलाह दी, ‘प्रिंट’ कराना व्यर्थ है। लेकिन मैंने कहा, तुम करो तो। उस बार ‘रिजल्ट्स’ कागज के काले-सफेद चिकने टुकड़े रहे! उसने परामर्श दिया-अभी पांच-छह फिल्म आप ‘लैंडस्केप्स’ लीजिए, ‘पोट्रेट’ बहुत मुश्किल है, फोटोग्राफी में। और निकलते-छुपते हुए सूरज का समय इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। सूरज या रोशनी हमेशा अपने बगल में रखिए!’
और हंसी आती है, उस मूर्खता पर जब बीस-पचीस रुपये खर्च करके मेरे पल्ले उल्टे-सीधे पांच-छह ही (कलापूर्ण की तो बात ही क्या है) चित्र पड़े। तब जिस प्रकार भगवान बुद्ध को बोध हुआ, यह तथ्य उज्जवल प्रकाश की तरह मेरे भी सामने स्पष्ट होने लगा, ‘कैमरा’ वास्तव में ‘एक्सपैंसिव हॉबी’ है। दो रुपये सात आने की एक फिल्म, आठ आने धुलाई, फिर तीन आने की ‘प्रिंट’ के हिसाब से डेढ़ रुपया। इस प्रकार एक बार फोटो खींचने में साढ़े चार रुपये का खून है। ऐसी बात नहीं है कि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान’ पर मैं विश्वास न करता होऊं, पर रुपया पानी की तरह बहाना पड़ेगा और मुझे पिताजी के वाक्य याद आ गए।
अब यह एक नई चिंता मुझे लगी कि कौन-सी तरकीब है, जिससे पैसे जमा करके फोटो खींचे जा सकें।
फिर भी नित्य की आवश्यकताओं में से पैसे काटकर मैं फिल्म लाता। काले धब्बों की जगह अब उसमें कुछ आकृतियां चमकने लगी थीं।
तुमने कभी किसी शिकारी को देखा है? बंदूक हाथ में लिए जंगल, मैदान, घाटी, रेत, ऊबड़-खाबड़ और समतल में एक वहशी मूर्ति अजब दीवानेपन से घूमा करती है-किसी धुन में मस्त, किसी विचार में लीन-ऐसे व्यक्तित्व से तुम परिचित हो या न हो, पर मेरी आंखों के आगे एक मूर्ति ठीक उसी अंदाज से झूल रही है। कंधे पर कैमरे का ‘केस’ लटकाए, बिखरे बाल, हाथ में कैमरा। कभी-कभी कहीं रुककर एकाध ‘स्नैपशॉट’ ले लेता। सुबह से नदी, तालाब, गड्ढे और न जाने कहां-कहां घूमकर अब वह दोपहर को लौट रहा है। माथे पर हल्के स्वेदकण हैं और चेहरे पर मस्ती। हाथ में कैमरा है और मस्तिष्क में फोटो-भूत और भविष्य के रोमांटिक फोटो।
जंगल में ही बने हुए एक अहाते को पार करके अब वह एक छोटी किंतु सुंदर आधुनिक कोठी के सामने आ गया है। कोठी का बरामदा चढ़कर कमरे के पर्दे लापरवाही से एक ओर करता हुआ वह भीतर चला जाता है। ‘क्रेप’ के जूते पहने होने के कारण किसी प्रकार का शब्द नहीं होता।
‘‘अरे जीजी, तुम बैठी लिख ही रही हो?’’ बांस की एक सुंदर-सी कुर्सी पर वह निश्चिंतता से बैठ जाता है। पास ही एक मेज है छोटी-सी, उस पर कुछ पुस्तकें, एक कॉपी खुली रखी है। उसी के सामने रखी बैंत की एक कुर्सी पर एक युवती सफेद सादी धोती पहने तन्मय होकर उस पर कुछ लिख रही है। गोरी कलाई में केवल दो सोने की चूड़ियां-कलम सरकती है, जैसे लहरों पर तैर रही हो!
