कल्पतृष्णा/ मुकेश मानस

Gadya Kosh से
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न जाने क्यों ऐसे ही मन कर गया। लगभग पौना घंटा स्टाप पर प्रतीक्षा करने के बाद कालेज से घर को यह सीधी बस मिली थी... तीन-चार सवारियाँ उतारकर प्राइवेट बस प्रेशर हार्न बजाती हुई दौड़ गयी। मैं जहाँ उतरा, वहीं सड़क के किनारे एक बड़ा-सा नीम का पेड़ खड़ा था। मैं उससे सटकर खड़ा हो गया। कई दिनों से एक कहानी का प्लाट दिमाग में घूम रहा था। मैं उसी कहानी के चरित्रों की खोज में उस सड़क पर दौड़ती जिन्दगी में शामिल हो गया। आठ या नौ बजे होंगे। आकाश में दूर-दूर तक अंधेरा छाया था, परन्तु महानगर की इन सड़कों पर क्या मजाल जो अंधेरा क्षण-भर बैठकर सुस्ता भी सके। दिन में जो सड़कें थकी-थकी, बुझी-बुझी, उदास-उदास-सी लगती हैं, रात में वे बल्बों की रोशनी में नहाकर तरो ताज़ा हो उठती हैं। अचानक मन में एक हूक उठी। मैंने भागती भीड़ में से खुद को निकाला और सड़क पार करके सामने की पान की एक दुकान पर पहुँचा। वैसे सिगरेट पीना मेरी आदत नहीं है, पर कभी-कभी जब मूड करता है, पी लेता हूँ एकाध् सिगरेट शौकिया पीता हूँ, ऐसा कह सकते हैं आप। खैर, मैंने उस बक्सेनुमा दुकान से सिगरेट खरीदी, होठों में दबाकर सुलगाई और जोर से एक कश खींचकर अपने ही चेहरे पर धुएं का एक गुबार छोड़ दिया। वापस पेड़ की ओर लौटते हुए मैंने जान-बूझकर एक निगाह वहाँ खड़ी भीड़ पर डाली, यह सोचकर कि शायद मेरी कहानी का पात्र मिल जाये। एकाएक मेरी आंखें भीड़ से हटकर खड़ी, नीली साड़ी में लिपटी, सौंदर्य की अनुपम परिभाषा पर ठहर गयीं और ठहरती ही चली गयीं। कदम मेरे न चाहने पर भी जड़वत हो गए। लाख कोशिश करने पर भी वे न हिले। सिगरेट यूं ही सुलगे जा रही थी। उसका धुआं सड़क पर फैलते जा रहे धुएं में खो रहा था। आखिरकार मुझे रुकना ही पड़ा। मैं वहीं खड़ा कनखियों से उसे देखने लगा। एक बार यूं ही देखते-देखते जब मेरी आंखें उसकी आंखों में ठहर गयीं तो एकाएक कितनी शीतलता अनुभव करने लगा था मैं। उसने भी हौले से मुझे देखा और होंठों पर एक भोली-सी मुसकराहट छोड़ दी। उसकी मुसकान एक आह छोड़ गयी मेरे होंठों पर। मैं बस उसे देखता रहा। मन कहानी का प्लाट दुहरा रहा था। मन पर काबू कर मैं वापस पेड़ से सटकर खड़ा हो गया, सिगरेट का एक कश और मारा और धुंआं छोड़ दिया। मैं सब कुछ ऐसे कर रहा था मानो उसकी उपेक्षा कर रहा होऊँ... मगर ऐसा नहीं था। जब कभी वह इधर-उधर देखती, मैं उसे जल्दी से देख लेता। मेरे भीतर एक युद्ध शुरू हो चुका था। बुद्धिमान दिमाग समझाने लगा - ‘वह तुमसे बहुत बड़ी-सी दिखती है... उसके अध्रों पर जमी लिपस्टिक की तहें बताती हैं कि वह शायद विवाहित भी है। कुछ भी हो, तुम एक पढ़े-लिखे और आदर्शवादी युवक हो। तुम्हारे चरित्र में इतनी गिरावट नहीं आनी चाहिए।’ दिल दिमाग की बात कहाँ मानता है? ‘मैं क्या करूं, सुन्दरता मुझे मोह लेती है। मैं उसके बिना एक पल भी सांस नहीं ले सकता हूँ।’ मैं दिल की तरफ हो गया। एकाएक दिल और दिमाग की यह लड़ाई बीच में ही रुक गई। वह सड़क पार कर मेरी ही तरफ आ रही थी। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। जब तक आंखें उसके चेहरे पर जमाता, वह आकर मेरे साथ ही खड़ी हो गई। मैं दम साधे उसकी तरपफ पेड़ से सटा खड़ा रहा। अब निगाहें सड़क पर भागती दुनिया में उलझने का प्रयास कर रही थीं। मैं अभी भी उसकी उपेक्षा करने की एक बेजान-सी कोशिश कर रहा था। सांसों से नियंत्रण छूटा... दिमाग सुन्न हो गया। लगा, गिर पड़ूंगा जमीन पर। “आपको कहीं देखा है।” उसने कहा। उसकी मीठी आवाज मेरे अन्दर ही कहीं ठहर-सी गयी थी। “मगर कहाँ? याद नहीं आता।“ वह खुद ही दुबारा बोल पड़ी थी। मेरे होंठ सूख गये। मुंह से दो शब्द नहीं निकले। एकाएक उसे न जाने क्या सूझा, उसने पेड़ की ओट में आकर अपना हाथ मेरे उस हाथ पर रख दिया जिसका सहारा ले मैं खड़ा था। ‘पेड़ के आस-पास काफी अंधेरा है। किसी ने कुछ न देखा होगा।’ मैं सोचता रह गया। मैंने घूमकर उसकी ओर देखा। आंखों से आंखें टकराई। उसने मुझे सम्मोहित कर दिया। “अगर आप जल्दी में न हों तो चलिये मेरे घर, एक कप चाय पीकर जाइयेगा।” कितनी शिष्टता थी उसके शब्दों में। मैं तो यही चाहता था। मैं उसके पीछे चल पड़ा। वह सामने के फ्लैट्स में ही रहती थी। जब वह अपने घर का दरवाजा खोलने लगी, तभी उसकी पड़ोसन भीतर से निकली। इससे पहले कि पड़ोसन मेरे बारे में कोई प्रश्न करती... “आरती, ये है अनुपम। मेरे मामा का लड़का... मैंने तुझे बताया था न इसके बारे में...” वह और भी न जाने क्या-क्या कहती गयी मेरे बारे में। एक शब्द नहीं निकला था मेरे मुँह से... मैं तो बस उसे देख रहा था। उसने मुझ पर जादू जो कर दिया था।

