कला, युद्ध और फ़ासीवाद / वाल्टर बेंजामिन / शशांक दुबे
आधुनिक समाज में सर्वहारा वर्ग का बढ़ना और जनता का बढ़ना, दोनों एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। फासीवाद की कोशिश यही होती है कि जनता जिस संपत्ति ढाँचे को खत्म करने के लिए संघर्ष करती है, उसे बगैर कोई नुकसान पहुँचाते हुए उसी जनता में से नया श्रमजीवी वर्ग खड़ा किया जाए। फासीवाद को जनता के अधिकार दिलाने से नहीं, केवल उन्हें अपने विचार अभिव्यक्त करने का मौका देने से मतलब है। जनता को संपत्ति से नाता बदलने का अधिकार है; फासीवाद संपत्ति सँभालने के लिए उनके सामने सफाई पेश करना चाहता है। राजनीति में सौंदर्यबोधी तत्वों का आगमन इस फासीवाद का ही परिणाम है। एक तरफ जनता की उपेक्षा की जाती है उन्हें घुटने टेकने को विवश किया जाता है, तो दूसरी ओर कर्मकांडी मूल्यों को तय कर उनके उल्लंघन का मसला चलाया जाता है।
इस सौंदर्यबोध राजनीति का अंतिम लक्ष्य एक ही है - युद्ध... युद्ध और केवल युद्ध ही परंपरागत संपत्ति प्रणाली का सम्मान करते हुए एक बड़े स्तर पर जन आंदोलन का लक्ष्य निर्धारित कर सकता है। यह तकनीकी फार्मूला कुछ इस तरह है - केवल युद्ध के द्वारा ही यह संभव है कि वर्तमान सभी तकनीकी संसाधनों को जुटाया जाए और संपत्ति की वर्तमान व्यवस्था भी ज्यों की त्यों बनी रहे। यहाँ इथोपियन उपनिवेशीय युद्ध के घोषणा पत्र में मेरीनेती का विचार देना अप्रासंगिक न होगा -
हम भविष्यवादी लोग सत्ताइस सालों से युद्ध को सौंदर्य विरोधी होने का खिताब देने का विरोध करते रहे हैं... हम तो कहते हैं.... युद्ध सुंदर है, क्योंकि यह गैस मास्क, मेगाफोन, फ्लेम थ्रोवर और छोटे टेंकों जैसी मशीनों पर मानव का प्रभुत्व स्थापित करता है। युद्ध सुंदर है, क्योंकि यह मानव शरीर के ठोस धातु में बदलने के स्वप्न की शुरुआत करता है। युद्ध सुंदर है, क्योंकि यह बंदूक की गोली, गोलाबारी, युद्धविराम, इज व सड़न का सम्मिलित स्वर संगीत है। युद्ध सुंदर है रेखागणित के कोणों से निर्मित उड़ानों की तरह क्योंकि यह नए वास्तुशिल्प रचता है - बड़े टेंकों की तरह जलते गाँवों से सर्पिलाकार ऊपर उठते धुएँ की तरह... और इसी तरह की तमाम चीजें यह रचता है। भविष्यवाद के कवि और कलाकार!... युद्ध सौंदर्यबोध के इन सिद्धांतों को याद रखना ताकि नए साहित्य और नई चित्रकला के प्रति तुम्हारे संघर्ष को उनके द्वारा रोशनी मिल सके।
इस घोषणा-पत्र में साफगोई का गुण है। इस प्रतिपादन को द्वंद्ववाद में मानने वालों द्वारा मंजूर किए जाने की दरकार है। इनके लिए आज के युद्ध का सौंदर्यबोध इस प्रकार है : यदि उत्पादक शक्तियों के स्वाभाविक इस्तेमाल में संपत्ति प्रणाली से बाधा पहुँचती है, तो गति और ऊर्जा संसाधन बढ़ाने में तकनीकी साधनों की वृद्धि एक अस्वाभाविक इस्तेमाल पर जोर देगी और युद्ध में यही होता है। युद्ध से होने वाली तबाही इस बात का सबूत है कि समाज टेक्नॉलॉजी को एक साधन के रूप में स्वीकार करने लायक परिपक्व नहीं हुआ है और टेक्नॉलॉजी समाज की बुनियादी ताकतों के साथ चलने लायक विकसित भी नहीं हुई है। साम्राज्यवादी युद्ध की खौफनाक विशेषताएँ हमारे उत्पादन के विपुल साधनों और उनके अपर्याप्त प्रयोग के बीच की विसंगति को बयान करती है : - दूसरे शब्दों में बेरोजगारी और बाजार की कमी को दर्शाती है। साम्राज्यवादी युद्ध टेक्नॉलॉजी का एक विद्रोही रूप है जो मानवीय पदार्थ के रूप में अपनी खुराक जुटाता है क्योंकि टेक्नॉलॉजी को समाज ने उसका नैसर्गिक पदार्थ मुहैया नहीं कराया है। बाढ़ से भरी नदियों का पानी खाइयों में भेजने के बजाय समाज मनुष्यों की फौज को खाई में धकेल देता है, वह हवाई जहाजों से बीज गिराने की बजाए शहरों पर बम गिराता है और गैस युद्ध कौशल के जरिए एक नई तरह से युगांत होता है।
मेरिनेत्ती स्वीकार करते हैं कि हमारी ऐंद्रिक तुष्टि को टेक्नॉलॉजी ने बदल दिया है और युद्ध इस ऐंद्रिक परितोष के लिए जरूरी सौंदर्यबोध जुटाता है। यह कला का उपभोक्ताकरण है। होमेर के समय में मनुष्य ओलिंपियन देवताओं के चिंतन मनन का एक विषय था, आज वह स्वयं के लिए एक विषय है। इसका अपने आपसे बेगानापन इस हद तक पहुँच गया है कि वह अपने ही विनाश का अनुभव दूसरों की निगाहों से पाए गए कलात्मक आनंद की तरह ले रहा है। ये उस राजनीति की हालात है जिसे फासीवाद सौंदर्यबोध बता रहा है। साम्यवाद इसका प्रत्युत्तर कला के राजनीतिकरण द्वारा दे रहा है।