युवती चौंककर केवल एक बार उसे देख लेती है, फिर सिर झुकाए ही लिखते हुए कहती है, ‘‘तेरी राह देखते-देखते वे तो चले गए। अब हाथ-मुंह धोके आ, जल्दी-जोर से भूख लगी है, देख पौने दो बजे हैं।’’
‘‘अरे, जीजी, मुंह-वुंह पीछे; तुम खाना मंगाओ-नीला, ओ नीला, खाना ले आओ। हां, तो जीजी, ऐसे स्नैप लिए हैं कि तुम बस देखती रह जाओ-एक तो उसमें सचमुच गजब का है, धुल जाने दो। तुम क्या लिखती रहती हो, कहानी-वहानी-ये काल्पनिक निर्जीव वर्णन।’’ बड़े आराम से सारे शरीर को कुर्सी के पिछले हिस्से पर ढीला छोड़कर वह कहता जाता है।
‘‘क्या-क्या बक रहा है, तू अकेला-ही-अकेला!’’ युवती मुस्कराती दृष्टि से कलम का पिछला भाग दातों पर धीरे-धीरे ठोकती हुई, अन्यमनस्क-सी उसकी आंखों में देखती है।
‘‘कह मैं यह रहा हूं कि तुम क्या कहानी-वहानी जैसी निर्जीव काल्पनिक बातों में लगी रहती हो। अरे, देखो, लाख प्रयत्न करने पर भी तुम जो चित्रित नहीं कर सकती, वह एक ‘स्नैप’ में आता है।’’
नौकरानी नीला खाना ले आई है। मेज की चीजें इधर-उधर सरकाकर युवक थाली मेज पर रख लेता है-एकदम टूट पड़ता है, बड़े-बड़े ग्रास मुंह में रखते हुए वह उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है।
‘‘अरे, हाथ तो धो लेता गंदे...मेरी समझ में नहीं आता कि तू कह क्या रहा है, किस दृष्टि से कहानी और फोटोग्राफी की तुलना कर रहा है?’’ ग्रास मुंह मे रखती हुई युवती पूछती है।
‘‘लाख नई होते हुए भी आज यह बात सर्वमान्य है कि फोटोग्राफी एक स्वतंत्र कला हो गई है और इसका विकास भी स्वतंत्र रूप से ही होता है। जिस प्रकार से अन्य कलाओं में साधना की, अपने को भूल जाने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार इसमें भी। किंतु यथार्थ की जिस भूमि पर यह कला खड़ी है, कहानी कला ही नहीं-मैं कह सकता हूं और कोई कला नहीं। आप प्रयत्न करने पर भी जिस बात को अभिव्यक्त-मूर्त नहीं कर पाएंगे, मैं एक इशारे से कह दूंगा।’’ वह बहस करने के ‘मूड’ में है।
‘‘ठीक है, किंतु पहले तुम कला शब्द का अर्थ समझो। कला का अर्थ है सुंदर ढंग-अपनी भावनाओं को तुम सुंदर ढंग से किसी भी प्रकार से रखो, सब कला है-इस दृष्टि से फोटोग्राफी कला है ही नहीं, क्योंकि कला शब्द की व्याख्या करते हुए किसी ने कहा है, ‘प्रकृति या यथार्थ में जो कुछ भी मनुष्य अपनी ओर से जोड़ता है, कला है।’ फोटोग्राफी में न तो रखने के ढंग की बात आती है, न अपना कुछ जोड़ने की-वह तो अनुकृति है, मात्र बिंब। लेकिन मैं मान लेती हूं वह एक कला है और प्रायः यही विवेक या चुनने की प्रतिभा कला का मूल है। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता, दो कलाओं को ऊंच-नीच के कठघरों में तुमने कैसे बैठा दिया है?’’ वह युवती बड़ी गंभीरता और उत्तरदायित्वपूर्ण शब्दों में बोल रही है-शब्द आज भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं।
‘‘जीजी, कला का उद्देश्य प्रभावोत्पादकता है-इस दृष्टि से मैं कह रहा हूं। तुम न जाने कौन-सी गूढ़-गंभीर बाते कर रही हो।’’ युवक कुछ सोच रहा है।
‘‘ठीक है, तुम फोटो में एक भाव को, एक दृश्य को बद्ध करते हो, लेकिन उसे जरा भी आगे ले चलने की सामर्थ्य तो तुममें नहीं है-कहानी में प्रभावोत्पादकता है, फिर गत्यात्मकता है। चित्र तुम्हारे नेत्रों द्वारा बोधवृत्ति को जगा भर देता है। किंतु कहानी तुम्हारी जगी हुई कल्पना द्वारा हृदयंगम होकर तुम्हारी रागात्मिकता वृत्ति-भावनाओं को स्पंदित करती है-यही कर्म की जड़ है और इस प्रक्रिया का कारण है उसकी गत्यात्मकता, जो फोटो में नहीं है।’’
युवती चुपचाप खा रही है। विजय की आभा उसके मुख पर आलोकित हो रही है।
युवक चुप होकर गिलास से पानी पीता है, किंतु पराजय का अवसाद उसकी मुद्रा से तनिक भी व्यंजित नहीं होता। कुछ सोचकर कहता है, ‘‘एक चित्र में गत्यात्मकता न भी हो, किंतु फिल्मों में तुम्हें यह भी मिलती है।’’
‘‘वहां कथा है।’’ बड़ी सरलता से युवती ने कहा।
‘‘तो, यों तो प्रत्येक चित्र की भी एक कथा है।’’ और वह स्व्यं हंस पड़ता है। दोनों थोड़ी देर चुपचाप खाना खाते रहते हैं।
‘‘सुधीर, वास्तव में तेरे फोटो मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। तूने प्रकाश का आश्चर्यजनक अध्ययन कर लिया है, कभी-कभी तो जी होता है कि देखती ही चली जाऊं। तू इसे कला मानता है, इसकी साधना करता है, फिर भी तू मूर्ख है।’’ जीजी की बातों में तनिक भी व्यंग्य नहीं है।
‘‘क्यों?’’ सुधीर चौंकता है। वह सुधीर मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
‘‘अब तू मेरे पास है, यहां से जाते ही ट्यूशन करेगा। इधर-उधर कुछ-न-कुछ करेगा-अखबारों में भेजेगा, फिर फिल्म लाकर यों जंगल-खाड़ी घूमेगा। यह भावुकता क्यों?’’