उसने मुझे ड्राइंग रूम में बिठाया और ‘अभी आयी’ कहकर चली गयी। थोड़ी देर बाद जब वह चाय लेकर आयी तो मैं उसे देखकर पागल हो उठा। अब वह नीला गाउन पहने थी, जो साड़ी से भी ज्यादा झीना था। सब कुछ देख रहा था उसका मैं - सब कुछ। उसका पूरा-का-पूरा शरीर... सच, कितनी सुन्दर थी वह। मैं अनुमान लगाता रहा। चाय रखकर वह मेरे पास ही बैठ गई और मेरे कंधे पर अपनी ठोड़ी टिका दी। मैं संभल नहीं पाया... चाय मेरी कमीज पर गिरी। मैं परेशान हो उठा, मगर वह लगातार मुस्कुरा रही थी... शायद यही तो चाहती थी वह भी। मुझे बाथरूम का रास्ता दिखाते हुए बोली-“ भीतर कुर्ता टंगा होगा, पहन लेना। वे तो बाहर गये हैं, अभी तीन-चार दिन तक नहीं आयेंगे।” मैं जब कपड़े बदलकर बाहर आया तो न जाने क्यों मुझे लगने लगा कि मैं उसका पति हो गया हूँ। मुझे लगा कि कोई मेरे सिर पर हथौड़े से प्रहार कर रहा है। मैं चिल्लाया नहीं... उसने मुझे देखा और हंसते हुए बोली – “आप तो उनके कपड़ों में बिल्कुल उन-जैसे लगते हैं।” मुझे लगा कि मैं सब कुछ भूल गया हूँ। मेरी स्मृति खो रही है। वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे भीतर ले गयी। एक बड़े-से पलंग पर दो बड़े-बड़े तकिये रखे थे। एक नन्हा-सा शिशु बेखबर सो रहा था। “मेरी लड़की है - अगले महीने एक साल की हो जाएगी।” उसने पलंग की चादर ठीक करते हुए कहा। “अब तो आप कल सुबह ही जाना, मैं आपकी कमीज प्रेस कर दूंगी।” अभी तक जादू उतरा नहीं था... मैं पलंग पर लेट गया। बत्ती बुझाकर वह भी मेरे पास ही आ गई। पूरी रात मैं उसकी इच्छानुसार उसके शरीर से खेलता रहा।