‘‘भावुकता क्या? जीजी, मैं घरवालों पर व्यर्थ के शौक का बोझ नहीं डालना चाहता।’’ सुधीर कुछ आर्द्र हो आया है।
‘‘भावुकता यह नहीं, भावुकता यह है कि तूने कला और जीवन में इतना भेद क्यों डाल दिया है? फोटो ही लेनी है तुझे, तो मनुष्य से पलायन क्यों? तुमने कला को इतना भीरु क्यों बना दिया है? सुधीर, मेरा कहना मानो, तुम्हें फोटो ही लेनी है तो जीवन की लो, जीवन की उन घटनाओं की जिनमें वह अपने वास्तविक रूप में आया है, जहां जीवन की नग्न यथार्थताएं हैं और मनुष्य उन यथार्थताओं के नीचे विवश है, पिस रहा है, कुछ नहीं कर पाता। वहीं तुम्हें मनुष्य की दुर्दमनीय शक्ति की ओर इंगित करना होगा। वह स्वयं तुम्हारा जीवन भी हो सकता है या तुम्हारे आसपास किसी का भी-तुम्हारे कैमरे में तो सैल्फटाइमर या डिलेड एक्शन भी तो है। तुम कैमरा उठाओगे, तो ऐसे दृश्यों की कमी नहीं दिखाई देगी। इन कृत्रिम सुख के आडंबरों में जीवन नहीं है, न ये कला का लक्ष्य है। यहां तो सभ्यता और संस्कृति के कई स्तरों ने वास्तविक जीवन को ढंक दिया है। तुम ऐतिहासिक भव्य इमारतों-मैं उन्हें खंडहर कहती हूं-को सुरक्षित रखने के नाम पर उनके चित्र लेते हो, लेकिन उससे लाभ? वहां तुम्हारी संस्कृति है, वहां तुम्हारी कला है, यह सब तर्क खोखले हैं-क्या तुम आज भी एक दूसरा ताजमहल खड़ा कर देने के पक्ष में हो? जब हजारों-लाखों मूर्तियां अन्न, वस्त्र, स्थान, युद्ध के संकट में रोज खंडित हो रही हैं, संस्कृति की प्रस्तर मूर्ति को पुनर्प्रतिष्ठापित करने के नाम पर सोमनाथ का समर्थन कर सकते हो? सुधीर, यह दुखीग्रस्त मानवता पर व्यंग्य है, उसकी असहायता का उपहास है!’’ मुझे जीजी की आंखों में आंसू आज भी उमड़ते दिखाई देते हैं! इतने लंबे लेक्चर पर जीजी स्वयं झेंप गई हैं।
सुधीर शीघ्रता से मुंह का ग्रास निगलता है। एक गिलास पानी पीकर उठकर फौरन बड़ी गंभीर मुद्रा में-जैसे संसार की सारी समस्याएं वह आज ही हल कर लेगा-धीरे-धीरे विमनस्थ चाल से बाहर आता है। एक हाथ में गिलास लिए हुए बरामदे में खंभे से लगकर खड़े हुए वह अन्यमनस्क-सा धीरे-धीरे कुल्ला करता है-संसार जैसे उसके आगे तेजी से घूम रहा है। तभी पीछे से जीजी आकर मृदुलता से पीठ पर हाथ रख देती हैं :
‘‘खाना ठीक से नहीं खाया, तूने?’’ मुंह पर मोहिनी मुस्कान-स्निग्ध।
‘‘अरे, नहीं।’’
‘‘मैंने जो कुछ कहा, उस पर सोचना। अब एक बात और है, जीवन का जितना अकृत्रिम रूप तुम जन-जीवन में, जनता में, पा सकते हो; उतना कहीं नहीं -क्योंकि वहां सभ्यता के पर्दे नहीं होते!’’
सुधीर चुप है।
‘‘फोटो, तू बहुत अच्छी खींच लेता है सुधीर, पत्र-पत्रिकाएं कुछ देती भी हैं?’’
‘‘हां, जीजी...’’ बहुत गंभीर अपने में खोया।
रात भर अपनी मसहरी में सुधीर कभी उठकर बैठता है, कभी लेट जाता है, कभी करवट लेता है, कभी चुपचाप आंखें खोल देखता है। ऊपर बल्बों की तरह कुछ शब्द जल-बुझ रहे हैं...भावुकता...कला का लक्ष्य...जीव...अकृत्रिमता...विवशता...नग्न याथार्थ...जन-जीवन...
अब मुझे हाथ जोड़े हुए अपना ही चित्र दिखाई दे रहा है। एक हाथ में अटैची है, कंधे पर कैमरा लटक रहा है, मैं क्षमा की मुद्रा में जीजी से कहता हूं, ‘‘जीजी, आप किसी तरह की बात मत सोचिए; किन्हीं और छुट्टियों में आपके पास आऊंगा, अब सीधे कलकत्ता जा रहा हूं, थोड़ी छुट्टियां और हैं, देखूंगा अकाल में दो-तीन मुट्ठी अन्न पर बिकती हुई मानवता-आपके पास वहां से...’’
उन बातों को आज सात वर्ष हो चुके हैं।
अब कुछ पत्र!
‘‘प्रिय सुधीर,
...उस दिन खाना खाते समय मैंने जो कुछ भी कहा था, तब कैसी एक दैवी प्रेरणा उस समय हो रही थी-मैं आज तक नहीं समझ पाई; किंतु उस समय स्पष्ट लगा था कि किसी महान चिनगारी को मैं कुरेद रही हूं, और स्पष्ट आभास हो रहा था कि अपनी प्रखर ज्वाला-ज्योति से निश्चय ही वह दिग्दिगंत को प्रकाशित कर देगी।
पिछले दो वर्षों से तुम्हारे चित्र ‘जनजीवन’ के मुखपृष्ठ पर देख रही हूं, समय-समय पर उनके विषय में लिखती भी रही हूं-बंगाल के अकाल के विभिन्न दृश्य, मरोड़क्रीत यौवन, विकृत-तुम विश्वास नहीं करोगे, उन चित्रों को देखकर घंटों मैं उनके ऊपर सिर रखकर रोई हूं-कितनी जान है उनमें, कितनी मार्मिक अभिव्यंजना, खेत में हल चलाते किसान, मशीनों में जुटे मजदूर, परोहे डालते माली; बहुत प्रभावशाली चित्र हैं!
लेकिन जिसके लिए मुझे बधाई का यह पत्र लिखना पड़ रहा है, वह है तुम्हारा नवीनतम ‘संघर्ष’ शीर्षक चित्र। जब डेढ़ दर्जन प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं ने भारत का सर्वश्रेष्ठ ‘एमैचर फोटोग्राफर’ घोषित करते हुए छापा है और वर्ष का अकेला फोटोग्राफ होने का फतवा दे दिया है, तो मेरा भी कर्तव्य तुम्हें छोटी-सी बधाई देने का हो जाता है। और इस चित्रमाला में निकले तुम्हारे चित्र हैं भी ऐसे ही प्रभावशाली। मेरा तो मन गद्गद हो आया जब देखा, बाढ़ का फैला हुआ पानी-जिसका कोई ओर-छोर नहीं, बहते हुए पेड़-पौधे, झाड़-झंखाड़ और आधी डूबी-सी एक नौका, जिसमें तीन पुरुष और एक स्त्री है। सभी के मुंह पर चिंता की रेखाएं, मरण का भय! जीवन की क्षीण झलक कितना लाक्षणिक, कितना व्यंजनात्मक! साफ लगता है कि नौका क्षण-क्षण पर डूब रही है। पास ही गली-सी टूटी-फूटी पानी से झांकती झोंपड़ी-या मालूम नहीं, खाली छप्पर ही हो। मैं समझती हूं, बाढ़-पीड़ितों के प्रति सरकार की सैकड़ों अपीलों, हजारों अखबारी वर्णनों से अधिक बढ़कर हृदयस्पर्शी यह चित्र है। हृदय विह्वल हो जाता है। जिस ओर किसी ने नहीं देखा, वहां तुम्हारी दृष्टि गई है और जहां से कोई नहीं देख सकता था, वहां तुमने उसे देखा है!
तो भारत के सर्वश्रेष्ठ ‘फोटोग्राफ’ संघर्ष के लिए मेरा अभिनंदन। तुम्हारी
जीजी...’’
उत्तर!
‘‘जीजी मेरी,
तुम्हारा पत्र मिला। कैसी-कैसी बातें तुम लिखती रहती हो! अरे, अमेरिका से फोटोग्राफी सीख आया हूं, तो क्या हुआ, हूं तो वही सुधीर! मेरी सफलता में से तुम अपने को क्यों निकाल लेती हो? अपनी प्रशंसा से गर्व के मारे मेरी छाती वैसे ही थोड़े तनती है। हृदय में बैठी तुम जब पुलककर फूल उठती हो तो पसलियां स्वतः तन जाती हैं!