सुबह कोई पांच या छ: बजे जादू टूटा। मैं उठा, कमीज पहनी और दरवाजा खोलकर बाहर निकला। पड़ोसन का दरवाजा खुला, वही निकली। “अरे, बड़ी सुबह ही जा रहे हो?” “हाँ जी, मुझे जरा जल्दी है।” मैंने हड़बड़ाते हुए कहा था और जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ उतर गया।

इस घटना को कई महीने तक मैंने अपने दोस्तों से छिपाये रखा। किसी को बता भी कैसे सकता था। सुनकर वे सब मुझे जाने क्या-क्या कहते। उनके लिए मैं एक आदर्शवादी और चरित्रवान पुरुष था। अगर उन्हें साफ-साफ कह देता तो उनकी आंखों में मेरी क्या इज़्ज़त रह जाती। मैं अकसर जाने क्या-क्या सोचता रहता। जितना ज्यादा सोचता, उतना ही चुप रहता। चुप्पी में सदैव अपनी ही कुछ पंक्तियां कानों में गूंजती रहतीं – “यह जो चुप्पी साध् रहे हो, बोझा मन पर लाद रहे हो...।” हाँ, एक बोझ ही तो था जिसे मैं एक खामोशी के साथ उठाए चला जा रहा था। बहुत दिन चुप रहा... फिर एक दिन मेरी खामोशी, मेरी मूकता ने विद्रोह कर दिया। मैं सोचने लगा - सभी की तरह मुझमें भी सबके जैसा ऐसा कुछ है जिसने मुझे कमजोर किया। मेरे आदर्श जिसके आगे फीके पड़ गए - क्या है वह ऐसा? मैं सोचता रहा, मगर उत्तर न मिला।

आखिरकार मैंने अपने एक पत्रकार दोस्त को सब कुछ कह सुनाया। सुनाते हुए मैं खाली हो गया, मगर मुझे लगा मानो मेरी गांठ खुलकर उसके भीतर कहीं बंध् गई है। वह बोला–“यार, आखिर तूने भी मार ली लिया मोर्चा... अरे, ये आदर्श, सिद्धान्त, मर्यादाएँ - सब आदमी को कमजोर बनाते हैं। जिन्दगी को आजाद रहने दो... उसे फड़फड़ाने दी...¸ वह न जाने क्या-क्या कह गया और अन्त में उसने आखिरी बात भी कह ही दी, अच्छा, यह बता, हमें उस जादूगरनी से कब मिलवा रहा है?”

मैं मन-ही-मन सोच रहा था कि मैंने अपने उस मित्र को जो कुछ सुनाया - काश, वह सच होता। वह बस-स्टाप पर खड़ी थी... किसी का इंतजार कर रही थी... कोई आया और वह उसकी बांहों में बांहें डालकर गलियों में खो गई। वह बहुत सुन्दर थी... उसकी आंखों में जादू था। तभी तो पेड़ से सटा मैं अपनी कहानी के एक पात्र को उस कल्पतृष्णा से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था। 1994