लेकिन जीजी, मैंने अपने देशवासियों की मनोवृत्तियां देखीं। शर्म से सिर झुक जाता है। मेरी कला की आज चारों ओर इतनी धूम है-कब?-जब कई विदेशी फोटो-प्रदर्शनियों ने मेरे चित्र सर्वश्रेष्ठ ठहराए। हमारे पास अपने-आपको देखने के लिए न आंखे हैं, न विवेक। विदेशी जब आंखों में उंगली डालकर, ठोकर मारकर बताते हैं तो हम अपने कलाकारों की कद्र सीखते हैं। अब रवींद्र को ही लो। क्या आप समझती हैं, रवींद्र से बड़ा हमारे यहां कोई कलाकर न पैदा हुआ है और न है?-नहीं, मैं नहीं समझता। कमी बस इतनी है कि हमारे पास आंखें नहीं हैं, कान नहीं हैं, और उन बेचारे कलाकारों को धन और राजवंश का कोई टीला नहीं मिल सका, जिस पर चढ़कर वे लोगों को सबसे पहले दिखाई दे पाते; उनके पास कोई बड़ा ‘भोंपू’ नहीं है, जिससे हम केवल उन्हीं का स्वर सुन पाते!
और सब कुछ है जीजी, तब भी हिंदुस्तान में अभी वह समय नहीं कि स्वतंत्र रूप से हम कला की साधना कर सकें। कोरी प्रशंसा से कुछ नहीं होता। तुम्हारा पत्र आया तो एक बार फिर अपने उस ‘संघर्ष’ चित्र को देखा। इस बार तो वास्तव में हद कर दी है लोगों ने प्रशंसा की-मैं स्वयं आश्चर्यान्वित हूं। जिसके जो भी मन में आया, वही लिख मारा है। जीजी, लोग मुझे खरीदना चाहते हैं। जब से अमेरिका से आया हूं, सैकड़ों पत्र आए हैं, बीसियों आते हैं। सिने-फोटोग्राफी का भी मैंने बहुत अध्ययन किया है। लेकन स्वतंत्र रूप से फोटो खींचने में मुझे जो आनंद आता है, वह किसी में नहीं। अब वे लोग पीछे पड़े हैं कि मैं उनके पत्रों में कैमरे का भार संभालूं। लेकिन मन नहीं करता।
अभी दो आदमी गए हैं। एक हैं मिस्टर चड्ढा,-‘बंगला पिक्चर्स लिमिटेड’ के ‘मैनेजिंग डाइरेक्टर’ और दूसरे एक महाराष्ट्रियन सज्जन, नाम था यावल रावलकर जैसा कुछ। कई दिनों से पीछे पड़े हैं, एक ‘स्टंट (रोमांचक) खेल बनाना चाहते हैं; दूसरे सामाजिक, लेकिन ‘बॉक्स ऑफिस हिट’ जिसमें नाच, गीत, प्रेम, वासना, भक्ति, देशभक्ति, गांधीवाद, कम्यूनिज्म, आंधी-तूफान, चांदनी लहरें-सभी कुछ चूं-चूं का मुरब्बा होगा। और यह चड्ढा तो बुरी तरह पीछे पड़ गया। उन महाराष्ट्रियन के जाते ही जैसे घिघियाकर एक हस्ताक्षर की हुई ‘चैक बुक’ सामने रख दी और झूठ क्यों बोलूं जीजी, मैं उस समय डगमगा गया। सोचता रहा, दो-तीन साल अमेरिका में मैंने क्यों आपका और बाबूजी का रुपया और अपना समय नष्ट किया है? उसका कुछ तो उपयोग होना ही चाहिए। और लोग भी तो करते हैं। आपके विषय में तो नहीं कहता, पर बाबूजी ने तो बड़ी-बड़ी आशाओं से रुपया दिया था।
मैंने अपलक ‘चैक-बुक’ की ओर देखा-आखिर हानि ही क्या है? आंखों के आगे आग के गोले नाच उठे! उठकर धीरे-धीरे टहलने लगा। धीरे से किंतु दृढ़ स्वर में कहा- ‘नहीं चड्ढा जी, यह नहीं होगा। मैं अपनी आत्मा को नहीं बेच सकता। मेरा कलाकार, जीवन की नग्न विवशताओं और वास्तविकता में पलकर बड़ा हुआ है-यहां तक आया है; अब मैं उसे ‘स्टंट’ घटनाओं और भाग्यवाद या बॉक्स ऑफिस हिट के पलनों मे झुलाकर अकर्मण्य नहीं बना सकता। यह मेरे कलाकार का ‘अहं’ है, यह देखिए ‘जन-जीवन’ का पत्र है। ‘जनजीवन’ वह पत्र है, जिसमें मेरे चित्र अक्सर निकलते रहते हैं। मैंने उन्हें फिर ‘जनजीवन’ का पत्र सुनाया, आपको भी सुना देता हूं, क्योंकि मैं शीघ्र ही लाहौर जा रहा हूं :
भाई सुधीर जी,
आपके चित्रों को पाकर हम पिछले दो वर्षों से अपने को धन्य मानते रहे हैं। आपके चित्रों में जीवन की विषमता की विवशता के क्षणों की जो मार्मिक व्यंजना है, वह हृदय को मरोड़कर रख देती है। आपके ‘संघर्ष’ चित्र हमारे लाखों पाठकों को पंसद आए-इतने अधिक कि उनके अनुरोध से हमें यह पत्र आपको लिखना पड़ रहा है। आप यह जानते हैं, आपके ‘संघर्ष’ ने बाढ़-पीड़ितों को कितनी सहायता पहुंचाई है। हम यह समझते हैं, यहां स्वांतः सुखाय बहुजन हिताय में पर्यवसित हो गया है। पंजाब भयंकर लपटों में झुलस रहा है-सिसकती मानवता के चित्र हमारे पाठक चाहते हैं। हम दो पत्रों ने प्रबंध किया है। यदि आपकी इच्छा हो तो लौटती डाक से सूचना दीजिए। यहां से लाहौर तक का हवाई जहाज का किराया तथा अन्य पत्र-पुष्प सेवा में भेज दिया जाएगा।
विशेष कृपा,
विनीत -संपादक
पहले तो चड्ढा चुप रहा, फिर बोला-‘कितना मिल जाएगा, अधिक-से-अधिक दो सौ, चार सौ, हजार!’
‘कला का मूल्य मैं रुपये से नहीं, चड्ढा जी, आत्मसंतोष से आंकता हूं।’ मैंने गर्व से सिर उठाकर कहा-सच जीजी, मुझे उस समय ऐसा लगा, जैसे मेरे मुंह से तुम बोल रही हो। ‘लेकिन काम बड़ा रिस्की (जोखिम का) है सुधीर जी!’ वे बड़ी निराशा से बोले, उनसे तो मैंने यह कहकर टाला-‘कला तभी चमकती है।’ लेकिन मेरे मस्तिष्क में यह गूंजता रहा-‘आज मेरा कलाकर ‘स्टंट’ और भाग्य की घटनओं पर नहीं तैरता। ‘जन-जीवन’ की विकट वास्तविकता के साथ चलता है-यही मेरा अहम् है। कलाकार का ‘अहम्’ रुपये से नहीं खरीदा जा सकता।’ उन अंगारों में मानवीयता और भावना के चिन्ह खोजने मैं जाऊंगा।
और जीजी, मैं समझता हूं, बिना जोखिम के कला तृप्त नहीं होती। अब इन संघर्ष के चित्रों को ही लीजिए, इनमें जिस चित्र की आपने प्रशंसा की है वह कम जोखिम में नहीं लिया गया। ये सब एक ऐसे कच्चे मकान की खपरैल पर चढ़कर लिए गए हैं, जहां दो फुट नीचे ही मटमैले पानी के रूप में मृत्यु नाच रही है। मैं प्रत्येक क्षण पर अनुभव कर रहा था कि कच्ची दीवार धसककर गल रही है। ऐसे ही मेरे प्रत्येक चित्र के पीछे एक इतिहास है-इसमें मेरा रक्त है।
और अधिक क्या लिखूं, मैं एक-दो दिन में ही यहां से चल दूंगा, लाहौर जा रहा हूं। पद्रह अगस्त को आप हिंदुस्तान देखिए, मैं पाकिस्तान में रहूंगा। तुम्हारा ही, सुधीर’’
जीजी की गिनी-चुनी पंक्तियों का यह एक और पत्र :
‘‘प्रिय सुधीर, तू नहीं जानता, मुझे तेरे ऊपर कितना गर्व है। तू लाहौर जा रहा है, जहां आग बरस रही है, फिर भी मुझमें इतना साहस नहीं है कि तुझे रोक सकूं। हां, कलाकार का ‘अहम्’ संसार की कठिनाइयों को चुनौती देकर ही तो संतुष्ट रहता है।
हो सके तो वहां नग्मा के यहां ठहरना। अरे वही नग्मा, मेरी सहेली, ‘टेंथ’ में पढ़ती थी। लंबी, पतली, गोरी-सी। विवाह के बाद ही वह लाहौर चली गई थी, वहीं कहीं एक होटल खोल लिया है उसके ‘उन्होंने।’ भूली नहीं होगी। नग्मा की तो तुझे भी याद होगी न। जब उसका भाई उसे हमारे यहां छोड़ जाता था तो तू उसे पहुंचाने में बड़ी आनाकानी करता, लेकिन वह जिद के मारे बीस खुशामद करके तुझे ही लेकर जाती थी। कहना, बड़ी याद आती है जीजी को।
सुधीर, ये क्या हो रहा है देश में? मैं समझ नहीं पाती। शेष, जब तू लाहौर से सकुशल लौट आएगा, तब... तेरी जीजी...’’
और आज अमृतसर के लाखों शरणार्थियों- बेघरवालों से खचाखच भरे इस प्लेटफार्म पर खंभे के सहारे बैठकर जल्दी-जल्दी में संस्मरण के रूप में लाहौर की डायरी लिख चुका हूं। ‘चड्ढा’ रिस्क की बात कहता था। यों हमारे जीवन में ‘रिस्क’ या जोखिम के अतिरिक्त और है ही क्या? आखिर हम बचेंगे कब तक? लेकिन लगता है, जीवित सर्पों के बीच में आया हूं। चारों ओर से चीख-पुकार, दुख-दर्द, हल्ला, जलती हुई कहानियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा। इच्छा होती है, दोनों कानों में उंगली डालकर आंखें बंदकर चुपचाप बैठा रहूं, लेकिन अचेतन में मंडराने वाले वे चित्र? कभी-कभी सोचता हूं, जब यहां ऐसा कत्लेआम मचा हुआ है और सब आंखें बंद करके भाग रहे हैं; जहां जिसको जगह मिल रही है, समा जाना चाहता है; मैंने आकर गलती की है? क्या मात्र अति-भावुकता की ये बातें नहीं हैं?-लेकिन यह जीजी की सहेली नग्मा...
‘‘आ जाऊं?’’ मैंने द्वार की ओर देखा। कुछ कहने से पहले ही वह आ गई; रेशमी इजार, कुर्ता और हल्का उन्नाबी दुपट्टा। रसीली आंखें, सुंदर मुंह बिना किसी झिझक के कुर्सी पर आकर बैठ गई। एक थकी सांस लेकर बोली, ‘‘सुधीर, आदमी अगर अनुभव करे तो दुनिया में बहुत काम है शायद...अब एक और आ गए गुजरांवाला से। एक ब्राह्मण परिवार इसी होटल में आया है इसी तीसरी मंजिल पर तुमसे दो नंबर छोड़कर। ये लोग न जाने क्यों आ-आकर मर रहे हैं? आज क्या है? सोलह अगस्त है न, मैं कहती हूं, लाहौर खुद ही एक दिन में भस्म हुआ...ऐसा प्लान है सुधीर...’’ और एक बड़ी गहरी सांस नग्मा ने ली।
‘‘सभी बचना चाहते हैं, नग्मा जीजी। मैं स्वयं इस समय गावों की हालत देखना चाहता था, पर हिम्मत नहीं पड़ रही। लाहौर को ही सबसे सुरक्षित जगह मानकर यहां पड़ा हूं-खैर, अब यहीं सही।’’ और मैं जैसे कुछ सोचता हुआ मूर्खता से हंस पड़ा।
नग्मा कुछ अन्यमनस्क-सी हो गई। अपलक एकटक न जाने कहां वह देख रही थी, धीरे से बोली, ‘‘रेखा अब कैसी है, शायद भूल-भाल गई होगी...जब साथ पढ़ती थी, तब तो बड़ी बातूनी थी। कुछ कहानी-वहानी भी लिखती थी, अब क्या हाल है?’’
‘‘कौन? जीजी? हां, कहानी वे अब भी लिखती हैं-भूलतीं तो मुझे यहां भेजती ही क्यो?’’ अतीत की लहरों पर डूबते-उतराते इस भव्य कमल को मैं देख रहा था। ‘‘वे भी क्या दिन थे! वे दिन भर होटल के काम में लगे रहते हैं, तो अकेले में पुरानी बातें याद आ जाती हैं, तब मन बड़ा छटपटाता है।’’ नग्मा अतीत से बोल रही थी। मैं चुप था। मुझे वास्तव में कानपुर के वे दिन याद आ गए, जब मैं जीजी को नग्मा के यहां पहुंचाने जाता-वह हमारे यहां घंटों रहती!
‘‘उंह...क्या-क्या बक गई!’’ और अपनी मूर्खता पर जैसे वह स्वयं हंस पड़ी, ‘‘हां, तो उस परिवार में एक प्रौढ़ दंपति है; एक नवयुवती पुत्री है, या पुत्र-वधू, मालूम नहीं, पर इतना मालूम है कि उसका पति मर गया है-उसकी गोदी में एक बच्चा...अरे हां, तुम्हें चाय की बात पूछने आई थी। देखती हूं, काफी जल्दी उठ आते हो!’’ मैं रेखा जीजी और नग्मा में कोई विभेद नहीं कर पाता।
कैमरे में रील डालकर अन्य लैंस इत्यादि लेकर फिर मैं बाहर निकल पड़ा। कर्फ्यू-पास नहीं मिल सका। जो सुविधाएं ‘जनजीवन’ ने मेरे लिए पाकिस्तान सरकार से मांगी थीं-मालूम नहीं उनका क्या हुआ! नग्मा मुझे आने ही नहीं दे रही थी, बड़ी मुश्किल से बीसियों कसमें खाकर आध घंटे में लौट आने का वायदा करके बाहर आ पाया हूं। आज दिल्ली नववधू की तरह सजी-धजी होगी। लेकिन मैं जानता हूं, हाथी के दांतों पर पालिश करने की अपेक्षा हिंसक दानव के खुले रूप को देख लेना अधिक अच्छा है।
उस दिन बांह में गोली की एक खरोंच शरीर पर और कई चोटों के बावजूद अपनी सफलता पर उमगता-सा मैं होटल की ओर चला आ रहा था-दूर से ही हो-हल्ला सुनकर माथा ठनका। पास आने पर चीख-पुकार और भी स्पष्ट हो गई। सड़कों पर सन्नाटा बोल रहा था। एकाघ घबराए व्यक्तियों से पता चला, उस मुहल्ले पर हमला हो गया। अब मैं उस मुहल्ले की सड़कों पर चल रहा था। हमला करने वाले शायद चले गए थे, क्योंकि इधर-उधर सामान फैला-टूटा-फूटा पड़ा था-सड़क के दोनो ओर मकान टूट-फूट गए थे, जल रहे थे। बचपन में पढ़ा लंका-दहन का-सा दृष्य उपस्थित था। कहीं-कहीं धुएं के पहाड़ और नागिन-सी लपटें। सड़क पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर खून, लाशें, शोले।
‘‘सुधीर!’’ तभी किसी ने पुकारा-बड़े जोर से चीखकर! मैं बुरी तरह चौंका। उस समय मेरे भीतर की सारी प्रवृतियां, अंतर्चेतना और संवदेना, दोनों किसी भारी पत्थर के नीचे दबी-सी सोई हुई पड़ी थीं। मैं जैसे काठ की निस्पंद पुतली-सा चला जा रहा था। कानों की श्रवणशक्ति और आंखों की ज्योति जैसे मर चुकी थी। केवल चल रहा था-नाम सुनकर जैसे झटका लगा।
‘‘सुधीर!’’ फिर पुकारा-बड़ी घबराई हुई आवाज, कांपती-सी। मुझे लगा नग्मा है। क्या वह आफत में फंस गई है? पास की गली से आवाज आ रही थी, मैं दौड़ा और मकान की आड़ से निकलते ही जो कुछ देखा, उसे भूल सकूंगा...?
उसी होटल का पिछला हिस्सा था, उसके पास ही छोटा-सा दुमंजिला मकान, अग्नि की भयंकर लपटों में धांय-धांय जल रहा था। नीचे की मंजिल में आग फैली हुई थी। जिधर आग कम थी, उधर दूसरी मंजिल की छत से एक युवती का क्षत-विक्षत घायल नंगा शरीर आधा झांकता दिखाई दे रहा था। एक-दूसरे में बंधी दो धोतियां नीचे तक लटकी हुई थीं। उसे वह ऊपर से कसकर पकड़े थी। उसी लटकी हुई धोती पर बिना दुपट्टे की नग्मा, आधी दूरी तक चढ़ चुकी थी, लपटों से बचती हुई वह इधर-उधर झूलती हुई चढ़ रही थी लेकिन मुझे लगा, एक या दो पल ही जा रहे हैं, वह लटकी हुई धोती आग पकड़ने ही वाली है, क्योंकि पहली मंजिल की बालकनी अब जलने लगी थी। नीचे दो टुकड़े हुई एक वृद्ध की लाश पड़ी थी, और पास ही एक निर्जीव बुढ़िया का शरीर-मालूम नहीं, मरी थी या जीवित।
धुआं, कड़कड़ाहट, चीख-पुकार, लपटें, बस यही, सुनाई दे रहा था...
वहीं लटके हुए...एक हाथ से धोती पकड़कर नग्मा ने मेरी ओर नीचे देखकर कहा, ‘‘सुधीर, वही परिवार है, होटल जल गया है, ऊपर से बच्चे को लाना है। लड़की घायल है-नंगी है, बिना बच्चे के नहीं आएगी।’’ नग्मा घबरा रही थी।
एकदम इतनी सारी बातें देखकर मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था; हठात् विचारशून्य मस्तिष्क में जैसे एकदम एक तीर टकराया। यह मानवता है, जो लपटों में भी अपने स्नेहसिक्त छाया से अपनी जलन की चिंता किए बिना मनुष्य को सांत्वना, सहायता देने जा रही है। और फौरन स्वभाव के अुनसार मेरा हाथ कैमरे पर जा पड़ा...
अरे, लो उस धोती में भी आग लग गई नीचे से-उफ!
मैंने फौरन ‘व्यूफाइंडर में’ फोकस ठीक किया।
तभी ऊपर से जैसे नग्मा क्रोध से चीखी, ‘‘अरे सुधीर-बेवकूफ, ये पीछे करना-मेरी मदद करो इस वक्त!’’
उससे भी ऊपर से जैसे उस त्रस्त युवती का कंठ फूट पड़ा, ‘‘अरे, हमें तो यहां लपटें खाए जा रही हैं, हम मरे जा रहे हैं, तुम्हें हमारी तस्वीर उतारकर संसार से वाहवाही लूटने की चिंता पड़ी है-तुम्हें दिखाई नहीं देता?’’
और मैं ‘धक्’ से रह गया...
मैंने कैमरे को दो-तीन बार हवा में जोर से हिलाया और फिर सारी शक्ति से उन लपलपाती लपटों में फेंक दिया। फिर सब कुछ भूलकर उस आग की ओर दौड़ा।